पूँजीवादी समाज का एक और घिनौना सच
देश का हर दूसरा बच्चा शोषण-उत्पीड़न का शिकार

वेरा

child-molestationनिठारी की घटना को अभी चन्द महीने ही हुए हैं कि सरकार द्वारा जारी एक रिपोर्ट ने इस घृणास्पद सच का खुलासा किया है कि देश में हर दूसरा बच्चा किसी न किसी किस्म के शारीरिक शोषण का शिकार होता है। महिला एवं बाल विकास मन्त्रालय और यूनीसेफ़ की संयुक्त सर्वे रिपोर्ट ‘स्टडी ऑन चाइल्ड एब्यूज़ – इण्डिया 2007’ के अनुसार इस मामले में सर्वाधिक शिकार बच्चे 5–12 वर्ष के आयु वर्ग में आते हैं। एक नज़र आँकड़ों पर डालें तो 69 प्रतिशत बच्चे पिटाई व शारीरिक शोषण के शिकार हैं, जबकि 53 फ़ीसदी का किसी न किसी रूप में यौन शोषण हुआ है। आन्ध्रप्रदेश, असम, बिहार, दिल्ली में यौन शोषण का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। यह रिपोर्ट दो भयानक तथ्यों को सामने लाती है। एक यह कि शोषण करने वालों में परिवार के सदस्यों से लेकर रिश्तेदार तक शामिल हैं। और दूसरा यह कि घरों, दुकानों और फ़ैक्टरियों में कार्यरत बाल श्रमिकों और संस्थाओं को देखभाल के लिए सौंपे गये बच्चों के यौन शोषण व उत्पीड़न की घटनाएँ सर्वाधिक हैं। रिपोर्ट के अनुसार 62 प्रतिशत काम करने वाले बच्चों और 55 प्रतिशत सड़कों पर रहने वाले बच्चों ने किसी न किसी रूप में यौन शोषण सहा है।

केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास राज्य मन्त्री, रेणुका चौधरी इस रिपोर्ट पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहती हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि बच्चे अपने घरों में ही असुरक्षित हैं। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए बच्चों की सुरक्षा को राष्ट्रीय एजेण्डे पर रखे जाने की ज़रूरत है। इस अध्ययन का उद्देश्य बच्चों के शोषण की समस्या पर प्रभावी रूप से काबू पाने के लिए उचित नीतियाँ और कार्यक्रम बनाना है।” सच बताइये रेणुका जी, क्या आपको वाकई लगता है कि उचित नीतियों और कार्यक्रमों को बनाने से इस समस्या का समाधान हो जाएगा। ऐसे कानून तो पहले से ही मौजूद हैं जो बच्चों के यौन शोषण के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई की बात करते हैं। फ़िर बच्चे इस किस्म के बर्बर और अमानवीय शोषण का शिकार कैसे हो रहे हैं?

बात एकदम साफ़ है। इस समाज और व्यवस्था से हम बच्चों के लिए और कोई उम्मीद कर भी नहीं सकते हैं। यह रिपोर्ट स्वयं बताती है कि इस देश की सड़कों से हर वर्ष हज़ारों बच्चे कभी न मिलने के लिए ग़ायब हो जाते हैं। वे सड़कों पर भीख माँगते हैं, होटलों में प्लेटें धुलते हैं, और धन्नासेठों की तिजोरियों को अपने खून में ढले सिक्कों से भरते हैं। जिस समाज व्यवस्था में हर कार्य की प्रेरक शक्ति लाभ और मुनाफ़ा हो, वह लाज़िमी तौर पर धीरे-धीरे सभी मानवीय मूल्यों से रिक्त हो जाएगी। यही परिघटना दुनिया भर में घटित होती दिख रही है। चाहे वह निठारी काण्ड हो, वर्जीनिया गोलीकाण्ड हो, बलात्कार और बाल यौन शोषण की तमाम घटनाएँ हों, मनुष्यों में नरभक्षण की प्रवृत्ति का पैदा होना हो, या इण्टरनेट पर मनोरोगियों द्वारा वेबकैम के सामने की जाने वाली आत्महत्याएँ हों, जिन्हें चस्का ले-लेकर मनोरोगी ही देखते भी हैं – हर जगह पूँजीवादी संस्कृति, सभ्यता और समाज की पतनोन्मुखता और सड़ाँध मारती मरणोन्मुखता ही नज़र आ रही है। बच्चे अपने घरों में सुरक्षित नहीं हैं। जिन मस्तिष्कों को ऊँची उड़ानें भरनी हैं उन्हें कुण्ठित और ग्रंथिग्रस्त कर दिया जा रहा है। मनोरोगियों की समाज में भरमार होती जा रही है।

इस रिपोर्ट ने ऐसा कोई चौंकाने वाला तथ्य सामने नहीं लाया है। इस रिपोर्ट के आने से पहले भी हम जानते थे कि इस देश के आम लोगों के बच्चे किन हालात में जीते हैं और उन्हें किस प्रकार के शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। इस रिपोर्ट ने खाली जगहों में संख्याएँ भरने का काम किया है और जिस बात को लोग अनुभव से जानते थे उसे आँकड़ों से पुष्ट करने का काम किया है। यह समाज बच्चों को यही दे सकता है। इस समाज में बच्चों का कोई भविष्य नहीं है। जब तक समाज में हर काम के पीछे की प्रेरक शक्ति मुनाफ़ा बना रहेगा, जब तक सभी आर्थिक सामाजिक क्रियाकलापों का केन्द्र बिन्दु लाभ होगा, न कि मानवीय ज़रूरतें, तब तक हम बच्चों का इसी तरह शोषण होता देखते रहेंगे। मुनाफ़े की हवस ने इस समाज के एक हिस्से को मानव होने की शर्तों से ही वंचित कर दिया है। इनके पास पैसा है, सिर्फ़ पैसा। आत्मिक सम्पदा, मानवीयता और संवेदनशीलता के मामले में ये भिखारी हैं। रास्ता हमारे सामने सिर्फ़ एक है-एक मानव-केन्द्रित, समतामूलक व्यवस्था और समाज का निर्माण।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

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