गुजरात नरसंहार मामले में विशेष अदालत का फैसला और इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में विशेष जाँच दल की रिपोर्ट
 असली इंसाफ़ होना अभी बाकी है!

शिवानी

हाल ही में, नवम्बर में 2002 गुजरात नरसंहार से जुड़े एक मामले में एक विशेष अदालत द्वारा दिये गये फैसले और इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले में विशेष जाँच दल की जाँच रिपोर्ट से तमाम साम्प्रदायिकता-विरोधी ताक़तें एवं विधिक विशेषज्ञ काफ़ी खुश हैं। ये सभी इन दोनों वाकयों को इस देश की न्यायिक व्यवस्था की विजय के रूप में देख रहे हैं और मान रहे हैं कि इससे गुजरात नरसंहार के पीड़ितों में अन्ततः इंसाफ़ होने की उम्मीद जगी है। क्या यह आशावाद तर्कसंगत है? क्या वाकई पूँजीवादी न्यायिक व्यवस्था से इंसाफ़ और न्यायप्रियता की उम्मीद की जा सकती है?

गत 9 नवम्बर 2011 को एक विशेष अदालत ने 2002 के गुजरात नरसंहार के दौरान मेहसाणा जिले के सरदारपुरा गाँव में 33 मुसलमानों को जिन्दा जलाने के आरोप में 31 लोगों को दोषी ठहराते हुए उम्र कैद की सज़ा सुनायी। वहीं दूसरी ओर इस मामले में कुल 73 आरोपियों में से अदालत ने 42 को बरी कर दिया। इनमें से 11 को सबूतों के अभाव में रिहा कर दिया गया और 31 को सन्देह का लाभ दिया गया। न्यायालय ने इन 31 आरोपियों को जहाँ हत्या का प्रयास, दंगा करने, और भारतीय दण्ड संहिता की अन्य धाराओं के तहत दोषी ठहराया, वहीं इन सबके खि़लाफ़ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 (बी) के तहत आपराधिक षड़यन्त्र के आरोप को रद्द कर दिया। अदालत ने अभियोजन पक्ष के इस आरोप को सिरे से ख़ारिज कर दिया कि हमला पूर्वनियोजित था और स्थानीय नेताओं द्वारा रची गयी साजिश के तहत अभियुक्तों को पहले से ही हथियार बाँटे गये थे। अपने फैसले में अदालत इस नतीजे पर पहुँची कि यह वीभत्स हत्याकाण्ड 27 फरवरी को गोधरा काण्ड के दो दिन बाद 1 मार्च 2002 को एक त्वरित जवाबी कार्रवाई के तौर पर अंजाम दिया गया था। 2002 में गुजरात में जो कत्ले-आम लगभग एक-डेढ़ महीने तक बिना थमे चलता रहा, यह निष्कर्ष उसे जिस तरह से परिभाषित कर रहा है, वह सत्य एवं तथ्य, साक्ष्यों एवं प्रमाणों से कोसों दूर है। इसलिए उन तमाम प्रबुद्ध प्रगतिशील धर्मनिरपेक्ष लोगों को एक बार रुककर सोचने की ज़रूरत है, जो इस फैसले को पूँजीवादी न्याय व्यवस्था की ऐतिहासिक विजय मानकर जश्न मना रहे हैं, कि क्या पूरे मामले में इस सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु पर अदालत का यह रुख़ इस देश की न्यायपालिका के चरित्र के बारे में कुछ नहीं बताता?

gujarat riots

गुजरात में हज़ारों बेगुनाहों के कत्ले-आम को आम तौर पर दंगों की संज्ञा दी जाती है। विशेष अदालत द्वारा दिया गया फैसला इसी धारणा को पुख़्ता करता है। लेकिन आज यह बात किसी से छिपी नहीं है कि जिन 1500 से 3000 हज़ार लोगों ने इस भीषण नरसंहार में अपनी जान गँवाई वे किसी स्वतःस्फूर्त तरीके से होने वाले साम्प्रदायिक दंगों की भेंट नहीं चढ़े थे। वे सुनियोजित नरसंहार के शिकार बने थे जिसकी तैयारी संघ के आनुषंगिक संगठन गोधरा की घटना के भी पहले से कर रहे थे। पिछले 9 सालों में तमाम खुलासों ने (और विशेषकर, ‘तहलका’ द्वारा किये गये खुलासे में) एक अकाट्य तथ्य के तौर पर गुजरात नरसंहार में राज्य एवं तमाम साम्प्रदायिक फासीवादियों की भूमिका और इनके द्वारा प्रायोजित और सुनियोजित तरीके से मुसलमान-बहुल इलाकों को लक्षित करने की बात को स्थापित किया है। राज्य मशीनरी के तमाम अंगों द्वारा चाहे वह पुलिस तन्त्र हो या नौकरशाही; दंगाइयों को खुली छूट दी गयी थी, उन्हें संरक्षण दिया गया था और सीधे-सीधे मदद पहुँचायी गयी थी। खुद सरदारपुर गाँव में 1 मार्च को हुई वारदात से करीब 10 दिन पहले भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिन्दू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अन्य आनुषंगिक संगठनों के कई प्रभावशाली नेताओं द्वारा इस क्षेत्र में साम्प्रदायिक तनाव पैदा करने की बात भी सामने आयी है। यह गोधरा काण्ड से पहले की बात है, इसलिए अदालत द्वारा आपराधिक षड़यन्त्र के आरोप को ख़ारिज करने की ज़मीन ही ख़त्म हो जाती है। स्पष्ट है कि अदालत के फैसले ने इन सभी तथ्यों की अनदेखी की है। यह फैसला एक बार फिर पूँजीवादी न्याय व्यवस्था के दोगले चरित्र और अल्पसंख्यकों के प्रति पूर्वाग्रह को पुष्ट करता है। चाहे वह अयोध्या विवाद में दिया गया फैसला हो, सोहराबुद्दीन-कौसर बी का मामला हो या फिर हम इसी फैसले को देखें, इस देश की न्याय-व्यवस्था धार्मिक बहुसंख्या के हितों की ही पैरवी करती है।

दूसरी ओर, 21 नवम्बर 2011 को गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा इशरत जहाँ मुठभेड़ मामले की सत्यता की जाँच के लिए नियुक्त विशेष जाँच दल द्वारा सौंपी गयी रिपोर्ट के नतीजे से भी तमाम धर्मनिरपेक्ष ताक़तें हर्षोल्लसित हैं। विशेष जाँच दल की रिपोर्ट ने अहमदाबाद अपराध शाखा द्वारा इशरत जहाँ समेत तीन अन्य की पुलिस मुठभेड़ में मौत को फर्जी मुठभेड़ करार दिया है। गुजरात पुलिस का दावा था कि ये चारों लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य थे और नरेन्द्र मोदी की हत्या की मिशन पर भारत आये थे। इशरत जहाँ मुठभेड़ मामला इकलौता ऐसा मामला नहीं है जिसमें पुलिस एजेंसियों द्वारा मुसलमानों के उत्पीड़न की बात सामने आयी हो। मालेगाँव बम धमाके से जुड़े केस से लेकर मक्का मस्जिद और अजमेर शरीफ़ के मामले तक, पूरे पुलिसिया प्रशासनिक तन्त्र का पूर्वाग्रह अल्पसंख्यकों के विरुद्ध ही काम करता है। यदि इस मामले में विशेष जाँच दल की रिपोर्ट के बिना पर कोई कार्रवाई होती भी है, तो बड़ी मछलियाँ तो फिर भी बच ही निकलेंगी।

Ishrat_Jahan_encounter,_2004

इस तथ्य को साबित करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की ज़रूरत भी नहीं है कि गुजरात नरसंहार के करीब 10 साल बाद भी गुजरात के नीरो नरेन्द्र मोदी-समेत तमाम धर्म-ध्वजाधारियों और फासीवादियों पर कोई आँच तक नहीं आयी है। इस देश की न्यायिक व्यवस्था आज भी शेक्सपीयर के पात्र हैमलेट की भाँति ‘मोदी को चार्जशीट किया जा सकता है या नहीं’ की ऊहापोह में फँसी हुई है। ये तथ्य स्वयं ही पूँजीवादी न्याय व्यवस्था पर सवालिया निशान खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। यह दीगर बात है कि अगर मोदी के खि़लाफ़ आरोप-पत्र दायर हो भी जाता है तो ये पूरी न्यायिक प्रक्रिया इतनी लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी और थकाऊ होगी कि इस पूरे मामले में ही ज़्यादा कुछ नहीं हो पायेगा। जब तक पूँजीवाद रहेगा, समाज में साम्प्रदायिकता और राजनीति में उसके उपयोग की ज़मीन भी बनी रहेगी। गुजरात जैसे नरसंहार होते रहेंगे, लोगों की जानें इसकी भेंट चढ़ती रहेंगी और मोदी जैसे लोग बेख़ौफ़ कानून को अँगूठा दिखाते हुए खुलेआम आज़ाद घूमते रहेंगे। इसलिए ऐसी व्यवस्था से सच्चे न्याय की उम्मीद करना ही बेमानी है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2011

 

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