लू शुन के जन्मदिवस (25 सितम्बर) के अवसर पर उनका एक गद्यगीत – जागना

luxunस्कूल जाते विद्यार्थियों की तरह रोज सुबह बमवर्षक विमान पीकिङ के ऊपर से उड़ान भरते हैं1। और हर बार जब मैं उनके इंजनों को हवा पर हमला बोलते सुनता हूँ तो मुझे हल्के से तनाव का अहसास होता है, जैसे मैं मौत के आक्रमण का प्रत्यक्षदर्शी हो रहा हूँ, हालांकि इससे जीवन के अस्तित्व की मेरी चेतना बढ़ जाती है।

एक-दो दबे-दबे धमाकों के बाद जहाज भनभनाते हुए धीमी रफ्तार से वापस उड़ जाते हैं। शायद कुछ लोग हताहत होते हैं, पर दुनिया सामान्य से ज्यादा शान्त लगने लगती है। खिड़की के बाहर पॉपलर की नाजुक पत्तियाँ धूप में गाढ़े सोने सी चमकती हैं; फ़ूलों से भरा आलूचे का पेड़ कल से भी ज्यादा भव्य लगता है। जब मैं अपने बिस्तर पर चारों ओर बिखरे अखबारों को समेट देता हूँ और पिछली रात मेज पर जमा हो गई हल्की धूसर धूल को पोंछ देता हूँ तो छोटा सा चौकोर कमरा वैसा लगने लगता है जिसके लिए कहते हैं, “उजास भरी खिड़कियां और बेदाग मेज।”

किसी कारणवश, मैं यहाँ जमा हो गई युवा लेखकों की पाण्डुलिपियों को सम्पादित करने लगता हूँ। मैं उन सबको पढ़ना चाहता हूँ। मैं उन्हें कालक्रमानुसार पढ़ता हूँ और इन युवा लोगों की आत्माएँ बारी-बारी से मेरे सामने आने लगती हैं जो किसी भी तरह की मुलम्मेबाजी से नफ़रत करते हैं। वे बहुत अच्छे हैं, उनमें ईमानदारी है-लेकिन, आह! वे कितने उदास हैं, ये मेरे प्यारे युवा, वे शिकायत करते हैं, गुस्सा होते हैं और अन्ततः रूखे बन जाते हैं।

उनकी आत्माएँ हवा और धूल के थपेड़े सहकर रूखी हो जाती हैं क्योंकि उनकी आत्मा मनुष्य की आत्मा है, ऐसी आत्मा जो मुझे प्यारी है। मैं खुशी-खुशी इस रूखेपन को चूमूंगा जिससे खून टपक रहा है पर जो आकारहीन और रंगहीन है। खूबसूरत, दूर तक मशहूर दुर्लभ फ़ूलों से भरे बगीचों में शर्मीली और नाजुक लड़कियां अलसाती हुई समय गुजार रही हैं, बगुले चीखते हुए गुजर रहे हैं और घने, सफ़ेद बादल उठ रहे हैं…- यह सब बेहद लुभावना है लेकिन मैं नहीं भूल सकता कि मैं मनुष्यों की दुनिया में रह रहा हूँ।

और यह अचानक मुझे एक घटना की याद दिलाता है: दो या तीन साल पहले, मैं पीकिङ विश्वविद्यालय के स्टाफ़ रूम में था कि एक विद्यार्थी, जिसे मैं नहीं जानता था, भीतर आया। उसने मुझे एक पैकेट दिया और एक भी शब्द बोले बिना चला गया। और जब मैंने उसे खोला तो ‘छोटी घास’2 पत्रिका की एक प्रति मिली। उसने एक शब्द भी नहीं कहा था लेकिन वह मौन कितना मुखर था, और यह तोहफ़ा कितना अनमोल! मुझे दुख है कि ‘छोटी घास’ अब नहीं प्रकाशित हो रही है; लगता है इसने बस ‘डूबी घंटी’ 3   के पूर्वगामी की भूमिका अदा की। और ‘डूबी घंटी’ इंसानी सागर में नीचे गहराई में, हवा और धूल की कन्दराओं में अकेली बज रही है।

जंगली घास को कुचल डालने पर भी उसमें एक नन्हा सा फ़ूल उगता है। मुझे याद आता है कि तॉल्सताय इससे कितने उद्वेलित हो उठे थे कि उन्होंने इस पर एक कहानी लिख दी। निश्चित रूप से, जब सूखे, बंजर रेगिस्तान में पौधे अपनी जड़ें जमीन के नीचे गहराई में ले जाकर पानी खींच लाते हैं और एक हरा जंगल खड़ा कर देत हैं तो वह महज अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे होते हैं। लेकिन थके–हारे, प्यासे मुसाफ़िरों के दिल उन्हें देखकर उछल पड़ते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि वे ऐसी जगह पहुँच गये हैं जहां थोड़ी देर आराम किया जा सकता है। निश्चित ही, यह गहरी कृतज्ञता और उदासी का भाव पैदा करता है।

पाठकों को सम्बोधित करते हुए ‘‘बिना शीर्षक’’ शीर्षक से डूबी घंटी के सम्पादकों ने लिखा है:

कुछ लोग कहते हैं, हमारा समाज एक रेगिस्तान है। अगर ऐसा होता, तो सूनेपन से भरा ही सही पर आपको शान्ति का अहसास होता, वीरानगी ही सही पर आपको अनन्तता का अहसास होता। यह इतना अराजक, विषादपूर्ण और सबसे बढ़कर इतना परिवर्तनशील नहीं होता, जैसा कि यह है।

हां, युवा लोगों की आत्माएँ मेरे सामने उभरी हैं। वे रूखी हो गई हैं या रूखी हो जाने वाली हैं। लेकिन मैं इन आत्माओं को प्यार करता हूँ जो चुपचाप खून के आँसू रोती हैं और बर्दाश्त करती हैं, क्योंकि वे मुझे यह अहसास कराती हैं कि मैं मनुष्यों की दुनिया में हूँ-मैं मनुष्यों के बीच जी रहा हूँ।

मैं सम्पादन के काम में जुटा हूँ; सूरज ढल गया है और मैं लैम्प की रोशनी में काम करता रहता हूँ। हर तरह के युवा मेरी आँखों के सामने से कौंध जाते हैं, हालाँकि मेरे चारों ओर शाम के झुटपुटे के सिवा कुछ भी नहीं है। थका हुआ, मैं एक सिगरेट सुलगाता हूँ, धीमे से अपनी आँखें बन्द करता हूँ, यूँ ही कुछ सोचते हुए, और एक लम्बा, बहुत लम्बा सपना देखता हूं। मैं झटके से जागता हूँ। चारों ओर कुछ नहीं बस झुटपुटा है; ठहरी हुई हवा में सिगरेट का धुआँ गर्मी के आकाश में बादल के नन्हे टुकड़ों की तरह तैर रहा है और धीरे-धीरे अबूझ आकार ग्रहण कर रहा है।  (अप्रैल 1926)

1 अप्रैल 1926 में, जब जनरल फ़ेङ यूजियाङ उत्तरी युद्ध सरदारों झांग जुओलिन और ली जिङलिन से लड़ रहा था तो युद्ध सरदारों के विमानों ने कई बार पीकिङ पर बमबारी की।

2 युवा लेखकों द्वारा 1924 में शुरू की गई एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका

3 1925 के शिशिर में निकली एक साप्ताहिक साहित्यिक पत्रिका

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