व्यवस्था में आस्था के सबसे बड़े रक्षक सर्वोच्च न्यायालय का ‘‘न्याय’’ 

प्रेमप्रकाश, दिल्ली

5 जुलाई को उच्चतम न्यायालय ने फैसला देते हुए सलवा जुडुम को भंग कर दिया। केन्द्र सरकार व छत्तीसगढ़ सरकार को कड़ी फटकार लगायी। एक बार को ऐसा लग सकता है कि अब तक न्याय के सबसे बड़े संस्थान को ऐसे जनता विरोधी राजसत्ता के दमनात्मक कार्यवाही का पता ही नहीं था, और जैसे ही यह मामला उसके संज्ञान में आया; उसने तुरन्त सरकारों को फटकार लगायी। दरअसल न्यायालय का यह फैसला उसकी अपनी न्यायप्रियता और जनता का प्रेम नहीं वरन राज्यसत्ता के दमन के खिलाफ जनसंघर्ष एवं जनआक्रोश का नतीजा है। चाहे विनायक सेन की जमानत का मामला हो या सलवा जुडुम को असंवैधानिक करार देकर उसे भंग किये जानें का मामला हो, न्यायालय महज राज्य के खिलाफ बन रही जन राय को पुनः राज्य के प्रति आस्था में स्थापित करनें के लिए ही ऐसा काम बीच बीच में करता रहता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि जहाँ छत्तीसगढ़ में सलवा जुडुम को भंग किया गया है वहीं उसी इलाके में कांउडर इंसजेंसी (जंगल वारफेयर) प्रशिक्षण के लिए जमीन अधिग्रहण के लिए सेना ने निरीक्षण आरम्भ कर दिया है। अर्थात खनिज व प्राकृतिक सम्पदा तो पूंजीपतियों को बेची ही जाएगी चाहे जैसे भी। दूसरी तरफ नर्मदा बांध परियोजना के मामले में दायर एक याचिका जिसमें मध्य प्रदेश में विस्थापित भूमिहीन मजदूरों के लिए जमीन की बात की गयी थी को कोर्ट ने खारिज कर दिया। ज्ञात हो कि वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश में नर्मदा बांध परियोजन को स्वीकृति देते हुए ‘केन्द्रीय कल्याण मंत्रलय’ ने विस्थापित भूमिहीनों को दो-दो हेक्टर भूमि देने की सिफारिश की थी। कोर्ट ने यह दलील देते हुए अपील को खारिज कर दिया कि राज्य सरकार ने जो विस्थापन एवं पुनर्वास नीति बनाई है उसके अनुसार भूमिहीनों को भूमि मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है। मामला साफ है जब उजाड़ना हो, लूटना हो, पूंजीवादी विकास को पांव पसारना हो तो कहो कि सुरक्षा दी जाएगी और बाद में मुकरने के लिए कानूनों का सहारा तो है ही। यही न्यायालय एक ओर लोगों की आस्था को बनाये रखने के लिए मामले को स्वतः संज्ञान में लेने की दुहाई देता है तो दूसरी ओर लूट की व्यवस्था एवं मजदूर अधिकारों के मामले में आँख बंद कर लेता है। मजदूरों के हड़ताल को सीमित करते हुए रंगराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला सुनाया था उसे कैसे भूला जा सकता है। तेस्मा (Tamil Nadu Essential Services Maintenance Act) जैसे मजदूर हितों के विरोधी कानून सुप्रीम कोर्ट के संज्ञान में ही लागू है। स्पष्ट है पूंजीवादी प्रजातंत्र जो वस्तुतः पूंजीपतियों द्वारा जनता पर थोपी गयी तानाशाही है। पूँजी की राजसत्ता का महल जिन खम्भों पर खड़ा होता है उसमें पूँजीवादी न्यायपालिका सत्ता के विभ्रम को बरकरार रखने वाली सबसे मजबूत खम्भा है। यह अंतिम दम तक शोषणकारी राज्य के कल्याणकारी मुखौटे का भ्रम लोगों में कायम करनें का काम करती है। वर्ग समाज में अल्पसंख्यक पूंजीपति वर्ग के शासन में कानून एक ऐसा हथियार है जिससे आम जनता का वैधानिक शोषण सम्भव होता है। भगतसिंह ने शोषणकारी राज्य मशीनरी की न्याय व्यवस्था व कानून के लिए कहा था कि ‘कानून की पवित्रता तभी तक रखी जा सकती है जब तक वह जनता के दिल की भावनाओं को प्रकट करता है, जब यह शोषणकारी समूह के हाथों एक पुर्जा बन जाता है तब अपनी पवित्रता और महत्व खो बैठता है। न्याय प्राप्त करने के लिए मूल बात यह है कि हर तरह के लाभ या हित का खात्मा होना चाहिए।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2011

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