छात्र-युवा आन्दोलन: अप्रोच और दृष्टिकोण के बारे में कुछ और स्पष्टीकरण
सम्पादक
आधुनिक युग के इतिहास के किसी भी दौर में, किसी भी देश में क्रान्तिकारी सामाजिक परिवर्तन में छात्रों-युवाओं की अहम भूमिका रही है। लेकिन इस तथ्य को स्वीकारते हुए, छात्रों-युवाओं की आबादी के प्रति एक ग़ैरवर्गीय नज़रिया अपनाना या केवल मध्यवर्गीय युवा आबादी की भूमिका पर बल देना ग़लत और नुकसानदेह होता है।
वर्गों में बँटे हुए समाज में केवल वर्ग संघर्ष ही इतिहास-विकास की कुंजीभूत कड़ी हो सकता है। केवल शत्रुतापूर्ण सम्बन्ध वाले वर्गों के आपसी संघर्ष से ही इतिहास आगे की ओर गतिमान होता है। पूँजीवादी समाज में, छोटे-मँझोले किसान और शहरी-ग्रामीण मध्यवर्ग के निचले-मँझोले संस्तर भी पूँजीपतियों और उनके सहयोगी शोषक वर्गों के शोषण के शिकार होते हैं। लेकिन पूँजीवाद के विरुद्ध संघर्ष की अगुवाई सर्वहारा वर्ग ही कर सकता है, क्योंकि यही वह वर्ग है जो हर प्रकार के निजी स्वामित्व से वंचित होता है और जीवित रहने के लिए बाज़ार में अपनी श्रमशक्ति बेचने के लिए मजबूर होता है। निजी सम्पत्ति का उन्नततम रूप बुर्जुआ निजी सम्पत्ति है, जिसका विपरीत ध्रुव सर्वहारा वर्ग है जो समस्त सामाजिक सम्पदा का सर्जक है लेकिन जिसके पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ भी नहीं होता। पूँजीवादी समाज का बुनियादी अन्तरविरोध यह है कि उत्पादन की अतिउन्नत प्रक्रिया सामाजिक होती है (ज़्यादा से ज़्यादा लोग उन्नत मशीनों पर एकसाथ परस्पर तालमेल करके उत्पादन करते हैं और यह समाजीकरण लगातार बढ़ता जाता है), जबकि ‘एप्रोप्रियेशन’ और संचय की प्रक्रिया निजी प्रकृति की होती है। थोड़े-से परजीवियों के हाथों में केन्द्रित पूँजी दुनियाभर के विशाल कारख़ानों और फ़ार्मों में कार्यरत विराट उत्पादक शक्तियों को नियन्त्रित करती है। पूँजी के संकेन्द्रण की आम प्रवृत्ति ही पूँजीपतियों के बीच देशों के भीतर, और पूरी दुनिया के पैमाने पर गलाकाटू होड़ और इजारेदारी या एकाधिकार की प्रवृत्ति को जन्म देती है। सामाजिक धरातल पर पूँजीपति वर्ग निजी ‘एप्रोप्रियेशन’ (यानी हस्तगतकरण) और संचय का प्रतिनिधित्व करता है और सर्वहारा वर्ग निजी ‘एप्रोप्रियेशन’ को समाप्त करके, उसे समाजीकृत करके यानी उत्पादन के साधनों के निजी स्वामित्व को समाप्त करके, पूँजीवाद को उखाड़ फेंकता है और वर्गविहीन समाज की दिशा में संक्रमण की शुरुआत करता है जिसे समाजवादी संक्रमण की अवधि कहा जाता है। सर्वहारा क्रान्ति के कुछ शुरुआती प्रयोग भले ही विफल हों, लेकिन अन्ततोगत्वा यही होना है, क्योंकि समाज-विकास के नियम यही बताते हैं।
भारत भी एक पूँजीवादी देश है। यहाँ सामन्ती अवशेष अभी भी मौजूद हैं, लेकिन तमाम पिछड़ेपन के बावजूद यह एक पूँजीवादी समाज है जहाँ मज़दूर वर्ग न केवल क्रान्ति की नेतृत्वकारी शक्ति है, बल्कि गाँवों और शहरों के मज़दूरों की कुल आबादी पचास करोड़ से भी अधिक होने के चलते यही नयी समाजवादी क्रान्ति की प्रमुख ताक़त भी है। गाँवों-शहरों के अर्द्ध-सर्वहाराओं और ग़रीब किसानों को जोड़ देने पर यह आबादी 65–70 करोड़ के आसपास पहुँच जायेगी। निम्न-मध्यवर्ग और निम्न-मध्यम किसान भी पूँजीवाद के हाथों अपनी तबाही के कारण क्रान्ति के निकट सहयोगी वर्ग हैं। छात्रों और नौजवानों की भारी आबादी भी इन्हीं वर्गों से आती है और अपनी वर्ग-प्रकृति के कारण ही क्रान्तिकारी संघर्ष में अहम भूमिका निभाने की सम्भावना से लैस है।
जब हम क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन की बात करते हैं, तो हमारा तात्पर्य आम जनता के विभिन्न वर्गों से आने छात्रों-युवाओं से ही होता है। लेकिन यदि महानगरों के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों की बात करें तो वहाँ एकदम ग़रीब घरों के छात्र कम ही पहुँच पाते हैं। वहाँ आधी के आसपास आबादी या तो पूँजीपतियों, व्यापारियों, अफ़सरों, धनी किसानों जैसे परजीवी वर्गों के घरों से और गाँव-शहर के उन मध्यवर्गीय घरों से आती है जो इस व्यवस्था से अभी उम्मीद पाले हुए हैं और ज़िन्दगी की परेशानियों को झेलते हुए भी, क्रान्तिकारी पक्ष चुनने के बजाय बीच में लटके हुए हैं। क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन की केन्द्रीय और अगुवा ताक़त आम मेहनतकश घरों और निम्न-मध्यवर्गीय घरों से आने वाले वे छात्र ही हो सकते हैं जो पूँजीवाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष के लिए तैयार हों और वैचारिक स्तर पर जागरूक हों। जो छात्र मध्यवर्ग और मध्यम किसानों के बीच के संस्तरों से आते हैं, उन्हें प्रचार और शिक्षा के द्वारा क्रान्तिकारी पक्ष में लाना क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन का एक अहम कार्यभार है।
ग़रीब घरों के जो नौजवान कॉलेजों-विश्वविद्यालयों के कैम्पसों तक नहीं पहुँच पाते, उन्हें उनकी ज़िन्दगी ही यह सबक़ सिखला देती है कि पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में शिक्षा और रोज़गार का विशेषाधिकार ज़्यादातर मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए लोगों के लिए ही सुरक्षित है। ख़ासकर, उदारीकरण- निजीकरण के दौर में, शिक्षा ज़्यादा से ज़्यादा धनी लोगों द्वारा ख़रीदी जा सकने वाली और पूँजीपतियों द्वारा बेची जाने वाली चीज़ बनती जा रही है। आम घरों के लड़के छोटे शहरों-क़स्बों के कॉलेजों से जो डिग्रियाँ हासिल करते हैं, वे नौकरी दिलाने की दृष्टि से एकदम बेकार होती हैं और शिक्षा की गुणवत्ता की दृष्टि से भी उनका कोई मोल नहीं होता। वर्गीय अन्तर्वस्तु की दृष्टि से छोटे शहरों-क़स्बों के इन छात्रों के रैडिकल व्यवस्था-विरोधी छात्र संगठन बनाने की सम्भावना अधिक है, हालाँकि चेतना के सापेक्षिक पिछड़ेपन के चलते उनके बीच अधिक व्यापक, सघन और लम्बे क्रान्तिकारी प्रचार और शिक्षा की कार्रवाई आवश्यक होगी। बड़े महानगरों के उन्नत शिक्षा संस्थानों में उच्च-मध्यवर्ग के छात्रों की बहुतायत होने के कारण वहाँ क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन का आधार उतना व्यापक नहीं होगा, लेकिन वहाँ से उन्नत चेतना वाले क्रान्तिकारी तत्वों की भरती की सम्भावना अधिक होगी।
निम्न-मध्यवर्ग के जो युवा या तो उच्च शिक्षा के दायरे में घुस ही नहीं पा रहे हैं, या कैम्पसों से बाहर धकेले जा रहे हैं, या बस नाम की डिग्री भर हासिल कर पा रहे हैं, वे लम्बी बेरोज़गारी झेलने या अर्द्ध-बेरोज़गार के रूप में कोई पार्टटाइम नौकरी करने, ट्यूटर या सेल्समैन का काम करने या दिहाड़ी मज़दूरों की क़तारों में शामिल होने के लिए बाध्य हैं, वे क्रान्तिकारी नौजवान आन्दोलन की मुख्य ताक़त बनेंगे। शिक्षा और रोज़गार की लड़ाई लड़ते हुए वे मज़दूर आन्दोलन के साथ नज़दीकी से जुड़ेंगे और फिर पूँजीवाद के विरुद्ध साझा लड़ाइयों में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ेंगे।
लेकिन युवा आन्दोलन को यदि हम साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के परिप्रेक्ष्य में देखते हैं तो हमें इसे वर्गीय नज़रिये से देखना होगा और सबसे पहले हमारा ध्यान मज़दूरों की युवा पीढ़ी पर – यानी युवा मज़दूरों और मज़दूरों के युवा बेटों पर होना चाहिए। कार्ल मार्क्स ने अपने प्रारम्भिक लेखन (1844) में ऐसे युवाओं के लिए “मज़दूर वर्ग की उदीयमान पीढ़ी” संज्ञा का प्रयोग किया (कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 2, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1975, पृ- 168–69)। आगे चलकर उन्होंने लिखा: “मज़दूर वर्ग का अधिक प्रबुद्ध हिस्सा पूरी तरह से समझता है कि इसके वर्ग का, और इसलिए सम्पूर्ण मानवजाति का भविष्य मज़दूरों की उदीयमान पीढ़ी के निर्माण पर निर्भर करता है” (कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 3, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1975, पृ- 197)। लेनिन ने भी छात्र-युवा आन्दोलन के प्रति हमेशा ही वर्गीय दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया और पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी राजनीतिज्ञों द्वारा नौजवानों के बीच के सामाजिक वर्गीय भेद को छुपाने तथा वर्ग-संघर्ष में सर्वहारा वर्ग के साथ मिलकर भाग लेने से उन्हें अलग करने की हर कोशिश का विरोध किया। युवा आन्दोलन के क्रान्तिकारी चरित्र का पैमाना युवाओं की आयु-विशेषता के बजाय उन्होंने वर्ग-चरित्र को माना, यानी इस बात को माना कि युवा आन्दोलन की मुख्य शक्ति मज़दूर, अन्य मेहनतकश वर्गों और पूँजीवाद के हाथों तबाह हो रही मध्यवर्गीय जमातों के युवा हैं या नहीं, और यह कि, युवा आन्दोलन मज़दूरों और अन्य मेहनतकशों के क्रान्तिकारी संघर्ष के साथ जुड़ा हुआ है या नहीं। नदेज़्दा क्रुप्सकाया ने ‘लेनिन अबाउट यूथ’ शीर्षक लेख में लिखा है: “क्रान्तिकारी युवा आन्दोलन के प्रति सामान्यतः ध्यान देते हुए व्लादीमिर इल्यीच ने मज़दूर युवाओं के क्रान्तिकारी आन्दोलन को अत्यधिक महत्त्व दिया, जिनमें जोश के साथ वर्गीय अन्तःप्रवृत्ति भी होती है, और जब वे मज़दूर वर्ग के संघर्ष में शामिल होते हैं, तो वे अपने ख़ुद के हित के लिए लड़ते हैं और उस संघर्ष में बढ़ते एवं मज़बूत होते हैं।”
मज़दूर वर्ग के नौजवानों के अतिरिक्त लेनिन ने क्रान्तिपूर्व रूसी समाज में गाँवों में पूँजीवादी विकास की लहर के साथ ही विकसित हो रहे एक नये प्रकार की क्रान्तिकारी सम्भावना से लैस उस नौजवान किसान के महत्त्व को विशेष रूप से रेखांकित किया, जो शहरों में क्रान्तिकारी आन्दोलन में लगे व्यक्तियों से मिलता था, अख़बार पढ़ता था, अपने गाँव में आन्दोलनात्मक काम करता था तथा बड़े ज़मींदारों, पादरियों और ज़ारशाही के अफ़सरों के विरुद्ध संघर्ष का आह्वान करने वाले बोल्शेविक नारों की व्याख्या करता था। लेनिन का मानना था कि ऐसे चेतनशील ग्रामीण युवाओं की गतिविधियाँ व्यापक आम मेहनतकश किसान आबादी को क्रान्तिकारी आन्दोलन के दायरे में धीरे-धीरे खींच लाने में मदद करती हैं (देखें, लेनिन: ‘लेक्चर ऑन द 1905 रिवोल्यूशन’, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 23, पृ- 243)।
इस आम पहुँच की रोशनी में आज के भारतीय समाज का अध्ययन हमें कुछ ज़रूरी नतीजों तक पहुँचाता है। यूँ तो भारतीय समाज के पूँजीवादी रूपान्तरण के साथ ही गाँवों के छोटे-मँझोले किसानों की तबाही एवं सर्वहाराकरण और शहरों की ओर उनके प्रस्थान का सिलसिला पिछले लगभग चार दशकों से जारी है, लेकिन विशेषकर 1990 के बाद से इस प्रक्रिया में काफ़ी तेज़ी आयी है। आप देश के किसी भी औद्योगिक क्षेत्र में जाइये, मज़दूरों की झुग्गी-बस्तियों में आपको अठारह से पैंतीस वर्ष के बीच की उम्र वाले युवा मज़दूरों की ही बहुतायत देखने को मिलेगी। यह नौजवान आबादी ज़्यादातर दिहाड़ी और ठेका मज़दूर के रूप में कारख़ानों में दस घण्टे से चौदह घण्टों तक हडि्डयाँ गलाती है और चालीस से सत्तर रुपये के बीच दिहाड़ी पाती है। सीलनभरी अँधेरी कोठरियों में एक साथ कई मज़दूर रहते हैं, या एक मज़दूर परिवार सहित रहता है। इन बस्तियों में सार्वजनिक सुविधाएँ या तो हैं ही नहीं या बस नाममात्र को हैं। ज़्यादातर यूनियनें नियमित नौकरीशुदा, बेहतर वेतन और सुविधाओं वाली संगठित मज़दूर आबादी तक ही सीमित हैं। भारी असंगठित मज़दूर आबादी या तो यूनियन के दायरे के बाहर है या फिर कुछ धन्धेबाज़ छुटभैये यहाँ-वहाँ यूनियन ऑफ़िस खोलकर उनके बीच दलाली का काम करते रहते हैं। इन युवा मज़दूरों में एकदम निरक्षर कम ही मिलेंगे। ज़्यादातर मिडिल या हाईस्कूल पास हैं और कुछ तो ग्रेजुएट भी हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि इन युवा मज़दूरों में स्त्रियों की संख्या भी अच्छी-ख़ासी है और लगातार बढ़ती जा रही है। ये युवा स्त्री मज़दूर सबसे कठिन और उबाऊ क़िस्म के काम सबसे कठिन स्थितियों में करती हैं। काम के घण्टों के हिसाब से मज़दूरी उन्हें पुरुष मज़दूरों से कम मिलती है और आर्थिक शोषण के साथ ही प्रायः उन्हें यौन-उत्पीड़न का भी शिकार होना पड़ता है। कारख़ानों में स्त्री मज़दूरों के लिए अलग शौचालय तक की समस्या है। मज़दूर बस्तियों में भी यह सुविधा बस नाममात्र को ही है। मज़दूर स्त्रियों के बच्चों के लिए किसी भी कारख़ाने में बच्चाघर नहीं होता। दवा-इलाज के लिए असंगठित मज़दूरों की यह पूरी आबादी नीम-हकीमों के आसरे होती है।
ये करोड़ों युवा सर्वहारा स्त्री-पुरुष भारत के नये सिरे से संगठित होने वाले क्रान्तिकारी आन्दोलन की सबसे अग्रणी और सबसे सम्भावनासम्पन्न शक्ति हैं। समृद्धि और विलासिता की मीनारों की अँधेरी तलहटी में आधुनिक युग के ग़ुलामों का जीवन बिताने वाले ये लोग पूँजीवादी समाज की तमाम विभीषिकाओं को भोग रहे हैं और पूँजीवादी समाज के प्रति उनके भीतर न तो कोई उम्मीद बची है, न ही कोई मोह। साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी क्रान्ति की हरावल शक्तियों को नये सिरे से संगठित करने की प्रक्रिया शुरू करते हुए सबसे पहले इन पर ध्यान देना होगा, इनके बीच क्रान्तिकारी शिक्षा और प्रचार की कार्रवाइयाँ गहराई से, विविध रूपों में और लगातार चलानी होंगी तथा इन्हें संगठित करना होगा। इस युवा स्त्री-पुरुष मज़दूर आबादी में जातिगत पूर्वाग्रह की समस्या भी अपेक्षाकृत सबसे कम है जो भारतीय समाज की एक गम्भीर पुरानी बीमारी और वर्ग संघर्ष के विकास के रास्ते की एक गम्भीर बाधा है। सतत क्रान्तिकारी प्रचार और आन्दोलनों की प्रक्रिया इनकी वर्गीय चेतना को प्रखर बनायेगी और इनके बीच की जातिगत दूरियों को मिटाने का काम करेगी। लेनिन ने मज़दूर युवाओं की क्रान्तिकारी गतिविधियों को समूचे सर्वहारा आन्दोलन का एक अविभाज्य अंग मानते हुए क्रान्तिकारी पार्टी में ऐसे युवा सर्वहारा तत्वों की भरती पर विशेष ज़ोर दिया था और कहा था कि क्रान्तिकारी पार्टी “अग्रणी वर्ग के युवाओं की पार्टी” होगी (लेनिन: ‘द क्राइसिस ऑफ़ मेन्शेविज़्म’, कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 2, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, पृ- 355)। भारत के करोड़ों क्रान्तिकारी सम्भावनासम्पन्न नौजवान मज़दूरों की लगातार बढ़ती आबादी के बारे में भी यही दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए। युवा सर्वहाराओं की यह आबादी ट्रेड यूनियन आन्दोलन को महज़ रियायतें माँगने और पैबन्दसाज़ी करने वाली अर्थवादी राजनीति की गन्दगी से बाहर लाकर उसे क्रान्तिकारी आधार पर फिर से खड़ा करने में ऐतिहासिक भूमिका निभायेगी। इसके लिए इनके बीच क्रान्तिकारी शिक्षा और प्रचार की घनीभूत कार्रवाई चलानी होगी, इनके राजनीतिक अध्ययन–मण्डल बनाने होंगे, इनके बीच मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी राजनीतिक अख़बार को लेकर जाना होगा और इन्हें इस बात की शिक्षा देनी होगी कि मज़दूर क्रान्ति के द्वारा पूँजीवाद का नाश आज भी मज़दूर वर्ग का ऐतिहासिक मिशन है। विगत सर्वहारा क्रान्तियों की पराजय सर्वहारा वर्ग की अन्तिम और निर्णायक पराजय नहीं बल्कि महज़ फ़ौरी हार थी। सर्वहारा क्रान्तियों का अगला चक्र अवश्यम्भावी है और उसे विजयी होना ही है। इसके साथ ही, युवा मज़दूरों और मज़दूरों के युवा बेटों को नौजवान आन्दोलन के बैनर तले भी संगठित करना होगा। नौजवान संगठनों में संगठित युवा सर्वहारा पुस्तकालयों, रात्रि पाठशालाओं आदि के ज़रिये शिक्षित होंगे, खेलकूद क्लब, सांस्कृतिक टीम आदि बनाकर एकजुट होने, सामूहिकता-बोध और सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना से लैस होने तथा प्रचार कार्यों में प्रभावी बनने का काम करेंगे, ठेका प्रथा की समाप्ति, काम के घण्टे कम करने, और अपनी बस्ती की समस्याओं को लेकर लड़ते हुए वे आर्थिक माँगों के साथ-साथ आवास, रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि अहम राजनीतिक माँगों पर लड़ना सीखेंगे और मज़दूर आन्दोलन में नया प्राण-संचार करेंगे। तात्पर्य यह कि नौजवान आन्दोलन की बात करते हुए हमें न केवल नौजवान मज़दूरों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए बल्कि सबसे पहले उन्हीं पर ध्यान देना चाहिए और मज़दूर बस्तियों में क्रान्तिकारी नौजवान संगठन की इकाइयाँ संगठित करने पर विशेष बल देना चाहिए।
गाँव के युवा मज़दूरों पर भी इसी प्रकार का ध्यान देना चाहिए। उनकी भी तादाद आज कम नहीं है। हाँ, यह ज़रूर है कि शहरी युवा मज़दूरों की तुलना में उनकी चेतना पिछड़ी हुई है और जात-पाँत की बाधा भी गाँवों में अधिक गम्भीर है। इसलिए गाँवों में नौजवानों को संगठित करते हुए उनकी राजनीतिक शिक्षा और उनके बीच सांस्कृतिक काम पर शहरों की अपेक्षा कई गुना अधिक ज़ोर देना होगा। छोटे और मँझोले किसान परिवारों की जो युवा पीढ़ी है, उसे छोटे पैमाने के मालिकाने के मोह से उबारना अधिक आसान है। उन्हें आसानी से यह बतलाया जा सकता है कि पूँजी की मार से छोटे और निम्न-मध्यम किसानों को तबाह होने से बचाना सम्भव नहीं है और यह कि लागत मूल्य और लाभकारी मूल्य की लड़ाइयों का वास्तविक लाभ केवल धनी किसानों को ही मिलता है। छोटे और मँझोले किसानों के सामने एकमात्र व्यावहारिक मार्ग यही है कि वे सर्वहारा के साथ मिलकर समाजवाद के लिए संघर्ष करें जिसमें समान शिक्षा और रोज़गार का सबको अधिकार होगा, काम करने वाले सभी हाथों को काम और उनके काम का समान मोल मिलेगा तथा राष्ट्रीय सम्पत्ति के रूप में ज़मीन पर सबका समान अधिकार होगा। छोटे-मँझोले किसानों की युवा पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के मुक़ाबले जातिगत पूर्वाग्रहों से भी आसानी से मुक्त हो सकेगी और बड़े किसानों की धौंसपट्टी के आगे उसका डरना-झुकना भी मुश्किल होगा। इसलिए, गाँवों में नौजवान संगठन बनाते समय युवा ग्रामीण मज़दूरों के अतिरिक्त छोटे-मँझोले किसानों की युवा पीढ़ी को संगठित करने पर ध्यान देना होगा। गाँव के नौजवान संगठनों को धनी किसानों की नौजवान पीढ़ी के प्रभाव से विशेष तौर पर बचाना होगा।
नौजवान लोग, अपनी उम्र के तकाज़े से, जोशीले और ऊर्जस्वी होते हैं। उनकी चेतना पर वर्गीय संकीर्णता की जकड़बन्दी अपेक्षाकृत कम होती है, इसलिए तीव्र वर्ग-संघर्षों की पूर्वबेला में, कभी-कभी धनी और शोषक वर्गों के कुछ युवा भी अपनी वर्ग सीमाओं का अतिक्रमण करके व्यापक मेहनतकश जनता के हित में सक्रिय हो जाते हैं। एंगेल्स ने भी पूर्वानुमान किया था कि विशेष स्थितियों में, यहाँ तक कि बुर्जुआ वर्ग भी “आन्दोलन में अत्यन्त उपयोगी युवाओं” को पैदा करेगा (एंगेल्स: ‘द लेट बुचरी एट लीपि्ज़ग – द जर्मन वर्किंगमेन्स मूवमेण्ट,’ कलेक्टेड वर्क्स, खण्ड 4, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मास्को, 1975, पृ- 647)। लेकिन इसका मतलब यह कदापि नहीं कि हम छात्र-युवा आन्दोलन को वर्गोपरि या वर्गेतर मान बैठें अथवा धनी घरों के छात्रों-युवाओं की बड़ी संख्या से क्रान्तिकारी भूमिका की उम्मीद पाल बैठें। बुर्जुआओं, नौकरशाहों और उच्च-मध्यवर्ग के जो नौजवान क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन में सक्रिय होंगे, वे सामाजिक-ध्रुवीकरण और आन्दोलन की तीव्रता बढ़ने के साथ ही या तो स्वयं किनारे लग जायेंगे या आन्दोलन को लक्ष्यविमुख करने की कोशिशों में लग जायेंगे। इनमें से बहुत छोटी, अपवादस्वरूप संख्या ही उन लोगों की होगी जो अपनी वर्गीय सीमाओं से पूरी तरह मुक्त होकर स्वयं को मेहनतकश जनता से जोड़ सकेंगे।
जहाँ तक बीच में खड़े मध्यवर्ग (यानी निम्न-पूँजीपति वर्ग) के छात्रों- नौजवानों का प्रश्न है, उनकी भूमिका क्रान्तिकारी आन्दोलनों में मिली-जुली होती है। एंगेल्स ने यह विश्वास प्रकट किया था कि मध्यवर्गीय सामाजिक संस्तरों से आने वाले छात्रों के बीच से बौद्धिक श्रम के सर्वहारा का उदय होगा जो आने वाली क्रान्ति में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए शारीरिक श्रम से सम्बद्ध अपने मज़दूर भाइयों के साथ एक ही क़तार में कन्धे से कन्धा मिलाकर खड़ा होगा। लेकिन साथ ही, वे निम्न-पूँजीपति वर्ग के युवाओं की दोनों ओर देखने की प्रवृत्ति, मज़दूरों को अपने से हीन मानने और स्वयं को उनका उद्धारक मानने की प्रवृत्ति, मज़दूरों की क्रान्तिकारी क्षमता में विश्वास न करने की प्रवृत्ति तथा अराजकतावाद, कैरियरवाद, व्यक्तिवाद और आनन–फ़ानन में क्रान्ति कर डालने की प्रवृत्ति से पैदा होने वाले दुस्साहसवादी भटकाव से भी भलीभाँति वाक़िफ थे। निन्म पूँजीपति वर्ग के अग्रणी युवाओं को पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में जब अपना कोई भविष्य नज़र आता तो उनके भीतर अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की भावना उमड़ने-घुमड़ने लगती है और वे क्रान्तिकारी आन्दोलनों में व्यापक मेहनतकश जनता के साथ शिरक़त करने लगते हैं। लेकिन मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम के अन्तर की बुनियाद पर क़ायम अपने बुर्जुआ विशेषाधिकारों और श्रेष्ठता की भावना को उस समय भी वे दिल से छोड़ने को तैयार नहीं होते। समाजवाद का हामी होते हुए भी वे मज़दूरों के प्रति तिरस्कार–भाव रखते हैं और अपनी बुर्जुआ पढ़ाई-लिखाई पर मिथ्याभिमान करते हैं। उनकी आँखों पर पड़ा वर्गीय सीमाओं (जिसका मुख्य कारण उत्पादक श्रम से उनका कटाव होता है) का परदा मेहनतकशों की क्रान्तिकारी सम्भावना से उन्हें परिचित नहीं होने देता। वे समझते हैं कि मज़दूर आन्दोलन उनके नेतृत्व के बिना सफल हो ही नहीं सकता और मज़दूरों की क्रान्तिकारी पार्टी में प्रायः वे नये ‘विचारक’ और ‘नेता’ होने के मंसूबे और दावे के साथ प्रवेश करते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने पॉल लफ़ार्ग को लिखे गये एक पत्र में लिखा था कि ऐसे छात्र या शिक्षित मध्यवर्गीय युवा बुर्जुआ विश्वविद्यालय को एक प्रकार का समाजवादी सेण्ट साईर विद्यालय मानते हैं जो उन्हें पार्टी में, यदि सेनापति का नहीं तो कम से कम एक अफ़सर के रूप में पद पाने का अधिकार प्रदान करता है। माओ त्से-तुङ ने न केवल क्रान्ति के पहले, बल्कि क्रान्ति के बाद भी लम्बे समय तक सर्वहारा वर्ग की पार्टी में व्यक्तिवाद, कैरियरवाद, अराजकतावाद और ‘नेता बनने के लिए पार्टी में भरती होने की प्रवृत्ति’ जैसे भटकावों के विरुद्ध संघर्ष पर बल दिया था। ये बुर्जुआ प्रवृत्तियाँ लेकर आने वाले प्रायः निम्न-पूँजीवादी तत्व ही हुआ करते हैं जो बुर्जुआ व्यवस्था से लड़ना तो चाहते हैं लेकिन अपनी बुर्जुआ प्रवृत्तियों एवं विशेषाधिकारों को जाने-अनजाने यथावत बनाये रखना चाहते हैं। निम्न-पूँजीवादी युवाओं में चूँकि जनसमुदाय की क्रान्तिकारी शक्ति और भूमिका के प्रति विश्वास नहीं होता, इसलिए प्रायः उनके बीच के उतावले क्रान्तिकारी तत्व क्रान्ति के विज्ञान एवं अध्ययन एवं प्रयोग की तथा मेहनतकश जनता को जागृत एवं संगठित करने की दीर्घकालिक कार्रवाई की उपेक्षा करते हैं और अपनी क़ुर्बानी, वीरता एवं हथियारबन्द कार्रवाइयों के आतंक के सहारे सत्ता-परिवर्तन कर देना चाहते हैं। इसे ही हम आम तौर पर दुस्साहसवाद या आतंकवाद की प्रवृत्ति के नाम से जानते हैं। वैज्ञानिक समाजवाद पर आधारित मज़दूर आन्दोलन की धारा के प्रभावी होने के पहले यूरोप में और रूस में निम्न-पूँजीवादी क्रान्तिकारिता की यह प्रवृत्ति आम थी और क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन में भी कभी सुधारवाद-अर्थवाद-संसदवाद के रूप में बुर्जुआ भटकाव, तो कभी आतंकवाद-अराजकतावाद के रूप में निम्न बुर्जुआ भटकाव घुसपैठिये के रूप में लगातार सिर उठाते रहते हैं। इन भटकावों का सामाजिक आधार पूँजीवादी समाज की वर्गीय संरचना में मौजूद है।
तीव्र वर्ग संघर्ष के काल में, परस्पर–विरोधी भूमिकाओं के रूप में छात्र समुदाय की सामाजिक विषमता विशेष रूप से देखने को मिलती है। 1848 की क्रान्ति में जर्मनी में छात्रों के जनवादी तबके ने विद्रोही मेहनतकशों के साथ शामिल होकर सरकारी सेनाओं का मुक़ाबला किया, लेकिन उसी समय फ्रांस के विशेषाधिकारी अभिजातों के वंशज छात्रों ने मोर्चाबन्दी के दूसरी ओर के बुर्जुआ नेशनल गार्ड का साथ दिया और पेरिस के मज़दूरों पर गोलियाँ चलायीं। कभी-कभी, अपनी अराजक सोच और मेहनतकश अवाम के प्रति क्षीण या प्रच्छन्न तिरस्कार–भाव के बावजूद, छात्र आन्दोलन व्यवस्था के विरुद्ध जनमानस को जागृत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन व्यापक मेहनतकश जनता के संघर्ष से जुड़े बिना, वे अपनी स्वतन्त्र गति से बहुत आगे तक नहीं जा पाते और विघटित हो जाते हैं। 1865–66 की शरद ऋतु में पेरिस एकेडमी के छात्र आन्दोलन के बारे में, मार्क्स को लिखे गये एक पत्र में एंगेल्स ने लिखा था: “यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पेरिस के छात्र, चाहे उनके मस्तिष्क में जो कुछ भी अव्यवस्था रही हो, मज़दूरों का पक्ष ले रहे हैं।” 1968 के फ्रांस के छात्र आन्दोलन की काफ़ी चर्चा होती है। इस छात्र आन्दोलन ने लौहपुरुष द गाल की सरकार को इस्तीफ़े के लिए मजबूर कर दिया। तमाम बुद्धिजीवियों को इस आन्दोलन में नयी राह फूटती दीखने लगी। एक नवीन युग के सूत्रपात की घोषणाएँ की जाने लगीं। लेकिन अन्ततोगत्वा सबकुछ विसर्जित हो गया। लगभग एक दशक बाद ही, उस आन्दोलन का नेतृत्व करने वाले लोग बुर्जुआ व्यवस्था में यहाँ-वहाँ उच्च पदों पर व्यवस्थित हो गये या बुर्जुआ बुद्धिजीवी बन गये। फ्रांसीसी सत्ता और समाज का ढाँचा यथावत बना रहा। यूँ कहने को 1968 के फ्रांसीसी छात्र आन्दोलन में समाजवाद और साम्राज्यवाद-विरोध के नारों को केन्द्रीय स्थान प्राप्त था। लेनिन और माओ के बिल्ले छात्रों में काफ़ी लोकप्रिय थे। लेकिन समाजवाद के प्रति छात्रों का यह रुझान वैज्ञानिक न होकर रूमानी था। आन्दोलन में कोई योजना नहीं बल्कि एक स्वयंस्फूर्त अराजकता थी और मज़दूर वर्ग को साथ लेने का कोई सचेतन प्रयास था ही नहीं। फ्रांस में छिटपुट निष्प्रभावी ग्रुपों के अतिरिक्त, सर्वहारा वर्ग की ऐसी कोई क्रान्तिकारी पार्टी भी नहीं थी जो उस छात्र आन्दोलन पर वैचारिक वर्चस्व स्थापित करने और उसे मज़दूर वर्ग के संघर्षों के साथ जोड़ने की कोशिश करती। इन सबका नतीजा उसी रूप में सामने आना था, जिस रूप में आया। निस्सन्देह, इस छात्र आन्दोलन की वस्तुगत तौर पर प्रगतिशील भूमिका थी। इसने साम्राज्यवादी दुनिया के अन्तरविरोधों को उजागर करने के साथ ही उसे एक झटका दिया और पूरी दुनिया के मेहनतकशों और क्रान्तिकारी नौजवानों पर भी उसका एक सकारात्मक प्रभाव पड़ा। लेकिन दूरगामी तौर पर देखें तो यह बदलाव की किसी नयी लहर का सूत्रधार नहीं बन पाया। इसका मुख्य कारण छात्र आबादी के निम्न-पूँजीवादी चरित्र, उसकी अराजकतावादी विचारधारा और मेहनतकश जनसमुदाय से उसकी दूरी में देखा जा सकता है।
दूसरा प्रतिनिधि उदाहरण 1974 के भारतीय छात्र-युवा आन्दोलन का लिया जा सकता है। इसमें अग्रणी भूमिका गाँवों-शहरों के उन रैडिकल मध्यवर्गीय छात्रों की थी, जिनका आज़ाद भारत के नये सत्ताधारियों की नीतियों से मोहभंग हो चुका था। बढ़ती बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, नेताशाही और नौकरशाही के विरुद्ध छात्रों का स्वतःस्फूर्त विस्फोटक आक्रोश गुजरात, बिहार और फिर देश के अधिकांश हिस्से में सड़कों पर सैलाब के रूप में बह निकला। इस व्यवस्था-विरोधी छात्र आन्दोलन की न तो कोई स्पष्ट विचारधारा थी, न सुलझा हुआ नेतृत्व था, न ही कोई स्पष्ट कार्यक्रम था। उस समय संशोधनवादी संसदमार्गी कम्युनिस्टों से विच्छेद करके जो क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट देश के विभिन्न हिस्सों में काम कर रहे थे और सत्ता के प्रचण्ड दमन के बावजूद जो काफ़ी प्रभावी थे, उन्होंने मुख्यतः आतंकवादी भटकाव के कारण (जो आतंकवादी भटकाव के शिकार नहीं थे, उनके पास भी कोई स्पष्ट वैकल्पिक मार्ग या जनदिशा की समझ नहीं थी) छात्रों-युवाओं के उभार में प्रभावी हस्तक्षेप करने की कोई कोशिश ही नहीं की। अपनी नैसर्गिक अराजकतावादी और स्वतःस्फूर्ततावादी वर्ग-प्रवृत्ति से छात्र आन्दोलन आगे बढ़ता रहा और मौक़ा देखकर जयप्रकाश नारायण ने “सम्पूर्ण क्रान्ति” और “दलविहीन प्रजा” के लोकलुभावन नारे के साथ उसका नेतृत्व हड़प लिया। आपातकाल के दौरान भी निरंकुशता-विरोधी संघर्ष की मुख्य ताक़त छात्र-युवा ही थे। लेकिन इस सारे संघर्ष की परिणति थी 1977 में जनता पार्टी शासन की स्थापना और फिर पतन तथा जनता पार्टी का विघटन। जनता पार्टी के घटक दल बुर्जुआ राजनीति की मुख्य धारा में शामिल हो गये और 1974 के छात्र आन्दोलन के अधिकांश नेता आज विभिन्न बुर्जुआ दलों के शीर्ष नेता हैं। जो बुर्जुआ राजनीति की मुख्य धारा में व्यवस्थित नहीं हो सके वे आज गाँधीवादी संस्थाओं और एन.जी.ओ. राजनीति के मठाधीशों के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था के नये सेफ्टीवॉल्व का काम कर रहे हैं और जो यह भी नहीं कर सके वे सर्वोदय बुक स्टालों पर किताब बेच रहे हैं, गाँधीवादी संस्थाओं के दफ्तरों में किरानीगीरी कर रहे हैं या हर प्रकार की राजनीतिक सक्रियता से विमुख अवसादग्रस्त मानसिकता में कोई रोज़ी-रोज़गार करके घर-बार सम्भाल रहे हैं। इस सबका निचोड़ एकदम साफ़ है। छात्र आन्दोलन यदि मेहनतकशों के संघर्षों से और उनकी मुक्ति की व्यापक परियोजना से अपने को नहीं जोड़ता है तो अपने तमाम रैडिकल चरित्र के बावजूद, वह अन्ततः विघटित हो जाता है, उसके अग्रणी तत्वों का बड़ा हिस्सा बुर्जुआ राजनीति की मुख्य धारा में शामिल हो जाता है और बुर्जुआ व्यवस्था में रच-पच जाता है। बुनियादी और मुख्य चरित्र (कॉलेजों- विश्वविद्यालयों के छात्रों के वर्गीय कम्पोज़ीशन की दृष्टि से) मध्यवर्गीय होने के कारण “स्वतन्त्र” और “स्वायत्त” छात्र आन्दोलनों की नियति और परिणति इससे भिन्न कुछ हो भी नहीं सकती।
और बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है। कैम्पसों की छात्र आबादी अपनी स्वाभाविक निम्न-पूँजीवादी प्रवृत्ति के चलते, यदि वामपन्थी विचारों के प्रभाव में आती भी है तो संसदमार्गी वामपन्थी पार्टियों का सुधारवाद उन्हें अधिक रास आता है, क्योंकि उसमें कोई जोखिम नहीं होता, अपनी बुर्जुआ योग्यता के बूते तरक्क़ी की सीढ़ी चढ़ने का स्कोप वहाँ अधिक होता है और व्यापक मेहनतकश आबादी के कठिन जीवन और संघर्षों में भागीदारी की कोई परेशानी नहीं उठानी पड़ती। जो ज़्यादा रैडिकल रुझान वाले थोड़े-से छात्र होते हैं, वे निम्न-बुर्जुआ क्रान्तिवाद के शिकार होते हैं। व्यापक मेहनतकश जनता पर उन्हें भरोसा नहीं होता और आनन–फ़ानन में क्रान्ति कर डालने की प्रवृत्ति उन्हें आतंकवाद के रास्ते की ओर ले जाती है। छात्र जीवन में वामपन्थी फ़िकरों-मुहावरों की जुगाली करने वाले बहुतेरे छात्र या तो किसी संसदमार्गी वामपन्थी पार्टी के नेता या एन.जी.ओ. सुधारवाद के सरगना बन जाते हैं, या नववामपन्थी अकादमीशियन बन जाते हैं, या फिर मीडियाकर्मी और नौकरशाह बन जाते हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे सुविधासम्पन्न टापू की वामपन्थी छात्र राजनीति यदि सभी संशोधनवादी पार्टियों के लिए प्रभावी भरती-केन्द्र का काम करती है और कभी-कभार वहाँ से निकले कुछ छात्र यदि दुस्साहसवादी वाम राजनीति का रास्ता पकड़ते हैं तो इसमें ज़रा भी आश्चर्य की बात नहीं है।
एक सच्ची क्रान्तिकारी छात्र राजनीति का मतलब केवल फ़ीस-बढ़ोत्तरी के विरुद्ध लड़ना, कक्षाओं में सीटें घटाने के विरुद्ध लड़ना, मेस में ख़राब ख़ाने को लेकर लड़ना, छात्रवासों की संख्या बढ़ाने के लिए लड़ना, कैम्पस में जनवादी अधिकारों के लिए लड़ना या यहाँ तक कि रोज़गार के लिए लड़ना मात्र नहीं हो सकता। क्रान्तिकारी छात्र राजनीति वही हो सकती है जो कैम्पसों की बाड़ेबन्दी को तोड़कर छात्रों को व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन और संघर्षों से जुड़ने के लिए तैयार करे और उन्हें इसका ठोस कार्यक्रम दे। ऐसा किये बिना मध्यवर्गीय छात्र अपनी वर्गीय दृष्टि-सीमा का अतिक्रमण नहीं कर सकते। क्रान्तिकारी परिवर्तन की भावना वाले छात्रों को राजनीतिक शिक्षा और प्रचार के द्वारा यह बताना होगा कि मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के संघर्षों में प्रत्यक्ष भागीदारी किये बिना और उसके संघर्षों के साथ अपने संघर्षों को जोड़े बिना वे उस पूँजीवादी व्यवस्था को क़त्तई नष्ट नहीं कर सकते जो सभी समस्याओं की जड़ है। व्यापक मेहनतकश जनता के जीवन और संघर्षों में भागीदारी करके ही मध्यवर्गीय छात्र अराजकतावाद, व्यक्तिवाद और मज़दूर वर्ग के प्रति तिरस्कार–भाव की प्रवृत्ति से मुक्त हो सकते हैं और सच्चे अर्थों में क्रान्तिकारी बन सकते हैं।
माओ त्से-तुङ ने लिखा है, “बुद्धिजीवी लोग जब तक तन-मन से क्रान्तिकारी जनसंघर्षों में नहीं कूद पड़ते, अथवा आम जनता के हितों की सेवा करने और उसके साथ एकरूप हो जाने का पक्का इरादा नहीं कर लेते, तब तक उनमें अक्सर मनोगतवाद और व्यक्तिवाद की प्रवृत्तियाँ बनी रहती हैं, उनके विचार अव्यावहारिक होते हैं और उनकी कार्रवाइयों में दृढ़ निश्चय की कमी बनी रहती है। इसलिए हालाँकि चीन में क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों का जनसमुदाय एक हिरावल दस्ते की भूमिका अथवा एक सेतु की भूमिका अदा कर सकता है, फिर भी यह नहीं हो सकता कि उनमें से सभी लोग अन्त तक क्रान्तिकारी बने रहेंगे। कुछ लोग बड़ी नाज़ुक घड़ी में क्रान्तिकारी पाँतों को छोड़ जायेंगे और निष्क्रिय हो जायेंगे, यहाँ तक कि उनमें से कुछ लोग क्रान्ति के दुश्मन भी बन जायेंगे। बुद्धिजीवी लोग केवल दीर्घकालीन जनसंघर्षों के दौरान ही अपनी कमियों को दूर कर सकते हैं।” (माओ त्से-तुङ: ‘चीनी क्रान्ति और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी,’ (दिसम्बर 1939), संकलित रचनाएँ, अंग्रेज़ी संस्करण, ग्रन्थ 2, पृ- 322)
माओ त्से-तुङ की यह उक्ति भारत के बुद्धिजीवियों के लिए भी लागू होती है और छात्रों के लिए भी लागू होती है क्योंकि छात्र मध्यवर्गीय युवा बुद्धिजीवी ही होते हैं। क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन के कार्यक्रम में यह बात अनिवार्य रूप से शामिल होनी चाहिए कि छात्र कार्यकर्ताओं को कैम्पस के आन्दोलनों के अतिरिक्त, अपनी पढ़ाई-लिखाई से समय निकालकर मज़दूरों के बीच जाना चाहिए, उनकी जीवन–स्थितियों का अध्ययन करना चाहिए, छुट्टियों में उनके साथ रहना चाहिए, अध्ययन–मण्डलों, पुस्तकालयों, सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रचार कार्यों के द्वारा उन्हें शिक्षित करना चाहिए, उनके आन्दोलनों में शिरक़त करनी चाहिए, इस प्रक्रिया में स्वयं शिक्षित होना चाहिए और अपना वर्ग-रूपान्तरण करना चाहिए। भगतसिह और बटुकेश्वर दत्त ने 19 अक्टूबर 1929 को पंजाब छात्र संघ, लाहौर के दूसरे अधिवेशन के नाम जेल से भेजे गये अपने सन्देश में लिखा था कि क्रान्ति का सन्देश फैक्टरियों-कारख़ानों, गन्दी बस्तियों और गाँवों की झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों मेहनतकशों तक पहुँचाना छात्रों-नौजवानों की ज़िम्मेदारी है। यह बात आज भी सही है और क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन इसकी अनदेखी नहीं कर सकता।
माओ त्से-तुङ ने किसी नौजवान के क्रान्तिकारी होने-न होने की एकमात्र कसौटी यह बतायी थी कि वह नौजवान व्यापक मेहनतकश जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, और अपने अमल में वह ऐसा करता है अथवा नहीं (माओ त्से-तुङ: ‘नौजवान आन्दोलन की दिशा,’ (4 मई 1939), संकलित रचनाएँ, ग्रन्थ 2, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ- 246)।
भारत के छात्र-युवा आन्दोलन के लिए भी यह कसौटी शत-प्रतिशत सही है और आज हमें पूरी मज़बूती के साथ इस पर अमल करने की ज़रूरत है। तभी हम इस मोर्चे पर वास्तव में एक नयी शुरुआत कर पायेंगे और उसे आगे बढ़ा पायेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
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