राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़ारिशें
देशी-विदेशी पूँजी की सेवा में मैकाले के मानसपुत्रों की कवायद

अरविन्द

knowledge commissionभारत में औपनिवेशिक शिक्षा की बुनियाद रखते हुए लॉर्ड मैकाले ने मग़रूरियत में भरकर कहा था-“हमारी इस शिक्षा द्वारा एक ऐसे वर्ग की सृष्टि होगी जो रक्त एवं वर्ण में भारतीय होगा परन्तु पसन्द, विचार, आचरण एवं विद्वत्ता में अंग्रेज़ होगा।” मैकाले का यह दावा ग़लत भी नहीं था। जब तक देश में अंग्रेज़ी हुकूमत कायम रही नई पीढ़ी मैकाले की शिक्षा-व्यवस्था के संस्कारों में शिक्षित-दीक्षित होती रही। अंग्रेज़ियत की मानसिकता वाले क्लर्क, वकील, छोटे-मोटे अफ़सर व तकनीशियन इस शिक्षा-व्यवस्था में गढ़े जाते रहे जो औपनिवेशिक शासन और समाज-तंत्र के मफ़ुीद कल-पुर्ज़े साबित होते रहे। लेकिन 1947 में राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त होने के बाद भी देशी शासक वर्गों ने शिक्षा का जो ढाँचा तैयार किया उसमें लॉर्ड मैकाले की आत्मा रची-बसी थी, जिसका एकमात्र उद्देश्य देशी पूँजीवादी व्यवस्था के लिए कारगर कल-पुर्ज़े तैयार करना ही था। पिछले साठ वर्षों में समय-समय पर गठित अनेक शिक्षा आयोगों की तर्ज़ पर गठित राष्ट्रीय ज्ञान आयोग भी मैकाले की विरासत आगे बढ़ाते हुए भूमण्डलीकरण के दौर में शासक वर्गों की नई ज़रूरतों की पहचान कर रहा है और उसके अनुरूप शिक्षा के ढाँचे में बदलावों की सिफ़ारिशें कर रहा है।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन केन्द्र सरकार द्वारा विगत जून 2005 में किया गया था। सैम पित्रेदा की अध्यक्षता में गठित इस आयोग के अन्य सदस्य नियुक्त किये गये थे-पी.एम. भार्गव (उपाध्यक्ष), अशोक गांगुली, जयति घोष, दीपक नैयर, नन्दन निलकेनी, प्रताप भानु मेहता और आन्द्रे बेतेल। इनमें से प्रताप भानु मेहता और आन्द्रे बेतेल उच्च शिक्षण संस्थानों में पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण लागू करने के केन्द्र सरकार के फ़ैसले के विरोध में इस्तीफ़ा दे चुके हैं। उपाध्यक्ष पी.एम. भार्गव भी आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रेदा के एकाधिकारवादी रवैये के ख़िलाफ़ प्रधानमन्त्री से शिकायत कर चुके हैं। बहरहाल, इस आयोग को तीन सालों में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करनी है जिसके दायरे में प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च शिक्षा तीनों क्षेत्र शामिल हैं। आयोग ने विगत जनवरी माह में अपनी जो मध्यावधि रिपोर्ट सरकार को सौंपी है वह मुख्यतः उच्च शिक्षा पर केन्द्रित है। रिपोर्ट में जो सिफ़ारिशें की गयी हैं उसके पीछे मूल चिन्ता केवल यही नज़र आती है कि उच्च शिक्षा के मौजूदा ढाँचे को भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में देशी-विदेशी पूँजी की नई ज़रूरतों के अनुरूप कैसे ढाला जाये।

जैसी औक़ात, वैसी शिक्षा

दो शब्दों में कहें तो ज्ञान आयोग की उच्च शिक्षा सम्बन्धी सिफ़ारिशों की मूल भावना यह है कि उसे पूरी तरह बाज़ार की शक्तियों के खुले खेल का मैदान बना दिया जाये। जैसा कि देश में गठित हर सरकारी आयोग के साथ होता है कि समस्याओं और स्थितियों के एक हद तक वस्तुपरक चित्रण के बाद जब सिफ़ारिशों की बात आती है तो इस चित्रण से उसका कोई मेल नहीं बैठता।

आयोग ने उच्च शिक्षा में सुधारों के मौजूदा दौर के लिए तीन लक्ष्य निर्धारित किये-“विस्तार, गुणवत्ता और समावेशन”। आयोग इस पर चिन्ता ज़ाहिर करता है कि देश में अभी 18–24 आयु वर्ग के केवल सात प्रतिशत नौजवान ही उच्च शिक्षा की देहरी तक पहुँच पाते हैं जो कि एशिया के औसत 15 प्रतिशत का आधा है। यूरोप, अमेरिका और जापान में यह औसत 25 प्रतिशत है। इस स्थिति को दूर करने के लिए आयोग सिफ़ारिश करता है कि अगले आठ वर्षों में देश में विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ाकर 1500 कर दी जानी चाहिए। मालूम हो कि देश में इस समय कुल 367 विश्वविद्यालय हैं। इनमें से 100 निजी क्षेत्र के हैं। इसी तरह देश में फ़िलहाल मौजूद कुल 17,700 कॉलेजों में केवल 4,300 सरकार द्वारा संचालित हैं, शेष 5750 राजकीय सहायता प्राप्त निजी कॉलेज हैं तथा 7,650 निजी कॉलेज ऐसे हैं जिन्हें सरकारी सहायता नहीं मिलती। अगले आठ वर्षों में 1500 विश्वविद्यालय खोलने का लक्ष्य हासिल करने के लिए आयोग ने राज्य पर कोई दायित्य नहीं सौंपा है। केवल यह सिफ़ारिश की गयी है कि सरकार उच्च शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी.) का 1.5 प्रतिशत ख़र्च करे। ज़ाहिर है कि भारी संख्या में निजी विश्वविद्यालयों को खोलने के लिए आयोग ने रास्ता साफ़ कर दिया है। ‘विस्तार’ का लक्ष्य इसी प्रकार पूरा होगा। और “गुणवत्ता” का लक्ष्य? इसके लिए एक ओर आयोग ने गुणवत्ता का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले 50 राष्ट्रीय विश्वविद्यालय खोलने का सुझाव दिया है दूसरी ओर विदेशी संस्थानों को आमन्त्रित करने की सिफ़ारिश की है। आयोग ने इसके पीछे यह चिर-परिचित बाज़ारू तर्क दिया है कि विदेशी संस्थानों के साथ प्रतिस्‍पर्धा में अन्य भारतीय संस्थानों की गुणवत्ता भी बढ़ेगी।

आयोग की तमाम सिफ़ारिशों के पीछे की असली मंशा साफ़-साफ़ तब उजागर होती है जब वह यह सिफ़ारिश करता है कि किसी विश्वविद्यालय के संचालन के कुल ख़र्च का बीस प्रतिशत फ़ीस के रूप में छात्रों से वसूल किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, आयोग की सिफ़ारिश यह भी है कि हर दो साल में फ़ीसें बढ़ाई जानी चाहिए। और इसका आधार मूल्य सूचकांक को बनाया जाना चाहिए। यह सिफ़ारिशें करते समय आयोग ने “समावेशन” के लक्ष्य को पूरी तरह आँखों से ओझल कर दिया।

स्पष्ट है कि आयोग जब उच्च शिक्षा के “विस्तार“ की बात करता है तो इसके पीछे 18–24 वर्ष आयु वर्ग के सभी युवाओं को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराने का लक्ष्य कतई नहीं है। उच्च गुणवत्ता वाली उच्च शिक्षा तो केवल उन युवाओं को नसीब होगी जो चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा हुए हैं। इस दायरे में केवल शहरों और गाँवों के खुशहाल मध्यवर्ग तक के युवा ही “समावेशित” होंगे। बाकी निम्न मध्यवर्ग के युवा जो इन उच्च गुणवत्ता वाली संस्थाओं में दाख़िला नहीं ले सकेंगे उनके लिए गाँवों-कस्बों में कुकुरमुत्तों की तरह निजी कॉलेज हैं ही जिनके विस्तार के लिए ज्ञान आयोग ने हरी झण्डी दे दी है। दरअसल, निम्न मध्यवर्ग के युवाओं के बीच उच्च शिक्षा प्राप्त करने की जो आकांक्षा पैदा हुई है उसे पूरी तरह नज़रअन्दाज़ करना शासक वर्गों को महँगा पड़ सकता है। इसलिए, उन्हें उच्च शिक्षा के नाम पर दोयम दर्जे़ की शिक्षा का लॉलीपॉप पकड़ाया गया है। 1986 में घोषित नई शिक्षा नीति द्वारा इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की स्थापना और अनेक पत्रचारी पाठ्यक्रमों के जरिये आम घरों के युवाओं के लिए ऐसे लॉलीपॉप की शुरुआत की गई थी। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने उसी सिलसिले को नया रूप दिया है। भूमण्डलीकरण के दौर में शिक्षा क्षेत्र का पूँजी निवेश के नये सम्भावनासम्पन्न क्षेत्र के रूप में विकास हुआ है। देशी और विदेशी दोनों निवेशक शिक्षा क्षेत्र में भारी निवेश कर रहे हैं और मुनाफ़ा पीट रहे हैं। उच्च शिक्षा के इन ‘डिपार्टमेण्ट स्टोरों’ में अलग-अलग क्वालिटी के माल बिकेंगे, जिसकी जो औकात हो वह वैसा माल ख़रीद ले।

निचोड़ यह कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में पहले से चले आ रहे श्रेणी विभाजन को राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने और मुकम्मिल बना दिया है। कुछ चुनिन्दा उच्च शिक्षा संस्थान धनी वर्गों के चुनिन्दा युवाओं को “उच्च गुणवत्ता“ वाली शिक्षा देंगे। इन सौभाग्यशाली युवाओं के लिए ही ऊँची पगार वाली अच्छी नौकरियाँ सुरक्षित होंगी। बाक़ी शिक्षा संस्थानों में दोयम-सेयम दर्ज़े की उच्च शिक्षा पाने वाले बदकिस्मत नौजवान एक अदद कामचलाऊ नौकरी पाने के लिए खुले आसमान के नीचे चप्पलें फ़टकारने के लिए आज़ाद होंगे।

अकादमिक स्वायत्तता पर हमला और बचे-खुचे जनवादी स्पेस पर शिकंजा

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब तक बचे-खुचे बुर्जुआ आदर्श, सीमित अकादमिक स्वायत्तता और बचे खुचे जनवादी स्पेस का गला घोंट देने की सिफ़ारिशें की हैं। आयोग की नज़र में उच्च शिक्षा का मौजूदा ढाँचा “अति विनियमित” लेकिन “अल्प” शासित है। अब उसने “अल्प शासित” स्थिति को बदलकर “अति शासित” स्थिति में पहुँचा देने के लिए ‘उच्च शिक्षा हेतु स्वतन्त्र विनियमन प्राधिकरण’ (इण्डिपेण्डेण्ट रेग्युलेटरी अथॉरिटी फ़ॉर हायर एजुकेशन.आई.आर.ए.एच.ई.) की स्थापना करने का सुझाव दिया है। आयोग की इस सिफ़ारिश के अनुसार जो कार्य और शक्तियाँ इस वक्त विश्वविद्यालय अनुदान आयोग, ए.आई.सी.टी., एम.आई.सी., बी.सी.आई. आदि संस्थानों के पास हैं उन्हें आई.आर.ए.एच.ई. को सौंप दिया जाएगा। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि अण्डरग्रेजुएट कॉलेजों का पाठ्यक्रम बनाने और परीक्षाएँ नियोजित करने के लिए ‘सेण्ट्रल बोर्ड ऑफ़ अण्डरग्रेजुएट एजुकेशन’ बनाया जाय और साथ ही हर राज्य में ‘स्टेट बोर्ड ऑफ़ अण्डरग्रेजुएट एजुकेशन’ बनाया जाय जो कॉलेजों को सम्बद्ध भी करेंगे।

राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की इन सिफ़ारिशों पर दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पूर्व अध्यक्ष और ‘एकेडेमिक्स फ़ॉर एक्शन एण्ड डेवेलपमेण्ट’ के अध्यक्ष डा. एम.एम. राठी की टिप्पणी महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि उच्च शिक्षा में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को अलग करके नहीं देखा जा सकता। श्री राठी के अनुसार आज के ज़माने में जब उच्च शिक्षा में विशेष योग्यता और उत्कृष्ट योग्यता के युग आ गये हैं और इसके लिए विभिन्न पेशेवर नियामक संस्थाओं की ज़रूरत है तो ऐसे में केवल एक संस्था सबको नियमित नहीं कर सकती। लेकिन ज्ञान आयोग के विद्वान सदस्य और उसके सर्वे-सर्वा सैम पित्रेदा इतने कम अक्ल नहीं कि वे इतनी मामूली बात नहीं समझ पा रहे हैं। दरअसल, कॉलेजों के लिए अलग बोर्ड बनाने और उच्च शिक्षा के विभिन्न संस्थाओं के एकीकरण के पीछे असली मंशा उनकी सीमित स्वायत्तता को समाप्त करना और उन पर सरकार और निजी पूँजी का नियंत्रण कायम करना है। इसके साथ ही आयोग ने विश्वविद्यालय कोर्ट, एकेडेमिक कांउसिल, एक्जीक्यूटिव काउंसिल के आकार और संरचना को बदलने की भी सिफ़ारिश की है। आयोग ने इन निकायों के सदस्यों की संख्या कम करने और कुलपति के अधिकारों को बढ़ाने की सिफ़ारिश की है। उच्च शिक्षा के परिसरों का और अधिकारों का जनवादीकरण करना छात्र आन्दोलन के एजेण्डे में काफ़ी अहम जगह रखता रहा है। लेकिन ज्ञान आयोग ने इसके पूरी तरह उलट परिसरों पर नौकरशाही का शिकंजा कसने की सिफ़ारिश की है।

ज्ञान आयोग ने देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अब तक चली आ रही मूल भावना को ही उलट दिया है। 1948 में डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में गठित विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने अपनी सिफ़ारिशों में अकादमिक स्वायत्तता और परिसरों में जनवादी माहौल बनाने की पुरज़ोर हिमायत की थी। यह भारतीय पूँजीवाद का सापेक्षिक रूप से ऊर्जस्वी काल था। लेकिन जैसे-जैसे देश की पूँजीवादी व्यवस्था का संकट बढ़ता चला गया वैसे-वैसे शिक्षा के क्षेत्र में बुर्जुआ आदर्श व मूल्य क्षरित होते चले गये और उनका स्थान विशुद्ध लाभ-हानि के ठेठ बुर्जुआ मूल्यों ने ले लिया। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की हर छोटी-बड़ी सिफ़ारिश के पीछे देशी-विदेशी पूँजी के हित और नफ़ा-नुकसान की विशुद्ध पूँजीवादी मानसिकता ही काम कर रही है।

भाषाई गुलामी का औपचारिकीकरण

किसी स्वतन्त्र देश के लिए इससे बड़ी त्रासद विडम्बना क्या हो सकती है कि साठ वर्षों के बाद भी उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में एक औपनिवेशिक भाषा मजबूरी बनी हुई है। 1948 में डा. राधाकृष्णन ने उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेजी को एक तात्कालिक विवशता बताया था और इसे जल्द से जल्द दूर कर लेने की बात कही थी। लेकिन 60 वर्षों से बदस्तूर चली आ रही इस विवशता को अब अपरिहार्य मानते हुए ज्ञान आयोग ने उसे औपचारिक रूप प्रदान कर दिया है। आयोग ने अब उच्च शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को विवशता नहीं आवश्यकता मानते हुए उसे प्राथमिक स्तर से ही अनिवार्य बना देने की सिफ़ारिश की है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में ज्ञान आयोग का यह कदम एक किस्म से सांस्कृतिक उपनिवेशन की स्थिति को औपचारिक रूप प्रदान करना है। इक्कीसवीं सदी में भारत को एक अग्रणी ‘ज्ञान आधारित समाज़’ बना देने का सब्जबाग दिखाने वाले ज्ञान आयोग के सदस्यों के सिर पर मैकाले का प्रेत मँडरा रहा है। दरअसल, ज्ञान–विज्ञान की उपलब्धियों को आम लोगों से दूर रखकर और उसे प्रभु वर्ग का विशेषाधिकार बनाकर ही देशी पूँजीवादी शासन और समाज तंत्र के उपयुक्त कल-पुर्जों का निर्माण किया जा सकता है। मैकाले के मानसपुत्रों से इसके अलावा कोई उम्मीद भी आख़िर क्यों की जाये?

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

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