रामसेतु: किसके हेतु??

शिवार्थ

हमारे भगवा ध्वजा-धारी आजकल एक मुद्दे को लेकर काफ़ी परेशान हैं। चारों तरफ़ से इन निरीह धार्मिक प्राणियों की भावनाओं को काफ़ी ठेस पहुँचायी गयी। पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने बोल दिया कि रामसेतु मानव निर्मित ढाँचा नहीं है। इस पर हमारे गेरुआ वस्त्र धारकों को काफ़ी धक्का पहुँचा और वे पुरातत्व विभाग के इस दुस्साहस पर अवाक रह गये। अभी वे इस झटके से उबर ही रहे थे कि सुप्रीम कोर्ट ने कह दिया कि राम के होने का कोई प्रमाण नहीं है। अब सुप्रीम कोर्ट से तो कुछ गाली-गलौच भी नहीं कर सकते, जैसा कि हमारे इन निरीह प्राणियों का मनपसन्द काम है, क्योंकि कोर्ट की अवमानना के मामले में भीतर हो जाएँगे। सुप्रीम कोर्ट आज की पूँजीवादी व्यवस्था के कुछ ‘सेविंग ग्रेसों’ में से एक है, हालाँकि इससे भी व्यवस्था की इज़्ज़त आजकल बच नहीं पा रही है। अभी हमारे भोले-भाले साधु, बजरंग दल वाले, आदि दूसरी ठेस से उबर भी नहीं पाए थे कि कांग्रेस की ओर से भी किसी ने कुछ ऐसा कह दिया जो अधार्मिक था और हिन्दू आस्थाओं पर हमला था। बस! फ़िर क्या था। हमारे इन अतिसहिष्णु साधुओं ने कहा: बस बहुत हुआ! अब हिन्दुओं का अपमान और श्रीराम का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जाएगा और उन्होंने एक देशव्यापी ‘आन्दोलन’ शुरू कर दिया। दिल्ली में पाँच लाख साधु दण्ड-कमण्डल लेकर आ गये और बड़ा तमाशा मचाया। कांग्रेस हिन्दू वोटों के खिसकने के डर से अपने कहे को निगल गयी। सुप्रीम कोर्ट चुप्पी साध गया। पुरातत्व विभाग भी चुप हो गया।

Ram_Sethuसंघ के समर्थक मीडिया कर्मियों ने अपने आदिपुरुष गोएबल्स की कार्यशैली को और विकसित करते हुए नासा की एक रिपोर्ट को गलत तरीके से उद्धृत करके बताया कि रामसेतु मानवनिर्मित ढाँचा है, जबकि नासा ने बाद में बताया कि उसकी रिपोर्ट में इसका बिल्कुल उल्टा कहा गया है। उसमें यही तो बताया गया है कि रामसेतु मानवनिर्मित नहीं है। यह प्राकृतिक संरचना है। लेकिन नासा के इस कथन को हमारे देश में महान मीडिया ने ज़रा भी हाईलाईट नहीं किया। उल्टे ऐसे हिन्दूवादी वैज्ञानिकों से इण्टरव्यू दिखाए जो काफ़ी धर्मपरायण थे और उन्होंने झूठों का एक पूरा पुलिन्दा पेश कर डाला। कुछ ने कहा कि चाहे मानवनिर्मित हो या प्राकृतिक, इसे छेड़ने से पारिस्थितिक सन्तुलन गड़बड़ हो जाएगा। अब हम इस सवाल पर नहीं जाएँगे कि इससे क्या होगा और क्या नहीं होगा और प्रस्तावित परियोजना को लागू करना चाहिए या नहीं। हम पहले इस बात की जाँच करेंगे कि तथ्य हमें इस रामसेतु विवाद के बारे में क्या बताते हैं।

यह सेतु भारत में रामेश्वरम् द्वीप के दक्षिणी छोर और श्रीलंका के तलाईमन्नार के बीच पूर्व-पश्चिम दिशा में स्थित 30 बालू के टीलों की एक विच्छिन्न श्रृंखला है। यह पाक की खाड़ी और मन्नार की खाड़ी के बीच एक भौगोलिक विभाजक के रूप में कार्य करती है। पाक की खाड़ी और मन्नार की खाड़ी को जोड़ने के लिए प्रस्ताव पहली बार सन् 1860 में आया था। तब से इस तरह के कई प्रस्ताव आ चुके हैं। लेकिन 1998 में पहली बार ऐसी परियोजना राष्टीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार के दौरान शुरू की गयी। यह और बात है कि यही गठबंधन आज इसका सब इसका सबसे तीखे स्वर में विरोध कर रहा है। शायद भगवा ब्रिगेड को पता था कि ऐसी परियोजना को मंजूरी अभी दे दो। शुरू होने का समय आते-आते हमारी सरकार तो जा चुकी होगी। फ़िर कम-से-कम हमारे पास इसका विरोध करने के रूप में एक मुद्दा तो रहेगा!! खै़र, इस परियोजना का उद्घाटन 2005 में मनमोहन सिंह की सरकार के द्वारा किया गया।

विवाद की शुरुआत

यह सब शुरू हुआ सन् 2002 में जब नासा ने पाक की खाड़ी में उपग्रहों द्वारा लिए गए कुछ चित्रें को जारी किया। यह चित्र बालू के टीलों की एक श्रृंखला को दिखाते थे। इन चित्रें ने हमारे देश के हिन्दूवादी संगठनों और पार्टियों की कार्यवाहियों में नई जान फ़ूँक दी। इन चित्रों के बारे में इन संगठनों की टिप्पणी कुछ इस प्रकार थी – “नासा इस सेतु के ‘अद्वितीय आकार’ के कारण इसे एक मानव-निर्मित ढाँचा मानती हैं।” हालाँकि, नासा के अधिकारी मार्क हेस का कहना है- “रिमोट सेंसिग चित्र और उपग्रह द्वारा लिए गए चित्र इन श्रृंखलाओं के बारे में कोई सीधी जानकारी नहीं दे सकते और न ही इनकी उत्पत्त्ति और उम्र के बारे में कुछ कह सकते हैं, और इस बात को तो कतई नहीं बता सकते कि यह मानव-निर्मित है या नहीं।’’

ram-setu-myth-reality_26वैज्ञानिकों के अनुसार यह विवादित द्वीप समूह लगभग सवा एक लाख साल पहले अस्तित्व में आया था। इतिहासकारों ने बताया कि रामायण लिखे जाने के अनुसार अगर रामायण जैसी कोई घटना कभी हुई भी होगी तो वह 2000 वर्ष से पहले नहीं हो सकती। इस पर संघ के साधु बहुत नाराज़ हुए। उन्होंने हम सब का ज्ञानवद्धर्न करते हुए बताया कि श्रीलंका के सबसे पहले निवासी 17.5 लाख साल पहले रहते थे! वैज्ञानिकों ने उनको यह समझाने की बहुत कोशिश की कि इस धरती पर आधुनिक मानवों का अस्तित्व ही 2 लाख वर्ष से अधिक का नहीं है। लेकिन उन्होंने मानने से इंकार कर दिया। वैज्ञानिक फ़िर उनके पास पुरातात्विक और जीवाश्मीय प्रमाणों का अध्ययन लेकर भी गये और उन्होंने बताया कि आधुनिक मानव (होमो सेपियंस सेपियंस प्रजाति) का आविर्भाव दो लाख साल पहले हुआ और भारतीय उपमहाद्वीप में मानव सिर्फ़ एक लाख साल पहले आया है। लेकिन फ़िर भी दिव्यचक्षु प्राप्त साधुओं ने सिर हिलाकर मानने से इंकार कर दिया। थक-हार कर वैज्ञानिक वापस आ गये। अब तो संघ परिवार अड़ गया कि राम 17.5 लाख साल पहले हुए थे। वैज्ञानिकों ने स्वयं पर सन्देह करते हुए पूछा कि क्या राम डायनासोर थे? इस पर साधुगण और नाराज़ हो गये। अब उन्होंने देश भर में रामसेतु को रामेश्वरम परियोजना से बचाने के लिए पूरा आन्दोलन ही छेड़ दिया। सरकार शुरू में तो अड़ी रही फ़िर इस पर थोड़ा झुकते हुए कहा कि रामेश्वरम परियोजना के रास्ते को बदलने पर वह विचार कर सकती है, जिससे कि रामसेतु न टूटे। फ़िर तो सभी चुनावी पार्टियों (कुछेक अपवादों, जैसे द्रमुक) को छोड़कर सभी ने समझौतापरस्त रुख़ अ‍ख्तियार किया और कहने लगे कि रामसेतु को बचाया जाना चाहिए। भगवा कैम्प में चारों तरफ़, एक बार फ़िर विज्ञान पर आस्था की विजय होने की खुशियाँ मनाई जाने लगीं।

लेकिन हम ज़रा इन वैज्ञानिक एजेंसियों की खोज पर निगाह डालना पसन्द करेंगे और पाठकों से चाहेंगे कि वे भी इन पर ग़ौर करें और फ़िर उन्हें आस्था को तरजीह देनी है या विज्ञान और तर्कपरकता को, इसका फ़ैसला स्वयं करें।

भारत की दो स्वतंत्र ऐजेंसियों जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इण्डिया और इण्डियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइज़ेशन ने रामसेतु के उद्भव को लेकर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है। जी.एस.आई. ने दिसम्बर 2002–मार्च 2003 के बीच में ‘रामेश्वरम परियोजना’ नामक विशेष कार्यक्रम तैयार किया था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य किये गये।

(1) सतही तलछट को इकट्ठा करने के लिए रामेश्वरम् द्वीप के पूर्वी हिस्से में चार गढ्ढे किए गए।

(2) रेडियोकार्बन डेटिंग और थर्मोल्यूमिनिसन्स डेटिंग के लिए इस क्षेत्र की अलग-अलग जगहों से नमूने लिए गए।

इसके बाद जीएसआई द्वारा निम्न निष्कर्ष प्रस्तुत किये गये:

मूँग की चट्टानों के उम्र संबंधी विवरण बताते हैं कि रामेश्वरम् द्वीप 1,25,000 साल पुराना है। इसके निर्माण के लिए अनेक समुद्रतटीय प्रक्रियाएँ जिम्मेदार रही हैं। इनमें अतीतकाल में समुद्रतटों में होने वाले परिवर्तन, वायुजनित अनेक प्रकार की क्रियाशीलताएँ आदि प्रक्रियाएँ शामिल रही हैं। इन्हीं प्रक्रियाओं से मण्डपम, रामेश्वरम् और रामसेतु जैसे समुद्री तटीय क्षेत्रों का विकास हुआ है। इन्हीं प्रक्रियाओं में आगे चलकर समुद्रतटीय रेत के टीलों का विस्तार, द्वीपों की श्रृंखलाओं (रामसेतु भी) का अस्तित्व पैदा हुआ था। रेडियोकार्बन डेटिंग बताती हैं कि यहाँ के जलस्तर में लगातार बदलाव होते रहे हैं। करीब 20,620 साल पहले जब जलस्तर अपने न्यूनतम पर था, इसी समय रामेश्वरम् और मन्नार के बीच का क्षेत्र प्रदर्शित हुआ। थर्मोल्यूमिनिसंस डेटिंग बताती हैं कि इस क्षेत्र में बालू के टीले करीब 500–600 साल पहले जमे थे।

2003 में इसरो ने इसको लेकर कुछ अंतरिक्ष आधारित अनुसंधान किए थे। उनके निष्कर्ष इस प्रकार थे:

रामसेतु एक मानव-निर्मित ढांचा नहीं है। यह 103 छोटी चट्टानों से बना हुआ है जो कि एक सीधी रेखा में हैं। इसके सीधे आकार का कारण इस क्षेत्र का पुरानी समुद्री तट है, जो यह बताता है कि पहले श्रीलंका और भारत एक ही जमीने के टुकड़े थे, जहाँ से ये मूंगे की चट्टानें विकसित हुई हैं। अनुसंधान ये भी बताते हैं कि, इन बालू के टीलों की अवस्थिति और आकार 1999–2000 और फ़िर 2000–2005 के दौरान परिवर्तित हुए हैं।

उपलब्ध तथ्यों और जानकारी के आधार पर एन.रामानुजन कॉलेज के भूविज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष चिदम्बरम ने इस क्षेत्र के भूवैज्ञानिक विकास को प्रस्तुत करने की कोशिश की है।

आज से करीब 1500–700 लाख साल पहले, जब इण्डियन प्लेट इस्ट एण्ड वेस्ट गुवानालैण्ड से अलग नहीं हुआ था, तब पाक की खाड़ी और मन्नार की खाड़ी प्री-कैम्बियन बेसमेण्ट चट्टान के हिस्से थे। इण्डियन प्लेट के उत्तरी स्थानान्तरण और यूरेशियन प्लेट के साथ इसकी टकराहट ने जो तनाव पैदा किया, वह पश्चिमी प्रायद्वीप में मैन्टल अपवेलिंग और क्रेस्ट डाउनवॉर्पिंग का कारण बना। इसी के फ़लस्वरूप कावेरी बेसिन बना और पहाड़ों से पृथक किए हुए कई बड़े अवनमन (डिप्रेशन) बने। ये पहाड़ियाँ मूँगे की चट्टानों के विकास का केन्द्र बनी। और ऊँचा होने के कारण यह बालू को रोकने वाले ढाँचे भी बने। इसने मण्डापम के समुद्रीतट को भी प्रभावित किया और समुद्री धाराओं की दिशा बदल दी। इस दिशा परिवर्तन ने बालू मिट्टी आदि के एकत्रित होने की प्रक्रिया को तेज़ कर दिया, जो कि अंततः बालू के टीलों के रूप में ‘राम-सेतु’ बन जाता है।

उपरोक्त सभी अध्ययन उन प्राकृतिक कारणों का एक स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करते हैं जिनके प्रभाव में ‘राम-सेतु’ पैदा हुआ है, या जिनसे ‘राम-सेतु’ का निर्माण हुआ है। ऐसा सेतु या ऐसा प्राकृतिक ढाँचा सिर्फ़ हमारे देश में नहीं पाया गया है। ऐसे ही कुछ ढाँचे दक्षिणी अमेरिका, जापान और फ़िलीपींस जैसे देशों में भी पाए गए है। इनके अस्तित्वमान होने के कारण अलग-अलग रहे हैं, लेकिन ये अस्तित्वमान प्राकृतिक कारणों से ही है। लेकिन इन देशों में ऐसी चीज़ों को देशव्यापी राजनितिक मुद्दा नहीं बनाया जा सकता, जैसा कि हमारे देश में हुआ है।

इसके कारण भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थितियाँ और इसका इतिहास भी है। सुनने में ताज्जुब हो सकता है लेकिन यह सच है। यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय जनमानस में तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति आग्रह इतना कम क्यों है? इसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण रहा है कि भारतीय समाज का विकास क्रमिक रहा है, यह क्रान्तियों से होकर नहीं गुज़रा। समाज हमेशा गतिमान रहता है, लेकिन क्रान्ति सामाजिक चेतना को एक स्तर से दूसरे तक छलाँग लगाने में मदद करती है। यह छलाँग पूर्व की प्रवृत्तियों से निर्णायक विच्छेद करने में मदद करती है। जब यूरोप प्रबोधन की रोशनी में नहा रहा था उस समय हमारा देश औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत आकर अपने स्वाभाविक विकास की गति को खो रहा था। भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए नये उदीयमान वर्गों का दावा दिखना अभी भ्रूण रूप में शुरू ही हुआ था कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारत को उपनिवेश बना लिया। भारत में भी स्वाभाविक विकास होने की सूरत में निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलन शुरू हो सकते थे जो तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनमानस में स्थापित करते और उसे अन्धविश्वास, ढकोसलों, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त करते। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ऐसे आन्दोलन यूरोपीय आन्दोलनों से भिन्न होते। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो सका और औपनिवेशीकरण ने भारत के विकास की स्वाभाविकता को विकृत कर दिया और उसे ब्रिटेन के फ़ायदे के लिहाज़ से ढाला। यही कारण है कि भारतीय जनमानस में लाख पढ़ाई और विज्ञान जानने के बावजूद तर्कपरकता का एक अभाव होता है क्योंकि सामाजिक-आर्थिक क्रान्तियाँ देश की जनता के मस्तिष्क को तमाम बेड़ियों से मुक्त करतीं और उन्हें तर्कपरक बनातीं।

अब एक विडम्बनापूर्ण स्थिति यह है कि भूमण्डलीकरण और पूँजीवादी विकास के इस दौर में देश विज्ञान और तकनोलॉजी से कटकर तो नहीं रह सकता। इसलिए उन्नततम तकनोलॉजी का हर नमूना है हमारे पास। लेकिन वह सारे ढकोसलों के साथ मौजूद है। उदाहरणस्वरूप, हमारे यहाँ आज नवीनतम उपकरण बन रहे है, हर एक क्षेत्र में। हम सबसे उन्नत तकनीक से अपने अंतरिक्ष यान या युद्ध के हथियार बनाते है। जब इनको लाँच किया जाता है, या जब पहली बार इस्तेमाल किया जाता है तो टीका लगाया जाता है और मन्त्रोच्चार किया जाता है। विज्ञान और पोंगापंथ का ऐसा ‘अट्ट संगम’ भारत में ही देखने को मिल सकता है।

पूरे मुद्दे के विश्लेषण के दौरान एक और चीज़ जो ग़ौर करने लायक है, वह है इस मुद्दे पर सबसे अधिक रोना-पीटना मचाने वाले लोगों का वर्ग-चरित्र। जिन्होंने भी रामसेतु को बचाने का आह्वान करने वाले पोस्टर और बैनर देखे हैं उन्होंने उस पर शायद निवेदकों और आयोजकों के नाम पर ग़ौर किया हो, जो विश्व हिन्दू परिषद की ओर से ये बैनर–पोस्टर लगवाते हैं। इनमें से 99 प्रतिशत व्यापारी होते हैं या प्रॉपर्टी डीलर या फ़िर दलाल। ये लोग टुटपुँजिया वर्ग के सबसे गैर-जनवादी, परजीवी, लालची, धार्मिक कट्टरपंथी, जातिवादी और फ़ासीवादी हिस्सों से आते हैं-दुकानदार, डीलर, एजेण्ट, दलाल, आदि। इनके प्रदर्शनों पर ग़ौर कीजिये। इनमें अधिकांश खाए–अघाए–मुटियाए दुकानदारों और व्यापारियों का जमावड़ा होता है। यही भारत में पुनरुत्थानवादी धार्मिक कट्टरपंथी फ़ासीवाद का सामाजिक आधार हैं। ये वर्ग अन्दर से जनविरोधी, मज़दूर–विरोधी और गैर-जनवादी हैं। जहाँ तक पढ़े-लिखे मध्यवर्ग का प्रश्न है, उसका भी एक छोटा-सा हिस्सा अपनी दिमाग़ी गुलामी के चलते इस तरह के प्रदर्शनों में जाता है। निम्न मध्यवर्ग के बेरोज़गार युवाओं को भी ये धार्मिक कट्टरपंथी बरगलाकर अपने इन प्रदर्शनों में खींच ले जाते हैं। लेकिन जहाँ तक देश की 80 फ़ीसदी मेहनतकश जनता का प्रश्न है, उसे इस तरह के मुद्दों से कोई लेना-देना नहीं होता। वह आम तौर पर अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद में ही इतना उलझा रहता है कि उसे ऐसे पोंगापंथी मुद्दों पर सोचने का वक्त ही नहीं रहता। और अगर सोचने का वक्त होता भी तो वह इसकी व्यर्थता को समझ जाता।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008

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