धार्मिकता बनाम तार्किकता
अरविंद
कुछ दिन पहले की बात है, विश्वविद्यालय की एक कक्षा में ऐसे ही बातचीत के दौरान हमारी अध्यापिका ने एक पुस्तक के बारे में बताया जिसका नाम ‘सोल ऑफ्टर डेथ’ है। उनका कहना था कि इसे एक सायकोट्रैट द्वारा लिखा गया है, तथा पराविद्या (भूतविद्या) में वह विश्वास रखती हैं! मृत्यु के बाद आत्मा शरीर से अलग होकर भूतादि के रूप में स्वतन्त्र घूमती है, जब तक उसे दूसरा शरीर नहीं मिल जाता! तुरन्त एक सहपाठी का कहना था कि श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी भूतविद्या, आत्मा, परमात्मा पर बहुत कुछ अच्छा लिखा है! मेरे एक मित्र ने भी बातचीत में प्रवेश करते हुए प्रश्न उठाया कि आत्मा या भूतादि की बेहूदा बातों की बजाय जीव विज्ञान तो अलग ही तरह से जन्म और मृत्यु की कहानी बयाँ करता है कि बच्चा पैदा होने से पहले गर्भ में ही वह जीवितावस्था में होता है और नर के शुक्राणु तथा मादा के अण्डाणु स्वयं पदार्थ के एक जीवित रूप हैं; जीवन और मृत्यु की प्रक्रिया को भी आसानी से समझा जा सकता है। मेरे मित्र का ऐसा बोलना था कि कई और अन्य भी बहस में कूद पड़े किन्तु ऐसा होने पर शिक्षिका महोदया इन सब बातों को छोड़कर पढ़ाई में ध्यान देने के लिए कहने लगीं व बात यहीं ख़त्म हो गई।
थोडे़ ही समय बाद एक दुखद घटना सामने आई जो उसी श्रीराम शर्मा आचार्य के शान्तिकुंज गायत्री पीठ की थी जिसका जिक्र मेरे सहपाठी ने किया था। वहाँ एक भगदड़ के दौरान लगभग 20 लोग (जिसमें महिलाएँ व बच्चे भी शामिल थे) कुचलकर मारे गए। घटना 7 दिसम्बर को उस समय घटित हुई जब शान्तिकुंज आश्रम के संस्थापक श्रीराम शर्मा आचार्य के जन्म शताब्दी समारोह पर पाँच दिवसीय गायत्री महाकुम्भ का आयोजन हो रहा था। यज्ञशाला के अन्दर हवन के दौरान उठे धुएँ से दम घुटना व गेट पर पहले से ही भारी भीड़ होना अफरा-तफरी का तात्कालिक कारण था।
ख़ास बात यह थी कि हादसे के समय हिमाचल प्रदेश के मुख्यमन्त्री प्रेम कुमार धूमल यज्ञ कर रहे थे। भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी, उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बी-सी- खण्डूरी और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित कई आला अधिकारी समारोह में पहुँचने वाले थे। शांतिकुंज के संचालक डा- प्रणव पाण्ड्या ने हादसे की नैतिक जिम्मेदारी तो ली किन्तु साथ ही बड़ी बेशर्मी के साथ इसे एक दैवीय हादसा भी बताया।
यह पहली घटना नहीं थी जब धार्मिक अन्धविश्वास व इन तथाकथित आध्यात्मिक प्रचारकों के पाखण्ड के चलते लोग मौत का शिकार हुए हों। जनवरी 2005 में हिमाचल में नैना देवी मन्दिर में भगदड़ से ही 340 लोग मारे गए। 2008 में राजस्थान के चामुण्डा देवी मन्दिर में भगदड़ से 216 मौतें हुई। जनवरी 2010 में कृपालु महाराज के आश्रम में 63 मौतें हुई। जनवरी 2011 को केरल के सबरीवाला में 104 लोग मारे गए। इन सबके अलावा मुहर्रम व अन्य धार्मिक उत्सवों पर भी मचने वाली भगदड़ों में लोग मौत का शिकार होते हैं। रोजाना पीरों, फकीरों व झाड़फूँक के चक्कर में होने वाली मौतों का तो हिसाब ही नहीं है जो सामने नहीं आ पाती। इस प्रकार की तमाम घटनाएँ यह दर्शाती है कि अन्धविश्वासों से होने वाली मौतें किसी भी तरह से धार्मिक कट्टरता से होने वाली मौतों से कम नहीं हैं। मानव जीवन का इस तरह से समाप्त होना कई प्रश्नों को खड़ा कर देता है।
पहला प्रश्न तो उठता है, प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया पर जहाँ समस्या के मूल कारणों की बजाय तथ्यों को सनसनीखेज़ ढंग से दिखाया भर जाता है। जब विज्ञान ब्रह्माण्ड के मूल की तलाश कर रहा है, क्वांटम जगत, नैनो टक्नौलोजी तथा कृत्रिम जीनोम तक पहुँच चुका है, भौगोलिक विज्ञान, डारविन के द्वारा विकासवाद के सिद्धान्त की खोज तथा कोशिका विकास सिद्धान्त के द्वारा बहुत पहले ही किसी दैवीय सत्ता की मौजूदगी को नकारा जा चुका है, तब भी अखबारों के पन्ने के पन्ने कर्मकाण्डों व देवी-देवताओं के चरित्रें से रंगे जाते हैं। टेलीविजन के कई चैनल तो स्पेशल धार्मिक कर्मकाण्डों के प्रचार व कूपमण्डूकता फैलाने का काम ही करते हैं, कई बार तो समाचार चैनलों तक पर सनसनीखेज़ ढंग से हद दर्जे की अतार्किक व घटिया कार्यकम परोसे जाते हैं। दूसरा सवाल देश के बौद्धिक तबके पर उठता है जो जनता के संसाधनों पर ऐश करता हुआ शिक्षा प्रतिष्ठानों तक पहुँच जाता है। बहुत छोटे हिस्से को छोड़कर बड़ा हिस्सा खाओ-पियो-ऐश करो की उपभोक्तावादी संस्कृति का पैरोकार है तथा एम-फिल, पी-एच-डी- करने के बावजूद बन्दरों और ढोंगियों के आगे नाक रगड़ता फिरता है। होना तो यह चाहिए कि विज्ञान और तर्क को अधिक से अधिक आम जनता तक लेकर जाया जाये। किन्तु यहाँ पढ़े-लिखों के ज्ञान और संवेदनशीलता को देखकर ही अचरज होता है! तीसरा सवाल – जो मुख्य सवाल है- पूँजीवादी शासन व्यवस्था पर उठता है जहाँ धार्मिक मान्यताओं और मिथकों का मूक और खुला समर्थन किया जाता है। संविधान के अनुसार हमारे देश का शासन धर्म निरपेक्ष है किन्तु यहां कई सांसद धार्मिक कार्ड खेलकर वोट बैंक की राजनीति में अपना हाथ न केवल आजमाते हैं बल्कि राजनीति के फासिस्टिकरण में भी पीछे नहीं हैं। पूँजीपतियों, एम-पी-, एम-एल-ए- व नौकरशाहों को एक ही मंच पर बैठकर निजी और सरकारी कोषों से पोंगापंथियों को चन्दे देते हुए आसानी से देखा जा सकता है। वोट बैंक की राजनीति के लिए अतार्किकता के प्रचार में सहयोग दिया जाता है। राज्यों के मुख्यमंत्री धार्मिक कर्मकाण्डों में आहूति देते नज़र आते है। पूँजीवादी शासक वर्ग यह कभी नहीं चाहेगा कि जनता अपनी समस्याओं को सीधे तौर पर देखे व समझे। लिहाज़ा, वह जनता में हर किस्म के ढोंग-पाखण्ड, कूपमण्डूकता और अज्ञान को फैलाने की साजिश करता है। और सांसद और विधायक एक अलग किस्म की अनिश्चितता के शिकार होने के कारण स्वयं भी ढोंगी-पाखण्डी, कूपमण्डूक और अज्ञानी होते हैं!
सुनियोजित ढंग से पुर्नजन्म, कर्मफल, आत्मा-परमात्मा आदि की अवैज्ञानिक, अतार्किक व सड़ी-गली मान्यताओं को जनता के बीच प्रचारित किया जाता है। दूसरी तरफ व्यापक आम आबादी अपनी अज्ञानता तथा पूँजीवादी प्रणाली के सामने अपनी असहायता के कारण अपने दुःख से छुटकारा के लिए आध्यात्मिकता व धार्मिक कर्मकाण्डों के भँवर में फँस जाती है। यही कारण है कि इस प्रकार की घटनाओं का शिकार ज़्यादातर ग़रीब व मेहनतकश तबका ही होता है। आज शासक वर्ग तथा उसके मीडिया से उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह वैज्ञानिकता व तार्किकता का प्रचार करे, बल्कि जनता के बीच से ही ऐसे लोगों के आगे आने की ज़रूरत है जो लोगों के सामने समस्याओं के असली कारण व सही समाधान रख सकें। जो लोगों को बता सकें कि जनता का वैकल्पिक मीडिया खड़ा किया जाये जो विज्ञापनों के लिए नहीं बल्कि मेहनतकश आम आबादी के लिए ही काम करे। वैज्ञानिक व तार्किक प्रचार के द्वारा समाज में आम लोगों को कूपमण्डूकता, अज्ञान और अवैज्ञानिकता से मुक्त किया जा सकता है, पाखण्डियों को समाज के सामने नग्न किया जा सकता है और एक बेहतर समाज की ओर आगे बढ़ा जा सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर-दिसम्बर 2011
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