‘आम आदमी पार्टी’ की ज़बरदस्त जीत के निहितार्थ और क्रान्तिकारी आन्दोलन की चुनौतियाँ

सम्‍पादक

दिल्ली के बीते विधानसभा चुनावों में ‘आम आदमी पार्टी’ ने एक अभूतपूर्व जीत दर्ज की। दिल्ली के 67 प्रतिशत वोटरों ने वोट डाले और उनमें से 54 फ़ीसदी वोट आम आदमी पार्टी को मिले। भाजपा के वोट प्रतिशत में कोई विशेष कमी नहीं आयी और उसे लगभग 32 फ़ीसदी वोट मिले। लेकिन कांग्रेस का वोट प्रतिशत 10 प्रतिशत से भी नीचे चला गया, यानी कि 15 फ़ीसदी से भी ज़्यादा गिरावट। स्पष्ट है कि दिल्ली में कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमानों व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों और साथ ही दलितों का वोट लगभग पूरा का पूरा ‘आम आदमी पार्टी’ को मिला है। दूसरी बात यह है कि भाजपा को दिल्ली के जिस उच्च मध्यवर्ग और उच्च वर्ग ने बीते लोकसभा चुनावों ने वोट किया था, उसके बड़े हिस्से ने इस विधानसभा चुनावों में भी भाजपा को ही वोट किया है।

‘आम आदमी पार्टी’ की जीत पर कई पराजयबोध के शिकार कम्युनिस्टों ने और संशोधनवादी संसदीय वामपन्थियों ने काफ़ी जश्न मनाया और इसे मोदी की हार क़रार दी। उनके लिए केजरीवाल एक मसीहा की तरह आये हैं जिसने कि मोदी की अगुवाई में भाजपा के विजय रथ को रोका है। इस पराजयबोध की गहरायी का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे इस सामान्य सी बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि दीर्घकालिक तौर पर उनकी राजनीति को अधिक वास्तविक ख़तरा ‘आम आदमी पार्टी’ से है न कि भाजपा से! ख़ैर, इन नाउम्मीदों के बारे में ज़्यादा शब्द ख़र्च करने की कोई आवश्यकता नहीं है। हम इस बात पर केन्द्रित करें तो ज़्यादा बेहतर होगा कि ‘आम आदमी पार्टी’ की इस जीत का क्रान्तिकारी राजनीति की ताक़तें किस रूप में विश्लेषण करें। इसलिए, हम इस विजय के क्रान्तिकारी राजनीति के लिए निहितार्थों पर बात रखेंगे।

Kejriwal_AFP1पहली ग़ौरतलब बात यह है कि कांग्रेस और भाजपा द्वारा नंगे तौर पर धनपशुओं की सेवा करने वाली और पूँजीपरस्त नीतियों को लागू किये जाने के ख़िलाफ़ जनता का पुराना असन्तोष खुलकर निकला है। पिछली बार अरविन्द केजरीवाल की पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था और अपने वायदों को पूरा किये बिना भागने के लिए उनके पास एक बहाना था, जिसका इस्तेमाल करके वह भाग खड़े हुए थे। लेकिन इस बार जनता ने खुलकर अपने दिल की कसर निकाली है और केजरीवाल के निकल भागने के सारे रास्ते बन्द कर दिये हैं। अब या तो केजरीवाल अपने वायदे, और विशेष तौर पर दिल्ली की ग़रीब जनता से किये गये वायदों पर अमल करें, या फिर बेनक़ाब हो जायें। बहरहाल, एक बात स्पष्ट है कि जनता ने कांग्रेस और भाजपा जैसी पहले से बेनक़ाब और नंगे तौर पर पूँजीपरस्त पार्टियों के प्रति अपना गुस्सा निकाला है। हाल ही में भाजपा सरकार द्वारा श्रम क़ानूनों को बेअसर करने की शुरुआत, भूमि अधिग्रहण क़ानून द्वारा किसानों की इच्छा के विपरीत ज़मीन अधिग्रहण का प्रावधान करना, रेलवे का भाड़ा बढ़ाया जाना, विश्व बाज़ार में पेट्रोलियम उत्पादों में भारी बढ़ोत्तरी के अनुसार पेट्रोल-डीज़ल की क़ीमतों में कमी न करना और महँगाई पर नियन्त्रण न लगा पाने के चलते मोदी सरकार विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के बीच अलोकप्रिय होती जा रही है, हालाँकि इस अलोकप्रियता के देशव्यापी बनने में अभी कुछ समय है; कांग्रेस ने अपने कुल पाँच दशक के राज में जनता को ग़रीबी, महँगाई, अन्याय और भ्रष्टाचार के अलावा कुछ ख़ास नहीं दिया; जनता कहीं न कहीं कांग्रेस से ऊबी हुई भी थी; ऐसे में, जनता ने इन दोनों पार्टियों के विरुद्ध जमकर अपना गुस्सा और असन्तोष इन चुनावों में अभिव्यक्त किया है।

दूसरी ध्यान देने वाली बात यह है कि जनता के भीतर पहले भी लम्बे समय से यह गुस्सा और असन्तोष पनप रहा था लेकिन पूँजीवादी चुनावी राजनीति के भीतर उसे कोई विकल्प नहीं नज़र आ रहा था। पिछले तीन दशकों में सपा, बसपा, जद(यू), आदि जैसे तमाम दलों की असलियत जनता के सामने आ चुकी है। ऐसे में, ‘आम आदमी पार्टी’ सदाचार, ईमानदारी और पारदर्शिता की बात करते हुए लोगों के बीच आयी। लोगों को उसने भ्रष्टाचार-मुक्त दिल्ली और देश का सपना दिखलाया। उसने जनता को बतलाया कि हर समस्या के मूल में भ्रष्टाचार है, चाहे वह शोषण हो, ग़रीबी हो या फिर बेरोज़़गारी। उनके अनुसार देश की व्यवस्था में यानी कि पूँजीवाद में कोई बुराई नहीं है। बस अगर सभी सरकारी नौकर ईमानदार हो जायें, सभी पूँजीपति ईमानदारी से मुनाफ़ा कमायें तो सबकुछ सुधर जायेगा! केजरीवाल के अनुसार समस्या सिर्फ़ नीयत है। फ़िलहाल जो लोग सत्ता में हैं, उनकी नीयत ख़राब है और ‘आम आदमी पार्टी’ अच्छी नीयत वाले लोगों की पार्टी है! अगर वह सत्ता में आ जाये तो भारत की और दिल्ली की सभी समस्याएँ दूर हो जायेंगी, लोग ख़ुशहाल हो जायेंगे, केजरीवाल के शब्दों में ‘ग़रीब और अमीर दोनों दिल्ली पर राज करेंगे!’ अव्यवस्था, ग़रीबी, बेरोज़़गारी और महँगाई से त्रस्त आम मेहनतकश जनता इस कदर नाराज़ है, इस कदर थकी हुई है, इस कदर श्रान्त और क्लान्त है और विकल्पहीनता से इस कदर परेशान है कि उसे इस समय केजरीवाल और ‘आप’ की लोकरंजकता लुभा रही है। बल्कि कह सकते हैं कि जनता ने विकल्पहीनता और असन्तोष में अपने आप को लुभा लेने की इजाज़त केजरीवाल और ‘आप’ को दी है! इसका एक कारण जनता के भीतर कांग्रेस और भाजपा की खुली अमीरपरस्ती के विरुद्ध वर्ग असन्तोष भी है। वह ‘आम आदमी पार्टी’ के दावों को लेकर इतनी आश्वस्त नहीं है, जितनी कि दो प्रमुख पूँजीवादी दलों से नाराज़ है। ‘आम आदमी पार्टी’ की ऊपर से ग़रीब के पक्ष में दिखनेवाली जुमलेबाज़ी ने काफ़ी हद तक आम ग़रीब जनता के गुस्से का कुशलता से इस्तेमाल किया है।

तीसरी बात जिस पर ग़ौर किया जाना चाहिए वह यह है कि आम मेहनतकश जनता के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में ‘आम आदमी पार्टी’ को लेकर एक विभ्रम भी बना हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि पिछली बार ‘आप’ को पूर्ण बहुमत नहीं मिला था, जिसका बहाना बनाकर उसे अपने असम्भव वायदों से भागने का अवसर मिल गया था। सभी जानते हैं कि केजरीवाल के पिछली बार 49 दिनों के बाद भागने के पीछे असली वजह जनलोकपाल बिल को लेकर हुआ विवाद नहीं था, बल्कि दिल्ली के 60 लाख ठेका मज़दूरों और कर्मचारियों का स्थायी करने के वायदे को पूरा करने में छोटे उद्यमियों, व्यापारियों, ठेकेदारों की पार्टी ‘आम आदमी पार्टी’ की सरकार की अक्षमता थी। लेकिन अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद में लगे मेहनतकश लोग विशेष तौर पर राजनीतिक क्लान्ति के दौरों में जल्दी भूल भी जाते हैं और जल्दी माफ़ भी कर देते हैं। ख़ास तौर पर तब जबकि कोई अन्य विकल्प मौजूद न हो! इसके अलावा, जनता के एक हिस्से को भी यह लगता है कि कोई और बेहतर विकल्प नहीं है इसलिए एक बार केजरीवाल सरकार को ही पूरा बहुमत देकर मौक़ा दिया जाना चाहिए। वास्तव में, केजरीवाल से जुड़े विभ्रम के टूटने के लिए यह ज़रूरी भी है कि एक बार दिल्ली की मेहनतकश जनता के दिल में अधूरी रह गयी कसर ढंग से निकल जाये। वह इस बार हो गया है, लेकिन इसके साथ ही क्रान्तिकारी राजनीतिक ताक़तों की ज़िम्मेदारी भी बेहद बढ़ गयी है।

चौथी बात जो कि ‘आप’ की जीत से सामने आयी है वह यह है कि पूँजीवादी राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के संकट और अन्तरविरोध जब भी एक हद आगे से बढ़ते हैं तो किसी न किसी ‘मिस्टर क्लीन’ का उदय होता है, जो कि गर्म से गर्म जुमलों का इस्तेमाल कर जनता के गुस्से को अभिव्यक्ति देता है और इस प्रकार उसे निकालता है; जो जनता के दुख-दर्द का एक काल्पनिक कारण जनता के सामने पेश करता है, जैसे कि भ्रष्टाचार और अच्छी-बुरी नीयत जैसे कारक; वह पूँजीवादी व्यवस्था में मौजूद शोषण और उत्पीड़न को पूँजीवादी व्यवस्था की आकस्मिकता (कण्टिंजेंसी) बताता है जो कि उसमें मौजूद भ्रष्टाचार के कारण पैदा हुई है, और यह भ्रष्टाचार स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था का एक नैसर्गिक गुण नहीं बल्कि उसका विचलन बन जाता है, जो कि कुछ ‘ग़लत नीयत’ वाले लोगों के कारण पैदा होता है। यह श्रीमान सुथरा वर्गों के संघर्ष को बार-बार नकारता है और वर्ग समन्वय की बातें करता है, जैसे कि केजरीवाल ने अमीरों और ग़रीबों के बँटवारे को ही नकार दिया है और बार-बार केवल सदाचारी और भ्रष्टाचारी के बँटवारे पर बल दिया है। केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस समय पूँजीवादी व्यवस्था की ज़रूरत हैं। वे पूँजीवादी समाज और व्यवस्था के असमाधेय अन्तरविरोधों के वर्ग चरित्र को छिपाने का काम करते हैं और वर्ग संघर्ष की चेतना को कुन्द करने का कार्य करते हैं। यही भूमिका एक समय में भारत की पूँजीवादी राजनीति के इतिहास में जेपी आन्दोलन ने निभायी थी। आज एक बार फिर एक नये रूप में भारतीय पूँजीवादी राजनीति और अर्थव्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। इस संकट का एक धुर दक्षिणपन्थी, तानाशाहाना और फ़ासीवादी समाधान नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी सरकार पेश कर रही है, तो वहीं एक दूसरा दक्षिणपन्थी लोकरंजक समाधान ‘आम आदमी पार्टी’ और अरविन्द केजरीवाल पेश कर रहे हैं। ‘आम आदमी पार्टी’ में जो ग़ैर-दक्षिणपन्थी धड़ा है उसे अनुशासित करने या फिर बाहर करने की मुहिम के नतीजे के तौर पर हम आज प्रशान्त भूषण और योगेन्द्र यादव जैसे लोगों को बाहर करने की कवायद देख रहे हैं। ‘आम आदमी पार्टी’ में दक्षिणपन्थी धड़े की पकड़ कहीं ज़्यादा मज़बूत है और वह उसकी राजनीति के लिए कहीं ज़्यादा उपयुक्त भी है। यही कारण है कि जब तक केजरीवाल की लहर है, तब तक है और जैसे ही इसका भाटा आयेगा वैसे-वैसे यह लहर किसी खुले तौर पर दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी लहर में जाकर समाहित हो जायेगी। कहने की आवश्यकता नहीं है कि केजरीवाल की लहर उनके अपने वायदों से मुकरने के साथ किनारे लगती जायेगी और आज जो लोग पूँजीवादी व्यवस्था की सौग़ातों से तंग आकर प्रतिक्रिया में केजरीवाल के पीछे गये हैं, उनमें से कई पहले से ज़्यादा प्रतिक्रिया में आकर भाजपा और संघ परिवार जैसी धुर दक्षिणपन्थी, फ़ासीवादी ताक़तों के समर्थन में जायेंगे जो कि मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े दुश्मन हैं।

इस प्रश्न का स्पष्ट तौर पर जवाब दिया जाना चाहिए कि क्या ‘आम आदमी पार्टी’ को एक जनपक्षधर पार्टी माना जाना चाहिए? क्या उसे आम मेहनतकश जनता का मित्र माना जाना चाहिए? इन सवालों का जवाब हम स्वयं ‘आप’ के नेताओं और चिन्तकों के बयानों और लेखों आदि में प्रस्तुत विचारों के आधार पर दे सकते हैं। योगेन्द्र यादव को बेशक़ इस समय अरविन्द केजरीवाल की लॉबी ने ‘आप’ में हाशिये पर धकेल दिया है, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘आप’ की राजनीति को रूप देने में उनकी और प्रो. आनन्द कुमार जैसों की भूमिका रही है। हाल ही में, योगेन्द्र यादव ने बताया कि ‘आम आदमी पार्टी’ वर्गों के संघर्ष में भरोसा नहीं करती। उसका मानना है कि अमीरों से कुछ भी छीना नहीं जाना चाहिए! ग़रीबों को जो भी मिलेगा वह भ्रष्टाचार ख़त्म करके मिलना चाहिए, न कि अमीरों से छीनकर! इसमें अन्तर्निहित है कि पूँजीपति द्वारा मज़दूरों के श्रम की लूट एकदम जायज़ है और उसमें कोई भ्रष्टाचार नहीं है। यही बात अरविन्द केजरीवाल ने भी कई बार अलग-अलग टीवी चैनलों को कही है। उनके अनुसार, व्यापारी और उद्यमी समृद्धि पैदा करते हैं! लेकिन इस पूरी बात में एक बड़ा गोरखधन्धा है। सोचने की बात यह है कि अमीर अमीर हुआ कैसे? ग़रीब ग़रीब क्यों है? और अमीर के अमीर रहते और ग़रीब के ग़रीब रहते समाज में ख़ुशहाली कैसे आयेगी? समाज में धन-सम्पदा पैदा कौन करता है? उसका बँटवारा कैसे होता है? क्या हम जानते नहीं हैं कि अमीर वर्ग, मालिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग अमीर इसीलिए है क्योंकि वह आम मेहनतकश आबादी की मेहनत को लूटता है? क्या हम जानते नहीं हैं कि उसकी अमीरी, उसकी शानो-शौक़त और ऐयाशियों की क़ीमत समाज के आम मेहनतकश अपना ख़ून और पसीना बहाकर अदा करते हैं?

पूँजीपतियों की अकूत सम्पत्ति आसमान से नहीं टपकी है; उनके भारी-भरकम बैंक बैलेंस ‘ईश्वर की देन’ नहीं है; उनके नौकरों-चाकरों की फ़ौज ‘देवताओं’ ने नहीं भिजवायी है! इस सबकी क़ीमत देश की आम मेहनतकश जनता अपने ख़ून-पसीने से अदा करती है। निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूँजी है; पैसा अपने आपमें कुछ भी नहीं अगर उससे ख़रीदने के लिए तमाम वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन न हो; वस्तुएँ व सेवाएँ दुकानदार, व्यापारी, पूँजीपति, मालिक या ठेकेदार नहीं पैदा करते! उन्हें मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी सामूहिक तौर पर बनाते हैं! इन वस्तुओं को बनाने के बावजूद इन पर मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी का नियन्त्रण नहीं होता, वह उनसे छीन ली जाती हैं। बदले में उन्हें जीने की ख़ुराक मिलती है। यही लूट देश के 77 प्रतिशत ग़रीब मज़दूरों और किसानों की ग़रीबी का कारण है और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता की भी! देश की बहुसंख्यक आबादी की ग़रीबी तब तक दूर नहीं हो सकती है, जब तक कि यह उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि पूँजीपति के मुनाफ़े के लिए होता रहेगा। पूँजीपति की मुनाफ़े की शर्त ही व्यापक मेहनतकश आबादी की ग़रीबी है! मेहनतकशों को ग़रीब, बेकार और बदहाल बनाये बगै़र पूँजीपति अपना उत्पादन कम लागत में कर ही नहीं सकता और मुनाफ़ा कमा ही नहीं सकता। आपस में कुत्तों की तरह लड़ते पूँजीपति पर हमेशा बाज़ार का यह दबाव काम करता है कि वह हमें लूटे और बरबाद करे; वह हमें कम-से-कम मज़दूरी दे और हमसे ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाये! चाहे पूँजीपति अच्छी नीयत और सन्त प्रकृति का ही क्यों न हो, अगर उसे पूँजीपति के तौर पर ज़िन्दा रहना है तो उसे मज़दूर को लूटना होगा, उसे बेकारी के दलदल में धकेलना ही होगा। लेकिन अरविन्द केजरीवाल और ‘आप’ तो ऐसा यक़ीन दिलाना चाहते हैं कि समाज में हर कोई ही उद्यमी बन जायेगा! सवाल है कि हर कोई उद्यमी बन जायेगा तो काम किससे करवायेगा! ‘आम आदमी पार्टी’ का सामाजिक-आर्थिक मॉडल एक पूँजीवादी आर्थिक मॉडल ही है, बस वह एक भ्रष्टाचार-मुक्त सदाचारी पूँजीवाद का सपना दिखाता है, जो कि एक यूटोपिया है। यह समझना ज़रूरी है कि सवाल नीयत या इरादे का है ही नहीं, सवाल पूरी व्यवस्था और उसके वर्ग चरित्र का है! केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर कहीं सवाल नहीं खड़ा करते, बल्कि उसका समर्थन करते हैं। वे बस उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करते हैं जिससे मध्यवर्ग दुखी रहता है और पूँजीपति वर्ग परेशान रहता है, हालाँकि यह पूँजीपति वर्ग स्वयं भ्रष्टाचार की आज़ादी चाहता है। वह बस नेताओं-नौकरशाहों के उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करना चाहता है, जिसके चलते मालिक पूँजीपति वर्ग को अधिशेष के एक हिस्से को नेता-नौकरशाह पूँजीपति वर्ग के साथ बाँटना पड़ता है। ‘आम आदमी पार्टी’ का पूरा एजेण्डा छोटे और बड़े मालिक पूँजीपति वर्ग को अधिशेष को साझा करने की इस मजबूरी से मुक्ति दिलाना है। उसके एजेण्डे पर ग़रीबों के जीवन की बेहतरी नहीं है, बल्कि पूँजीपति वर्ग के अलग-अलग हिस्सों के बीच अधिशेष के बँटवारे के अनुपात को बदलना है।। इसीलिए वे ग़रीबी और अमीरी का बँटवारा ख़त्म करने की बात नहीं करते, बल्कि यह हवा-हवाई बात करते हैं कि ‘दिल्ली पर ग़रीब और अमीर साथ में राज करेंगे और ख़ुशी-ख़ुशी रहेंगे!’ ग़रीब के ग़रीब रहते और अमीर के अमीर रहते, ऐसा मुमकिन नहीं है क्योंकि अमीर इसी शर्त पर अमीर होता है कि ग़रीब और ग़रीब होता जाये। समृद्धि मज़दूर वर्ग अपनी मेहनत झोंक कर, अपनी ज़िन्दगी और वक़्त लगाकर पैदा करता है। वह उससे पूँजीपति ले लेता है और बदले में उसे जीने की खुराक भर दे देता है। इसी प्रक्रिया से अमीर अमीर बनता है और मज़दूर ग़रीब होता जाता है। ऐसे में, केजरीवाल सरकार का यह कहना कि अमीर से वह कुछ नहीं लेगी और ग़रीब को सबकुछ देगी, मज़ाक़िया है और केवल यह दिखाता है कि या तो केजरीवाल और उसके लग्गू-भग्गू मूर्ख हैं, या फिर दिल्ली के ग़रीब मज़दूरों को मूर्ख बना रहे हैं।

केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ की जीत के कुछ अहम निहितार्थों पर चर्चा के बाद हम इस विषय पर आ सकते हैं कि इस जीत के बरक्स क्रान्तिकारी आन्दोलन और विशेष तौर पर छात्रों-युवाओं के क्रान्तिकारी आन्दोलन के समक्ष क्या कार्यभार हैं।

अब इस प्रश्न पर भी चर्चा कर लेते हैं कि क्या भ्रष्टाचार ख़त्म हो जाने से मज़दूरों और मेहनतकशों का शोषण समाप्त हो जायेगा? केजरीवाल सरकार अगर सारा भ्रष्टाचार ख़त्म कर भी दे, तो इससे मज़दूर की लूट ख़त्म नहीं होगी। अगर पूँजीपति और मालिक एकदम संविधान और श्रम क़ानूनों के अनुसार भी चले तो एक मज़दूर को कितनी मज़दूरी मिल जायेगी? अगर दिल्ली राज्य में न्यूनतम मज़दूरी के क़ानून को पूर्णतः लागू भी कर दिया जाये तो एक मज़दूर को ज़्यादा से ज़्यादा 10 हज़ार रुपये तक ही मिलेंगे। ऐसे में, मज़दूर क्या ख़ुशहाल हो जायेंगे? वह भी दिल्ली में जहाँ ज़िन्दगी जीना इतना महँगा है कि दो जून की रोटी भी मुश्किल से कमायी जाती है? वैसे भी केजरीवाल श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के मसले को कभी नहीं उठाते, हालाँकि यह सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है क्योंकि दिल्ली के 60 लाख से भी ज़्यादा मज़दूरों के लिए यह सबसे बड़ा मसला है। यह वह भ्रष्टाचार है जिससे कि दिल्ली की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा प्रभावित होता है। लेकिन केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ इसके बारे में चुप्पी साधे रहती है। इसका कारण यह है कि ‘आप’ के समर्थकों और नेताओं तक का एक बड़ा हिस्सा छोटे और मँझोले मालिकों, ठेकेदारों, व्यापारियों, प्रापर्टी डीलरों और दुकानदारों से आता है। पिछली ‘आप’ सरकार का श्रम मन्त्री गिरीश सोनी स्वयं एक कारख़ाना-मालिक था! इसी से पता चलता है कि मज़दूरों के मुद्दों पर ‘आप’ का क्या रुख़ है। केजरीवाल सरकार ने इस बार सत्ता सँभालने के बाद एक भ्रामक आदेश पास किया जिसमें उसने कहा है कि दिल्ली सरकार के निगमों व विभागों में ठेका कर्मचारियों को अगले आदेश मिलने तक न निकाला जाये। अगर केजरीवाल सरकार ठेका प्रथा के उन्मूलन के लिए प्रतिबद्ध है तो उसे अन्तरिम आदेश में सीधे यह लिखना चा‍हि‍ए कि सभी नियमित प्रकृति के कार्यों पर दिल्ली सरकार के किसी भी निगम या विभाग में स्थायी कर्मचारी रखे जायेंगे, ठेका कर्मचारी नहीं! दूसरी बात यह है कि दिल्ली के कुल ठेका मज़दूरों का केवल एक से डेढ़ प्रतिशत ही सरकारी विभागों और निगमों में कार्य करता है। दिल्ली के लाखों कारख़ानों, वर्कशॉपों, दुकानों, होटलों, रेस्तराँ आदि में काम करने वाले लाखों-लाख ठेका मज़दूरों में नियमित कार्य करने वाले ठेका मज़दूरों की स्थायी नौकरी के बारे में केजरीवाल ने सत्ता में आने के बाद एक शब्द भी नहीं कहा है। इसके लिए केजरीवाल को कायदे से दिल्ली राज्य स्तर का एक ठेका मज़दूरी उन्मूलन क़ानून पारित करना चाहिए, क्योंकि केन्द्रीय ठेका मज़दूरी विनियमन व उन्मूलन क़ानून इतना कमज़ोर है कि अपने निर्माण के साढ़े चार दशक में इसने ठेका मज़दूरी को पूरे देश में बढ़ाया है, न कि विनियमित या उन्मूलित किया है! अगर केन्द्रीय भ्रष्टाचार-रोधी क़ानून के कमज़ोर होने पर केजरीवाल एक दिल्ली स्तर का जनलोकपाल क़ानून पारित करने की बात कर सकते हैं तो फिर केन्द्रीय ठेका मज़दूरी उन्मूलन क़ानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य का एक मज़बूत ठेका मज़दूरी उन्मूलन क़ानून क्यों नहीं पारित करवाया जा सकता है? और अब तो इसमें कोई बाधा भी नहीं है, केजरीवाल के पास ज़बरदस्त बहुमत है! लेकिन केजरीवाल सरकार ऐसा नहीं करेगी क्योंकि उसके सामाजिक आधार में एक विचारणीय हिस्सा छोटे कारख़ाना मालिकों, व्यापारियों, दुकानदारों, ठेकेदारों और दलालों का है। यही कारण है कि दिल्ली के सभी औद्योगिक क्षेत्रों, मज़दूर बस्तियों, निम्न मध्यवर्गीय कालोनियों में केजरीवाल के समर्थन में इन वर्गों के दबंगों और नेताओं ने पोस्टर और बैनर लगा रखे हैं! ज़ाहिर है, ‘आप’ के आर्थिक स्रोतों में भी इस वर्ग का प्रमुख योगदान है। ऐसे में, ‘आप’ इस सामाजिक आधार के विरुद्ध नहीं जायेगी। इसलिए उसकी रणनीति है मज़दूर वर्ग और निम्न मध्यवर्ग के एक हिस्से से कुछ लोकरंजक वायदे करो, लेकिन सेवा छोटी पूँजी की करो। और यही केजरीवाल सरकार कर रही है। जो एक वास्तविक क़दम केजरीवाल सरकार ने उठाया है वह है कुछ श्रेणी के उद्योगों को लगाने के लिए पर्यावरणीय क्लियरेंस के प्रावधान का समाप्त करना, जो कि सीधे तौर पर छोटे मालिकों को फ़ायदा पहुँचाता है। यानी कि मालिकों को मलाई और मज़दूरों को झुनझुना!

केजरीवाल की राजनीति के इस वर्ग चरित्र को समझने के लिए एक और मिसाल पर ग़ौर करते हैं! केजरीवाल ने हाल ही एक टीवी इण्टरव्यू में माना है कि अपनी पिछली 49 दिनों की सरकार के दौरान उन्होंने टैक्स चोरी करने वाले भ्रष्टाचारी दुकानदारों और व्यापारियों पर छापा मारने से सरकारी कर विभाग को रोका था। उनका तर्क यह था कि ये सरकारी विभाग और उनके कर्मचारी कर चोरी करने वाले दुकानदारों से रिश्वत लेते थे। यानी कि सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार और व्यापारियों के भ्रष्टाचार में केजरीवाल ने केवल सरकारी विभाग और कर्मचारियों के भ्रष्टाचार को निशाना बनाया और व्यापारियों के भ्रष्टाचार को छोड़ दिया या फिर बचाया। यही केजरीवाल की पूरी नीति है। वह केवल सरकारी अमलों और नेताओं के भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हैं और वह भी वह भ्रष्टाचार जिससे दुकानदारों, पूँजीपतियों आदि को नुक़सान होता है। इसीलिए केजरीवाल ने कहा था कि वह बनिया जाति से आते हैं और बनियों यानी कि व्यापारियों का दुख-दर्द जानते हैं! केजरीवाल ने विशेष तौर पर छोटे मालिकों, उद्यमियों और दुकानदारों को भरोसा दिलाया कि उन्हें ‘आप’ की सरकार से डरने की ज़रूरत नहीं है! उन्हें तो सरकारी विभाग के भ्रष्टाचार-रोधी छापों से मुक्ति मिलेगी!

साथ ही, केजरीवाल ने पूँजीपतियों से वायदा किया है कि वह दिल्ली में धन्धा लगाने और चलाने को और आसान बना देंगे। कैसे? आपको पता होगा कि कोई भी कारख़ाना या दुकान लगाने से पहले पूँजीपतियों को तमाम सरकारी जाँचों से गुज़रना पड़ता है, जैसे पर्यावरण-सम्बन्धी जाँच, श्रम क़ानून सम्बन्धी जाँच, कर-सम्बन्धी जाँच आदि। केजरीवाल ने वायदा किया है कि इन सभी जाँचों (इंस्पेक्शनों) से पूँजीपतियों को छुटकारा मिलेगा! लेकिन मज़दूरों को श्रम क़ानूनों से मिलने वाले अधिकार सुनिश्चित किये जायेंगे, श्रम विभाग में लेबर इंस्पेक्टरों और फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों की संख्या बढ़ायी जायेगी, श्रम क़ानूनों को लागू करने को सुनिश्चित किया जायेगा, ऐसी माँगों पर केजरीवाल कोई ठोस वायदा नहीं करते हैं। इसी से पता चलता है कि केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ मज़दूरों के साथ वोट के लिए धोखा कर रही है, जबकि उसका असली मक़सद है दिल्ली के पूँजीपतियों और विशेष तौर पर छोटे और मँझोले पूँजीपतियों की सेवा करना।

इस बार केजरीवाल सरकार ने एक बदलाव किया है। उसने पिछली बार की तरह यह नहीं कहा है कि वह छह महीनों में आधे वायदों को पूरा कर देगी। इस बार केजरीवाल सरकार ने कहा है कि ये वायदे 5 साल में पूरे किये जायेंगे। उसकी रणनीति यह है कि शुरुआती कुछ महीने कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पूरा करके, मध्यवर्ग को ख़ुश करके, और भ्रष्टाचार आदि पर दिखावटी हो-हल्ला मचाकर काट दिये जायें। मज़दूरों को आश्वासन दे-देकर इन्तज़ार कराया जाये और उनके इस वायदे को भूलने का इन्तज़ार किया जाये। यानी, केजरीवाल सरकार इस बार उच्च मध्यवर्ग और मँझोले मध्यवर्ग से की गयी कुछ प्रतीकात्मक माँगों को पहले पूरा करेगी और मज़दूरों को ठेंगा दिखाते हुए 5 साल बिता देगी। यही उनकी योजना है।

बिजली के बिल आधे करने और पानी निशुल्क करने पर भी केजरीवाल सरकार ने एक धोखा किया है। बिजली के बिल आधे करने के बारे में केजरीवाल सरकार इस बार दूसरी भाषा में बात कर रही है, जिस पर किसी का ध्यान ठीक तरीक़े से नहीं गया है। वह कह रही है कि बिजली कम्पनियों का ऑडिट कराये जाने तक सरकार अपने ख़ज़ाने से सब्सिडी देकर बिजली के बिल आधे करेगी और ऑडिट का नतीजा आने के बाद बिजली के बिल तय किये जायेंगे। पिछली बार भी जब सब्सिडी देना मुश्किल हो गया था तो केजरीवाल सरकार ने यही तर्क दिया था। चुनावों से पहले केजरीवाल ने यह नहीं कहा था कि बिजली के बिल केवल तब तक आधे रहेंगे जब तक कि ऑडिट नहीं हो जाता। न ही केजरीवाल ने चुनावों से पहले यह कहा था कि यह छूट केवल 400 यूनिट तक लागू होगी। उन्हें यह समझ में आ रहा है कि अनन्त काल तक सैकड़ों करोड़ रुपयों की सब्सिडी नहीं दी जा सकती है। जहाँ तक ऑडिट का प्रश्न है तो यह ऑडिट ‘कैग’ नामक एक सरकारी संस्था करती है। अब तक के इतिहास में इस संस्था ने कोई ऐसा ऑडिट नहीं किया है जो कि बड़ी कम्पनियों के सीधे ख़िलाफ़ जाये। दिल्ली में बिजली पैदा नहीं होती बल्कि उसे बाहर से ख़रीदना पड़ता है। इस बिजली के वितरण का कार्य पहले सरकारी विभाग ‘दिल्ली विद्युत बोर्ड’ करता था। फिर इसे दिल्ली के अलग-अलग इलाक़ों में टाटा की कम्पनी एनडीपीएल और अम्बानी की कम्पनी बीएसईएस को सौंप दिया गया। ‘कैग’ के ऑडिट में स्पष्ट हो जायेगा कि इन कम्पनियों को मुनाफ़ा कमाते हुए यदि बिजली का वितरण करना है तो बिजली के बिल आधे नहीं किये जा सकते। और फिर केजरीवाल सरकार बिजली के बिलों में मामूली-सी कटौती करके हाथ खड़े कर देगी और कहेगी कि ‘जब ऑडिट के नतीजे में यह सिद्ध हो गया है कि बिजली के बिलों में ज़्यादा कटौती नहीं की जा सकती, तो हम क्या कर सकते हैं।’ ऐसा भी हो सकता है कि बिलों में कोई कटौती न की जाये! बिजली के बिलों में कोई ख़ास कटौती तभी हो सकती है जबकि बिजली वितरण का निजीकरण समाप्त कर दिया जाये। वैसे पिछले चुनावों के पहले केजरीवाल ने संकेत दिये थे कि अगर कोई समाधान नहीं बचेगा तो निजीकरण समाप्त कर दिया जायेगा। लेकिन इस बार वह कह रहे हैं कि देश में बहुतेरी कम्पनियाँ हैं, उनमें से किसी और को बिजली वितरण का ठेका दे दिया जायेगा! निश्चित तौर पर, कोई भी कम्पनी मुनाफ़े के लिए ठेका लेगी, दिल्ली की जनता को सस्ती बिजली देने के लिए नहीं और कितनी भी प्रतियोगिता हो, निजीकरण के तहत बिजली के बिल एक स्तर से नीचे नहीं आयेंगे। निजीकरण के तहत बिजली के बिल हमेशा के लिए आधे कर दिये जायें यह तो सम्भव ही नहीं है क्योंकि केजरीवाल सरकार अनन्तकाल तक सरकारी ख़ज़ाने से सब्सिडी नहीं दे सकती है। ऐसे में, सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के पैसे भी नहीं बचेंगे! यही बात पानी को मुफ्त करने पर भी लागू होती है। लम्बे समय तक ऐसा कर पाना पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में रहते हुए बेहद मुश्किल है।

केजरीवाल सरकार ने इस बार झुग्गीवासियों से एक बार फिर से वायदा किया है कि उन्हें उनकी झुग्गी के स्थान पर ही पक्के मकान दिये जायेंगे। यह भी एक हवा-हवाई वायदा है और दिल्ली के झुग्गीवासी पाँच साल तक इसका इन्तज़ार ही करते रह जायेंगे। इसका कारण यह है कि तमाम झुग्गियाँ रेलवे व अन्य कई केन्द्रीय विभागों के स्थान पर बनी हैं और उसी जगह पर मालिकाने के साथ पक्के मकान देने का कार्य घुमावदार नौकरशाहाना पेच में ही फँसकर रह जायेगा। इसी प्रकार के अन्य कई ग़रीबों को लुभाने वाले झूठे वायदे करके केजरीवाल सरकार इस बार भारी बहुमत के साथ सत्ता में आयी है।

‘आम आदमी पार्टी’ की ज़बरदस्त जीत, उसकी राजनीति के वर्ग चरित्र और उनके वायदों और दावों की सच्चाई पर चर्चा करने के बाद, इस बात पर चर्चा के लिए आगे बढ़ा जा सकता है कि क्रान्तिकारी आन्दोलन को इनके मद्देनज़र क्या रणनीति अपनानी चाहिए।

क्रान्तिकारी आन्दोलन और मज़दूर आन्दोलन के साथ विशेष तौर पर क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन को केजरीवाल सरकार को बार-बार याद दिलाना चाहिए कि उसने दिल्ली की आम मेहनतकश जनता के साथ क्या वायदे किये हैं। क्रान्तिकारी आन्दोलन को मुख्य तौर पर दो वायदों को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार को बार-बार घेरना होगा। पहला है ठेका प्रथा को समाप्त करने का वायदा। और दूसरा है झुग्गीवासियों को उनकी झुग्गी के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा। इसमें एक वायदा है जिसके बारे में केजरीवाल सरकार कह सकती है कि इसमें वक़्त लगेगा और पाँच साल के लिए इन्तज़ार किया जाये। यह वायदा है झुग्गियों के स्थान पर पक्के मकान देने का वायदा। इसके लिए क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन को यह माँग करनी चाहिए कि केजरीवाल सरकार पक्के मकान देने की एक ठोस समयबद्ध योजना प्रस्तुत करे जिसमें कि अलग-अलग इलाक़ों में पक्के मकान देने की एक अन्तिम तिथि दी जाये, चाहे वह दो, तीन या चार साल बाद ही क्यों न हों। जब तक एक समयबद्ध वायदा नहीं लिया जाता तब तक झुग्गियों की जगह पक्के मकान देने के वायदे का कोई अर्थ नहीं होगा।

दूसरा वायदा ऐसा है जिसे तुरन्त पूरा करने की शुरुआत की जा सकती है। यह वायदा है ठेका प्रथा समाप्त करने का वायदा। इस बाबत क्रान्तिकारी आन्दोलन को दिल्ली के ठेका मज़दूरों को संगठित करके यह माँग करनी चाहिए कि दिल्ली राज्य के स्तर पर केजरीवाल सरकार एक ऐसा क़ानून पारित करे जो कि सभी नियमित प्रकृति के कार्यों पर ठेका मज़दूर रखने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाये। ऐसे क़ानून के बिना ठेका मज़दूरी का उन्मूलन दिल्ली में हो ही नहीं सकता है। केन्द्रीय क़ानून में मौजूद तमाम कमियों का इस्तेमाल करके ठेकेदार और मालिक ठेका प्रथा को जारी रखेंगे। इसलिए अगर केन्द्रीय भ्रष्टाचार-रोधी क़ानून के कमज़ोर होने पर दिल्ली राज्य स्तर पर एक जनलोकपाल क़ानून पारित किया जा सकता है, तो फिर एक ठेका उन्मूलन क़ानून भी पारित किया जा सकता है। अगर केजरीवाल सरकार इससे मुकरती है, तो साफ़ है कि ठेका मज़दूरी उन्मूलन का उसका वायदा झूठा है। ऐसा क़ानून बनने के बाद दिल्ली के मज़दूरों को यह माँग भी करनी चाहिए कि यह क़ानून सही ढंग से लागू हो सके इसके लिए उचित प्रबन्ध किये जाने चाहिए। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है दिल्ली राज्य सरकार के श्रम विभाग में कर्मचारियों की संख्या में बढ़ोत्तरी करना। पहले भी सरकारें बार-बार यह कहकर पल्ला झाड़ती रही हैं कि श्रम विभाग में पर्याप्त लेबर इंस्पेक्टर व फ़ैक्टरी इंस्पेक्टर नहीं हैं। जब दिल्ली राज्य में लाखों की संख्या में ग्रेजुएट व पोस्ट-ग्रेजुएट बेरोज़़गार घूम रहे हैं तो केजरीवाल श्रम विभाग में भारी पैमाने पर भर्ती करके रोज़़गार भी पैदा कर सकते हैं और साथ ही श्रम क़ानूनों के कार्यान्वयन को भी सुनिश्चित कर सकते हैं।

क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन को जिस माँग को ख़ास तौर पर उठानी चाहिए वह है दिल्ली राज्य स्तर पर एक रोज़़गार गारण्टी विधेयक की माँग। हमारा तर्क यह है कि अगर कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने देश के स्तर पर एक ग्रामीण रोज़़गार गारण्टी क़ानून पारित किया था, तो फिर दिल्ली राज्य पर जनता को रोज़़गार गारण्टी क़ानून क्यों नहीं दिया जाना चाहिए? हालाँकि मनरेगा में केवल 100 दिनों का रोज़़गार मिलता था और उसके लिए भी न्यूनतम मज़दूरी नहीं मिलती थी, यद्यपि हमें इस अधिकार की माँग करनी चाहिए और यह भी माँग उठानी चाहिए कि इस क़ानून के तहत 100 दिन नहीं बल्कि कम-से-कम 200 दिनों का रोज़़गार मिलना चाहिए और उसके एवज़ में दिल्ली राज्य की न्यूनतम मज़दूरी मिलनी चाहिए। इस क़ानून में इस बात का प्रावधान होना चाहिए कि अगर दिल्ली सरकार दिल्ली के किसी नागरिक को रोज़़गार नहीं दे पाती तो फिर उसे गुज़ारा-योग्य बेरोज़़गारी भत्ता दिया जाना चाहिए। यानी कि उत्तर प्रदेश सरकार के समान 1000-1200 रुपये का हास्यास्पद बेरोज़़गारी भत्ता नहीं बल्कि राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी के बराबर बेरोज़़गारी भत्ता मिलना चाहिए। इस माँग से दिल्ली के मज़दूरों को कुछ सुरक्षा मिल सकती है, जो कि औद्योगिक मन्दी के चलते आएदिन बेकारी की मार झेलते हैं। साथ ही इस माँग के पूरा होने से दिल्ली के लाखों बेरोज़़गार युवाओं को भी रोज़़गार मिल सकता है। केजरीवाल ने 5 वर्षों में 8 लाख रोज़़गार पैदा करने का वायदा किया है और अगर दिल्ली में शहरी रोज़़गार गारण्टी क़ानून नहीं पारित करवाती तो यह वायदा महज़ काग़ज़ी बना रह जायेगा।

विशेष तौर पर ये तीन बुनियादी माँगें उठाकर क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन और क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन को संघर्ष करना चाहिए। आने वाले पाँच वर्षों में यह संघर्ष ही दिल्ली की आम जनता के सामने स्पष्ट करेगा कि ‘आम आदमी पार्टी’ और केजरीवाल के ‘सदाचार’ और ‘अच्छी नीयत’ के शोर-शराबे के पीछे का सच क्या है। पराजयबोध के शिकार वामपन्थियों और संशोधनवादियों से अलग क्रान्तिकारी आन्दोलन को मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को ‘आम आदमी पार्टी’ का पिछलग्गू नहीं बनने देना होगा। मज़दूर वर्ग को अपनी राजनीति की स्वतन्त्रता और स्वायत्तता को बनाये रखना चाहिए। मज़दूर वर्ग की राजनीति यदि अपनी स्वतन्त्रता और स्वायत्ता को नहीं बनाये रखती, अगर वह अपने अलग स्वतन्त्र संगठनों की स्वायत्तता को नहीं बनाये रखती तो फिर वह एक अपनी शक्ति खो बैठती है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015

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