शार्ली एब्दो और बोको हरम: साम्राज्यवादी ताक़तों का दुरंगा चरित्र
लता
धार्मिक कट्टरपन्थी दहशतगर्द गिरोह ‘अल-कायदा’ ने 7 जनवरी को शार्ली एब्दो के कार्यालय पर हमला किया। शार्ली एब्दो फ्रांस की राजधानी पेरिस से निकलने वाली एक व्यंग पत्रिका है। इस पत्रिका में इस्लाम और पैगम्बर मोहम्मद सम्बन्धी कार्टून को वजह बताकर ‘अल-कायदा’ ने यह हमला किया था। इस हमले में 17 लोग मारे गये। धार्मिक कट्टरपन्थियों द्वारा की गयी इस कार्रवाई की जितनी भी निन्दा की जाये वह कम है। ऐसी किसी भी आतंकवादी कार्रवाई को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता।
11 जनवरी 2015 को पेरिस में ही इस घटना की निन्दा करते हुए ‘राष्ट्रीय एकता रैली’ निकाली गयी। इस रैली का मुख्य सन्देश अभिव्यक्ति की आज़ादी, एकता और विश्व स्तर पर आतंकवाद का विरोध करना था। रैली में कम से कम 15 लाख लोग शामिल हुए। शामिल लोगों में 40 देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी थे। रैली का मुख्य केन्द्र ये राष्ट्राध्यक्ष ही बन गये। इनमें से कई साम्राज्यवादी देशों के राष्ट्राध्यक्ष थे, जैसे ब्रिटेन के प्रधानमन्त्री डेविड कैमरून, अमेरिका के राजदूत, जर्मनी की चांसलर ऐन्जेला मेर्कल, इटली के प्रधानमन्त्री मातेयो रेन्जी और इज़राइल का मुख्यमन्त्री बेन्जमिन नेतन्याहू। ये वही साम्राज्यवादी देश हैं जिन्होंने अपना हित साधने के लिए विश्व भर में मुक्ति युद्धों और जनान्दोलनों को कुचला, लोगों को धर्म के नाम पर, सम्प्रदाय के नाम पर बाँटा, कट्टरपन्थी दहशतगर्द गिरोहों को पाला-पोसा और गृहयुद्ध भड़काये। इनके हाथ जनता के ख़ून से रँगे हैं और षढ्यन्त्रों में गहरे धँसे हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद की शह पर लातिन अमेरिका के देशों में सत्तापलट और क़त्लेआम हुए। अमेरिका ने चिले में आयेन्दे की जनतान्त्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार का तख़्तापलट करवाया। 9/11 का नाम लेते ही आँखों के सामने अमेरिका के ट्विन टावर पर हमला नज़र आता है। लेकिन इतिहास में एक और 9/11 भी दर्ज है जिसके पीछे और किसी का नहीं बल्कि स्वयं अमेरिका का हाथ था। सीआईए ने चिले में सल्वादोर आल्येन्दे की सरकार को गिराने के लिए जेनरल पिनोचे को हथियार से लेकर सब तरह की मदद पहुँचाई और यह तख़्तापलट 1972 में 9/11 को हुआ। इसमें सेना द्वारा राष्ट्रपति भवन ‘ला मोनेदा’ पर हमला किया गया, आयेन्दे अपने राष्ट्रपति भवन में वीरतापूर्वक लड़ता हुआ मारा गया। इसके बाद पूरे चिले में कम्युनिस्टों को और उनका समर्थन करने वालों को चुन-चुनकर मारा गया और पूरे देश में मौत और आतंक का ताण्डव हुआ जिसमें लगभग 10,000 लोग मारे गये और लापता हुए। हालाँकि सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार 40,000 लोग यन्त्रणा के शिकार हुए और 40,00 लोग मारे गये। तालिबान के जन्म में अमेरिका की भूमिका के बारे में हम सभी जानते हैं। खाड़ी के राजशाहियों और अमीरों के माध्यम से अमेरिका ‘अल-कायदा’ को धन और हथियार मुहैया कराता रहा है। सीरिया में अस्साद की सरकार को गिराने की योजना अमेरिका, तुर्की और खाड़ी के राजशाही की थी जिसके लिए जिहादियों को तैयार किया गया। अमेरिका और साझा साम्राज्यवादी देश अभी नाइजीरिया में अपनी साम्राज्यवादी डिज़ाइन के तहत बोको हरम का इस्तेमाल कर रहे हैं। इसके अलावा बेन्ज़मीन नेतन्याहू के बारे में क्या ही कहा जाये जो अभी बीते जून-जुलाई में 50 दिनों तक ग़ाज़ा में लगातार बमबारी करता रहा जिसमें 2145 लोग मारे गये जिनमें 578 बच्चे थे और शेष अधिकांश आम नागरिक थे। ऐसे हत्यारों का मानवाधिकार की बातें करना, अमन और शान्ति का सन्देश देना और आतंकवाद के ख़ात्मे के बड़े-बड़े वायदे करना कुछ और नहीं भयंकर ढोंग और पाखण्ड है जो इनके दुहरे चरित्र को दर्शाता है।
इतना ही नहीं इस रैली की एक और मार्के की बात है, इसमें संयुक्त अरब अमिरात के प्रतिनिधि शामिल हुए थे। इनके द्वारा आतंकवाद विरोध का नारा लगाना तो विडम्बनापूर्ण था ही लेकिन पूरे कार्यक्रम का सबसे बड़ा उपहास यह था कि ये भी अभिव्यक्ति की आज़ादी का नारा लगा रहे थे!
बहरहाल, शार्ली एब्दो पर एक बार फिर वापस लौटते हुए, जैसा कि हम सभी जानते हैं इस पत्रिका के दफ्तर पर हमले के बाद ‘मैं शार्ली हूँ’ का नारा पूरे विश्व में अभिव्यक्ति की आज़ादी का नारा बन गया। अकेले फ्रांस में ही नहीं पूरी दुनिया में इस हमले के ख़िलाफ़ और अभिव्यक्ति की आज़ादी को बनाये रखने के लिए रैलियाँ निकाली गयीं और लोगों के लिए शार्ली अभिव्यक्ति की आज़ादी का प्रतीक बन गया। लेकिन शार्ली एब्दो पत्रिका और ‘शार्ली एब्दो’ पूर्व फ्रांस में होने वाली घटनाओं सम्बन्धी निकोलस जाउल और क्रिस्टीन मोलिनर के लेख कुछ ऐसे तथ्य बयान करते हैं जिससे एक अलग ही तस्वीर सामने आती है। 7 जनवरी के बाद पूरे फ्रांस में बेहद भावोत्तेजक प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति सामने आयी जिसका इस्लामोफोबिक सारतत्व बार-बार सतह पर उभर कर सामने आता रहा। यहाँ तक कि इस इस्लामोफोबिया से नरमदलीय वाम भी नहीं बच पाया जो अब तक इसे वर्जना मानता था। मीडिया की प्रमुख धारा इस उन्माद से बेहद सावधानीपूर्वक बचती हुई इस संकट से निबटने के लिए चिन्तन-मनन पर ज़ोर देती रही। लेकिन फ्रांस का एक बड़ा पढ़ा-लिखा तबका यह कहता रहा कि ‘मुसलमान ही फ्रांस में सारी बुराइयों की जड़ हैं!’ शार्ली एब्दो की घटना के पूर्व दो सप्ताह के अन्दर फ्रांस में मुसलमान विरोधी हिंसा के 128 मामले सामने आये जोकि अभी ही 2014 में दर्ज कुल हिंसा की घटनाओं के बराबर है। इस पूरे घटना के दौरान सबसे चिन्ताजनक प्रतिक्रियाएँ ‘सम्मानजनक’ दक्षिणपन्थियों से आयी, विशेषकर यूनियन फ़ॉर पॉपुलर मूवमेण्ट के निकोलस सरकोज़ी और पार्टी में उनके सरीखे अन्य नेताओं ने जिस तरह के वक्तव्य जारी किये उसमें बार-बार मुसलमानों को निशाना बनया गया। फ़ासीवादी विचारधारा से लैस सरकोज़ी की काल्पनिक अवधारणा ‘सभ्यताओं के युद्ध’ को एक बेहतर ज़मीन मिल गयी है जो सामान्य मुसलमान और कट्टरपन्थियों में कोई भेद नहीं करती है। इस तथ्य की ओर कम लोगों का ध्यान जा रहा है जो कि शार्ली एब्दो के दफ्तर के हमलावर, प्रवासी नहीं थे बल्कि अल्जीरिया और माली से आये प्रवासियों की दूसरी पीढ़ी थे, फ्रांस के अपने नागरिक। यह पूरे फ्रांस के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है। इन हमलावरों को तैयार करने के पीछे फ्रांस में उत्तर औपनिवेशिक प्रवासन के दौरान आये प्रवासियों और विशेषकर मुसलमान प्रवासियों के साथ किया जाने वाला दोयम दर्जे के व्यवहार और 9/11 के बाद यूरोप और अमेरिका को अपने गिरफ्त में लेने वाला इस्लामोफोबिया भी एक बड़ा कारण था। भूमण्डलीकरण के इस दौर में नवउदारवादी नीतियों और निजीकरण का प्रभाव ‘तीसरी दुनिया’ के देशों के साथ-साथ यूरोप और अमेरिका पर भी पड़ रहा है। छँटनी, तालाबन्दी, सामाजिक सुरक्षा में कटौती, शिक्षा का निजीकरण, बेरोज़गारी यूरोप के देशों में भी सामान्य बात हो गयी है। अक्सर नौजवानों, छात्रों और मज़दूरों के प्रतिरोध सड़कों पर फूट पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में आज एक बार फिर विश्व में अन्य हिस्सों के साथ-साथ पूरे यूरोप में फ़ासीवादी शक्तियों का नया उभार हमें देखने को मिल रहा है। निश्चित ही नवउदारवादी नीतियों और फ़ासीवाद के बीच का यह अपवित्र गठबन्धन जनता को धर्म, नस्ल, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर बाँटता है। किसी काल्पनिक ‘अन्य’ की रचना कर उसे समाज की तमाम कठिनाइयों और बुराइयों का ज़िम्मेदार ठहराता है। यही काम दुनिया भर की फ़ासीवादी और दक्षिणपन्थी ताक़तें वर्तमान विश्व में अपने-अपने देशों में कर रही हैं।
ख़ैर, धार्मिक कट्टरपन्थ और साम्राज्यवाद के आपसी सम्बन्ध पर अपनी चर्चा को जारी रखते हुए इस बात पर बल देना आवश्यक है कि आधुनिक इतिहास दर्शाता है कि हर तरह के धार्मिक कट्टरपन्थ का इस्तेमाल उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों, जनान्दोलनों और जन संघर्षों को कमज़ोर करने, बाँटने और विसर्जित करने के लिए करता आया है। साम्राज्यवाद द्वारा धार्मिक कट्टरपन्थ के व्यवस्थित इस्तेमाल की शुरूआत हमें आज से सौ वर्ष पहले ‘साइक्स-पीको’ समझौते और दूसरे विश्व युद्ध के बाद ट्रूमैन डॉक्ट्रिन के काल से देखनी चाहिए जिसके अनुसार यूरोपीय-अमेरिकी शक्तियाँ और प्रतिक्रियावादी खाड़ी के राजशाहियों और अमीरों द्वारा अरब विश्व में इस्लामी दक्षिणपन्थी ताक़तों को हथियार के तौर पर तैयार करने की योजना थी ताकि कम्युनिज़्म के प्रेत और धर्मनिरपेक्ष अरब राष्ट्रवाद के बढ़ते ख़तरे को रोका जा सके। अमेरिकी राष्ट्रपति डीवाइट डी. आइजेनहावर ने व्हाइट हाउस के हॉल में मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं का स्वागत किया था। अमेरिकी कूटनीतिज्ञ और इण्टेलिजेंस सेवाओं ने दशाब्दियों तक ‘जेहादियों’ से लेकर नरमपन्थी इस्लामी समूहों को बढ़ावा दिया। अमेरिका के नेतृत्व में ही कम्युनिज़्म के ख़िलाफ़ अफ़गान जेहादियों पर भी खाड़ी की राजशाहियों और अमीरों ने ख़ज़ाने लुटाये। विश्व भर से जेहादी अफ़गान पहुँचने लगें। यह अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रेजेंस्की ही था जिसने एक लाख से ज़्यादा जिहादियों के सामने अफ़गानिस्तान के वाम धड़े की सरकार के ख़िलाफ़ और सोवियत संघ को युद्ध में उलझाने के लिए खैबर दर्रे की एक पहाड़ी पर खड़ा हो एक हाथ में बन्दूक और दूसरे हाथ में कुरान लिए ऐलान किया था ‘ये दोनों तुम्हें आज़ाद करेगें!’ राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने अफ़गान मुजाहिद्दीन के नेताओं का स्वागत व्हाइट हाउस में किया था और कहा था कि ‘ये हमारे राष्ट्र के संस्थापकों के नैतिक समतुल्य हैं’। गुलबुद्दीन हिकमतयार जैसे जेहादी भाड़े के टट्टुओं को वाशिंगटन और जेफ़रसन के महान व्यक्तित्व तक ऊँचा उठाया गया!
1979 में इरान की क्रान्ति के बाद आयतोल्ला खोमैनी ने अमेरिका और सोवियत संघ दोनों को सबसे बड़ा शैतान घोषित किया। इसके अलावा किसी भी तरह की राजशाही को गैर इस्लामी बताया। हालाँकि खोमैनी का शासन शरिया के सख़्त नियमों पर आधारित था लेकिन साथ ही उसने नासेर से मिलती जुलती राजनीतिक अर्थव्यवस्था (राष्ट्रीयकरण, कल्याणकारी योजनाएँ, राज्य के नेतृत्व में विकास आदि) भी अपनायी। इससे पूरे अरब क्षेत्र को एक सन्देश मिला और लोगों का गुस्सा विशेषकर खाड़ी के भ्रष्ट राजशाहियों और अमीरों पर निकलने लगा। बस इतना ही काफ़ी था, खाड़ी के विश्वविद्यालयों में, सेमिनार-सम्मेलनों में, मदरसों-कॉलेजों में लाखों-लाख डॉलर के फ़ण्ड आने लगे यह स्थापित करने के लिए कि मुस्लिम दुनिया का मूलभूत बँटवारा शीया और सुन्नी के बीच है। कॉलेजों के पाठ्यक्रम बदल दिये गये। इतना ही नहीं इससे कहीं ज़्यादा पैसा इरान के ख़िलाफ़ युद्ध में सद्दाम हुसैन की मदद के लिए पहुँचाया गया। खाड़ी के राजशाही ने पैसे पहुँचाये और ब्रिटिश-अमेरिकी ब्लॉक ने हथियार पहुँचाये, जिसमें रासायनिक हथियार भी शामिल थे। इस युद्ध को भी शीया-सुन्नी के बीच मध्यकाल से जारी लड़ाई के क्रम की तरह ही प्रदर्शित किया जाने लगा। हालाँकि यह अलग बात है कि सद्दाम हुसैन इराक के जिस हिस्से से इरान के ख़िलाफ़ लड़ रहा था, वह शीया बहुल क्षेत्र था।
इतना ही नहीं ‘अल-कायदा’ से लेकर अन्य कई जेहादी समूहों को साम्राज्यवादी ताक़तों ने संरक्षण दिया और उनका अपनी ज़रूरत के अनुसार इस्तेमाल किया। इराक युद्ध के समय ही पश्चिम एशिया के लिए नवरूढ़िवादियों (नियो-कंज़रवेटिव) ने एक नया डिज़ाइन प्रस्तुत किया जो इस क्षेत्र में अमेरिका की रणनीतिक योजना का आधार बना। इसके दो पहलू थे, पहले के अनुसार इराक तो मात्र इस योजना की शुरुआती ज़मीन थी, इस युद्ध को दूसरे देशों तक भी ले जाना था। उस समय का नारा था – पहले बगदाद, फिर दमिश्क, रियाद और तब तेहरान, ‘असली मर्द तेहरान जाता है’। दूसरा, इस योजना के पूरा होने की समयावधि 30 साल बतायी गयी। इस 30 साला योजना के हिसाब से हम अभी बारहवें साल में हैं। अभी काफ़ी चीज़़़ें एक-एक कर उद्घाटित होंगी। आश्चर्यजनक ढंग से जेहादी/सलाफी/तकफिरी योजना भी ठीक यही है। वे भी अफ़ग़ानिस्तान से लेकर अलजीरिया और साहेल तक इस पूरे ट्रांस-कॉण्टिनेण्टल भूभाग का पुनर्निर्माण करना चाहते हैं। यह वही भू-भाग है जो अमेरिकी सेना की योजना का क्षेत्र है। निश्चित ही यह कोई इत्तेफ़ाक नहीं। आर्थिक कट्टरपन्थ हमेशा से धार्मिक कट्टरपन्थ का इस्तेमाल करता आया है। इस पूरे क्षेत्र में आर्थिक कट्टरपन्थ के विस्तार के लिए धार्मिक कट्टरपन्थ का बेहद व्यवस्थित रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है।
आईएसआईएस (इस्लामिक स्टेट ऑफ़ सीरिया एण्ड ईराक) या आईएस (इस्लामिक स्टेट) का उभार और विस्तार इस योजना से अलग नहीं है। आईएसआईएस या सिर्फ़ आईएस वह नया प्रतीक बन गया है जिसके इर्द-गिर्द दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपन्थियों को आकृष्ट किया जा रहा है। जब राष्ट्रपति बराक ओबामा कायरो में मुस्लिम दुनिया के सामने अपना प्रसिद्ध भाषण पेश कर रहा था तो मुस्लिम ब्रदहरहुड के नेता आगे की कतार में बैठे थे और जैसा कि फायनेंसियल टाइम्स ने बताया है ओबामा के ही नेतृत्व में कतर ने सीरिया में अस्साद की सरकार को गिराने के लिए जेहादियों पर अरबों डॉलर लुटाये हैं।
इन कट्टरपन्थी ताक़तों का इस्तेमाल हो जाने पर साम्राज्यवाद अपनेआप इन्हें ठिकाने लगा देता है। लेकिन कई बार ये कट्टरपन्थी ताक़तें अपना समाजिक आधार तैयार कर लेती हैं और अपने आकाओं से स्वतन्त्र हो उनके लिए भस्मासुर बन जाती हैं। ऐसी सूरत में अपने आकाओं का कुछ नुक़सान भी कर जाती हैं। हम कह सकते हैं कि ये ताक़तें साम्राज्यवाद का नुक़सान तो क्या ही करेंगी लेकिन हाँ इन देशों की आम जनता को इसका खा़मियाज़ा ज़रूर भुगतना पड़ता है। तब भी ये कट्टरपन्थी ताक़तें साम्राज्यवाद का भला ही कर जाती हैं। आतंकवादी हमला होने की सूरत में साम्राज्यवाद को अपने ख़ून सने लिबास पर मानवतावाद का बिल्ला लगाने का मौक़ा मिल जाता है।
ये दुरंगे चेहरे वाली साम्राज्यवादी ताक़तें जब अमन, शान्ति, एकता, इंसानियत और आतंकवाद विरोध की बात करती हैं तो इसकी प्रभाविता का अन्दाज़ा लगा पाना ज़्यादा मुश्किल नहीं हैं। भेड़ की खाल में छिपे इन भेडियों का दुरंगा चरित्र तब और अधिक स्पष्ट हो गया जब 3 जनवरी को बोको हरम ने नाइजीरिया में 2000 लोगों को मारा और इसके ख़िलाफ़ किसी ने एक वक्तव्य भी जारी नहीं किया, रैली और प्रदर्शन करना तो दूर की बात है। पूरे विश्व की मीडिया पर शार्ली एब्दो छाया रहा। बोको हरम ने नाइजीरिया के बागा गाँव में हज़ारों लोगों को मारा और फिर पूरे गाँव को आग लगा दी। मरने वालों की कुल संख्या 2000 बतायी जा रही है। मारने वाली ताक़त भी कोई और नहीं बल्कि धार्मिक कट्टरपन्थी ही थी, तो फिर ये राष्ट्राध्यक्ष चुप क्यों थे? इसका अन्दाज़ा लगा पाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है, जैसे तालिबान, अल-कायदा और अन्य धार्मिक कट्टरपन्थी ताक़तों ने अरब क्षेत्र में साम्राज्यवादी ताक़तों के हित साधन का काम किया या कर रही हैं वैसे ही बोको हरम भी नाइजीरिया में साम्राज्यवादियों के उद्देश्यों की पूर्ति की ज़मीन तैयार कर रहा है। हस्टन विश्वविद्यालय के इतिहास और अफ्रीकी-अमेरिकी अध्ययन के प्रोफ़ेसर डॉ. जेराल्ड हॉर्न के अनुसार 1978 के बाद अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने जैसा किया था वैसा ही वह बोको हरम के ज़रिये नाइजीरिया में कर रहा है। आज बोको हरम के विकास और विस्तार में सीआईए की प्रत्यक्ष भागीदारी के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं। स्वयं विकीलीक के जुलियन असांग ने कई सबूतों को उजागर किया है। खाड़ी के अमीर भी इसमें जमकर पैसा लगा रहे हैं।
1970 और 80 के दशक में नाइजीरिया ने दक्षिणी अफ्रीका के देशों की मुक्ति में जो सक्रिय भूमिका अदा की थी वह स्पष्ट तौर पर अमेरिकी और यूरोपीय साम्राज्यवादी हितों के विपरीत थी। आज नाइजीरिया अफ्रीकी उपमहाद्वीप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। इतना ही नहीं इसके पास प्राकृतिक तेल का बड़ा भण्डार भी है। नाइजीरिया अफ्रीका में आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के समक्ष सबसे बड़ा रोड़ा है। इस रोड़े से निपटने के लिए बोको हरम इस महाद्वीप में साम्राज्यवादी स्कीम में बख़ूबी फिट बैठता है। साम्राज्वादियों की वही पुरानी योजना कि पहले लोगों को विभाजित करने वाले मुद्दों को भड़काओ, उग्रवादियों को अन्दरखाने हथियार और पैसे मुहैया कराओ और आग भड़क जाने पर मानवतावादी मुखौटा लगाकर हस्तक्षेप करो, एक बार फिर नाइजीरिया में बोको हरम के माध्यम से इसे वास्तविक रूप दिया जा रहा है। बोको हरम ने मई में 300 स्कूली छात्राओं को अगुआ किया। कई स्रोतों ने यह खुलासा किया है कि लड़कियों के स्कूल पर हमले की सूचना नाइजीरियाई सरकार को पहले से थी। लेकिन सरकार जानती थी कि इन कट्टरपन्थियों के पास नाइजीरिया की सेना से कहीं ज़्यादा आधुनिक हथियार हैं। यह समझा जा सकता है कि अफ्रीका की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश की सेना से कही ज़्यादा आधुनिक हथियार उस देश के एक आतंकवादी गिरोह के पास कहाँ से आये। निश्चित ही यह खाड़ी के अमीरों और आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवादी ताक़तों के शामिल हुए बिना सम्भव नहीं है। इसके बाद मिशेल ओबामा तक ने ‘ब्रिंग बैक आवर गर्ल्स’ (हमारी लड़कियों को वापस लाओ) मुहिम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। कितना भयंकर ढोंग!
फ़िलहाल अमेरिका और यूरोप, विशेषकर अमेरिका कठिन आर्थिक संकट के दौर से गुज़र रहा है इसलिए नाइजीरिया में साम्राज्यवादी योजना को अमली रूप देने के लिए प्रत्यक्ष सैनिक हस्तक्षेप करने की स्थिति में नहीं है। लेकिन बोको हरम के ज़रिये यह अफ्रीका में उस स्थिति को बनाये रखेगा। यही कारण है कि 2000 लोगों को एक बार में मारने और आतंकवादी कार्रवाइयों को लगातार जारी रखने के बाद भी बोको हरम शान्ति और मानवता के लिए उतना बड़ा ख़तरा अभी नहीं बना है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015
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