हमारे समय की कुछ ऐतिहासिक ज़िम्मेदारियाँ – एक नयी शुरुआत के लिए कुछ ज़रूरी कार्यभार
मेहनतकश जनसमुदाय से एकता बनाने के लिए क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं को कुछ ठोस क़दम उठाने होंगे!

सम्‍पादक

यूँ तो बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम करने वालों के बीच विभेद (डिफ़रेंसियेशन) और पार्थक्य (सेग्रीगेशन) की दीवारें सभ्यता के इतिहास के उस प्रारम्भिक युग में ही खड़ी हो चुकी थीं, जब समाज ने वर्ग-विभाजन और वर्ग-संघर्ष की मंज़िल में प्रवेश किया था। लेकिन पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन ने इस विभेद और पार्थक्य को विगत लगभग दो शताब्दियों के दौरान चरम सीमा तक विकसित कर दिया है।

पूँजीवादी श्रम-विभाजन ने मनुष्य के सामाजिक समष्टिगत व्यक्तित्व को खण्ड-खण्ड विघटित करते हुए उस मुकाम पर ला खड़ा किया है जहाँ समाज की समस्त भौतिक सम्पदा का उत्पादन करने वाला प्रत्यक्ष उत्पादक जनसमुदाय अपनी उत्पादक विशिष्टता से सर्वथा अपरिचित, मानो मशीन का एक पुर्जा बन चुका है। वह मात्र पगारजीवी आधुनिक ग़ुलाम है जो न केवल अपने उत्पादन से, बल्कि अपनी उत्पादक विशिष्टता सहित सभी मानवीय गुणों एवं कलाओं से, अपने समानधर्मा उत्पादकों से और पूरे सामाजिक एवं प्राकृतिक परिवेश से विच्छिन्न और बेगाना होकर बस अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए हडि्डयाँ गलाता रहता है। यही वह अलगाव (एलियनेशन) की परिघटना है, जो पूँजीवादी समाज की विशिष्टता है। सम्पत्तिशाली वर्ग और सर्वहारा वर्ग मानवीय आत्म-पृथक्करण (सेल्फ़-एस्ट्रेंजमेण्ट) की एक ही प्रक्रिया के दो पहलू हैं। पहला इस प्रक्रिया को अपनी शक्ति मानता है और इसमें मानवीय अस्तित्व का सादृश्य प्राप्त करता है, जबकि दूसरा इसमें अपनी शक्तिहीनता और अमानवीय अस्तित्व की वास्तविकता अनुभव करता है। निजी सम्पत्ति अपनी इच्छा से स्वतन्त्र, अचेतन, आन्तरिक गति से, एक ऐसी शक्ति के रूप में सर्वहारा वर्ग को पैदा करती है जो अपनी प्रकृति से ही निजी सम्पत्ति-विरोधी होती है, वह एक ऐसी दरिद्रता को जन्म देती है जो अपनी आत्मिक-भौतिक दरिद्रता के बारे में चैतन्य होती है, वह एक ऐसे अमानवीकरण को जन्म देती है जिसे अपने अमानवीकरण का बोध होता है। निजी सम्पत्ति सर्वहारा वर्ग को जन्म देकर अपने विरुद्ध एक दण्डाज्ञा जारी करती है और इस हुक़्म को तामील करके अपना ऐतिहासिक मिशन पूरा करने के साथ ही सर्वहारा वर्ग स्वयं अपना भी उन्मूलन कर लेगा। यानी अपने विपरीत पक्ष – निजी सम्पत्ति का लोप हो जाने के साथ सर्वहारा वर्ग का भी लोप हो जायेगा और वहाँ से मानव सभ्यता के उत्तरवर्गीय इतिहास का समारम्भ होगा।

पूँजीवादी समाज की वर्गीय संरचना में मध्यवर्ग या निम्नपूँजीपति वर्ग (पेटी बुर्जुआ क्लास) एक ऐसा वर्ग होता है जो बौद्धिक श्रम करता है और सीधे भौतिक उत्पादन में नहीं लगा होता है। यह अतिरिक्त मूल्य नहीं पैदा करता। पूँजीवादी समाज की सर्वव्याप्त बीमारी – मानवीय आत्म-पृथक्करण और अलगाव से यह भी विविध रूपों में ग्रस्त होता है, लेकिन बौद्धिक श्रम को शारीरिक श्रम से श्रेष्ठ समझने के कारण, अपनी स्वाभाविक वर्गीय चेतना से यह सर्वहारा वर्ग को हेय दृष्टि से देखता है। निजी सम्पत्ति में इसकी गहरी आस्था होती है। पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय की प्रक्रिया को संचालित करने में इस वर्ग की अनिवार्यतः महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। सर्वहारा वर्ग से अधिशेष निचोड़ने में यह पूँजीपति वर्ग के अधीनस्थ सहयोगी की भूमिका (ब्यूरोक्रैट, टेक्नोक्रैट से लेकर क्लर्क, सुपरवाइज़र आदि के रूप में) निभाता है और पूँजीवादी राज्य-व्यवस्था और पूरे सामाजिक-सांस्कृतिक अधिरचनात्मक तन्त्र के सभी अंगों-उपांगों का नीति-निर्धारण और संचालन भी (सिद्धान्‍तकार, विचारक, राजनीतिज्ञ, नौकरशाह, न्यायाधीश, सेना-पुलिस के अधिकारी और स्वतन्त्र पेशेवर बुद्धिजीवी के रूप में) यही वर्ग करता है। बदले में मेहनतकशों से कुल निचोड़े गये अधिशेष का एक हिस्सा यह वर्ग वेतन-भत्ता और सुख-सुविधाओं के रूप में हासिल करता है। साथ ही, बुद्धिजीवी के रूप में इसे बहुतेरे बुर्जुआ अधिकार विशेषाधिकार के रूप में हासिल होते हैं।

इस मध्य वर्ग की निरन्तर चाहत और कोशिश यही होती है कि यह ऊपर उठकर सीधे अधिशेष निचोड़ने वाले पूँजीपति वर्ग की पाँत में जा बैठे। लेकिन पूँजीपतियों के बीच तो पहले से ही, बड़ी मछली छोटी मछली को खाती रहती है और आम प्रवृत्ति इज़ारेदारी की होती है। स्वतन्त्र प्रतियोगिता के दौर में नये-नये पूँजीपतियों का पैदा होना फ़िर भी आसान था। लेकिन एकाधिकारी पूँजीवाद के वर्तमान दौर में ऐसा हो पाने की गुंजाइशें काफ़ी कम हो गयी हैं। ऐसी स्थिति में, मध्य वर्ग का जो ऊपरी हिस्सा है, वह शेयर खरीदकर, रियल एस्टेट आदि में पूँजी लगाकर लाभ कमाने में पूँजीपतियों का छुटभैया बन जाता है। नीचे का हिस्सा भी बचत करके सम्पत्तिशाली बनने का सपना देखता है, लेकिन बैंकों में पैसा जमा कर वह ज़्यादा से ज़्यादा, पूँजीपतियों को मुनाफ़ा कमाने के लिए ऋण के रूप में पूँजी का अम्बार ही उपलब्ध करा पाता है, और ख़ुद उसे इसी मुनाफ़े का एक अत्यन्त छोटा टुकड़ा ब्याज के रूप में हासिल हो पाता है, जिससे वह कुछ सुरक्षा और सुविधाएँ जुटा लेने से अधिक कुछ नहीं कर पाता।

मध्य वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसके विभेदीकरण की प्रक्रिया निरन्तर जारी रहती है। ऊँची तनख्वाहें पाने वाले प्रबन्धक, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, डॉक्टर, वरिष्ठ मीडियाकर्मी आदि स्वतन्त्र प्रोफ़ेशनल्स न केवल सुरक्षित-सुविधासम्पन्न और विलासिता का जीवन जीते हैं, बल्कि अपनी बचत से निवेश करके मुनाफ़ा निचोड़ने वालों की कतार में निचले पायदानों पर जा बैठते हैं और पूँजीवादी व्यवस्था के एक मज़बूत, विश्वसनीय सामाजिक अवलम्ब की भूमिका निभाते हैं। इसे उच्च मध्य वर्ग कहा जाता है। इसी वर्ग के बीच से बुद्धिजीवियों का वह हिस्सा आता है जो सिद्धान्‍तकार, चिन्तक, अकादमीशियन, मीडियाकर्मी, संस्कृतिकर्मी व राजनीतिज्ञ के रूप में पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा करता है और प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी, जनविरोधी बुद्धिजीवी की भूमिका निभाता है। क्लर्कों, प्राथमिक-माध्यमिक स्कूलों के शिक्षकों, तकनीकी व सुपरवाइज़री स्टाफ़ के लोगों, कम वेतन वाले निचले स्तर के मीडियाकर्मियों, सेल्स एजेण्टों और कम आय वाले स्वतन्त्र प्रोफ़ेशनल्स से मध्य वर्ग के मध्यवर्ती और निचले संस्तर, यानी मध्यम मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग संघटित होते हैं। इस पूरे वर्ग के विभेदीकरण की प्रक्रिया निरन्तर गतिमान रहती है। उच्च मध्य वर्ग का एक हिस्सा ऊपर उठता रहता है और उनमें से कुछ पूँजीपति घरानों के बड़े शेयर–होल्डर, व्यवसायी, दलाल या किसी प्रकार के बड़े कारोबारी बनते रहते हैं। मध्यम मध्य वर्ग का एक हिस्सा ऊपर की ओर तो एक नीचे की ओर गतिमान रहता है। निम्न मध्य वर्ग लगातार टूटे सपनों, अपूर्ण आकांक्षाओं, मलाल, अफ़सोस और निराशा में जीता रहता है। उसका एक छोटा-सा हिस्सा ही सुरक्षित जीवन हासिल करके ऊपर उठ पाता है। शेष अपनी स्थिति को बचाने के लिए जूझता रहता है और उसका बड़ा हिस्सा लगातार कंगाल-बदहाल होकर सर्वहारा की क़तारों में शामिल होता रहता है। मध्य वर्ग के मँझोले और निचले संस्तरों के बीच लगातार यह आशंका विश्वास में बदलती जाती है कि पूँजीवादी व्यवस्था में बेहतर ज़िन्दगी की उनके लिए कोई गुंजाइश नहीं बची है। इन्हीं के बीच से व्यवस्था-परिवर्तन के भाँति-भाँति के कल्पनावादी, सुधारवादी और उग्रपरिवर्तनवादी (रैडिकल) विचार एवं परियोजनाएँ पैदा होती रहती हैं। जो मध्यवर्गीय कल्पनावादी और सुधारवादी विचार–सरणियाँ होती हैं वे पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में सुधार की तजवीज़ पेश करने के चलते वस्तुगत तौर पर पूँजीवाद की ही सेवा करती हैं और शासक वर्ग उन्हें न केवल सहर्ष स्वीकार और प्रोत्साहित करता है, बल्कि कालान्तर में ऐसे विचारों के प्रस्तोता और वाहक भी इस व्यवस्था की सुरक्षा-पंक्ति के रूप में अपना लिये जाते हैं। रैडिकल विचारों और परियोजनाओं की वाहक शक्तियाँ समय-समय पर दिशाहीन उग्र आन्दोलनों को जन्म देती रहती हैं जिनकी परिणति निराशा और विफलता के रूप में सामने आती रहती है। कुछ ऐसे रैडिकल मध्यवर्गीय तत्व होते हैं जो क्रान्ति के लिए समाज की वैज्ञानिक समझ और व्यापक जनसमुदाय की भूमिका की महत्ता नहीं समझते। वे जनता को निष्क्रिय भीड़ मानते हैं और उसकी मुक्ति के लिए स्वयं अपनी वीरता और कुर्बानी के बूते, हथियार उठाकर, आतंक और षड्यन्त्र के सहारे आनन–फ़ानन में क्रान्ति कर देना चाहते हैं। आतंकवाद का यह रास्ता सामाजिक क्रान्ति की एक प्रातिनिधिक मध्यवर्गीय समझ है। साथ ही, निम्न मध्य वर्ग के चरम अलगावग्रस्त, नितान्त पिछड़ी चेतना वाले भविष्य के प्रति निराश, निरुपाय क्रोध की मानसिकता में जीने वाले पीले-बीमार चेहरों वाले युवा ही भाँति-भाँति के फ़ासिस्टों के गुण्डा-गिरोहों में शामिल होते रहते हैं। लेकिन निरन्तर सर्वहारा बनने की दिशा में अग्रसर इसी निम्नवर्ग के रैडिकल हिस्सों के बीच से कुछ ऐसे लोग निकलकर सामने आते हैं जो अपने जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया में पूँजीवाद की तमाम विभीषिकाओं के शिकार मेहनतकश जनसमुदाय के निकट आते हैं और उससे आत्मिक धरातल पर भी निकटता महसूस करने लगते हैं। वे मध्य वर्ग के सबसे उन्नत चेतना वाले रैडिकल तत्व होते हैं। वे सामाजिक परिवर्तन की दिशा और रास्ते के बारे में व्यावहारिक और तर्कसंगत ढंग से सोचते हैं, इन्हें जानने के लिए समाज की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संरचना का, उसकी आन्तरिक गतिकी का और समाज-विकास की पूरी ऐतिहासिक प्रक्रिया का अध्ययन करते हैं और इस प्रकार, पूँजीवाद-विरोधी क्रान्ति के विज्ञान से परिचित होते हैं। उनके सामने यह सच्चाई स्पष्ट हो जाती है कि पूँजीवादी समाज में उत्पादन की प्रकृति तो सामाजिक हो जाती है लेकिन उत्पादन के साधन और सामाजिक श्रम के उत्पादों पर समाज का स्वामित्व नहीं होता है। उन पर पूँजीपति वर्ग का निजी स्वामित्व होता है। सामाजिक उत्पादन और पूँजीवादी निजी स्वामित्व के बीच के इस अन्तरविरोध को हल करके तथा उत्पादन के साधनों व सामाजिक श्रम के उत्पादों के स्वामित्व का समाजीकरण करके ही समाज आगे बढ़ सकता है। पूँजीपति वर्ग पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली को सर्वोपरि तौर पर, अपनी राज्यसत्ता के बल के सहारे कायम रखता है। कोई सामाजिक क्रान्ति उस राज्यसत्ता का ध्वंस करके ही नयी समाज-व्यवस्था के निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। यह काम केवल सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में ही अंजाम दिया जा सकता है क्योंकि वही एक ऐसा वर्ग है जो किसी प्रकार के निजी स्वामित्व से वंचित, केवल अपनी श्रम शक्ति का मालिक होता है, वही सर्वाधिक शोषित-उत्पीड़ित और उन्नत उत्पादक शक्तियों का प्रतिनिधि होने के नाते सबसे उत्कट क्रान्तिकारी चरित्र वाला वर्ग होता है।

क्रान्ति के इस विज्ञान को समझते हुए निम्न मध्य वर्ग के सर्वाधिक उन्नत, रैडिकल बौद्धिक तत्व मेहनतकश जनसमुदाय की इतिहास-निर्मात्री भूमिका से और सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी क्रान्तिकारी भूमिका से परिचित होते हैं और उनके साथ एकता बनाने के सचेतन प्रयासों में जुट जाते हैं। यूँ तो किसी भी पूँजीवादी समाज में पूँजी-संचय की प्रक्रिया आगे बढ़ने के साथ-साथ जैसे-जैसे धनी-ग़रीब के बीच की खाई बढ़ती जाती है और सामाजिक ध्रुवीकरण तीव्र, गहरा और उग्र होता जाता है, वैसे-वैसे लगातार सर्वहारा की पाँतों में धकेले जाते मध्य वर्ग के निचले और मँझोले संस्तरों के सामने यह बात स्पष्ट होती जाती है कि उनके सामने पूँजीवाद के नाश और समाजवाद के विकल्प को स्वीकारने के अतिरिक्त कोई और रास्ता नहीं है और शारीरिक श्रम करने वालों से अन्तरविरोध के बावजूद पूँजीवाद-विरोधी सामाजिक क्रान्ति में वे उनके मित्र बन जाते हैं। लेकिन मध्य वर्ग के इन्हीं संस्तरों के जो सर्वाधिक उन्नत तत्व होते हैं, वे सर्वहारा के मित्र मात्र बनने की जगह मेहनतकशों के जीवन और ऐतिहासिक मिशन को पूरी तरह अपनाकर, अपना वर्ग-रूपान्तरण करके सर्वहारा वर्ग का ही एक हिस्सा बन जाते हैं और सर्वहारा क्रान्ति की हरावल पाँतों में शामिल हो जाते हैं। निश्चय ही, अपना सर्वहाराकरण करने वाले ऐसे मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों की संख्या (पूरे वर्ग के अनुपात में) बहुत छोटी होती है, लेकिन समाजवाद के लिए संघर्ष में, विशेषकर उसकी प्रारम्भिक अवस्थाओं में उनकी भूमिका ऐतिहासिक और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। उजरती ग़ुलामी की विमानवीकारी (डीह्यूमनाइज़िंग) परिस्थितियों में अपने अस्तित्व के लिए जूझता हुआ सर्वहारा वर्ग पूँजीवादी अमानवीयता के विरुद्ध संगठित होकर लड़ने की वर्ग-चेतना तो हासिल कर लेता है, लेकिन वह अपने-आप यह नहीं समझ पाता कि पूँजी की सत्ता को ध्वस्त करके पूँजीवादी उत्पादन-प्रणाली को समाप्त करने का और शोषण-उत्पीड़न से मुक्त सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की दिशा में आगे बढ़ने का रास्ता क्या होगा? जीवन उसे वर्ग-संघर्षों के इतिहास एवं नियमों से, पूँजीवाद की आर्थिक गतिकी से और समाजवाद की वैज्ञानिक समझदारी से परिचित होने का अवसर नहीं देता। ऐसे में, उसके संघर्ष या तो मात्र आर्थिक माँगों के संघर्षों के दायरे में और पेशागत संकुचित वृत्ति के दायरे में सिमटे रह जाते हैं या फ़िर दिशाहीन विद्रोहों के रूप में सामने आते रहते हैं और पूँजीपति वर्ग की राज्यसत्ता को चकनाचूर करके अपनी राज्यसत्ता स्थापित करने वाले राजनीतिक संघर्ष की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाते। इस काम को अंजाम देने के लिए सर्वहारा वर्ग के ही थोड़े-से अगुवा तत्व आगे आते हैं, वे स्वयं को एक हरावल दस्ते के रूप में, एक नेतृत्वकारी कोर के रूप में – एक क्रान्तिकारी पार्टी के रूप में संगठित करते हैं और मज़दूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराते हुए, उसे समाजवाद के विचारों से अवगत कराते हुए, आर्थिक संघर्षों के साथ-साथ राजनीतिक संघर्षों की दिशा में आगे बढ़ाते हैं। फ़िर व्यापक मज़दूर आबादी ट्रेड यूनियनों से आगे बढ़कर एक क्रान्तिकारी पार्टी के नेतृत्व में अपनी राजनीतिक माँगों के लिए लड़ती हुई पूरे मालिक वर्ग और उनकी राज्यसत्ता के विरुद्ध अपनी सारी शक्ति लगाती है। लेकिन पूँजीवादी समाज में ज्ञान की दुनिया और शारीरिक श्रम की दुनिया के बीच विभाजन के कारण, क्रान्तिकारी संघर्ष के शुरुआती चरणों में, सर्वहारा वर्ग के बीच से आने वाले ऐसे बौद्धिक अगुवा तत्त्वों की – सर्वहारा वर्ग के ऐसे नैसर्गिक ‘ऑर्गेनिक इण्टेलेक्चुअल्स’ की संख्या अत्यन्त छोटी या नगण्य होती है जिनका काम मज़दूर आन्दोलन तक समाजवाद के विचारों को पहुँचाना होता है। आगे चलकर आर्थिक संघर्षों की प्रारम्भिक पाठशाला और राजनीतिक संघर्षों की उच्चतर कक्षाओं में शिक्षित-प्रशिक्षित होने के बाद तथा सतत राजनीतिक प्रचार एवं शिक्षा की कार्रवाइयों के बाद, खाँटी मज़दूरों के बीच से भी ऐसे उन्नत बौद्धिक क्रान्तिकारी तत्व ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में पैदा होकर क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी में शामिल होने लगते हैं और उनमें से कई नेतृत्वकारी भूमिका भी निभाने लगते हैं। लेकिन शुरुआती दौर में ऐसा नहीं हो पाता।

मज़दूरों के क्रान्तिकारी संघर्ष के ऐसे शुरुआती दौरों में ऐसे क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की विशेष ऐतिहासिक भूमिका होती है जो आते तो मध्य वर्ग से (प्रायः निम्न मध्य वर्ग से) हैं, लेकिन अपने वर्ग-मूल से निर्णायक विच्छेद करके स्वयं को सर्वहारा वर्ग के जीवन से, उसके संघर्षों से और उसके ऐतिहासिक लक्ष्य से जोड़ लेते हैं। वे अपना सर्वहाराकरण कर लेते हैं और सर्वहारा वर्ग के हरावल की भूमिका निभाने लगते हैं क्योंकि बुर्जुआ समाज में ज्ञान की दुनिया से परिचित होने के कारण समाज-विकास की दिशा एवं गतिकी को समझ लेना उनके लिए अधिक सुगम होता है। इसीलिए मज़दूर वर्ग के नेतृत्व में संगठित होने वाले पूँजीवाद-विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के प्रारम्भिक दौरों में मध्यवर्गीय वर्ग-मूल वाले ऐसे क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। स्वयं मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, माओ, हो ची मिन्ह, किम इल सुंग आदि भी ऐसे ही लोग थे। मार्क्स-एंगेल्स के समय में यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन में डियेट्जगेन और जोहान फ़िलिप्प बेकर, लेनिन के समय में रूसी मज़दूर आन्दोलन में इवान बाबुश्किन जैसे कई ऐसे लोग भी थे जो खाँटी मज़दूर वर्ग से आने वाले क्रान्तिकारी बौद्धिक तत्व थे, लेकिन शुरुआती दौरों में ऐसे तत्त्वों की संख्या बहुत कम थी। हर जगह, क्रान्तिकारी मज़दूर आन्दोलन ने समाजवाद के विचारों से लैस होकर जैसे-जैसे आगे क़दम बढ़ाया, उसमें नीचे से लेकर नेतृत्व के स्तरों तक उन्नत बौद्धिक स्तर वाले मज़दूरों की संख्या बढ़ती चली गयी और मज़दूर वर्ग की पार्टियों का कम्पोज़ीशन बदलता चला गया। लेकिन इतना निर्विवाद है कि शुरुआती दौर में सभी जगहों पर, मध्य वर्ग से आने वाले और अपना वर्ग-रूपान्तरण करके, अपने वर्ग-हितों को छोड़कर सर्वहारा वर्ग-हितों के लिए लड़ने वाले और सर्वहारा समाजवादी धारा में शामिल हो जाने वाले क्रान्तिकारी बुद्धिजीवियों की भूमिका अनिवार्य रूप से महत्त्वपूर्ण रही है और पूँजीवादी समाज के श्रम-विभाजन की स्थिति के विश्लेषण से यह सर्वथा स्वाभाविक और तर्कसंगत प्रतीत होता है।

भारतीय सन्दर्भों में यह प्रश्न और अधिक महत्त्वपूर्ण है। भारतीय समाज के ताने-बाने में जनवाद के तत्व, यूरोपीय समाज की तुलना में (यहाँ तक कि उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त के रूस की तुलना में भी) अत्यन्त न्यून हैं। अधिरचनात्मक तन्त्र में बुर्जुआ जनवाद का स्पेस यहाँ अत्यधिक संकुचित है (इसके सुनिश्चित ऐतिहासिक कारण हैं, जिनकी चर्चा न यहाँ सम्भव है, न ही हमारा उद्देश्य)। इसके चलते यहाँ पढ़े-लिखे मध्य वर्ग और मज़दूर वर्ग के बीच सामाजिक पार्थक्य की खाई बहुत गहरी है। थोड़ी-बहुत औपचारिक स्कूली शिक्षा पा लेने के बावजूद, ज्ञान–विज्ञान और कला-संस्कृति की दुनिया से आम मज़दूर वर्ग का बहुत अधिक कटाव है। जिस समाज में आम मज़दूर और प्रोफेसर-पत्रकार–लेखक-छात्र एक चायख़ाने में चाय तक नहीं पीते, वहाँ लिखने-पढ़ने का शौक रखने वाला गोर्की जैसा कोई मज़दूर अभिजात वर्ग के लेखक कोरोलेंको जैसे किसी व्यक्ति के ड्राइंगरूम में घुस तक नहीं सकता। वहाँ पार्सन्स, स्पाइस, फ़िशर, एंजेल (मई–दिवस संघर्ष के नायक मज़दूर नेता), अर्नेस्ट जोंस जैसे लेखक-कवि मज़दूर नेता (चार्टिस्ट आन्दोलन के नेता) तथा जोहान्न फ़िलिप बेकर और इवान बाबुश्किन जैसे मज़दूर संगठनकर्ता आसानी से, राजनीतिक शिक्षा, प्रचार और संघर्षों की एक लम्बी सचेतन प्रक्रिया के बिना पैदा नहीं हो सकते। एक दूसरी समस्या भी है। भारत में औद्योगिक सर्वहारा की आबादी में विगत कुछ दशकों में भारी विस्तार हुआ है, लेकिन अभी भी उनकी भारी संख्या ऐसी है, जिनका परिवार गाँव में रहता है और ज़मीन के किसी एक छोटे-से टुकड़े से और “पुरखों की माटी“ से रागात्मक मोह के साथ चिपका हुआ है। यह स्थिति ऐसे मज़दूरों की सर्वहारा चेतना की प्रखरता और जीवन–दृष्टि के विस्तार में बाधा पैदा करती है और कूपमण्डूकता को टूटने नहीं देती। हालाँकि पूँजी की व्यापक और तीखी होती मार इस स्थिति को बदल रही है, लेकिन अभी तो यही स्थिति है। इन कारणों से भारतीय मज़दूर वर्ग के अपने ‘ऑर्गेनिक इण्टेलेक्चुअल्स’ की एक अच्छी-खासी संख्या का बहुत जल्दी सामने आ पाना सम्भव नहीं है। इसके लिए राजनीतिक शिक्षा एवं प्रचार कार्य और राजनीतिक संघर्षों की एक सापेक्षतः अधिक दीर्घकालिक, अधिक सघन, अधिक वैविध्यपूर्ण और अधिक सर्जनात्मक प्रक्रिया की दरकार होगी। साथ ही, मज़दूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यों पर भी बहुत अधिक ज़ोर देना पड़ेगा। भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन ने कभी इस प्रश्न को सही ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में जानने-समझने की कोशिश नहीं की, लेकिन यह एक अलग ऐतिहासिक प्रसंग है।

इस पूरी चर्चा का सारांश यह है कि पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के विरुद्ध जो एकमात्र विकल्प एक ऐतिहासिक सम्भावना हो सकती है, वह है समाजवाद। और समाजवाद के लिए नये सिरे से संगठित किये जाने वाले संघर्ष में नेतृत्वकारी भूमिका मज़दूर वर्ग की ही हो सकती है। मध्य वर्ग के जिस हिस्से के लिए पूँजीवाद में कोई भविष्य नहीं है, उसके सामने एकमात्र रास्ता यही बचता है कि वह निष्क्रियता, निराशा, निरुपायता में जीने या दिशाहीन आन्दोलनों-विद्रोहों और अराजकतावाद- आतंकवाद का रास्ता अपनाने के बजाय अपने संघर्षों को व्यापक मज़दूर आबादी के संघर्षों से जोड़े और समाजवादी क्रान्ति के नये संस्करणों के निर्माण में सहभागी बने। और मध्य वर्ग के इस हिस्से की भूमिका मात्र इतनी ही नहीं है। सर्वहारा वर्ग के संघर्षों की एक नयी शुरुआत के दौर में, यूँ कहें कि इस नयी शुरुआत के लिए, ज़रूरी है कि निम्न और मध्यम मध्य वर्ग के सर्वाधिक उन्नत चेतना वाले रैडिकल तत्व सर्वहारा वर्ग के जीवन और लक्ष्य के साथ एकरूप हो जायें, अपना सर्वहाराकरण करें, सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को आत्मसात करें, सर्वहारा वर्ग की हरावल क़तारों की भूमिका निभायें और मज़दूर आन्दोलन के भीतर समाजवाद के विचार को ले जाने में जुट जायें। निश्चय ही, आगे चलकर मज़दूर वर्ग के भीतर से भी बड़ी तादाद में ऐसे उन्नत बौद्धिक तत्व उभरकर आगे आयेंगे, पर शुरुआती दौर में उनकी संख्या बहुत कम होगी। ऐसे प्रारम्भिक दौर में मध्य वर्ग से आकर सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और लक्ष्य को अपनाने वाले उन्नत चेतनशील तत्वों की भूमिका बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह बात आम तौर पर सही है, लेकिन भारत की विशेष सामाजिक-राजनीतिक स्थिति में और आज जैसे दौर में इसका महत्त्व और अधिक हो जाता है।

हमारे देश के शिक्षित मध्यवर्ग के परेशानहाल हिस्सों का जो प्रबुद्ध और परिवर्तनकामी युवा समुदाय है, वह भी उत्पादकों और उत्पादन की दुनिया से कटा हुआ है और इसलिए व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय की इतिहास-निर्मात्री शक्ति से अपरिचित है। इसीलिए शासक वर्गों के वैचारिक-सांस्कृतिक प्रचार से प्रभावित होकर वह भी जनता को एक विचारहीन भीड़ मानने लगता है। वह आभासी यथार्थ को भेदकर इतिहास के इस सारभूत यथार्थ को नहीं पकड़ पाता कि जो लोग अपने श्रम से दुनिया की तमाम भौतिक सम्पदा का सृजन करते हैं, वही वस्तुतः तमाम आत्मिक-सामाजिक सम्पदा के निर्माण की भी मूल कारक शक्ति हैं और भविष्य का निर्माण भी उन्हीं की समष्टिगत सर्जनात्मक शक्ति को निर्बन्ध करके किया जा सकता है। ज्ञान भी वस्तुतः एक सामाजिक सम्पत्ति है, जिस पर पूँजीवादी श्रम-विभाजन ने बलात निजी स्वामित्व की सत्ता कायम कर रखी है। इतिहास में उत्पादन की बुनियादी क्रिया और उस बुनियाद पर कायम सामाजिक सम्बन्धों के सार–संकलन और अमूर्तीकरण से ही तमाम ज्ञान–विज्ञान और कला का जन्म हुआ और उनके विकास के साथ ही इनका विकास हुआ। आगे चलकर वर्ग-विभाजन और श्रम-विभाजन ने भौतिक उत्पादन से आत्मिक उत्पादन की क्रिया को, बौद्धिक श्रम को शारीरिक श्रम से काटकर अलग कर दिया, बुद्धिजीवी वर्ग को एक विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग में तब्दील कर दिया और शोषितों-उत्पीड़ितों द्वारा किये जाने वाले शारीरिक श्रम को हेय बना दिया। हमारे समाज में बौद्धिक कार्य करने वाले आम आदमी को भी कुछ विशेष बुर्जुआ अधिकार हासिल होते हैं और वह अपने को शारीरिक श्रम करने वाले प्रत्यक्ष उत्पादक से श्रेष्ठ मानता है। यह श्रेणी-विभाजन उत्पीड़ितों की एकजुटता में बाधक बनता है और शासक वर्ग के लिए अत्यन्त हितकारी सिद्ध होता है। क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी केवल उसे ही कहा जा सकता है, जो सचेतन तौर पर, अपने चिन्तन और व्यवहार में बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम के बीच के अन्तर को मिटा दे, भौतिक उत्पादन में लगे लोगों को हेय दृष्टि से देखना बन्द कर दे और मेहनतकश जनसमुदाय के साथ पूरी तरह से घुल-मिल जाये।

यह अपेक्षा हम खास तौर पर पढ़े-लिखे मध्य वर्ग के सर्वाधिक उन्नत एवं विद्रोही चेतना वाले युवाओं और छात्रों से ही कर सकते हैं। नौजवान विध्वंस और सर्जना की अपार क्षमता से लैस और सतत विकासमान ऊर्जा-पुंज होते हैं। चीनी क्रान्ति के महान नेता माओ त्से-तुङ ने कहा था: “नौजवान लोग समाज के सबसे अधिक सक्रिय और सबसे अधिक प्राणवान शक्ति होते हैं। उनमें सीखने की सबसे तीव्र इच्छा होती है तथा उनके विचारों में रूढ़िवाद का प्रभाव सबसे कम होता है।“  नौजवानी ही आविष्कार, अन्वेषण और रूढ़िभंजन की उम्र होती है। इतिहास में हमेशा से क्रान्तियों को शुरू करने और आगे बढ़ाने वालों में अग्रणी भूमिका नौजवानों की ही रही है और इतिहास के रथ का चक्का जब भी किसी गतिरोध के दलदल में धँसता रहा है तो नौजवान ही अपना कन्धा लगाकर उसे बाहर निकालते रहे हैं। इसीलिए, आज हम मध्य वर्ग के प्रौढ़, दुनियादार हो चुके गृहस्थों से नहीं, बल्कि रैडिकल, विद्रोही और उन्नत चेतनशील नौजवानों से ही यह अपेक्षा कर सकते हैं कि वे अपनी वर्ग-सीमाओं को तोड़ दें, बद्धमूल संस्कारों से झटके के साथ विच्छेद कर लें और व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय के बीच जायें, उसके जीवन से एकता बनायें, उसके बीच सामाजिक कार्य करें, यथासम्भव उत्पादक कार्रवाई में भी हिस्सा लें, उससे जीवन की व्यावहारिक शिक्षा लें, उसके बीच क्रान्तिकारी प्रचार एवं शिक्षा का काम करें तथा उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करें।

इस पूँजीवादी शिक्षा-प्रणाली में हमें सामाजिक यथार्थ को शासक वर्गों के नजरिए से देखने की शिक्षा मिलती है। पूँजीवादी शिक्षा और संस्कृति में सामाजिक यथार्थ का विकृत-विरूपित परावर्तन होता है। जनता के जीवन से, उत्पादन की प्रक्रिया से और जनता की मुक्ति के लक्ष्य एवं मार्ग से शिक्षित होना ही वास्तविक शिक्षा है। हमें इसी असली शिक्षा का वैकल्पिक मार्ग अपनाना होगा और वैकल्पिक प्रणाली बनानी होगी। पूँजीवादी शिक्षा-प्रणाली हमें प्रकृति, इतिहास और समाज को समझने की वह क्षमता तो दे देती है जो मानव-सभ्यता की विरासत है। पर शिक्षित नौजवान इस क्षमता का इस्तेमाल शासक वर्गों और व्यवस्था के हित में ही करते हैं। जब वे जनसमुदाय के साथ एकाकार हो जाते हैं तो उनके हित के नज़रिए से इतिहास और समाज का अध्ययन करते हैं और फ़िर इस क्रान्तिकारी ज्ञान को उसी जनसमुदाय तक लेकर जाते हैं। जो प्रबुद्ध, शिक्षित मध्यवर्गीय युवा अपनी समस्याओं-परेशानियों का सामान्यीकरण करते हुए न्याय, समता और ऐतिहासिक प्रगति के पक्षधर बन जाते हैं, उनके विचारों की एकमात्र सार्थकता यही हो सकती है कि वे मेहनतकश आबादी से एकता बनाकर उसे सामाजिक क्रान्ति के लिए संगठित करें, क्योंकि इसके बिना कोई सामाजिक क्रान्ति हो ही नहीं सकती। हमें इस बात को भलीभाँति समझ लेना होगा कि प्रबुद्ध छात्र-युवा समुदाय का व्यापक मेहनतकश जनसमुदाय से पार्थक्य इस पूँजीवादी व्यवस्था की एक मज़बूत सुरक्षा दीवार है। इस दीवार को गिराकर ही कोई प्रबुद्ध, न्यायशील और रैडिकल नौजवान सही मायने में क्रान्तिकारी कहलाने का हक़ हासिल कर सकता है। माओ त्से-तुङ ने एक जगह लिखा है: “कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाये? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी यह देखना चाहिये कि वह व्यापक मज़दूर.किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं? क्रान्तिकारी वह है जो मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाना चाहता हो, और अपने अमल में मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है, या प्रतिक्रान्तिकारी है।”

भगतसिंह भी क्रान्तियों के इतिहास के गहन अध्ययन और अपने अनुभवों के समाहार से इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि मेहनतकश जनता को संगठित करके ही क्रान्ति को सफ़ल बनाया जा सकता है और सच्चे अर्थों में आज़ादी हासिल करके समाजवाद की दिशा में आगे क़दम बढ़ाया जा सकता है। भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने पंजाब छात्र संघ, लाहौर के अक्टूबर 1929 में हुए दूसरे अधिवेशन के नाम जेल की कोठरी से जो सन्देश भेजा था उसमें स्पष्ट कहा था: “नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्ट्री-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवोें की जर्जर झोपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।”

जेल की कालकोठरी में गहन अध्ययन–चिन्तन करते हुए भगतसिंह इस निष्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि जनता की वास्तविक मुक्ति तभी सम्भव है जब राष्ट्रीय मुक्ति का संघर्ष आगे बढ़कर समाजवाद के लिए संघर्ष बन जाये। उनकी यह समझ स्पष्ट बन चुकी थी कि साम्राज्यवाद और पूँजीवाद का निर्णायक अन्त एकमात्र श्रमिक क्रान्ति के हाथों ही हो सकता है जिसकी मुख्य ताक़त मज़दूर और किसान होंगे तथा जिसका नेतृत्व मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के हाथों में होगा। अपने इन विचारों को उन्होंने जिस अन्तिम महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ में सूत्रबद्ध किया था उसमें ऐसी पार्टी के निर्माण पर बल देते हुए उन्होंने इसमें शुरुआती दौर में छात्रों-युवाओं से भरती की आवश्यकता को रेखांकित किया था। उन्होंने लिखा था: “पार्टी को कार्यकर्ताओं की ज़रूरत होगी, जिन्हें नौजवानों के आन्दोलनों से भरती किया जा सकता है। इसीलिए नवयुवकों के आन्दोलन सबसे पहली मंज़िल हैं, जहाँ से हमारा आन्दोलन शुरू होगा। युवक आन्दोलन को अध्ययन–केन्द्र (स्टडी सर्किल) खोलने चाहिये। लीफ़लेट, पैम्फ़लेट, पुस्तकें, मैगज़ीन छापने चाहिये। क्लासों में लेक्चर होने चाहिये। राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए भरती करने और प्रशिक्षण देने की यह सबसे अच्छी जगह होगी।“

भगतसिंह की उपरोक्त उक्ति को पूरी दुनिया के विभिन्न देशों के इतिहास के अनुभवों ने बार-बार सत्यापित किया है। चीनी नवजनवादी क्रान्ति की प्रक्रिया का प्रस्थान बिन्दु मई 1919 के छात्र आन्दोलन का वह प्रचण्ड ज्वार था, जिसके बीच से कई ऐसे प्रतिभाशाली क्रान्तिकारी युवा संगठनकर्ता निकले जिन्होंने मज़दूरों-किसानों को संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो अपना व्यक्तित्वान्तरण करके मेहनतकश आबादी से जुड़ गये और आगे चलकर क्रान्ति के नेताओं में शुमार हुए। अफ्रीकी देशों में राष्ट्रीय मुक्ति संघर्षों की शुरुआत में जनता के विद्रोहों को नेतृत्व देने के लिए मध्य वर्ग की एक बेहद छोटी-सी आबादी के शिक्षित युवा आगे आये थे। छात्रों की इस पहली पीढ़ी में से ही क्वामे एन्क्रूमा, अमिल्कर कबराल, नेल्सन मण्डेला, सैन नुजोमा, केनेथ काउण्डा, जूलियस न्येरेरे, बेन बेला, बुमेदिएन आदि राष्ट्रीय नायक उभरकर सामने आये। क्यूबा की क्रान्ति और लातिन अमेरिकी देशों के तमाम मुक्ति-संघर्षों का इतिहास भी ऐसा ही रहा है और भारत के राष्ट्रीय क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास में भी हमें यही चीज़ देखने को मिलती है।

आज हम इतिहास के एक ऐसे समय में जी रहे हैं जब क्रान्ति के ऊपर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है। बीसवीं शताब्दी की मज़दूर क्रान्तियों की पराजय के परिणामस्वरूप, पूरी दुनिया पर मानो एकबारगी पूँजीवादी लूट-खसोट का एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो गया है। भारत जैसे सभी पिछड़े देशों के पूँजीवादी शासकों ने अपने देशों को साम्राज्यवादी लूट का खुला चरागाह बना दिया है और खु़द भी चोरों-बटमारों-डकैतों की तरह जनता को लूट रहे हैं। पूँजीपतियों के भाड़े के कलमघसीट इसे पूँजीवाद की अन्तिम और निर्णायक जीत बता रहे हैं, लेकिन न तो इतिहास का तर्क और न ही देश-दुनिया के हालात उनके पक्ष में गवाही दे रहे हैं। एक ओर विश्व-पूँजीवाद के असाध्य ढाँचागत संकट तो दूसरी ओर बेशुमार लूट, महँगाई, बेरोज़गारी और धनी-ग़रीब की बढ़ती खाई से त्रस्त जनसमुदाय के उग्र आन्दोलन, जो लातिन अमेरिकी देशों, चीन, रूस और पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों में लगातार उठ रहे हैं, इस सच्चाई को पुष्ट कर रहे हैं कि पूँजीवाद इतिहास का आखिरी युग नहीं है और जनता पूँजीवादी बर्बरता को अनन्त काल तक झेलने के लिए कत्तई तैयार नहीं है। न केवल इराक, बल्कि पूरा अरब क्षेत्र ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। उन्नत पूँजीवाद देशों में भी एक बार फ़िर बदहाल मज़दूरों और बेरोज़गारों के आन्दोलन ज़ोर पकड़ रहे हैं। साम्राज्यवादियों के बीच लूट की होड़ फ़िर गहराती जा रही है।

यह पूरी स्थिति बता रही है कि आज की पूँजीवादी दुनिया में पूँजीवाद के सभी बुनियादी अन्तरविरोध एक बार फ़िर मुखर हो रहे हैं और इनके हल की दिशा में आगे बढ़ना ही इतिहास की आन्तरिक गति है। बुनियादी सवाल यह है कि भावी नयी सर्वहारा क्रान्तियों की नेतृत्वकारी शक्तियाँ आज की दुनिया के अन्तरविरोधों को समझकर और इतिहास का सार–संकलन करके, एकबार फ़िर संगठित होने में कितना समय लगायेंगी! आज की दुनिया की परिस्थितियों को समझकर ही सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करण रचे जा सकते हैं। अतीत की क्रान्तियों से सीखा जा सकता है, किन्तु उनका अन्धानुकरण नहीं किया जा सकता। क्रान्तियों के सम्भावित तफ़ूानों के केन्द्र आज भी दुनिया के वही देश हैं जो पहले उपनिवेश- अर्द्धउपनिवेश-नवउपनिवेश थे। यही देश आज भी साम्राज्यवादी लूट का सर्वाधिक दबाव झेल रहे हैं। पर इन देशों में प्रश्न आज राष्ट्रीय मुक्ति का या सामन्तवाद-विरोध का नहीं है। इन देशों में क्रमिक गति से होने वाला पूँजीवादी विकास उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के दौर में तेजी से अपने अंजाम तक जा पहुँचा है, और ये पिछड़े पूँजीवादी देश अब साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल में स्पष्ट एवं निर्णायक रूप से प्रविष्ट हो चुके हैं। जो क्रान्तिकारी इन नयी परिस्थितियों को सही ढंग से समझ सकेंगे, वही नये सिरे से स्वयं को नयी मज़दूर क्रान्तियों की नेतृत्वकारी शक्ति के रूप में संगठित कर सकेंगे।

इस ऐतिहासिक सन्दर्भ में, यह एक नयी शुरुआत का समय है और जैसा कि हमने पहले ही कहा है, ऐसे दौरों में क्रान्तिकारी छात्र-युवाओं की भूमिका और अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। ऐसे प्रबुद्ध, रैडिकल छात्रों-युवाओं को, जो इतिहास की गतिकी और क्रान्ति के विज्ञान को समझकर मेहनतकश जनसमुदाय से एकरूप हो जाने के लिए तैयार हैं, ठण्डी तटस्थता, निर्मम कायरता और मुर्दा शान्ति के विरुद्ध विद्रोह का गगनभेदी बिगुल फ़ूँक देना होगा। उन्हें आज की दुनिया और अपने देश की परिस्थितियों का, क्रान्ति के विज्ञान का और क्रान्तियों के इतिहास का गहन अध्ययन करना होगा। उन्हें व्यापक छात्र-युवा आबादी को बेरोज़गारी के प्रश्न पर, समान शिक्षा और सबको रोज़गार के प्रश्न पर और जनवादी अधिकारों के प्रश्न पर लामबन्द करना होगा। उन्हें निम्न मध्य वर्ग के युवाओं को पूँजीवादी राजनीति के चक्कर–चपेट से बचाने और जातिवादी राजनीति या धार्मिक कट्टरपन्थी फ़ासिस्ट गिरोहों का पिछलग्गू और लठैत बनाने से बचाने के लिए निरन्तर श्रमसाध्य और सघन प्रचार–कार्य करना होगा तथा राजनीतिक शिक्षा का ठोस कार्यक्रम हाथ में लेना होगा। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों पर अमल के विगत सत्रह वर्षों के दौरान हमारे देश की शिक्षा-व्यवस्था में भी बदलाव आये हैं और इसका पूरी तरह से व्यवसायीकरण हो गया है। शिक्षा पूँजी-निवेश का क्षेत्र बन गयी है और देशी-विदेशी पूँजीपति घराने पूँजी लगाकर अपनी हितपूर्ति के लिए व्यवस्था के चाकर पैदा करने के साथ-साथ मुनाफ़ा भी कमा रहे हैं। प्रबन्धन, वाणिज्य, तकनोलॉजी और विविध व्यावसायिक शिक्षाओं पर ज़ोर बढ़ा है और मानविकी और कला-साहित्य के विषय बस बेरोज़गारों के वक़्त काटने के लिए रह गये हैं। जिस पढ़ाई से नौकरी मिल सकती है, वहाँ तक केवल उच्च मध्य वर्ग की ही पहुँच सम्भव रह गयी है। इस स्थिति ने उच्च शिक्षा के कैम्पसों की वर्गीय संरचना को प्रभावित किया है। अब मेडिकल-इंजीनियरिंग-वाणिज्य-प्रबन्धन आदि के संस्थानों में तो उच्च मध्य वर्ग के उन्हीं युवाओं की बहुतायत है जो पूँजीवाद के प्रचण्ड पक्षधर और पैरोकार हैं। महानगरों के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में भी बढ़ती फ़ीसों, घटती सीटों और आर्थिक बदहाली ने निम्न मध्य वर्ग के आम छात्रों की आबादी को काफ़ी कम कर दिया है। छोटे शहरों-कस्बों के कॉलेजों-विश्वविद्यालयों में ज़रूर अभी निम्न मध्य वर्ग के छात्रों की आबादी काफ़ी है; जिसकी राजनीतिक चेतना का धरातल तो नीचे है लेकिन विद्रोह की भावना वहाँ गहरी है। लेकिन कुल मिलाकर, निम्न मध्य वर्ग पर बढ़ते आर्थिक दबाव और बेरोज़गारी के चलते इस तबके के युवाओं की एक भारी संख्या विगत दो दशकों के दौरान उच्च शिक्षा के कैम्पसों से बाहर हो गयी है और या तो छोटी-मोटी अस्थायी और पार्टटाइम नौकरी करती हुई या फ़िर दिहाड़ी मज़दूरी तक करती हुई, या फ़िर नौकरियों के फ़ॉर्म भरती हुई बेरोज़गारी का समय काट रही है। निम्न मध्य वर्ग के बहुसंख्यक नौजवानों की यही स्थिति है और इनमें विद्रोह का लावा खौल रहा है। कैम्पसों की आबादी की बदलती संरचना ने कैम्पस केन्द्रित छात्र-आन्दोलनों की सम्भावना और शक्ति को क्षरित कर दिया है और आज की स्थिति में शिक्षा और रोज़गार के समान अधिकार के प्रश्न पर व्यापक छात्र-युवा आन्दोलन की तैयारी की प्रक्रिया भले ही लम्बी और कठिन हो, पर परिस्थितियाँ इसी के लिए अधिक तैयार हैं।

साथ ही, ज़रूरत इस बात की है कि छात्र-युवा समुदाय रोज़गार और शिक्षा के अधिकार की अपनी लड़ाई को व्यवस्था-परिवर्तन की व्यापक लड़ाई का एक अंग बनाये और इसे मेहनतकश आबादी के संघर्षों से जोड़े। ज़रूरी है कि क्रान्तिकारी छात्र-नौजवान अपने निकटवर्ती क्षेत्र के मज़दूरों के संघर्षों को न केवल भरपूर सहयोग करें बल्कि उनमें भागीदारी भी करें। इसके लिए नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वालों को विशेष पहल लेनी होगी। इसकी अगली मंज़िल में रोज़गार, महँगाई और राजनीतिक अधिकारों के विविध मुद्दों पर मेहनतकश जनसमुदाय के साथ संयुक्त मोर्चा और साझा संघर्ष की परिस्थितियाँ तैयार हो सकती हैं।

पर बात केवल यहीं आकर खत्म नहीं हो जाती कि छात्र-युवा आन्दोलन को व्यापक जनसमुदाय के संघर्षों से जोड़ने के लिए उसका क्रान्तिकारी नेतृत्व सतत प्रयास करे। यह तो हर हाल में करना ही होता है। आज की परिस्थिति की जो विशेष ऐतिहासिक ज़रूरत है, वह यह है कि क्रान्तिकारी बुद्धिजीवी के रूप में – निम्न मध्य वर्ग के छात्रों-युवाओं के जो सबसे उन्नत चेतना वाले, सबसे प्रबुद्ध, सबसे रैडिकल तत्व हैं, वे न केवल सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान को आत्मसात करें बल्कि व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच जायें, उनके साथ घुल-मिलकर अपना सर्वहाराकरण करें, उत्पादक कार्रवाइयों से जुड़ें और फ़िर मेहनतकशों को जागृत और संगठित करने के काम में लग जायें। यह अपेक्षा हम एक आम आन्दोलनकारी छात्र से नहीं कर सकते। लेकिन उन्नत चेतनशील क्रान्तिकारी छात्रों-युवाओं से यह अपेक्षा अवश्य की जा सकती है और अवश्य ही की जानी चाहिये, क्योंकि यह नये सिरे से क्रान्तिकारी शुरुआत करने का समय है और जैसा कि ऊपर विस्तार से चर्चा की गयी है, ऐसे किसी दौर में निम्न मध्य वर्ग से आकर सर्वहारा वर्ग के जीवन और ऐतिहासिक मिशन को अपनाने वाले उन्नत तत्वों की एक छोटी-सी संख्या की भूमिका ऐतिहासिक होती है।

हमारा यह ठोस सुझाव है कि कैम्पसों से, छुट्टियों के दौरान ऐसे छात्रों की टोलियाँ बनाकर मज़दूर बस्तियों में जाना चाहिये। वहाँ रुककर उत्पादन कार्य में भी कुछ भागीदारी करनी चाहिए। दिहाड़ीकरण-ठेकाकरण के इस समय में कुछ न कुछ मज़दूरी का काम मिल ही जाता है। इसके साथ ही मज़दूरों को, मज़दूर स्त्रियों को और उनके बच्चों को पढ़ाने का और इसी दौरान देश-दुनिया-समाज का ज्ञान देने का काम करना चाहिये, स्वास्थ्य-सफ़ाई आदि के अभियान चलाने चाहिये, युवा मज़दूरों और मज़दूरों के युवा बेटों को खेलकूद और सांस्कृतिक कार्रवाइयों के दौरान शिक्षित और संगठित करना चाहिये। उन्हें क्रान्तिकारियों और क्रान्तियों के इतिहास से परिचित कराना चाहिये। छुट्टियाँ समाप्त होने के बाद भी, बीच-बीच में जाकर इस प्रक्रिया को चलाते रहा जा सकता है। ऐसे उन्नत क्रान्तिकारी चेतना वाले छात्र छात्रवास और किराये की जगहें छोड़कर यदि मज़दूर बस्तियों में ही रह सकें तो और भी अच्छा है। इसी प्रक्रिया में उन्हें मज़दूरों की जीवन स्थितियों की गहरी जानकारी होगी और एक दिन उनकी भूमिका मज़दूर संगठनकर्ता की बनने लगेगी।

ज़ाहिर है कि यह एक लम्बी प्रक्रिया होगी, लेकिन फ़िलहाल यहाँ से एक शुरुआत तो की ही जा सकती है। मेहनतकशों से एकता बनाने, सामाजिक अलगाव की दीवारों को गिरा देने और स्वयं अपने भीतर पैठे मध्यवर्गीय अलगाव से पैदा हुए अकेलेपन के संत्रस और आत्मनिर्वासन की घुटन एवं आत्महन्ता अवसाद-ग्रन्थि से मुक्त होकर अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा को निर्बन्ध कर देने तथा अपने को साहसिक सामाजिक प्रयोगों के लिए तैयार कर लेने के लिए, हम तमाम बहादुर, इन्साफ़पसन्द, परिवर्तनकामी छात्रों-युवाओं के सामने यह ठोस प्रस्ताव रख रहे हैं।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

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