दुनिया में एक अरब लोग भुखमरी के शिकार!

लता

भुखमरी, बेरोज़गारी, शोषण, महँगाई, प्राकृतिक विध्वंस! अपने प्रगतिशील योगदानों के चुक जाने की लगभग डेढ़ सदी बीत जाने के बाद अब पूँजीवाद के झोले में मानवता के लिए मात्र ये ही तोहफ़े बचे हैं। समय बीतने के साथ-साथ इन तोहफ़ों का आकार विकराल होता जा रहा। और इसके बोझ तले दबती जा रही है आम मेहनतकश जनता। पूँजीपतियों के टुकड़ों पर पलने वाले मीडिया से मिलने वाले ठण्डे, तटस्थ आँकड़ों से शायद हम इन कठिनाइयों की मार झेल रही जनता की बेहाली और असहनीय जीवन स्थितियों की कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। क्या यह चौंका देने वाला आँकड़ा नहीं है कि दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 96.3 करोड़, या कहें कि लगभग 1 अरब है। यह संख्या पूरी विश्व की आबादी का 14 प्रतिशत है। यह सिर्फ़ आँकड़े नहीं हैं; हर गिनती के पीछे एक हाड़-मांस का इंसान खड़ा है जो इंसान होते हुए भी इंसानियत की ज़िन्दगी नहीं जी रहा है। खून-पसीना बहाकर भी, हडि्डयों को गलाकर भी उसे और उसके बच्चों को दो जून की रोटी तक नहीं नसीब होती। मिलती है तो भुखमरी और मौत।

Malnutritionफ़ूड एण्ड एग्रीकचल्रल ऑर्गनाइज़ेशन (एफ़.ए.ओ.) की देशों में खाद्यान्न असुरक्षा पर आई एक रिपोर्ट के अनुसार भुखमरी के शिकार लोगों का बहुलांश विकासशील देशों में है। और तो और, भुखमरी का शिकार कुल आबादी का 65 प्रतिशत मात्र इन सात देशों में है-भारत, चीन, कांगो, बांग्लादेश, इण्डोनेशिया, पाकिस्तान और इथियोपिया। निश्चित ही भारत जैसे देश में, जहाँ 77 प्रतिशत आबादी 20 प्रतिदिन या उससे कम पर गुज़ारा कर रही हो, वहाँ के लिए यह एक स्वाभाविक-सी बात है। यह आबादी इस आसमान छूती महँगाई में क्या खा रही होगी इसका अन्दाज़ा आप स्वयं ही लगा सकते हैं। दाल और सब्जियाँ तो मेहनतकश आबादी की थाली से काफ़ी पहले ही ग़ायब हो चुकी थीं, अब जो बचा है उसकी मात्र भी कम होती जा रही है। निम्न-मध्यवर्गीय आबादी की स्थिति भी लगातार दयनीय होती जा रही है।

एफ़.ए.ओ. ने दुनिया भर में भुखमरी के बारे में अपनी नवीनतम रिपोर्ट में कहा है कि यह स्थिति खाद्यान्न की बढ़ती कीमतों के कारण पैदा हुई है। और यह चेतावनी भी दी है कि अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय संकट से यह स्थिति और ख़राब हो सकती है। लेकिन खाद्यान्नों की कीमत कुछ माह पहले के अपने ऐतिहासिक उछाल के बाद थोड़ी कम हो गई हैं लेकिन एफ़.ए.ओ. के अनुसार ये कीमतें अभी भी 2 वर्ष पहले के स्तर से 28 प्रतिशत ऊपर हैं। लेकिन अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमतों की घटती-बढ़ती का यह खेल केवल थोक व्यापार को प्रभावित करता है, खुदरा व्यापार को नहीं। यानी कि जनता के लिए कीमतें घटना तो दूर की बात है, बढ़ी हैं। नतीजतन, न तो भुखमरी में कोई कमी आई है और न ही कुपोषण में। यह सही है कि महँगाई ही इस भुखमरी और कुपोषण का प्रमुख कारण है। यह भी सही है कि वैश्विक संकट इसे और अधिक बढ़ाएगा। लेकिन आखिर खाद्यान्न की कीमतें बढ़ी क्यों हैं?

खाद्यान्न संकट की शुरुआत वैश्विक वित्तीय संकट से काफ़ी पहले हो चुकी थी। इस संकट का श्री गणेश तीसरी दुनिया के देशों में नवउदारवादी नीतियों के पूरे ज़ोर-शोर से लागू होने के साथ हो गया था। भूमण्डलीकरण के दौर में “कल्याणकारी राज्य” और नेहरू शैली का “समाजवाद” (जो दरअसल राज्य पूँजीवाद ही था) पूँजी के निर्बन्ध प्रवाह में बाधा बन गये। तमाम तीसरी दुनिया के देशों के सामने इन मुखौटों को इनकी प्रासंगिकता ख़त्म होने के साथ उतार फ़ेंकना एक बाध्यता बन गई। 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध तक यह प्रक्रिया तीसरी दुनिया के सभी देशों में शुरू हो चुकी थी। इसके बाद पूँजीवाद अपने असल रूप में बिना किसी नकाब-हिजाब के आ गया। सरकार द्वारा कृषि को दिया जाने वाला संरक्षण बन्द किया जाने लगा। कृषि में बड़े पैमाने पर वाणिज्यीकरण हुआ और पूरा कृषि क्षेत्र विश्व बाज़ार के अधीन आने लगा। ऐसे में सार्वजनिक वितरण प्रणाली से सरकार अपना हाथ खींचने लगी क्योंकि आई.एम.एफ़- विश्व बैंक- विश्व व्यापार संगठन के नुस्खों के अनुसार यह सरकार के लिए अनुत्पादक निवेश था और यह सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं थी। यही था नवउदारीकरण का रास्ता जिसपर सरकार को सभी सार्वजनिक और कल्याणकारी उपक्रमों से हाथ खींचकर अधिक से अधिक नग्न रूप में पूँजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी बन जाना था। आज वह प्रक्रिया भारत समेत तमाम तीसरी दुनिया के देशों में काफ़ी आगे तक विकसित हो चुकी है। यह नवउदारवादी और भूमण्डलीकरण की नीति खाद्यान्न संकट के तीसरी दुनिया के देशों में पैदा होने का प्रमुख व्यापक कारण है। लेकिन यह भी सच है कि पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर इन देशों के शासक वर्गों के पास और कोई विकल्प भी नहीं था।

इस मूल कारण के अलावा कई तात्कालिक कारण भी थे जिन्होंने खाद्यान्न संकट को जन्म दिया। एक कारण है खाद्यान्न उत्पादों के बाज़ार में बढ़ती सट्टेबाज़ी। खाद्यान्न बाज़ार में सट्टेबाज़ों को निवेश की छूट, फ्यूचर्स ट्रेड जैसे कदमों ने खाद्यान्न बाज़ार को भी अनिश्चित और अस्थिर बना दिया है। दूसरा प्रमुख कारण है वैश्विक मन्दी। वित्तीय पूँजी इस संकट के शुरू होने के बाद वित्त के क्षेत्र से बाहर निकलकर दूसरे क्षेत्र तलाश रही है। इन नये क्षेत्रों में से एक खाद्यान्न बाज़ार भी है। इस बाज़ार में वित्तीय पूँजी के घुसने के साथ ही सट्टेबाज़ी तेज़ी से बढ़ी है। इसके अलावा तेल की बढ़ती कीमतें भी एक कारण हैं, जो फ़िलहाल तो कुछ नीचे आई हैं लेकिन जो दूरगामी तौर पर नीचे जाने का नहीं बल्कि ऊपर जाने का रुझान रखती हैं। तेल की कीमत में बढ़ोत्तरी हर वस्तु को महँगा बना देती है क्योंकि तेल हर वस्तु के उत्पादन की किसी न किसी मंज़िल या फ़िर परिवहन में अवश्य इस्तेमाल होता है। नतीजतन, उसकी कीमतों में होने वाली वृद्धि सभी मालों के मूल्य में स्थानान्तरित हो जाती है। खाद्यान्न संकट का एक अन्य बड़ा कारण है जैव ईंधनों का पैदा किया जाना। ईंधन व ऊर्जा संकट से अपने देश के पूँजीपतियों को उबारने के लिए ब्राज़ील और अमेरिका जैसे कई देश अपने देश में जैव ईंधनों के उत्पादन को बढ़ावा दे रहे हैं। इथेनॉल नामक जैव ईंधन कई ऐसी फ़सलों से बनाया जाता है जिनपर कई देशों की जनता का भोजन निर्भर है, जैसे मक्का। जैव-ईंधनों का उत्पादन न तो ऊर्जा संकट से निजात दिलाता है और न ही सस्ता ईंधन। उल्टे खाद्यान्न संकट को वह ज़रूर बढ़ावा देता है।

पूँजीवादी मुनाफ़े की हवस के कारण पर्यावरण का नाश खाद्यान्न संकट की एक महत्वपूर्ण वजह है। मौसम के लगातार गर्म होते जाने के कारण वैज्ञानिकों का मानना है कि आने वाले समय में फ़सलों पर कीड़े-मकोड़ों का प्रकोप बढ़ेगा और यह गर्म होता मौसम मरुस्थलीकरण और बाढ़ का एक साथ कारण बनेगा।

आखिरी लेकिन एक अहम वजह है मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीवाद की निरन्तर उपेक्षा। तुरन्त और ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ कमाने की हवस पर टिकी इस व्यवस्था के अन्तर्गत कृषि में किसानों का झुकाव नकदी फ़सलों की ओर होता है। इस वजह से खाद्यान्न उत्पादन के तहत आने वाली ज़मीन घटती जाती है। दूसरी ओर, कृषि-सम्बन्धी अनुसन्धान से सरकार बराबर अपना हाथ खींचती जा रही है। एक ओर तो जैव-ईंधन और अन्य नकदी फ़सलों को सब्सिडी दी जाती है और वहीं खाद्यान्न उत्पादन को मिलने वाली सब्सिडी और सहज उपलब्ध ऋण लगातार खत्म होते जा रहे हैं। खेती-योग्य भूमि का अधिग्रहण कर उन्हें शॉपिंग मॉल और मल्टीप्लेक्स बनाने के लिए कारपोरेट घरानों को सौंप दिया जा रहा है।

कहने की ज़रूरत नहीं है कि यहाँ बताए गए कारणों में से एक भी ऐसा नहीं है जिसकी ज़िम्मेदार आम मेहनतकश जनता हो। ये सभी कारण इसी व्यवस्था की मुनाफ़े की हवस से जन्मे हैं।  खाद्यान्न संकट पहले भी बार-बार आए हैं और आगे भी बार-बार आते रहेंगे। एक मुनाफ़ा केन्द्रि व्यवस्था में मानवीय आवश्यकताओं का कोई मूल्य नहीं होता। हर कार्य मुनाफ़े की ख़ातिर किया जाता है। ऐसे में, इन संकटों से निजात के बारे में सोचने का काम पूरे व्यवस्था परिवर्तन के बारे में सोचे बग़ैर नहीं हो सकता। कोई सुधार या पैबन्दसाज़ी इससे निजात नहीं दिला सकती।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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