मानव-संघर्ष और प्रकृति के सौन्दर्य के शब्दशिल्पी त्रिलोचन सदा हमारे बीच रहेंगे!

अरविन्द

TRILOCHANत्रिलोचन हमारे बीच नहीं रहे। विगत 9 दिसम्बर को  लम्बी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया। वे 90 वर्ष के थे। जिन्दगी की कठिन लड़ाई लड़ते हुए सतत रचनाशील त्रिलोचन लम्बे समय तक साहित्य-संसार के महारथियों द्वारा उपेक्ष‍ित रहे। पर उनकी कविताओं की शक्ति को देखकर और आठवें दशक के युवा वामपंथी कवियों में फ़िर से उनका बढ़ता मान देखकर मठाधीशों ने भी उन्हें मान्यता दी और अपनाने की चेष्टाएँ कीं। इस अवधि में विभिन्न स्थापित पीठों पर आचार्य पद पर बैठे होकर भी त्रिलोचन संघर्षमय अतीत से अर्जित जनसंग ऊष्मा से अर्जस्वित होकर जनपक्षधर कविताएँ लिखते रहे।

निराला की कविता की उत्तरवर्ती परम्परा में जनपक्षधर कविता की जितनी धाराओं को समाविष्ट किया जा सकता है, उनमें त्रिलोचन का कृतित्व अपने आपमें एक सम्पूर्ण धारा है।

त्रिलोचन की कविताएँ जीवन, संघर्ष और सृजन के प्रति अगाध आस्था की, बुर्जुआ समाज के रेशे-रेश में व्यक्त अलगाव (एलियनेशन) के निषेध की और प्रकृति और जीवन के व्यापक एंव सूक्ष्म सौन्दर्य की भावसंवेदी सहज कविताएँ हैं। सहजता उनकी कविताओं का प्राण है। वे जितने मानव-संघर्ष के कवि हैं, उतने ही प्रकृति के सौन्दर्य के भी। पर रीतकालीन, छायावादी और नवरूपवादी रुझानों के विपरीत प्रकृति के सन्दर्भ में भी त्रिलोचन की सौन्दर्याभिरुचि उनकी भौतिकवादी विश्वदृष्टि के अनुरूप है जो सहजता-नैसर्गिकता-स्वाभाविकता के प्रति उद्दाम आग्रह पैदा करती है और अलगाव की चेतना के विरुद्ध खड़ी होती है जिसके चलते मनुष्य-मनुष्य से कट गया है, और प्रकृति से भी।

संस्कृत की क्लासिकी परम्परा और अवधी आदि की लोक परम्परा के सकारात्मक पक्ष का जीवन्त विस्तार करती त्रिलोचन की कविताएँ ठेठ भारतीय जन की जिजीविषा, आशाओं और संघर्ष-चेतना की कविताएँ हैं। साथ ही, यूरोपीय क्लासिकी परम्परा से भी त्रिलोचन ने काफ़ी कुछ सीखा और लिया है तथा उसे अपने कवि कर्म में रचा-पचा कर भारतीय मानसिकता के लिए सर्वथा ग्राह्य बना दिया है। सॉनेट जैसे विजातीय काव्य-रूप को हिन्दी भाषा की सहज लय और संगीत में ढालकर त्रिलोचन ने उसे एक नया संस्कार दे दिया है।

आज हिन्दी की प्रगतिशील काव्य-धारा को, तरह-तरह के आयातित और देशी नवरूपवादी भटकावों, रूढ़ियों आदि को तोड़कर आगे विकसित होने के लिए अपनी परम्परा से ऊष्मा और आवेग ग्रहण करना होगा। त्रिलोचन इसी परम्परा की एक जीवित और सतत् विकास मान धारा है। आज भी हम युवा त्रिलोचन को मुख्यतः ‘धरती’के कवि के रूप में याद करते हैं।‘आह्वान’ टीम की ओर से हम उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि देते हैं और उन्हें याद करते हुए उनके प्रथम संकलन ‘धरती’ (1945) की कुछ चुनी हुई कविताएँ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं।

त्रिलोचन की तीन कविताएँ

 

1

अभी तुम्हारी शक्ति शेष है
अभी तुम्हारी साँस शेष है
अभी तुम्हारा कार्य शेष है
मत अलसाओ
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई

 

अभी रक्त रग-रग में चलता
अभी ज्ञान का परिचय मिलता
अभी न मरण-प्रिया निर्बलता
मत अलसाओ
मत चुप बैठो
तुम्हें पुकार रहा है कोई

 

2

पथ पर
चलते रहो निरन्तर
सूनापन हो
पथ निर्जन हो
पथ पुकारता है
गत स्वप्न हो
पथिक
चरण-ध्वनि से
दो उत्तर
पथ पर
चलते रहो निरन्तर
3

जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
जैसे सरिता की अगणित लहरों में
कोई एक लहर हो
तो अच्छा है

 

जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी सदा सुनिश्चित
अनुपेक्षित आवश्यकता हो
जैसे किसी मशीन में लगे बहु कल-पुर्जों में
कोई भी कल-पुर्जा हो
तो अच्छा है

 

जिस समाज में तुम रहते हो
यदि उसकी करुणा ही करुणा
तुम को यह जीवन देती है
जैसे दुर्निवार निर्धनता
बिल्कुल टूटा-फ़ूटा बर्तन घर किसान के रक्खे रहती
तो यह जीवन की भाषा में
तिरस्कार से पूर्ण मरण है

 

जिस समाज में तुम रहते हो
यदि तुम उसकी एक शक्ति हो
उसकी ललकारों में से ललकार एक हो
उसकी अमित भुजाओं में दो भुजा तुम्हारी
चरणों में दो चरण तुम्हारे
आँखो में दो आँख तुम्हारी
तो निश्चय समाज-जीवन के तुम प्रतीक हो
निश्चय ही जीवन, चिर जीवन

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

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