भगवा ब्रिगेड का फ़रमान वरुण गांधी की जुबान
शाम, दिल्ली
दुनिया के हर प्रजाति के फ़ासीवादियों की तरह हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की प्रचार–रणनीति भी सफ़ेद झूठ पर टिकी है। हिटलर के कुख्यात प्रचार मन्त्री गोयबल्स की प्रचार शैली का तो सूत्रवाक्य ही था कि एक झूठ को सौ बार दुहराओ तो वह सच में बदल जाता है। लेकिन ‘स्वदेशी’ फ़ासीवादियों ने तो इस गोयबल्सवादी प्रचारशैली को भी मात दे दी है। इन सफ़ेद झूठों की सूची को और लम्बा करने काम वरुण गांधी ने किया है और अपनी बात को सही साबत करने के लिए अपने पक्ष में कहा कि मैं एक ऐसे माहौल में बोल रहा हूँ जब हिन्दू दबा हुआ महसूस कर रहे थे और मुझे उनमें ‘हिम्मत’ भरनी है। कई हिन्दू लड़कियों का बलात्कार किया गया था। वहाँ क्या मैं एक नर्म भाषण देता? जिसमें यह बात अन्तर्निहित है कि हिन्दू लड़कियों का बलात्कार भला हिन्दू थोड़े ही करेंगे! ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ ने इसमें अपनी रिपोर्ट छापी कि कई नहीं, तीन बलात्कारों की सूचना थी और सबमें जो अपराधी नामजद थे, वे हिन्दू ही थे। 2002 के गुजरात के अखबारों में ख़बर छपी कि हिन्दू औरतों के क्षत-विक्षत शरीर पाए गए हैं। ऐसी सारी खबरें गलत पाई गई, लेकिन किसी ने इसके लिए माफ़ी नहीं माँगी। इसी तकनीक का इस्तेमाल वरुण गाँधी ने किया जो संघ परिवार की बार-बार अपनाई गई तकनीक है।
एक और बात भी देखी जा सकती है किस तरह चुनावी नौटंकी का खेल खेला जाता है। चुनावों में आडवाणी अपने आपको सीधे-सीधे किसी ऐसे मुस्लिम-विरोधी बयान से बचाते रहे ताकि कुछ मुस्लिम वोट जुटाया जा सके। भाजपा यह काम गुजरात दंगों की वजह से नरेन्द्र मोदी के मुँह से भी नहीं कहलवाना चाहती थी। अब वरुण गांधी जैसा एक ऐसा मोहरा हाथ में आया जिसका इस्तेमाल ‘एक तीर दो निशाने’ की तरह किया। एक तरफ़ उसने अपने हिदुत्व के एजेन्डे वाले आधार को विश्वास दिलवा दिया कि अभी भी उसका हिदुत्व का एजेन्डा कायम है। दूसरा, कांग्रेस पार्टी में नेहरु–गाँधी परिवार के किसी सदस्य से यह बात कहलवाकर मीडिया का इस्तेमाल भी कर लिया। ऐसा करते वक्त चुनावी माहौल को देखते हुए पहले तो भाजपा पीछे रही और वरुण गाँधी भी सी.डी. में छेड़छाड़ की बात कर रहा था। सिर्फ़ संघ परिवार ही आगे आया परन्तु बाद में इसका फ़ायदा देखकर भाजपा सीधे-सीधे उसके समर्थन में आ गई और वरुण गाँधी भी इसे मानने लगा। चुनावी फ़ायदा देखकर गिरगिट से जल्दी अपना रंग बदल लिया। यही तो है चुनावी नौटंकी का असली खेल।
वैसे दिमाग़ में एक सहज-सा प्रश्न आता है कि नेहरु–गांधी परिवार के दोनों हाथ में तिरंगे झण्डे की जगह उसके वंशज द्वारा एक हाथ में भगवा झण्डा पकड़ने जाने और अब पीलीभीत में खुलकर मुसलमानों के खिलाफ़ वरुण गांधी के बयान पर इतनी चर्चा और आश्चर्य क्यों? क्योंकि नर्म साम्प्रदायिक हिन्दू कार्ड का इस्तेमाल करने के कांग्रेस पार्टी का हुनर तो उसने अपने गाँधी परिवार से ही सीखा था। आपातकाल के समय व्यावहारिक तौर पर सरकार चलाने वाले संजय गाँधी खुद भी मुस्लिम-विरोधी था। दिल्ली में तुर्कमान गेट पर बसी बस्ती पर बुलडोजर उसी ने चलवाया था और वहाँ से उजाड़े गये लोगों को कहीं बाहरी जगह पर बसाया था। उसकी माँ मेनका गाँधी ने इमरजंसी के वक्त अपने पति की सभी ज़्यादतियों में साथ दिया था और बाद में तो सीधे-सीधे भाजपा (संघ परिवार) में शामिल हो गई। वहीं पर चुनाव आयोग द्वारा अपने आप को धर्मनिरपेक्ष साबित करने के लिए केवल वरुण गांधी को दोषी ठहराकर उसकी पार्टी भाजपा को क्लीन चीट देना ही सबकुछ बतला देता है। सरकार, न्यायालय और प्रशासन का असली चेहरा भी सामने आता है कि तमाम नरसंहारों को व्यवस्थित रुप से आयोजित करने वाले नरभक्षियों को पकड़ने की (जिसको महज साम्प्रदायिक दंगा साबित करने की कोशिश की जाती है) बजाय उन्हें छुट्टा घूमने के लिए खुला छोड़ रखा है। चाहे वो गुजरात के हिटलर नरेन्द्र मोदी की सरकार हो या फ़िर कांग्रेस की केन्द्र सरकार हो। गुजरात उच्च न्यायालय ने चाहे निचली अदालत द्वारा माया कोडयानी (नरेंन्द्र मोदी मंत्रीमण्डल की सदस्य) को दी गई अग्रिम जमानत रद्द कर दी लेकिन आज तो अदालतों के चरित्र का भी सब को पता चल गया है। हाल ही में जैसे सीबीआई द्वारा कांग्रेस के जगदीश टाईटलर को क्लीन चीट (जबकि नानावटी कमीशन उसे दोषी ठहरा चुका है) दी है, उसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार, न्यायालय और प्रशासन कैसे काम करता है। अपने चहेते के बयान पर सिर्फ़ भाजपा, एबीवीपी, विहिप, बजरंग दल, श्री राम सेना ही पीठ नहीं ठोक रहा बल्कि बधाई देने वालो में संघ प्रमुख, कांची के शंकराचार्य, श्री-श्री रविशंकर, मोरारी बापू और अंबानी बंधू सहित कई उद्योगपति शामिल थे। उसे अपने मोबाइल फ़ोन पर 10 हजार से ज्यादा एसएमएस और 800 जिलों से फ़ैक्स आए। करीब 37 हजार लोंगों ने उसे यूट्यूब पर देखा और सुना। इसी तरह की राजनीति का मुम्बई में नुस्खा आजमाने वाले बाल-राज ठाकरे उसकी पीठ ठोक रहें हैं।
चुनावों में साबित हो गया कि इस हिन्दू कार्ड को आक्रामक ढंग से खेलकर भी भाजपा को कोई लाभ नहीं हुआ। कारण साफ़ है। जनता साम्प्रदायिक कार्ड से बुरी तरह ऊबी हुई है। उसके जीवन के मूल मुद्दे किसी के चुनावी घोषणापत्र में दिखलाई तक नहीं दिये। नतीजतन, सरकार और सभी चुनावी पार्टियों के लाखों प्रयासों के बावजूद वोटों पर कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ा। पिछले कई चुनावों की तरह इस बार भी 55 फ़ीसदी ही वोट पड़े। जनता सभी से ऊबी हुई है और भाजपा की मरियल बूढ़ी घोड़ी से तो चिढ़ी हुई है। यही कारण था कि प्रधानमन्त्री पद के लिए हुलस-किलस रहे लालकृष्ण आडवाणी के लाखों प्रयासों के बावजूद भाजपा चुनावों में बुरी तरह पिट गई।
भारतीय राजनीति और चुनाव में चाहे कोई चेहरा सामने आये, चाहे कैसे भी गोटी बिठाई जाए लेकिन फ़ासीवादी उभार के वर्तमान दौर की दो बातें अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। पहली यह कि कोई भी गठबन्धन सत्ता में आए, भारतीय समाज के सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में संघ परिवार और इस तरह की अन्य फ़ासीवादी शक्तियों की मौजूदगी बनी रहेगी, क्योंकि उदारीकरण-निजीकरण के मौजूदा जारी दौर के स्वाभाविक परिणाम के रुप में सम्भावित मेहनतकश अवाम की प्रतिरोधत्मक एकता को तोड़ने के लिए आज बड़े पूँजीपति वर्ग का बहुलांश और साम्राज्यवादी शक्तियां ‘‘नियंत्रित’’ फ़ासीवाद की लगातार मौजदूगी की पक्षधर हैं। वे उसे जंजीर से बन्धे शिकारी कुत्ते की तरह मजदूर वर्ग और व्यापक जनता के खिलाफ़ लगातार तैनात रखना चाहती है। दूसरी बात, जो ओर अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह है कि भारतीय रुग्ण और विकलांग पूँजीवादी व्यवस्था के ढाँचागत संकट का जो नया दौर शुरु हुआ था, वह आज मंदी और संकट के रुप में सामने आ चुका है जो विश्व-पूंजीवादी मंदी और संकट का ही एक अंग और प्रतिफ़ल है। देशी-विदेशी पूँजी की ‘‘अतिलाभ’’ निचोड़ने की हवस और परजीवी वित्तीय पूँजी के निर्णायक, सम्पूर्ण वर्चस्व ने इन देशों की पूरी सामाजिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक अधिरचना के फ़ासिस्टीकरण की प्रक्रिया तेज़ कर दी है। यही उसके सामने एकमात्र विकल्प है। उसने अपनी आवश्यकता और बाध्यता के रुप में निर्बन्ध बाज़ारीकरण का जो मार्ग चुना है, उसके लिए एक निरकुंश सत्ता तन्त्र अनिवार्य होगा।
इस साम्प्रदायिकता और फ़ासीवाद का विरोध सही ढंग से करना बहुत जरुरी है। इसका विरोध मध्यवर्गीय-सुविधाभोगी-नपुंसक–धर्मनिरपेक्ष, ‘‘नेहरुवादी धर्म निरपेक्षता’’ या कभी-कभी पश्चिमी देशों के ‘‘बुर्जआ जनवादी विभ्रमों’’, बाजार समाजवाद या सामाजिक जनवाद, भाजपा विरोधी गठजोड़ की संसद में तीसरी ताकतों के रणनीति, एनजीओ–पंथियों के नये-नये नुस्खे-फ़ार्मूले अपनाने की बजाये शहरी मज़दूर आबादी को और उसके साथ गांव के गरीबों को और फ़िर गांव-शहर के आम, परेशान मध्यवर्गों में वर्ग चेतना को जगाते हुए लामबन्द करते हुए करना होगा तथा क्रान्तिकारी जनदिशा की राजनीति प्रचार की कार्यवाही लगातार चलाना और मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन की याद दिलाना होगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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