उद्धरण
प्रेमचन्द (‘राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीयता’ लेख से)
संसार आदिकाल से लक्ष्मी की पूजा करता चला आता है। लेकिन संसार का जितना अकल्याण लक्ष्मी ने किया है, उतना शैतान ने नहीं किया। यह देवी नहीं डायन है। सम्पत्ति ने मनुष्य को क्रीतदास बना लिया है। उसकी सारी मानसिक, आत्मिक और दैहिक शक्ति केवल सम्पत्ति के संचय में बीत जाती है। मरते दम तक भी हमें यही हसरत रहती है कि हाय, इस सम्पत्ति का क्या हाल होगा। हम सम्पत्ति के लिए जीते हैं, उसी के लिए मरते हैं। हम विद्वान बनते हैं सम्पत्ति के लिए, गेरुआ वस्त्र धारण करते हैं, सम्पत्ति के लिए। घी में आलू मिलाकर हम क्यों बेचते हैं? दूध में पानी क्यों मिलाते हैं? भाँति-भाँति के वैज्ञानिक हिंसा यंत्र क्यों बनाते हैं? वेश्याएँ क्यों बनती हैं, डाके क्यों पड़ते हैं? इसका एकमात्र कारण सम्पत्ति है। जब तक सम्पत्तिहीन समाज का संगठन नहीं होगा, जब तक सम्पत्ति व्यक्तिवाद का अन्त नहीं होगा, संसार को शान्ति न मिलेगी।
बेर्टोल्ट ब्रेष्ट (14 अगस्त, 1956)
55वीं पुण्यतिथि के अवसर पर
“लेखन के जरिये लड़ो! दिखाओ कि तुम लड़ रहे हो! ऊर्जस्वी यथार्थवाद! यथार्थ तुम्हारे पक्ष में है, तुम भी यथार्थ के पक्ष में खड़े हो! जीवन को बोलने दो! इसकी अवहेलना मत करो! यह जानो कि बुर्जुआ वर्ग इसे बोलने नहीं देता! लेकिन तुम्हे इजाजत है। तुम्हे इसे बोलने देना चाहिये। चुनो उन जगहों को जहां यथार्थ को झूठ से, ताकत से,चमक-दमक से छुपाया जा रहा है। अन्तरविरोधों को उभारो!… अपने वर्ग के लक्ष्य को, जो सारी मानवता का लक्ष्य है, आगे बढ़ाने के लिये सबकुछ करो, लेकिन किसी भी चीज को सिर्फ इसलिये मत छोड़ दो, क्योंकि वह तुम्हारे निष्कर्षों, प्रस्तावों और आशाओं के साथ मेल नहीं खाती बल्कि ऐसे निष्कर्ष को छोड़ ही दो, बशर्ते सच्चाई आड़े न आये, लेकिन ऐसा करते हुए भी इस बात पर जोर दो, कि उस भयंकर लग रही कठिनाई पर जीत हासिल कर ली गयी है। तुम अकेले नहीं लड़ रहे हो, तुम्हारा पाठक भी लड़ेगा, यदि तुम उसमें लड़ाई के लिए उत्साह भरोगे। तुम अकेले ही समाधान नहीं ढूढोगे, वह भी उसे ढूढेगा।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2011
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