ईश्वर का बहिष्कार

राधामोहन गोकुलजी

राधामोहन गोकुलजी राष्‍ट्रीय जागरण काल की वह विभूति थे जिनमें यूरोपीय पुनर्जागरण काल के महामानवों वाली विचारों और कर्म की एकता थी। उनमें वाल्‍तेयर, दिदेरो, और रूसो जैसे फ्रांसीसी प्रबोधनकालीन दार्शनिकों की तार्किक प्रखरता थी और बेलिंस्‍की, हर्जन, चेर्नीशेव्‍स्‍की और दोब्रोल्‍यूबोब जैसे 19वीं सदी के रूसी क्रान्तिकारी जनवादी चिन्‍तकों वाली जुझारू भौतिकवादी दृष्टि और साहसिकता भी। 19वीं सदी के अन्‍त में उन्‍होंने जाति प्रथा और रूढ़ि‍यों का विरोध किया था। 20वीं सदी के उत्‍तरार्द्ध में उन्‍होंने स्त्रियों की मुक्ति और लैंगिक समानता के बारे में जितने उग्र और वैज्ञानिक विचार अभिव्‍यक्‍त किये थे, उनका आज भी अभाव मिलता है। 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में वे नास्तिकता और तार्किकता के उत्‍कट प्रचारक के रूप में जाने जाते थे। सोवियत क्रान्ति के समय तक वे मार्क्‍सवाद की ओर मुड़ चुके थे। वे भारत में समाजवाद के प्रचारकों की पहली पीढ़ी के सदस्‍य थे। इस तथ्‍य को कम ही लोग जानते हैं कि महाकवि निराला गोकुलजी को गुरूतुल्‍य मानते थे। प्रेमचन्‍द ने उन्‍हें आधुनिक युग के चार्वाक की संज्ञा दी थी। 20वीं सदी के प्रारम्भिक तीन दशकों के सभी साहित्‍यकार और पत्रकार उन्‍हें आदरणीय मानते थे। भगतसिंह, शिव वर्मा और एच.एस.आर.ए. के कई क्रान्तिकारियों को वैज्ञानिक समाजवाद की दिशा में मोड़ने में भी गोकुलजी का योगदान था। इस महान व्‍यक्तित्‍व का ये लेख ‘माधुरी’ (सं. प्रेमचन्‍द) में सन 1925-26 में प्रकाशित हुआ था। – सम्‍पादक

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा ये लेख और गोकुल जी की कई अन्‍य पुस्‍तकें प्रकाशित हुई हैं।

राहुल फाउण्‍डेशन, लखनऊ द्वारा ये लेख और गोकुल जी की कई अन्‍य पुस्‍तकें प्रकाशित हुई हैं।

प्रकृतिवादी और केवल काल्पनिक भावनाओं में बड़ा अन्तर है। एक तो गुलाब के फ़ूल को प्रत्यक्ष देखता है- उसकी बनावट का ज्ञान और रूप-रंग आदि अनेक गुणों की जानकारी रखता है। यदि उससे गुलाब के सम्बन्ध में कोई प्रश्न करें, तो वह उसके अस्तित्व के प्रमाण में सीधी और वास्तविक दलीलों से काम लेगा और गुलाब के फ़ूल का यथार्थ ज्ञान भी करा देगा। लेकिन दूसरा गुलाबी रंग के वर्णन करने को तैयार होता है और उस दशा में, जबकि उसने स्वंय गुलाब को कभी नहीं देखा तो सीधा कोई प्रमाण नहीं दे सकता। परोक्ष और अव्यावहारिक प्रमाणों से जो वह काम लेगा तो निस्संदेह कदम-कदम पर ठोकर खायेगा। यह तो उस दशा में होता है, जबकि गुलाब कोई वस्तु है और गुलाबी रंगत, चाहे गुलाब से भिन्न द्रव्यहीन अवस्था में उसका देखना असंभव हो, कोई ऐसी चीज है, जिसे हम आँखों से देख सकते हैं।

ईश्वर एक ऐसा कल्पित पदार्थ है, जिसे कभी किसी ने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं किया इसलिए कि उसका सर्वथा अभाव है। ईश्वर कोई ऐसी चीज़ है ही नहीं। जिस पदार्थ का अत्यन्त अभाव है, उसका अस्तित्व कभी हो ही नहीं सकता। संसार में जितनी वस्तुएँ हैं, वे चाहे कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हों, सबका प्रादुर्भाव प्रकृति से होता है; प्रकृतिजन्य सारे पदार्थ किसी न किसी दशा में इन्द्रिय ग्राह्य होते हैं। उदाहरण के लिए जल को लीजिए। यह भाप की सूरत में आँखों को दिखाई देता है। यदि यह और विश्लिष्ट होकर सूक्ष्मतम वायव्य (Gaseous) हो जाय अर्थात् गैस का रूप धारण कर ले, तो भी वह इन्द्रियों द्वारा जानने का विषय होगा। फि़र देखिए बिजली बहुत ही सूक्ष्म रूप की एक वस्तु है; आँख, कान, नाक द्वारा इसे नहीं जान सकते। लेकिन बिजली की उत्पत्ति प्राकृत पदार्थों से होती है; और जब हम उसका व्यवहार किसी रूप में करते हैं तो द्रव्यों में उसे स्पष्ट देखते हैं कि काम कर रही है।

यह बात‘ईश्वर’ नाम के पदार्थ में नहीं है क्योंकि उसको प्रकृति का निर्माता, संचालक और नाशकर्ता माना जाता है। प्रकट है कि जो वस्तु नहीं है- केवलमात्र एक काल्पनिक भाव है- उससे वास्तविक पदार्थ का बनना,बनाना या प्रकट हो जाना  प्रत्यक्ष ही एक निर्मूल, अशुद्ध एवं मानव विज्ञान- विरूद्ध एक कल्पना मात्र है। यदि हम इसे बल, शक्ति किंवा गति मानें तो भी हम द्रव्य के सिवा अन्यत्र इसे कहीं भी नहीं देखते। इसी तरह गुलाबी रंग भी कभी किसी ने भिन्न, स्वतंत्र कहीं न देखा होगा, जैसा ऊपर कहा गया है। सारांश यह कि प्रकृति से अलग कभी कोई शक्ति या कोई और भाववाचक संज्ञाएँ हैं। इनका भी बोध हमें प्रकृति के ही द्वारा होता है। किसी ख़ास दशा का निरीक्षण करके हम उसको एक नाम दे देते हैं; परन्तु वस्तुतः यह ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसे हम प्रकृति से भिन्न मान लें।

  ईश्वर के माननेवाले उसे सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, सर्वव्यापी, इत्यादि सभी गुणों से विभूषित करते हैं। यह लोग यह नहीं सोचते कि शक्तिमान कहने से यह एक गुण ‘शक्ति’ का दूसरी चीज में आरेाप करते हैं, तो दूसरी चीज कोई वस्तु होनी चाहिए और ईश्वर कोई वस्तु नहीं है। यही तर्क न्याय, दया आदि की बावत भी किया जा सकता है। जीव को एक प्रकार से हम शरीर में देखते हैं, लेकिन बिना शरीर के कोई जीव ऐसा पदार्थ देखा नहीं जाता। संभव है कि रसायनशास्त्र के अनुसार जीव भी दो या अधिक चीज़ों के मेल से उत्पन्न कोई स्थिति विशेष हो। मनोवैज्ञानिक सिद्ध कई कुतुहलजनक घटनाओं के देखने पर जान पड़ता है कि शंकर स्वामी को यह ख़याल हुआ था कि ईश्वर तो कोई चीज़ नहीं है। मगर जीव में कई विलक्षण शक्तियाँ हैं। इसलिए जीव और ईश्वर दोनों एक ही पदार्थ हैं। इस तरह पर शंकर स्वामी ने संसार को काल्पनिक ईश्वर के मानने से बहुत दूर तक हटाया-‘अहंब्रह्मास्मि’ ‘तत्वमसि’ ‘सर्वखल्विदं ब्रह्य’ का पाठ पढ़ाया। वेदान्त भी, जहाँ तक ईश्वर की मिथ्या कल्पना का सम्बन्ध है, एक खासा नास्तिकवाद है, जो संसार को बहुत ठीक मालूम होता जा रहा है। इनके विचार के लोगों की वृद्धि होती जाती है।

 ईसाइयों ने खुदा की पवित्रत्मा को चिड़िया के रूप में पानी पर तैरा कर, उसका मरियम के साथ सहवास कराकर अथवा तूर-पहाड़ पर जलती आग की शकल में मूसा को दिखला कर यही सिद्ध किया है कि बिना वस्तु के किसी शक्ति का स्थिर रहना असंभव है। कुरान ने खुदा को एक बड़े मकान में बिठाकर तख़ती पर लिखने और फ़रिश्तों द्वारा सारा काम इजाम देने का ख़याल इसलिए पैदा किया कि बिना किसी व्यक्त पदार्थ के यह सारे गुण उसमें नहीं हो सकते, जिन्हें मुसलमान लोग खुदा में मानते हैं।’कुन’ का कहना बिना जिह्वा के असंभव है, और जिह्वा से खुदा भी प्रकृतिजन्य एक पदार्थ बन जाता है।

सातवें आसमान पर मुहम्मद साहब का बुराक पर चढ़कर जाना, रिजवां का इन्हें बहिश्त दिखलाना, महात्मा मसीहा का आसमान पर उठाया जाना तथा गरूड़ पुराण आदि की कही हुई स्वर्गों और नरकों की कल्पनाएँ, सभी इस बात की साक्षी हैं कि धर्म केवल कल्पना-मात्र हैं। इनसे सिवा लोगों को मिथ्या झगड़ों में फ़ँसा पर बेकार बनाने के, कोई भी लाभदायक काम नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य जितनी जल्दी ईश्वर, खुदा या गॉड और धर्म, मजहब या रिलीजन को त्याग दें उतना ही अच्छा। मनुष्य जाति के कल्याण के लिए ही मैंने इन विचारों को प्रकट करने का साहस किया है। आशा है, विचारशील पुरुष इससे लाभ उठावेंगे।

लोग जो समय रोज़े, नमाज़,संध्‍या-पूजा और प्रार्थना में नष्ट करते हैं, उसे यदि समाज के किसी उपयोगी काम में लगावें, तो अपने भाइयों का अपना बहुत कल्याण कर सकते हैं। यदि संसार से ईश्वर और धर्म के व्यर्थ गपोड़े मिट जायँ, तो लोगों में फ़ैले हुए झगड़ों का अन्त हो जाय। जब कोई मूर्ख से मूर्ख पिता भी अपना वश चलते अपने पुत्रों को नहीं लड़ने देता तो, यदि वास्तव में कोई खुदा होता और सर्वशक्तिमान् खुदा होता- तो वह अपनी संतान को कदाचित् अपने नाम पर कुत्तों की तरह न लड़ाता। यदि खुदा शक्ति और बुद्धिवाला होता तो भी वह एक ही धर्म सारे संसार के लिए बनाता- सारे संसार की एक ही बोली और एक ही संस्कृति होती- जिससे इन झगड़ों का बीज ही न पड़ता। जो खुदा झगड़ों का बीज बोता हो, जो धर्म मनुष्यों के लिए वास्तविक हितकर न हो, वह यदि वास्तव में कुछ हो भी तो विषवत् त्याज्य ही है।

फ्रांस का विद्धान वाल्टेयर कहता है if god did not exist, it would be necessary to invent him for the people must have a religion.

अर्थात्- यदि ईश्वर न भी हो तो भी हमें एक ईश्वर का आविष्कार करना जरूरी है, क्योंकि जनता को धर्म की जरूरत है। हमें इस पंडित की बात पर हँसी आती है। पहले तो उपर्युक्त वाक्य के पढ़ने से प्रकट होता है कि वाल्टेयर को स्वंय ईश्वर नामक किसी पदार्थ की सत्ता का पूर्ण विश्वास न था, इसलिए वह मूर्ख जनता को धोके में डालने की नियत से एक ईश्वर की कल्पना करने के फ़ेर में पड़ा। दूसरे उसने ईश्वर के लिए Him कर्मवाचक; एकवचन पुल्लिंग, प्रथम पुरुष का प्रयोग करके उसे मर्द करार दिया। इससे प्रकट है कि वह इस अजीब जानवर को मनुष्य मानता है और मनुष्य मानने से उसकी सर्वशक्तिमत्ता, सर्वव्यापकता आदि की सारी बातें धूल में मिल जाती हैं। यही बात हिन्दू मुसलमानों के खुदा की भी है। तीसरे जनता को एक धर्म दरकार है इसलिए एक खुदा का आविष्कार करना भी ज़रूरी है, यह भी बड़ी मज़ेदार बात है। जनता ने कभी खुदा नहीं माँगा; ‘वाल्टेयर’ और उसी की तरह सोचनेवाले भद्रपुरुषों ने खाहमखाह एक खुदा गढ़कर जनता को अगणित बेहूदगियों का शिकार बना डाला।

खुदा की ही कल्पना ने इंजील, कुरान, पुराण को रक्तरंजित इतिहास का भाण्डागार बनाया और घृणित कथाओं और भावों से मनुष्य जाति का सर्वनाश किया है। मैं तो महात्मा ‘मिकाइल बेकुनिन’ को सराहता हूँ, जो खुले शब्दों में मनुष्य जाति के हित के लिए वाल्टेयर को तुर्की-ब तुर्की जवाब देते हुए कहता हैः-if god really existed, it would be necessary to abolish him.

अर्थात्- यदि खुदा सचमुच होता, तो भी उसे धक्का देकर निकाल देना ज़रूरी होता। सच है धर्म और ईश्वर ऐसी ही बुरी कल्पना है। इनसे संसार का जब तक पीछा न छूटेगा, तब तब उसका कल्याण न होगा।

जब तक योरोप में खुदा और धर्म सदृश रद्दी काल्पनिक बातों का ज़ोर रहा, रोमन कैथोलिक और प्रोटिस्टेंट निरन्तर सर फ़ोड़ते रहे। कैथोलिकों ने शक्ति प्राप्त होने पर प्रोटिस्टेंटों को अग्नि के हवाले किया। और प्रोटिस्टेंटों ने अधिकार पाने पर रोमन कैथोलिकों के प्राणों की आहुति देकर अपना कलेजा ठंडा किया। भारत में शैव-शाक्त आदि ने धर्म के नाम पर खूब कुत्ते बिल्लियों की सी लड़ाई की। पर जिस दिन योरोप ने धर्म और खुदा के ढकोसले को छोड़ा, उसी दिन से उसमें देश-प्रेम ओैर ज्ञान-पिपासा जाग्रत हुई। आज योरोप प्रकृति की पूजा करके सर्वत्र अपने को पुजवा रहा है।

एशिया की बरबादी के कारण धर्म और खुदा ही हैं। आज बीसवीं सदी में भी इस मूर्खता के कारण एशिया की दशा अत्यन्त सोचनीय हो रही है। जिस जाति में जितनी धर्मान्धता है, वह उतनी ही अँधेरे गर्त में पड़ी हुई है। मुसलमानों में अधिक धर्मान्धता है, इसी से उनका संसार में पतन होता जा रहा है। भारत में भी मुसलमान विद्या, बुद्धि और धन आदि सभी बातों में अत्यन्त नीचे हैं। टर्की ने इस भेद को समझा, इसलिए उसने धर्म के हानिकर बन्धन को ढीला कर दिया। अब वह समय रहते इस रद्दी खयाल को अद्धर्चन्द्र देकर सुखी होने का प्रयत्न करेगा, यह हमारा पूर्ण विश्वास है।

यदि ईश्वर और धर्म का ब्रह्यपाश कट जाय, यदि इस ‘गौर्डियन नाट’ के टुकड़े हो जायँ, तो संसार के धर्म-ग्रन्थों के सारे निस्सार गपोड़ों का भी अंत हो जाय। प्रत्यक्ष और विज्ञान-सिद्ध बातों के विरूद्ध विश्वास, आचार और व्यवहार का पाप मनुष्यों में से जाता रहे- स्वर्ग के झूठे मन मोहनेवाले दास्तानों और बच्चों की सी बेसर-पैर की बातों से संसार का पीछा छूट जाय ग़ालिब ने एक जगह बहिश्त का खासा मजाक उड़ाया है। वह कहता है-

‘हमको मालूम है जन्नत की हकीकत गालिब,

दिल को खुश रखने को गालिब यह खयाल अच्छा है।’े

 किसी ने सच कहा हैः- doctrine kills the life, and the living spontaneity of action. सिद्धान्तवाद जीवन को नष्ट कर डालता है और कार्य के स्वाभाविक अस्तित्व को मटियामेट कर छोड़ता है। सार यह कि व्यक्ति हो या जाति कल्पनामात्र की तरंगों से ताड़ित होकर समुद्र में डाँट लगी हई खाली बोतल के समान इधर-उधर ठोकरें खाती फि़रती है, फ़ल कुछ नहीं होता। हाँ, संसार के कितने ही मनुष्य विज्ञान की ओर ध्‍यान न देकर इंजील, कुरान, वेद, पुराण के पढ़ने में न जाने कितना समय ख़राब कर देते हैं। अच्छा हो जो इन लोगों में सुबुद्धि का संचार हो।े

(2)

Ideal is but a flower, whose root lies in the material condition of existence. :  Proudhon.

सच है आदर्श कल्पना एक पुष्प है, जिसकी जड़ जीवन की प्राकृत स्थिति में रहती है। यह नहीं कि बिना सर पैर की एक अनहोनी कल्पना हो। भला प्रत्यक्ष जगत् सत्य है, या केवल मात्र कल्पना में रहनेवाला निराधार ईश्वर? कोई भी व्यक्ति, जिसका मस्तिष्क विकृत न हो प्रकृति को ही सत्य कहेगा। प्रकृति को असत्य और काल्पनिक ईश्वर को सत्य कहनेवाला निःसन्देह पागल है। आँखों का अविश्वास करके कानों का विश्वास करना बुद्धिमानों का काम नहीं है। मनुष्य जाति का सारा इतिहास- चाहे किसी भी विषय का क्यों न हो- द्रव्य से ही सम्बन्ध रखनेवाला मिलता है; सबका प्रकृति से ही सम्बन्ध है। गपोड़ कथाओं की बात दूसरी है। प्राणों के उद्गम और विकास का आधार तथा जीवत्व के सर्वश्रेष्ठ प्रकट प्रकाश का मूल प्रकृति है।

वस्तु के विकास में, प्राणियों की उन्नति में, हम देखते हैं कि पिछला रूप मिट जाता है और अभिनव विकसित उन्नत रूप उसका स्थानापन्न हो जाता है। मनुष्यता में (सज्ञान पशुपन में) केवल पशुता के बल का दिन-दिन हृास होता जाता है और ज्ञान का विकास, यह क्रिया नैसर्गिक है। इसी ज्ञान-वृद्धि के कारण प्रकृति के गुप्त रहस्य मनुष्य को मालूम होते जाते हैं। इस विकास-काल में, विज्ञान के प्रचण्ड मार्तण्ड के प्रकाश में सिवा विक्षिप्तों के और कौन ऐसा हो सकता है, जो अंधकार के समय के कल्पित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करेगा? किसी फ़ारसी कवि ने क्या ही खूब कहा हैः-

ख़याले हरदो आलमरा ज़ लौहे दिल चुनां शुस्तम।

कि शुदबर तख़्तये हस्ती ज़ इक नुकता दोख़त पैदा।।

 जन्म के पूर्व और मृत्यु के बाद के संसार को दिल से ऐसा हटाया कि वर्तमान काल में प्राकृत जीवन के आधार पर एक प्रत्यक्ष विचार के कारण एक बिन्दु से दो रेखाएँ उत्पन्न हो गईं। आदमहौवा के जंगलीपन का जमाना गया; खुदा की शरारत और शैतान की मेहरबानी की अब ज़रूरत नहीं। यह बीसवीं सदी का विज्ञान-काल है।

अब हममें सत्यासत्य के विवेक की बुद्धि बढ़ गई है और मिथ्या बातों को मार भगाने की इच्छा तथा शक्ति उत्पन्न हो गई है। आजकल का पण्डित कहता है। ‘गुस्ताखि़ये फ़रिश्ता नहीं मुआफ़ हमारे जनाब में।’ आज हमें अवतारों, खुदा और रसूलों की ज़रूरत नहीं रही और न हम शून्य से संसार की उत्पत्ति मानने की मूर्खता करने को तैयार हैं। स्वार्थवश मनुष्यों को गुलामी के गर्त में रखने वाले असुरों की सारी कैफि़यत हमें मालूम हो चुकी है। हम सुरों के राजा ईश्वर की उस्तादियों और करामातों को खूब जान चुके हैं। हम समझ चुके कि हमारा कल्याण अगर हो सकता है तो असुरों के द्वारा।

सुर बनने वाले धर्मयाजकों, राजवर्गियों और धनवानों का विचार मेरे दिल में आ गया, इसलिए आवेश में आकर मैंने विषय से कुछ असंगत बातें कह डालीं। लेकिन यह ज़रूर है कि यदि सुर आजकल के उच्च, सर्वश्रेष्ठ बननेवाले हिन्दुओं की तरह होते हैं, और असुर गरीब, मेहनत की कमाई खाने वाले, छोटे कहलाने वाले किसान, मेहतर, धोबी, चमार, लोहार, बढ़ई हैं, तो मैं असुरों को अवश्य ही सुरों की अपेक्षा बड़प्पन दूँगा। ईश्वर यदि ऐसा ही हैं जैसा बाइबिल और कुरान का ईश्वर तो इन्हीं पुस्तकों के शैतान की उपासना को मैं लाख बार अच्छी समझूँगा।

 हम देखते हैं, संसार का विकास क्रमशः नीचे से ऊपर को हुआ है। मानव जगत दिन पर दिन ज्ञान की वृद्धि करता जा रहा है। जो विज्ञान, जो कला-कौशल, 15वीं शताब्दी तक न थे, आज क्रमशः उन्नत होकर बीसवीं शताब्दी में हमारी आँखों के सामने हाज़िर हैं। लेकिन ईश्वरवादी अपनी आँखें बन्द करके उलटा मार्ग लेते हैं। यह सर्वगुण-ज्ञान गरिमा सम्पन्न एक ईश्वर को तो पहले ही मान लेते हैं और फि़र उससे अज्ञान-तिमिराच्छादित जगत् की उत्पत्ति मानते हैं। यह कैसी विचित्र बात है। ईश्वर भी कोई व्यक्ति होगा या होगी तो उसका उन गुणों से विभूषित होना जिनसे उन्हें विशिष्ट किया जाता है, सर्वथा सम्भव है। इस प्रत्यक्ष बात को जानने के लिए किसी चालबाज़ी की ज़रूरत नहीं। इसके लिए व्यक्त परमात्मा के माननेवालों को कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।

कुछ लोग कहते हैं, ईश्वर एक सर्वव्यापक आत्मा है, जो आकाशवत् या सूर्य के प्रकाशवत् सर्वत्र व्याप्त है, वही संसार का निर्माता, संचालक और प्रबन्धक है। किन्तु यह बात भी नहीं बनती; क्योंकि जिस ईश्वर को ज्ञान का भण्डार,शील का खजाना, पाण्डित्य का सागर, दयालुता और न्याय की खत्ती और सारे गुणों का ‘आर्टिजन वैल’ (पातालतोड़ कूप) माना जाता है, उसकी कार्यवाही में तो यह सब बातें हम नहीं देखते। जिसे लोक-दिक्-काल के परे खोजने जाकर बड़े-बड़े दार्शनिकों ने ज़मीन और आसमान के कुलावे मिलाये हैं, उसकी सत्ता को गौतम, कणाद,कपिल, वाचस्पति मिश्र, शंकर आदि भारतीय और प्लेटो, डिकाटे, स्पायनोजा, काण्ट और हीगल आदि योरोपीय दर्शनकार भी न तो सिद्ध कर पाये, और न उसकी संतोषजनक व्याख्या ही कर सके। अंत में बड़े-बड़े ऋषियों, अवतारों, नबियों, वलियों ने भी विश्वस्त खोज न की। जिस पहेली के बूझने में अपनी बलहीनता, बुद्धि-विहीनता को ही स्वीकार करके वेद शास्त्र केवल ‘नेति-नेति’ कहकर रह गये, उसे कोई कैसे मान सकता है। सच तो यह है कि असत् को सत् सिद्ध करना सम्भव नहीं। आँखें बन्द करके बेहूदा बातों पर विश्वास कर लेना दूसरी बात है। परन्तु प्राकृत नियमों के विरूद्ध कोई हस्ती नहीं हो सकती, न इसके विरूद्ध कोई शक्ति। इससे भिन्न कोई वैज्ञानिक केवल कल्पना ही कर सकता है। वनस्पति से प्राणी, प्राणी से मनुष्य, इसी प्रकार उत्तरोत्तर एक प्राकृतिक नियम के अनुसार संसार का विकास हुआ। तब यह अनहोना ईश्वर कहाँ से कूद पड़ेगा, जो प्रकृति से भिन्न और आरम्भ में ही सब गुणों की खान भी। आँखे बन्द करके किसी बात की कल्पना कर लेना दूसरी बात है। विश्वास में यही तो एक दोष है कि इसकी आँखें नहीं होतीं। यह चिड़िया के दूध की कल्पना करता है और उसका अस्तित्व मानकर बैठ जाता है। इसी अन्धविश्वास से उत्पन्न हुआ ईश्वर समस्त संसार के धर्मग्रन्थों, दर्शनों और चालबाज़ों की पुस्तकों का प्रधान चरित्र नायक है, जिससे संसार की सारी बुराइयाँ, बदमाशियाँ, अत्याचार तथा कमज़ोरियाँ पैदा हुई और मनुष्य जाति नीच और निकम्मी हो गई।

जहाँ शारीरिक हानि पहुँचाने के लिए अनेक नशेबाज़ी और दुराचार के अड्डे होते हैं, वहाँ मनुष्य को मानसिक हानि पहुँचाने और निकम्मा बनाने के लिए धार्मिक अड्डे-गिरजे, मन्दिर और मस्जिदें भी हैं। यह सब काम काबू याफ़्ता शासन और शासक मण्डल के हित के लिए उनके दलालों अर्थात् पुरोहितों द्वारा, सरकार की छत्रछाया में बसनेवाले गरीबों को लूटनेवाले अमीरों की मदद से हुआ करते हैं। मूर्ख ग्रामीणों के दिमाग में जहाँ एक बार कोई बेवकफ़ू़ी घर कर गई, फि़र मुश्किल से निकलती है। इन बेचारों में ज्ञान नहीं, विवेक नहीं, समझ नहीं विद्या नहीं, खाने को अन्न और पहनने को वस्त्र तक इनके पास नहीं। जो चाहे इन्हें पण्डित, मौलवी, पादरी बनकर ठग सकता है, धोके में डाल सकता है और अपनी अर्थ-सिद्धि का साधन बना सकता है। पीढ़ियों से इन बेचारों का यही हाल है। सिखानेवाले धनिक, पुरोहित और राजकर्मचारियों में से कोई भी ईश्वर को नहीं मानता, पर हरेक ईश्वर को मानने का ढ़ोंग रचता है। मैं पूछता हूँ कौन पण्डित, मौलवी, पादरी, राजा-रईस और सेठ साहूकार ऐसा है जो झूठ नहीं बोलता, फ़रेब नहीं करता और तमाम दुनिया की बदमाशियों से पाक है,  इस हालत में कोई चतुर मनुष्य यह कैसे मान सकता है कि लोग ईश्वर की हस्ती के कायल हैं, परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इसलिए ईश्वर कोई चीज नहीं है, सिवा इसके कि ग़रीबों को ठगने के लिए ठगी का एक जाल है। यह जाल जितनी जल्दी तोड़ दिया जाय उतना ही अच्छा। जूसेप मटजीनी और टामस पेन के सदृश मनुष्य-भक्तों ने भी इस कल्पना में पड़ कर ठोकरें खाईं तो दूसरों की क्या गिनती।

 लेकिन दुःख तो इस बात का है कि इन देश और मनुष्य भक्तों ने भी कोई ऐसा तर्क और युक्ति-युक्त प्रमाण न दिया कि ईश्वर का अस्तित्व निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता। प्रोफ़ेसर फ्लिंट ने अपनी ‘एन्टी थिइस्टिक थियरीज’ नाम की पुस्तक में नए पुराने सभी अनीश्वरवादियों के तर्कों का उत्तर देने का बहाना किया है, लेकिन ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर सके। मुझे दुःख है कि न तो इस छोटे से लेख में ‘पेन’ और ‘फ्लिंट’ के लेखों को उद्धृत करके उत्तर देने को स्थान और समय है और न इस समय मेरे पास पुस्तकें प्रस्तुत हैं। जिन महानुभावों को देखना हो ‘पेन’ कृत ‘ऐज आव रीज़न’ और फ्लिंट कृत ‘थिइज्म’ और ‘एंटी थिइस्टिक थियरीज’ को पढ़कर देख लें। इनमें अगर ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण मिले तो कृपया मुझे सूचना दें। इतना ख़याल रखें कि जिन बातों का मैं अपने अनेक लेखों में खण्डन कर चुका हूँ, उन्हीं का पिष्टपेषण न हो। मैं हर दशा में अपने विपक्षियों के तर्कों का उत्तर देने को तैयार हूँ, अलबत्ता गलियों के उत्तर देने में मैं असमर्थ हूँ। जो ईश्वर की सत्ता सिद्ध करने के बदले मेरे छिद्रान्वेषण करने में अपनी जीत समझते हैं, उनसे मैं पहले की अपनी हार स्वीकार करता हूँ।

               टामस पेन ने ज्योतिषशास्त्र का बड़ी निपुणता के साथ वर्णन करने के पश्चात् यह कह दिया कि यह सब ईश्वरीय चातुर्य्य का ही फ़ल है, कोई तर्क नहीं है। जो भद्र पुरूष ईश्वरीय पुस्तकों का आपौरुषेय ग्रन्थ होना अस्वीकार करता हो और उनके खण्डन में तर्क और इतिहास से काम लेता हो वही एक कल्पना मात्र के आधार पर अपनी प्रतिज्ञा की सिद्धि मान ले, यह कितने बड़े आश्चर्य की बात है। इसी तरह महात्मा मटजीनी ने भी, अपने समय के एक अद्वितीय दार्शनिक होते हुए, ईश्वर को सिद्ध करने में जो तर्क सामने रखा है, वह बहुत हास्यास्पद है। आप कहते हैं:-  सार्वभौम और आदिम विचार, जिनका ग्रहण करना सदा शाश्वत समझा जाता है, सारे संसार के भाव और विश्वास मिथ्या एवं भ्रममूलक नहीं हो सकते। यह तर्क अनेक प्राच्य और पाश्चात्य विद्वानों ने मेरे सामने पेश किया, लेकिन जो इसी का नाम तर्क और लाजिक है तो मैं कहूँगा कि संसार में तर्कशास्त्र का होना ही व्यर्थ है।

‘बेकुनिन’ (रूसी विद्वान् – प्राउढन का समकालीन) ने ठीक कहा है कि जो तर्क की यही दशा है कि जो बात भूत और वर्तमान के सब लोगों ने ठीक मान ली है और मानते हैं, उसे तुम भी मान लो और कह दो कि खुदा है और तुम नहीं मानते-‘किम्, कस्मात्, कारणात’ से काम लेते हो- ईश्वर के अस्तित्व में सन्देह करते हो- तो तुम्हारा तर्क गया भाड़ में, तुम प्रत्यक्ष राक्षस हो। तब तो हमें भी मूर्खों की तरह बुद्धि को विदाई देकर ठकुरसुहाती करनी पड़ेगी। लेकिन कोई जवाँ मर्द अपनी बुद्धि के विरूद्ध किसी के भय से भद्दी बात को ठीक नहीं मान सकता। हाँ, हम यह जरूर मान लेंगे कि जो बातें अनन्त काल से सबने मान रखी हैं उनमें अनेक तर्क और विज्ञान-विरूद्ध कल्पनाएँ हैं। ऐसी कल्पनाओं की जाँच-पड़ताल करना प्रत्येक नवयुवक का धर्म है। अन्धों के अनुगतों का कल्याण इस संसार में असंभव है।

बहुत काल तक संसार पृथ्वी को चपटी मानता रहा तो क्या हम उसे आज भी चपटी ही मान लेंगे?इसी तरह की हजारों बातें हैं, जिन्हें संसार अनादि काल से एक तरह पर मानता चला आता था, विज्ञान ने उन्हें झूठा सिद्ध कर दिया और सच्चाई सामने रख दी तब हमें सत्य को मानना ही पड़ा।

       लोग पहले पानी को एक तत्व समझते थे पर आज यह मानने को तैयार नहीं, क्येांकि हम जान गये हैं कि आक्सीजन और हाइड्रोजन नाम के दो वायव्य पदार्थों के योग से जल बना है। यदि हम आज समझ गये कि खुदा नाम का कोई पदार्थ न तो है और न हो सकता है तो हमारा काम है कि हम इस शब्द को अपने कोषों में से निकाल डालें और धर्म की बेहूदगी से अपना पल्ला पाक करें। संसार में बेहूदगी, अन्याय, अत्याचार से ज्यादा पुरानी चीजें और कोई भी नहीं। पहले लोग स्त्रियों को उनके पिता से छीन कर ले जाते थे। इस रीति का प्रमाण आज भी ब्‍याहों में पाया जाता है, लेकिन क्या आज भी कोई इस बात को पसन्द करेगा? फि़र ईश्वर को फि़जूल पकड़कर बैठना कहाँ की बुद्धिमत्ता है।

     ‘बहुतेरे लोग कहते हैं प्रकृति और पुरूष भिन्न नहीं, एक ही हैं। जैसे द्रव्य में शक्ति, मेंहदी के पत्ते में सुर्खी। इसलिए ईश्वर है और सर्वव्यापी है।’ हजरात, बिना गुलाब के गुलाबी रंगत कहाँ? जो यह कहें कि गुलाब भी है और गुलाबीपन भी, इसी तरह ईश्वर भी है और प्रकृति भी; प्रकृति में जो शक्ति है वही ईश्वर है तो मैं कहूँगा कि ईश्वर द्रव्यगत शक्ति का नाम है, वह कोई पृथक पूज्य पदार्थ नहीं, न वह न्यायशील और ज्ञान का इतना न्यारा गहरा गढ़ा है, जिसे हम नाप न सकें। ईश्वर यदि केवल गति, शक्ति, फ़ोर्स का एक पर्याय मात्र है तो रहने दो। इसके लिए लंबी-लंबी नमाज़ों और बड़ी-बड़ी उपासनाओं की क्या ज़रूरत है? बड़े-बड़े पोथों के पाठ, मंत्रों के जप, तिलक-माला और गद्य-कथाओं से क्या लाभ? विज्ञान पढ़ो, द्रव्यगत ईश्वर की उपासना से नये-नये आविष्कारों में लग जाओ। बड़े-बड़े आविष्कर्त्ताओं को ही अवतार, नवी और वली समझो, उन्हीं की खोज की पुस्तकों को धर्म पुस्तक मानों, संसार को अकारण धोका देने से क्या लाभ?

(3)

अब हम ज़रा अल्लाह मियां की पैदाइश की तरफ़ ध्‍यान देना चाहते हैं। क्योंकि अजन्मा, निर्विकार आदि नामों से लोग उसे पुकारा करते हैं? जब मेरा मूल मंतव्य यही है कि ईश्वर के लिए जनता के हृदय-पटल से उड़ा दिया जाय तो जैसे कुश की जड़ खोदकर मट्ठा डाला जाता है, उसी तरह ईश्वर की भी जड़ खोदकर उसमें कैरोसिन तेल डालना पड़ेगा। इसलिए ईश्वर की जड़ तलाश करके उसका नाश करना मेरे लिये अत्यन्त आवश्यक काम हो गया। यदि हमने तर्क से लोगों के ऊपरी साधारण विचारों को पलट भी दिया तो क्या फि़र लोग दूसरे नाम और रूप से एक नई कल्पना खड़ी न कर लेंगे? जैसे मूर्त्ति-पूजन छोड़ने पर भी मुसलमान संग असबद को बोसा देने लगे, मुहम्मद साहब की क़ब्र की ज़ियारत और काबे की मस्जिद को सिजदा करने पर उतर पड़े, कुछ लोग ताजिये बनाने लगे, कितने हर किसी क़ब्र पर फ़ूल-चद्दर चढ़ाना, फ़ातेहा पढ़ना सीख गये, यही हाल हिन्दुओं, ईसाइओं और जैनों का भी है। इसलिए जड़ से ही खुदा परस्ती की कला कमा हो, तभी कुछ काम हो सकता है। अस्तु, हम ईश्वर की पैदाइश की खेाज करके अपने ज्ञानवान्, विचारशील, धीर-वीर पाठकों को बतलातें हैं। हमारे परिश्रम से ईश्वर का नामनिशान ऐसा मिटे कि उसका कोई नाम लेने और पानी देने वाला बाक़ी न रहे, तो समझिये कि मेहनत सफ़ल हुई। अगर ज़रा भी चिन्ह बाकी रहा, वट-वृक्ष की तरह फि़र ईश्वर नये अंकुर फ़ोड़ने लगा, तो संसार के सामने एक नई ज़हमत दिखाई देगी। आओ भाई अतिक्रान्ति से प्रेम करो- अपने बुद्धिदाता शैतान को सिंहासनारूढ़ किया, तभी से उसका सारे संसार में बोलबाला है। अब बाकी योरोप में खुदा इधर-उधर छिपकर दिन काट रहा है, मगर अभागे एशिया देश में उसकी डकैती बराबर जारी है। इसलिए एशिया के प्रधान ज्ञान-क्षेत्र भारत से ईश्वर को सबसे पहले देश निकाला देना हम भारतवासियों का प्रधान कर्त्तव्य है। अगर हम सब नौजवान कमर कस लें, तो महात्मा गाँधी सदृश दस-पाँच आदमियों की मदद से वह कभी स्थिर नहीं रह सकता है। आओ, इसकी जड़ का पता लगावें।

धर्म के भ्रम और ईश्वर की मिथ्या कल्पना के कुछ लोग वाल्टेयर की तरह समर्थक हैं, यह प्रजा में भय उत्पन्न करने की ज़रूरत बतलाते हैं। यदि ज़रूरत के कारण ही ईश्वर और धर्म को माना जाय तो वह चिड़ियों को डराने वाले खेत में खड़े काठ के पुतले के सिवा और कुछ नहीं रह जाता। जिस तरह प्राचीन एवं सार्वभौम कल्पना के आधार पर ईश्वर या धर्म का मानना विज्ञान और तर्क-शास्त्र के प्रतिकूल है, वैसा ही मूर्खों को डराने के लिए भी यह कल्पना बुरी और अमान्य है। जिनकी अंतरात्माएँ दृढ़ हैं, जो सत्य के अनन्य भक्त हैं, जो मनुष्य के ज्ञान और उसके तर्क को प्रतिष्ठा देते हैं, वे इस प्रकार की कल्पना करने में सर्वथा असमर्थ रहे हैं, और रहेंगे।

मनुष्य जो धार्मिक विश्वास और ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किये बैठा है, उसका कारण बेसमझी और अविचार इतना नहीं है, जितना दुःख और हार्दिक असन्तोष। ग़रीब, फि़र बेपढ़े लोगों का जीवन इतना बुरा है, उनको खाने-पहिनने आदि की इतनी तकलीफ़ है कि जब वे कुड़कुड़ाते और जलते हैं तो सारा दोष किसी ऐसी शक्ति के मत्थे मड़ देते हैं, जो उनसे भिन्न है। यदि वे ईश्वर के बदले अपने कष्टों का दायित्व ज़बरदस्त, सतानेवाले और अधिकार प्राप्त लोगों पर डालें तथा सामाजिक अतिक्रान्ति के लिए तैयार हों तो ज्यादा अच्छा हो; इनका दुःख दूर हो जाय। ईश्वर को मान लेने से दुःखों से छुटकारा मिलता नहीं दीखता। यदि मिलता तो पत्थर को रोटी मान लेने से भी काम चल जाता। सारांश यह कि ईश्वर का जन्म मूर्खता से हुआ और भय, छल तथा संतोष ने इसकी यथा अवसर पुष्टि की।

सृष्टि की प्रारम्भिक अवस्था में मनुष्य का ज्ञान इतना समृद्धिशाली नहीं था, जैसा अब है। उनकी योग्यता कम थी; उनके मनोवेग और ज्ञान यथार्थ काम न दे सकते थे जैसे बालक का हाल है। इसलिए उसने देवी, देव नबी, रसूल, अवतार- जो भी किसी को सूझा, मान लिया। यह सब मनुष्य की ही कल्पना की, अपने ही रूप के अनुरूप की। राजदरबार, जबरदस्तों की तलवार, धनवानों का सुखमय आगार देखकर हमने भी ईश्वर के दूत, जेल के बदले नरक, भोग-विलास के स्थान में स्वर्ग आदि की कल्पना कर ली। पुराण, बाइबिल, कुरान की गाथाओं को देखकर इस कल्पना की निःसारता सहज ही समझ में आ जाती है।

जिस तरह बच्चे अपनी मातामही, पितामही से झूठी लम्बी-चौड़ी कथाएँ सुनकर कल्पना किया करते हैं, मनुष्यों ने भी अपने स्वार्थी भाइयों से, जो कुछ अधिक चतुर थे, कथाएँ सुनीं और धर्म के नाम से, भोलेपन के कारण, सत्य मान बैठे। इस गप्प को लोग न मानते तो पोप, खलीफ़ा, गोस्वामी पण्डित-पन्डे, पुजारी प्रभृति लोग जनता के धन से मोटे बनकर न बैठ सकते। एक बार कल्पित ईश्वर को गद्दी पर बिठाकर जैसे मन्दिर में मूर्त्ति स्थापित करके लोग संसार को ठगने लगते हैं, उसी तरह विद्वानों ओैर बात बनानेवाले लोगों ने यह कह कर ठगना आरम्भ किया कि ‘वह बड़ा दयालु, न्यायकारी, सारे जगत् का नियन्ता, विनाशक और बनानेवाला है’, इत्यादि। इस तरह कल्पित ईश्वर की वेदी पर भोले-भाले लोगों का बलिदान प्रारम्भ हो गया, और हो रहा है।

ईश्वर को स्वामी और मनुष्य को दास मानने से ही संसार में गुलाम  और स्वामी की सृष्टि हुई। इस विश्वास को लोगों ने अवतार और नबी आदि बनकर फ़ैलाया, और पुजे। जबतक ईश्वर सबका स्वामी है, मनुष्य दास है। जहाँ ईश्वर का स्वामित्व मिटा कि मनुष्य की दासता का भी अंत हुआ समझो। इसलिए ईश्वर को मिटाना, मनुष्य की दासता को हटाना तथा मनुष्यों में समता और न्याय का प्रचार करना है। ईश्वर को मानना बुद्धि और न्याय को एकदम जलांजलि देना है- मनुष्य की प्राकृत स्वतंत्रता का निश्चय नष्ट करना है। इसलिए यदि हम मनुष्य-जाति का कल्याण चाहते हैं, तो सबसे पहले हमें धर्म और ईश्वर को गद्दी से उतारना चाहिए। आँखों से दिखलाई देनेवाले और बुद्धि-ग्राहृय जगत् को मिथ्या मानकर एक निर्मूल पदार्थ को सर्वश्रेष्ठ मान बैठने से बड़ी और क्या नादानी हो सकती है?

धर्म ने मनुष्य को कितना नीचे गिराया, कितना कुकर्मी बनाया, इसको हम स्वंय सोचकर देंखे। ईश्वर का मानना सबसे पहले बुद्धि को सलाम करना है। जैसे शराबी पहला प्याला पीने के समय बुद्धि की विदाई का सलाम करते हैं, वैसे ही खुदा को माननेवाले भी बुद्धि से विदा हो लेते हैं। ईश्वर की कल्पना मनुष्य को निर्बल, निकम्मा, परमुखापेक्षी और गुलाम बना डालता है। धर्म ही हत्या की जड़ है। कितने ही पशु धर्म के नाम पर रक्त के प्यासे ईश्वर के लिए संसार में काटे जाते हैं, इसका पता लगाकर पाठक स्वंय देख लें।

कितने झगड़े ईश्वर और धर्म के नाम पर होते हैं। आज हिन्दू मुसलमानों के बीच, भारत में जो परिस्थिति है, उसकी जिम्मेदारी धर्म ही पर है। आज कुरान को हटा दिया जाय, तो आज ही भारत में सुख शान्ति आ सकती है। हिन्दुओं में भी वही दोष है, जो मुसलमानों में; किन्तु बहुत कम दर्जे में। दोनों में राई और पर्वत का अन्तर है। फि़र भी दोनों ही गलती पर हैं। जितने पादरी, मौलवी, पण्डित, पुजारी और पन्डे धर्म का दम भरते हैं, ऊपर से बड़े भद्र होते हैं; पर इनके दिल बहुत काले होते हैं। इनकी आकांक्षा रहती है कि ईश्वर और धर्म के नाम पर हम ठगें, लोग ठगें जायँ, और हमारे पीछे पागल की तरह फि़रें।

आज हमारे देश के बड़े-बड़े विद्वान यदि ब्रिटिश गर्वनमेन्ट को निकाल देने के पहले ईश्वर को निकाल देते, धर्म की फ़ाँसी अपने गले से निकाल फ़ेंकते, तो उनमें कभी का इतना बल आ जाता कि अपने देश का शासन आप करते। ज्यों-ज्यों दुनिया में बुद्धि का विकास होता जाता है, त्यों-त्यों ईश्वर की थोथी कल्पना मिटती जाती है। समय आवेगा कि धर्म की बेहूदगी से संसार छुटकारा पाकर सुखी होगा, और आपस की कलह मिट जायेगी। खुदा है क्या वस्तु? कोई वस्तु? कोई व्यक्ति? कोई मनोगत भाव? कुछ नहीं- एकमात्र निर्मूल कल्पना, एक कुविचार जनित शब्द। मनुष्य से अधिक सुन्दर, चतुर, शक्तिशाली, ज्ञानवान्, भद्र परोपकारी, न्याय और दया को समझनेवाला, न तो कुछ है, न हो सकता है। लेकिन जब कुछ मनुष्य दूसरों को सतानेवाले देखे जाते हैं, तो लोग एक सर्वश्रेष्ठ की कल्पना करते हैं। यह नहीं समझते कि मनुष्यों में भी भले और बुरे दोनों की पराकाष्ठा के नमूने हैं। इसी को देखकर ईश्वर में क्रोध, बदला, नाशकरी-शक्तित का आरोप किया गया है। मनुष्य का ही मनन करो, प्रकृति का पाठ पढ़ो, इसी में हमारा कल्याण है। एक अत्याचारी, एक मूर्ख शासक, खुद-मुख़्तार और रद्दी ईश्वर की कल्पना करना मानों स्वतंत्रता, न्याय और मानव धर्म को तिरस्कार करके दूर फ़ेंक देना है। यदि आप चाहें कि ईश्वर आपका भला करें, तो उसका नाम एकदम भुला दें। फि़र संसार मंगलमय हो जायगा।

मनुष्य के सरल, साधारण नैसर्गिक ज्ञान के हथौड़े से ही ईश्वर की कल्पना को टुकड़े-टुकड़े कर सकते हैं, लेकिन देखा जाता है कि आध्‍यात्मिकता के नये-नये जाल, मनुष्य जाति के गले की फ़ाँसी को सुदृढ़ करने के लिए गढ़े जा रहे हैं। साधारण जनसमूह का कल्याण और हमारी मानसिक भलाई इसी में है कि हम ईश्वर की ऐतिहासिक उत्पत्ति को मनोयोग के साथ समझें; वे कौन से लगातार ऐसे कारण हुए, जिनसे मनुष्य ने अपने मन में ईश्वर की कल्पना की, इसका विचार करें। यदि हमलोग पढ़े-लिखे, विचारशील व्यक्ति अच्छी तरह ध्‍यान देंगे तो निःसन्देह हम थोड़ा-बहुत उस सार्वभौम अंतरात्मा की पुकार से, जिसका भेद हमने अच्छी तरह प्रकट नहीं किया, दब ही जायँगे। कड़े से कड़े दिल के आदमी में एक स्वाभाविक निर्बलता देखी जाती है। वह यह कि सामाजिक बन्धन के दबाव में मनुष्य आ ही जाता है और किसी न किसी प्रकार उसे धार्मिक बेहूदगी के गढ़े में गिरना पड़ता है। टामस पेन सदृश विद्वान ने भी ऐसी ही ठोकर खाई है। धर्म की पकड़ साधारण जनसमूह या समुदाय में इतनी बलवती क्यों देखी जाती है? इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सब पागल हैं। लेकिन इस अबूझ पहेली में फ़ँसने का कारण उनकी मानसिक चिन्ता और हार्दिक असन्तोष है।  इस असन्तोष का निराकरण ईश्वर की कल्पना से नहीं हो सका तो अब सामाजिक अतिक्रान्ति ही इसका अंत करेगी। इसलिए अतिक्रान्ति की बड़ी ही आवश्यकता है। जर्मनी में राजसत्तापोषक (Imperialist) ने एक बार कहा था-   we do not only need the soldiers legs but also their brains and their hearts.

अर्थात्- हमें सिपाहियों के केवल हाथ-पैरों की ही ज़रूरत नहीं है, हमें उनके दिल और दिमाग़ को भी गुलाम बना लेने की ज़रूरत है। मतलब यह कि ग़रीबों के दिल और दिमाग़-उनकी मानसिक वृत्ति और हृदय, ऐसे बनाये जायँ कि वह खुशी से पशुओं की तरह धनिकों, अधिकार प्राप्तों की गुलामी यावज्जीवन करते रहें। यही तो मनु ने भी किया, जो उसने शूद्रों के कर्त्तव्य में यह लिखा कि ‘एकमेव तु शूद्राणां प्रभु कर्म समादिशत्ः एतेषां त्रय वर्णानां शुश्रुषामनुसूयया।’ यह तो गरीबों को लूटने का एक साधन है कि उन्हें धर्म-याजकों द्वारा ईश्वर  या धर्म का भय दिलाया जाता रहे। क्या कोई पण्डित, मौलवी, पादरी या दूसरा धर्म-याजक या राजा-रईस और धनिक ईश्वर को मानता है? उससे डरता है? कभी नहीं। क्योंकि वह जानते हैं कि ईश्वर मात्र हमारे स्वार्थ सिद्धि का एक ख़ास बहाना है। स्कूल, देवालय, राजसत्ता और छापेख़ाने सभी कुछ ग़रीबों को अंधकार में डालने के लिए धनवान ओैर जबरदस्त लोगों ने मिलकर बनाये हैं। स्कूल भी शुद्धि बुद्धि से जनता के हित के लिए नहीं बनते। देवालय और ईश्वर तो प्रत्यक्ष ठगी के जाल ही हैं। एक स्थान पर पण्डित शिरोमणि बुहारिन ने स्पष्ट बतलाया है कि ग़रीबों के छलने के लिए धर्म (Church) के द्वारा क्या-क्या शरारतें की जाती हैं। हम यहाँ विषयान्तर होने के भय से इस पण्डित  की विवेचना को स्थान नहीं दे सकते, अन्य पुस्तक में हम शीघ्र इस प्रकार के विषयों पर अलग विचार करने की इच्छा रखते हैं, यदि समय और शरीर साथ दें। ईश्वर का भ्रम मनुष्यों में कैसे उत्पन्न किया गया, इसी पर अब मैं थोड़ा सा और विचार करके इस लेख को समाप्त करना चाहता हूँ।

वेद, पुरान, कुरान, इंजील आदि सभी धर्म पुस्तकों को देखने से प्रकट है कि सारी गाथाएँ वैसी ही कहानियाँ हैं, जैसी कुपढ़ बूढ़ी, दादी, नानी अपने बच्चों को सुनाया करती हैं। गीदड़, चिड़िया और राक्षस की जो कहानियाँ मैंने अपनी दादी से सुनीं थीं, मुझे आजतक याद हैं। धर्म-ग्रन्थों की बातें कहीं-कहीं इससे बेहूदगी में बहुत आगे बढ़ जाती हैं। इसका कारण मानव बुद्धि का अपूर्ण विकास, बालकाल का मूढ़ विश्वास ही हो सकता है, न कि और कुछ। ईश्वर, देवता, नबी, वली वगै़रह-वगैरह की बुद्धि-विरूद्ध कल्पनाएँ मूर्खों के ही सर में पैदा हो सकती हैं और उन्हीं के भाई-बंद उनको सुनकर उन पर विश्वास कर सकते हैं। बिना देखे-सुने, बिना जाने-पहचाने अनहोने लापता ईश्वर या खुदा के नाम पर अपने देश को, जाति को, व्यक्तित्व को और धन-संपत्ति को नष्ट कर डालना एक ऐसी बड़ी मूर्खता है, जिसकी उपमा नहीं मिल सकती। हमारे देश में करोड़ों हरामख़ोर इसी बेहूदा कल्पना की बदौलत मजे उड़ाते हैं और रात-दिन श्रम करनेवालों को एक टुकड़ा रोटी भी यथासमय नहीं मिलती।

वह बुद्धि-विहीन मस्तक कैसा विचित्र होगा जिसमें ‘कुछ नहीं’ को सत्य, न्याय, सौंदर्य, बल, धन , जन से सम्पन्न और मनुष्य को नीच, हेय, पतित, निर्बल, निकम्मा, पापी माना तथा मनवाया होगा। आओ आज हम इस बेहूदगी का पर्दा फ़ाड़कर संसार को सुखी बनाने के लिए उसके गले से गुलामी का तौक उतारने के लिए, घोषणा करें कि ‘ईश्वर नाम का कोई पदार्थ नहीं है- मनुष्य-बुद्धि की बिडम्बना मात्र है।’ जब तक यह कल्पित स्वामी ईश्वर हमारे सर पर रहेगा, हमारी गुलामी का अंत न होगा। ईश्वर गया और गुलामी भी गई। ईश्वर ही सब पापों की जड़ है; सब फ़सादों का आदि है; इस नाम को भूल जाने में ही हमारा कल्याण है। प्रह्लाद के पिता के चातुर्य्य और प्रह्लाद की अदूरदर्शिता का पता, उन विचारशीलों को लगेगा, जो बात की तह में गहरे घुस कर देखेंगे। खुदा यदि हमारे कल्याण का हेतु हो सकता है तो सिर्फ़ इसी तरह कि वह हमारे बीच से सदा के लिए अपना सा मुँह लेकर चला जाय। सच तो यह है कि संसार खुदा से तंग आ चुका है।

हमें दुख है कि आज भी हमारे देश के बड़े-बड़े विद्वान यथा महात्मा गाँधी, साधु टी. एल. वासवानी, डाक्टर संजीवी, दार्शनिक-अग्रगण्य श्रीयुक्त भगवनदासजी इत्यादि-इत्यादि उसी भूल को पद-पद पर दृढ़ करने में लगे हुए हैं, जिसे, हमें चाहिए था, संसार के सामने प्रकट करके सर्वदा के लिए उठा देते, अशुद्ध अक्षर की भाँति हरताल से छिपा देते।

हमारे कुछ दोस्तों ने प्रकृति की आंतरिक अवच्छिन्न शक्ति को (Inherent force in matter) ही ईश्वर मानकर प्रार्थना की है ईश्वर को इस काम से अलग पड़ा रहने दीजिए, लेकिन मैं कहता हूँ कि इस प्राकृत-शक्ति के लिए प्रकृति काफ़ी है। अधिक विचार के लिए आप चाहें तो दूसरा नाम रख सकते हैं, लेकिन मैं अपने वश पड़ते ‘राजा और ईश्वर’ शब्दों से संसार के किसी भी कोष को कलंकित नहीं देखना चाहता। ईश्वर ही की कल्पना राजा की कल्पना, गुरुओं और महंतों की कल्पना का प्रधान कारण है। इसलिए संसार की बुराइयों पर कुठाराघात करने के निमित्त ईश्वर की जड़ को काटना सबसे पहले ज़रूरी जान पड़ता है। आशा है हमारे नवयुवक इस बात पर गहरी, गंभीर और धीरता, वीरतापूर्ण दृष्टि डालकर शीघ्र ईश्वर को निकालने का प्रयत्न करेंगे।

(4)

संसार में जितने धर्म-ग्रंथ हैं, सबमें श्रेष्ठ और सुपाठ्य प्रकृति है। इस ग्रंथ के किसी-किसी सूत्र के व्याख्याकार भी हुए हैं। उन्हें भी हम चाहें तो सहायता लेने के विचार से पढ़ें। कितने ही गणितज्ञ, भूगोल-खगोल वेत्ता, नई-नई खोज और आविष्कारों के कर्ता पण्ति हुए हैं। इन्ही के निश्चित सार्वभौम निर्दोष प्राकृतिक नियमों के मानने से हमारी स्वाधीनता, स्वतंत्रता तथा मनुष्यता स्थिर रह सकती है। इसके विरूद्ध जितने नियम हैं, वे सब तिरस्कार के साथ ठुकरा देने योग्य हैं। इन प्राकृत नियमों को जहाँ हमने एक बार समझ कर मान लिया, फि़र हमारा मार्ग सीधा, सरल और निष्कंटक हो जायगा। संसार में साधारण जनता से लेकर बड़े-बड़े पण्डित तक सभी इसके विरूद्ध मुँह खोलने में असमर्थ हैं। कौन-सा ऐसा धर्म-याजक, जगद्गुरु, महात्मा, पैगम्बर, अवतार, दर्शनकार इस संसार में है, जो गणितशास्त्र-सिद्ध सिद्धान्तों का विरोध करने का साहस करेगा। पगलखाने के बाहर मैं समझता हूँ, कोई बड़े से बड़ा धर्मान्ध भी ऐसा न मिलेगा, जो एक-एक दो होते हैं, इन बात से इंकार करे। आग जलती है, पानी जलती हुई आग को बुझा देता है, इसे कौन न मानेगा, जब तक कि कोई प्राकृतिक नियम इसके अन्दर दूसरी क्रिया न करता हो। साधारण जनता भी अपनी प्राकृतिक सहज बुद्धि से काम लेती है। वह नित्य प्रति निसर्ग के नियमों को देखती है और एक सीमा तक जानती तथा मानती है। यदि उसे बहके हुए पथ से हटाकर नैसर्गिक नियमों पर ही दृढ़ रखने का थोड़ा सा प्रयत्न किया जाय, तो निःसन्देह सत्य प्रकृति की उपासना अथवा असत्स ईश्वर के त्याग से बड़ा कल्याण हो। हमें उचित है कि हम विज्ञान की शरण लें और धर्म-ग्रन्थों को एक साथ नदी में बहाकर सदा के लिए निश्चिन्त हो बैठें। महात्मा कार्ल मार्क्स ने ठीक ही कहा कि Religion is opium of the people. – अर्थात् धर्म मनुष्य जाति की अफ़ीम है। एक बार जिसे अफ़ीम का चस्का लग गया, वह फि़र इस घातक विष के फ़न्दे से निकल नहीं सकता। यदि कोई हजार में एक आध निकल जाय तो बड़ा ही चतुर, दूरदर्शी, बहादुर या साधारण परिभाषा में अत्यन्त भाग्यशाली है। किसी-किसी धर्म रूपी अफ़ीम का नशा तो इतना गहरा और बेहोश करनेवाला होता है कि लोग अपनी जन्मभूमि, अपने बाप-दादों के रज-वीर्य और अपने अस्तित्व को भी भूल जाते हैं। उदाहरण के लिए हम मुसलमान धर्म को ही लेते हैं। भारत को गुलाम, भूख मरते, अर्द्ध जाति वाले मुसलमान अर्थात् नवमुसलिम अपनी पिनक में आकर कहने लगते हैं कि इस्लाम धरती की किसी सीमा से आबद्ध नहीं हैं। ‘मुस्लिम हैं, हम वतन है, सारा जहाँ हमारा।’

हम इन मुसलमानों से पूछते हैं कि आप हिजरत कर गए थे, तब आपको मुस्लिम दुनिया ने यथेष्ट प्यार क्यों न किया, रहने को स्थान क्यों न दिया? आपका वतन सारा जहान था तो आप क्यों मुँह की खाकर लौट आये? 1920 ई. में सारे हिन्दुस्तान के मुसलमान क्यों न अपने धर्म शास्त्र के अनुसार हिजरत कर गये? बात यह है कि फ़कीर टुकड़े को तरसता है, जिसके रहने के लिए एक कोठरी भी नहीं, वही मूर्ख सारी पृथ्वी को अपनी जागीर बताता है-

‘अवतार वतन कहते हैं सारा जहाँ हमारा ।’

हमारे मुसलमान धर्मावलम्बी भाइयों से इस पिनक ने माता के रज और पिता के वीर्य से भी इनकार करा दिया। काश्मीरी ब्राह्मण, खत्री और अन्याय हिन्दू अपने बाप-दादों को भूलकर खुरासानी खच्चर की तरह अपने बाप-दादों के बदले अरब के रज-वीर्य का दावीदार बनने लगता है। वह इतना पागल हो जाता है, उसे यह भी तमीज नहीं रहती कि धर्म दूसरी चीज़ है और नस्ल दूसरी; धर्म का ख़याली पुलाव और बात है और अपनी प्यारी मातृभूमि दूसरी। धर्म के नशे में चूर नशेबाज जिधर देखो यही पुकारता फि़रता है किः-

बररूय शश जेहत दरे आइनः बाज है।

यां इम्तियाज नाकिसो कामिल नहीं रहा।।

 इसी बदबख़्त मज़हब के नशे के पागल अपनी उस धरती की महत्ता और पवित्रता को भूल जाते हैं, जिसमें उनकी अगणित पीढ़ियों की मिट्टी मिली हुई है और चोरों, उठाईगीरों, डकैतों की धरती को पवित्र मान बैठते हैं। इस तरह जिस धर्म के कारण मनुष्य मनुष्यता से गिर जाता है, उस धर्म, मज़हब या रिलीजन से कब किसी मनुष्य का कल्याण संभव है?

इस धर्म के नशे में डालकर ही पूँजीपति शासन श्रमिकों को लूटता-खसोटता ओैर पशुतुल्य दास बनाये रखता है। समस्त देशों के धर्म-याजक धर्मरूपी अफ़ीम के प्रचार के ठेकेदार हैं। इन्हें इस नशे से ग़रीबों को उन्मत्त रखने के लिए धन मिलता है। धर्म की व्यवस्था हमेशा धन से खरीदी जाती रही है और अब भी ख़रीदी जाती है। डायर और ओ-डायर की क्रूरताओं का पादरियों ने और मालाबार के मोपलाओं के राक्षसी कृत्यों का मौलानाओं ने समर्थन किया। यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो सब पापों की जड़ धर्म है। इसलिए धर्म, मज़हब और ईश्वर या अल्लाह को जितनी जल्दी भूमंडल से विदा किया जाय उतना ही अच्छा।

याद रहे संसार में सामाजिक समुन्नति कभी किसी अप्राकृत शक्ति या शक्तियों से नहीं हुई, न हो सकती है और न कभी होगी। इसके सिवा विद्वानों ने यह सिद्ध कर दिया है कि ईश्वर, धर्म और अनैसर्गिक शक्तियों का भाव मानव जाति में उसकी एक अनुन्नत दशा में पैदा होता है। यह इतिहास-सिद्ध बात है, फि़र विकास होने पर एक ऐसी उन्नत दशा आ जाती है कि यह भाव परिवर्तित होते-होते विनष्ट हो जाता है। जैसे लड़कियाँ जवान होने पर गुड़ियों का खेल छोड़ देतीं हैं और फि़र पसन्द नहीं करतीं; छोटे-छोटे बच्चे जवान होने पर अपने बचपन के बहुतेरे विचारों ओैर बेहूदा खेलों को छोड़ देते हैं, वैसे ही मनुष्य जाति भी एक विशेष विकसित अवस्था के प्राप्त होने पर धर्म ओैर ईश्वर के निर्मूल झगड़ों को त्याग देती है। मनुष्य और प्रकृति के संघर्ष में किसी भी तीसरी वाह्य महाशक्ति का न अस्तित्व है, न ‘कुछ नहीं’ का कोई हस्तक्षेप हो सकता है। थोड़े से स्वार्थी लोग जनता को लूटकर अपना पेट और जेब भरने के लिए उसे धर्म के अँधेरे में डाल रखने का प्रयत्न किया करते हैं। इन असद्विचार वालों और लुटेरों से बचे रहना चतुर मनुष्यों का काम है।

हम कह  चुके हैं कि केवल मूर्ख ही अनहोनी घटनाओं के घटने का विश्वास कर सकते हैं। जितने धर्म हैं सब गप्प कथाओं के आधार पर रचे गये हैं। यदि मिथ्यावादियों की होड़ा-होड़ी का आनन्द देखना हो तो हमें चाहिए हम धर्म पुस्तकों को पढ़े और धर्म नामक छल से बचें।

सांसारिक कार्य करने के समय हम देखते हैं कि सभी नास्तिक होते हैं। क्या कोई मनुष्य रात दिन जो काम करता है उसमें प्रतिक्षण धर्म का विचार रखता है? रख ही नहीं सकता । यदि रखे तो संसार का कोई काम न चले। यही बड़ा भारी प्रमाण धर्म की अव्यावहारिकता और व्यर्थता को सिद्ध करने के लिए काफ़ी है।

ला प्लेस नामक एक फ्रांसीसी विद्वान ने विश्वक्रम-ज्ञान (System of the universe) को प्रकट करने के लिए एक पुस्तक लिखी। यह पुस्तक प्रथम नेपोलियन बोनापार्ट ने पढ़ी और लेखक से कहा‘आपकी इस पुस्तक में कहीं भी ईश्वर का नाम नहीं मिला।’ पण्डित ला प्लेस ने उत्तर दिया कि मुझे ऐसी कल्पना की कहीं भी आवश्यकता नहीं मालूम हूई। उसने अपनी पुस्तक में न तो कहीं दर्शनों से काम लिया, न किसी विश्व के रचयिता की कल्पना से, साथ ही उसने गणित का भी प्रयोग नहीं किया था। लेकिन बाद में गणितज्ञों ने इसके विचारों को गणित की कसौटी पर रखा तो सत्य ही सिद्ध हुआ। आजकल विज्ञान के जितने भी महत्वपूर्ण ग्रंथ देखे जाते हैं, कहीं भी उनमें ईश्वर की ज़रूरत नहीं दिखाई देती। बिना ईश्वर के माने ही सारी की सारी समस्याओं की मीमांसा हो जाती है। मानवीय ज्ञान में कहीं भी ईश्वर को स्थान नहीं मिलात। हमने जो कुछ ऊपर लिखा है, उससे प्रकट है कि मनुष्यों को स्वातंत्रय, साम्य और बन्धुत्व विनष्ट करने में धनपात्रों, पूँजीपतियों, जबरदस्तों, राजकर्मचारियों आदि काबूयाफ्ता लोगों का जितना हाथ है, उतना ही धर्म का भी है। धर्म अत्याचारियों को सहायता देता है, ग़रीबों तथा दुखियों को और भी अधिकतर ग़रीब और दुखी बनाता है। किसी समय योरोप में धर्म के नाम पर ऐसे अत्याचार हुए हैं कि उन्हें देखकर शैतान, जिसे धर्म के माननेवालों ने इतना बुरा चित्रित किया है, यदि सचमुच होता तो लज्जा से सर झुका लेता। योरोप का धर्म इतिहास (History of the church) इसका साक्षी है। ‘इनक्वीज़ीशन’ के कानून ने क्या कुछ अत्याचार नहीं किया? यह कानून पुरोहित-राज पोप की तृष्णा-पूर्ति के लिए धर्म-विरोधी की खोज करके उसे प्रताड़ित करने के लिए बनाया गया था। बेचारे ‘मूर’ जैसे सज्जनों की हत्या का दायित्व धर्म या ईश्वर के ही सर पर है। ग्लेंको के हत्याकाण्ड में भी पापिष्ट ईश्वर और धर्म का ही हाथ था। धर्मानधता के नाश के साथ ही साथ पाश्चात्य देशों के अभ्युदय का इतिहास आरम्भ होता है और धर्म व ईश्वर के पतन से ही सोविएट सरकार के जन्म का सूत्रपात रूस में हुआ । इतनी ऐतिहासिक घटनाओं के होने पर भी जो धर्म के नशे के मतवाले हैं, उन्हें बुद्धिमान समझें या क्या? यह हमारी समझ में नहीं आता।

भारत में भी शैवों, शाक्तों, वैष्णवों की पारस्परिक कटाछनी का पता पुराणों से मिलता है। स्मार्तों, तांत्रिकों और श्रोत्रियों के बैर भाव का हाल हिन्दू मात्र अपने ग्रंथों को पढ़कर जान सकते हैं। मुसलमानों की पारस्परिक धार्मिक दलबन्दियों और झगड़ों का हाल जानना हो तो ‘असना अशरिया’ नामक पुस्तक को पढ़कर देखिये। यह पुस्तक फ़ारसी भाषा में भारत में भी मिल सकती है। संभवतः इसका उर्दू संस्करण भी मिलता होगा। इसमें बहत्तर फि़रकों के भेदों का वर्णन है।

बौधों और वैदिक धर्मावलम्बीय ईश्वरवादियों में जो झगड़े हुए वह भी हमसे छिपे नहीं हैं। शंकर स्वामी के शिष्यों ने बौद्धों के साथ जो ज़बरदस्तियाँ कीं उन्हें हम चाहें तो अच्छी तरह पुस्तकों को पढ़कर जान सकते हैं। जैनियों में श्वेताम्बरी दिगम्बरी, तेरह पंथी, स्थानकवासी और आत्मारामी प्रभृति संप्रदायों की मोर्चेबन्दी, झगड़े-लड़ाई हमारी आँखों के सामने है। यदि धर्म की कल्पना न होती हो इन सारे झगड़ों का भूमण्डल पर नामोनिशान न होता, न इतिहास के पृष्ठ इन अमानुषिक कृत्येां से गंदे होते। इन सबका दायित्व ईश्वर और धर्म को माननेवालेां पर ही है।

संसार की उत्पत्ति को धनपात्र, राज्याधिकारी और पुरोहित-मण्डल खूब बेदर्दी के साथ उड़ावेंगे, क्योंकि ईश्वर ने उन्हें दिया है। बिचवनिए दलाल, सटोरिए, छोटे व्यापारी बचे हुए को भोगने के लिए बने हैं। राज कर्मचारी और सैनिक मनमानी संपत्ति का विधवंस करेंगे। लेकिन जनसमूह को वही टुकड़ा और धक्का बदा है। इनके लिए  इनके ईश्वर का आदेश ही यह है कि निर्धन तो संसार में बने ही रहेंगे, तुम खाओ-पीओ, मज़े मारो। क्या हम लोग ऐसे ईश्वर की परवा करते पड़े रहेंगे? अब संसार के भुक्कड़ों की श्रेणी, ग़रीबों का नाम, ग़रीबों का दृश्य मिटाना होगा और इस काम के लिए ईश्वर को अद्धर्चन्द्र देकर निकालना अनिवार्य है। हमें अब पक्षपाती, निदर्य, कल्पित ईश्वर की ज़रूरत नहीं रही।

अब वह समय नहीं रहा कि मुसलमानों के बालक कुरान रटने में अपने जीवन का पवित्र और उत्तम अंश बरबाद कर डालें या ईसाई बालक इंजील की आयतों, गीतों, या भजनों में जीवन गँवावें। न अब दूसरे ही धर्मवाले अपने धर्म के नाम पर अच्छे काम करने के स्थान पर आँख बंद कर दकियानूसी रद्दी किताबों के मंत्र या आयत अगणित बार बड़बड़ावेंगे। संसार होश में आता जाता है ओैर पुरोहिती तथा कल्पित बेहूदगियों का अंत होने वाला है। अब महात्मा मसीह की यह अयौक्तिक शिक्षा कि ‘जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारे उसे अपना दूसरा गाल भी फ़ेर दो’ संसार को धोखे में नहीं डाल सकती। हम देखते हैं कि गाय, भेड़, बकरी आदि सीधो प्राणियों को उनकी शान्तिप्रियता के कारण कोई नहीं छोड़ता। रोज़ बड़े-बड़े मौलवी पादरी और पण्डित उन्हें मार-मारकर हड़प करते चले जाते हैं। शेर और चीतों का न कहीं बलिदान होता है, न कुरबानी, न इनको कोई मारकर खाता है। इसलिए ऐसी उलटी शिक्षा देनेवाले अब संसार में प्रतिष्ठा नहीं पा सकते।

म0 मसीह कहते हैं- ‘Thou shalt not kill thy neighbor.’  ‘A Christian has no right to exploit his brother. ‘Turn thy right cheek when smitten on the left.’

तू अपने पड़ोसी को मत मार (यहाँ पड़ोसी का अर्थ है हरेक मनुष्य)। पर क्या जर्मनी, फ्राँस, इटली और ग्रेट ब्रिटेन के ईसाई चुपचाप बाएँ गाल पर थप्पड़ खाकर दाहिना गाल दूसरे तमाचे की प्रतीक्षा में फ़ेर देते हैं? आपस में थोड़े से आदमियों के लाभ के लिए लाखों के गले नहीं काटते-कटवाते? क्यों अपने पड़ोस के लोगों को लूटने की ही चिन्ता में ईसाईयों और मुसलमानों का समय बीतता है? फि़र हम धर्म के झूठे ढकोसलों में फ़ँसना कैसे पसन्द कर सकते हैं। लुटेरे लोग और डाकू जातियाँ धर्मउपदेश को सुन-सुनकर मन में मुसकराती और कहती हैं ‘लो मौलवीजी, पादरी साहब, पण्डित महाराज हम आपको धन देते हैं, आप दुनिया को उपदेश करें जिसमें सब सोते हुए बेहोश पड़े रहें और हम सबको खूब लूटें।’ इस दशा में क्या ईश्वर की कल्पना निर्धनों, कमजोरों और भोली-भाली सर्वसाधारण जनता के लूटने का एक ख़ासा साधन नहीं है? है, इसलिए ईश्वर और धर्म को जितनी जल्दी संसार से नेस्ताबूद कर दिया जाय उतना ही अच्छा।

मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह नैसर्गिक नियमों के अनुसार चले, क्योंकि उनको उसी ने प्रत्यक्ष किया है। उसके सर पर किसी व्यक्ति या समष्टि ने उन्हें ज़बरदस्ती नहीं लादा। जो ऐसे नियमों को मानते हैं, जिन्हें किसी डाकू या डाकुओं के गिरोह ने बनाकर अपने या कल्पित ईश्वर के नाम से जारी किया है वह क्या बज्र मूर्ख नहीं है? वह बिना सींग और पूँछ के पशु है और जो इस तरह नियम बनाकर धर्म या अधिकार के नाम पर उन्हें लोगों से मनवाते हैं वह जंगल के हिंसक पशुओं के मसौरे भाई हैं। अधिकार प्राप्त पुरोहितों,शासकों और धनपात्रों का यह स्वाभाविक लक्षण है कि वह जनसमूहों के दिल और दिमाग़ को- मन और बुद्धि को- मुर्दा बनाकर छोड़ देते हैं। इसलिए अधिकार प्राप्त लोगों के हृदय और मस्तिष्क दोनों कुत्सित होते हैं। यह कुत्सित हृदय लोग विद्वानों, वैज्ञानिकों, बड़े-बड़े लेखकों और वक्ताओं को धन देकर अपना गुलाम बना लेते हैं। हम तो रोज बड़े-बड़े सिद्धान्त की डींग मारनेवालों, सन्यास का झंडा उठानेवालों, राजनीति में बाल की खाल खींचनेवाले, दंभपूर्ण नेताओं को धनिकों के सामने कठपुतली की तरह  नाचते देखते हैं। इनमें से एक भी  निर्धन और ग़रीबों में रह कर, उनका सा जीवन व्यतीत करके उन्हें उनके स्वत्वों से सावधान वा जानकार करने नहीं जाता। मैं नहीं समझता कि ईश्वर और धर्म किस मर्ज की दवा है? धर्म ज्ञान किस खेत की मूली या बथुआ है? संप्रदायों और समुदायों के नेता किस जंगल की चिड़िया हैं? आज यदि हम इस अंधविश्वास को छोड़ दें, ईश्वर, धर्म और धनवानों के एजेटों व नेताओं से मुँह मोड़ लें अपने पैरों पर खड़े हों, तो आज ही हमारा कल्याण हो सकता है। हम किसी की प्रतिष्ठा करने के लिए नहीं पैदा हुए, हम सबके साथ समान भाव से रहने के लिए जन्मे हैं। न हम किसी के पैर पूजेंगे न हम अपने पैर पुजवायेंगे,न हमें ईश्वर की ज़रूरत है, न पैगम्बर और अवतार की, गुरु बननेवाले लुटेरों की।

न्यायनुमोदित, धर्मानुमोदित या उचित वही है जो बुद्धि-ग्राह्य हो, विज्ञानानुमोदित हो, मनुष्य-स्वातंत्रय का संरक्षक हो। इसके विरूद्ध सारे अधिकार, सारी व्यवस्थाएँ मिथ्या हैं, त्याज्य हैं, अत्याचाराश्रित और घातक हैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘हमारा अवतार और पैगम्बर विज्ञान है, हमारा धर्म विवेक है, हमारा खुदा संसार के मनुष्यों का समूह है।’ ईश्वर ओैर उसके आश्रित धर्म और राज्य दोनों ही मनुष्य के प्रधान शत्रु हैं। जहाँ अधिकार के नाम पर काम होता है वहीं ईश्वर और शैतान की पैदाइश होती है। दोनों ही अजीबुलखिलकत जीवों को धक्का देकर सुखी होने के लिए हमें इनके पिता ‘अधिकार’ का नाश करना ही श्रेयस्कर है। आज तक धर्म के नाम पर हमें लुटेरों ने जितना लूटा है, वह सब हम वापस लेने का प्रयत्न करें और सबसे प्रधान डाकू ‘ईश्वर’ के पैरों को महीमंडल पर जमने न दें, यही हमारा इस समय प्रधान कर्तव्य है।

ईश्वर के पूजनेवाले, दासवृत्ति का समर्थन करनेवाले कहते हैं कि यदि धार्मिक बुद्धिवालों को देश का या और किसी संस्था आदि का काम सौंपा जाय तो वर्तमान समाज भी बुरा नहीं है। कानून बुरा नहीं होता, बरतने वाले ही बुरे होते हैं। ईश्वर बुरा नहीं है, उसकी आज्ञा को न माननेवाले ही बुरे है। राजा अच्छा भी होता है, बुरा भी। बुरा राजा बुरा है। बुराई बुरी है, न कि राजा का पद ही बुरा है।

यह हमारे भोले भाइयों की नादानी है। भाँग बुरी नहीं है, हाँ, भाँग पीकर होश खो देनेवाले बुरे हैं। वाह वा। मैं कहता हूँ कि कानून हो ही क्यों? न कानून होगा न कोई उसे बुरी तरह से बरतेगा। न खुदा होगा, न उसके नाम पर हज़ारों लाखों टन कागज़ रद्दी किया जायेगा। मनुष्य यदि सोचकर अपने समाज का संगठन करें, तो वह ईश्वर, राजा, कानून के बिना भी बहुत आनंद के4 साथ रह सकते हैं। ख़ास कर खुदा जैसी पहेली तो नितान्त ही अनावश्यक और व्यर्थ है।मैंने गत 27 वर्षों से खुदा की परवा नहीं की, इससे मेरा कुछ भी हर्ज नहीं हुआ, उलटे सब काम बहुत अच्छे हुए हैं। मैं पहले से अधिक संयमी, मनुष्य-भक्त और समाज-सेवा का प्रेमी बन गया हूँ, क्योंकि मैं अपने कामों को ही प्रधानता देता हूँ। हिन्दू महासभा के सभापति की तरह में यह नहीं कहता कि ‘ईश्वर हमें शक्ति से भर दें, हमें हिम्मत दें और हे सरकार हमारी रक्षा कर, हम तुझे चेतावनी देते हैं कि यदि तू ने हमारी रक्षा न की तो हम रो देंगे। तेरे परदादा ईश्वर का नाम ले-लेकर हाय-हाय मचावेंगे।’

मैं कहता हूँ कि मनुष्य बल से पूर्ण है, वह उसी से काम ले। भीख माँगना, प्रार्थना करना, हमें नीच और कायर बनाता है, जो ज्यादा गायत्री जपी जायेगी तो हिन्दू भी चोरी, डकैती, लड़कों, औरतों का चुराना आदि नीचता सीख लेंगे। ईश्वर मूर्खों के लिए अन्धेरे का घर है। बस, इस सम्बन्ध में इस समय मैं अपना वक्‍तव्य समाप्त करता

(‘माधुरी’ नवम्बर 1925 से फ़रवरी 1926 तक)

 

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जनवरी-मार्च 2006

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