सापेक्षिकता सिद्धान्त के सौ वर्ष
आइंस्टीन होने का मतलब
वे 1905 के बसन्त के दिन थे, जब विज्ञान की दुनिया में एक छब्बीस वर्षीय युवा ने सहसा गुमनामी के अंधेरे से कालातीत ख्याति के क्षितिज की ओर एक लम्बी छलाँग लगाई। समूची बीसवीं शताब्दी महान अन्वेषणों और महान वैज्ञानिकों की शताब्दी थी, लेकिन 1905 में सापेक्षिकता के विशेष सिद्धान्त की खोज के चन्द एक वर्षों बाद ही आइन्स्टीन की ख्याति और महत्ता की तुलना शताब्दी-सीमान्तों का अतिक्रमण करके की जाने लगी। विज्ञान के इतिहास में आइन्स्टीन का स्थान न्यूटन और चार्ल्स डार्विन के समकक्ष माना जाने लगा था और आज भी यह एक निर्विवाद मान्यता है। सापेक्षिकता सिद्धान्त के जन्म के साथ ही विज्ञान अब वैसा एकदम नहीं रह गया जैसा कि वह पहले था। क्लासिकी भौतिकी का युग बीत चुका था। यह उचित ही है कि सापेक्षिकता सिद्धान्त के इस शताब्दी वर्ष को पूरी दुनिया में ‘भौतिकी के वर्ष’ के रूप में मनाया जा रहा है।
प्रकृति विज्ञान के अन्य महत्वपूर्ण मूलभूत सिद्धान्तों की ही भाँति सापेक्षिकता सिद्धान्त ने भी समाज-विज्ञान की सैद्धान्तिकी के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला और कई महत्वपूर्ण बहसों को जन्म दिया। महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने समय के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर आइन्स्टीन का मात्र परोक्ष सैद्धान्तिक प्रभाव ही नहीं था। वह एक उत्कट मानवतावादी और गहन सामाजिक सरोकारों वाले व्यक्ति थे। उन्होंने जीवन पर्यन्त साम्राज्यवादी युद्धों, अंधराष्ट्रवाद और नस्लवाद-रंगभेदवाद का मुखर विरोध किया, बल्कि पूँजीवादी व्यवस्था के परभक्षी चरित्र, पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में अन्तर्निहित अराजकता और उससे बेरोजगारी, भुखमरी जैसी समस्याओं, विभीषिकाओं के अनिवार्यतः पैदा होने की प्रक्रिया की भी तीखी आलोचना प्रस्तुत की। नागरिक स्वतंत्रता, समानता और विश्व शांति के बारे में आइन्स्टीन की सोच बीसवीं शताब्दी के कमोबेश तीसरे दशक तक यूटोपियाई और अनुभववादी थी। चौथे दशक से लेकर पाँचवे दशक तक उनका सामाजिक चिन्तन इस दिशा में विकसित हुआ कि वह अंततः दुनिया की सारी समस्याओं की जड़ पूँजीवादी उत्पादन और विनिमय प्रणाली को मानने लगे थे और इसका एकमात्र एवं अनिवार्य विकल्प समाजवाद को मानने लगे थे, हालाँकि तब भी समाजवाद की उनकी अवधारणा इस मायने में यूटोपियाई ही थी कि वह समाजवाद की स्थापना के लिए वर्ग-संघर्ष के द्वारा पूँजीवादी राज्य सत्ता के ध्वंस की ऐतिहासिक अनिवार्यता के बारे में स्पष्ट नहीं थे, या कहा जा सकता है कि शंकालु थे। अपने इन वैचारिक अन्तरविरोधों के बावजूद आइन्स्टीन निस्सन्देह साम्राज्यवाद और पूँजीवाद के धुर विरोधी, पूरी दुनिया की आम जनता के हितों और न्याय- स्वतंत्रता-समानता के मूल्यों के निष्कपट पक्षधर थे। वह आजीवन फ़ासीवाद, नस्लवाद और हर प्रकार के सर्वसत्तावाद का विरोध करने वाले क्रान्तिकारी जनवादी और जुझारू मानवतावादी थे। हालाँकि वह एक सुसंगत मार्क्सवादी (द्वंद्वात्मक एवं ऐतिहासिक भौतिकवाद की समझ से लैस) नहीं थे, लेकिन एक अकुण्ठ भौतिकवादी थे और मनुष्य के भाग्य नियन्ता के रूप में किसी भी दैवी सत्ता के अस्तित्व को कदापि स्वीकार नहीं करते थे।
बहरहाल, आइन्स्टीन के सामाजिक सरोकारों की चर्चा से पहले उस सापेक्षिकता सिद्धान्त की संक्षिप्त परिचयात्मक चर्चा उचित होगी, जिसकी सौवीं वर्षगांठ पूरी दुनिया में ‘भौतिकी के वर्ष’ के रूप में मनाई जा रही है।
1905 में जब आइन्स्टीन के चार युगान्तरकारी शोधपत्र भौतिकी की अग्रणी जर्मन शोधपत्रिका ‘अनालेस डेर फ़िज़िक’ में प्रकाशित हुए, उस समय वह अकादमिक दुनिया से अलग बर्न स्थित स्विस पेटेण्ट ऑफ़िस में नौकरी कर रहे थे। जर्मनी में अपनी प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर लेने के बाद अनिवार्य सैनिक सेवा से बचने के लिए उन्होंने 1896 में अपनी जर्मन नागरिकता छोड़ दी थी। आगे की शिक्षा उन्होंने स्विट्जरलैण्ड में हासिल की और 1901 में वहाँ की नागरिकता भी ले ली थी। 1903 में शादी के बाद वह एक बच्ची के पिता भी बन चुके थे। दो वर्ष अस्थायी तौर पर अध्यापन का काम और फ़िर पेटेण्ट ऑफ़िस की नौकरी करते हुए आइन्स्टीन का महान मस्तिष्क लगातार विज्ञान के एक नए युग के उद्घोष की तैयारी में लगा हुआ था। 1905 में चार युगान्तरकारी शोधपत्रों के प्रकाशन के कुछ ही वर्षों बाद उस महान वर्ष को 1543 (जब कोपरनिकस की महान वैज्ञानिक कृति ‘दे रेवोल्यूशनिवस ऑर्बियम कोएलेस्टियम’ प्रकाशित हुई) और 1686 (जब न्यूटन ने अपनी कृति ‘प्रिंसिपिया’ पूरी की) के समकक्ष रखा जाने लगा। कॉपरनिकन क्रान्ति के बाद भी न्यूटोनियन भौतिकी में प्रकृति के मूलभूत नियमों और स्थूल इन्द्रियानुभूति के बीच जो सुकूनतलब रिश्ता अब तक मौजूद था वह सदा के लिए विलुप्त हो गया। आइन्स्टीन ने उस युग की शुरुआत कर दी थी, जब, जैसा कि वह स्वयं कहा करते थे, विज्ञान की मूलभूत अवधारणाएँ ‘‘प्रत्यक्ष अनुभव के दायरे से और अधिक दूर हट गई थीं।’’ इसका श्रेय भी मुख्यतः आइन्स्टीन को ही जाता है कि उनके द्वारा प्रवर्तित राह पर भौतिकी आज इतना आगे निकल आई है और इसके सीमान्त इतने अधिक विस्तारित हो गए हैं कि नए विद्यार्थियों के लिए ख़तरा इस बात का है कि प्रकृति की हमारी बुनियादी समझदारी में आइन्स्टीन द्वारा लाए गए असाधारण परिवर्तन को शायद वे समझ ही न सकें।
1905 में प्रकाशित शोधपत्रों की श्रृंखला में से पहले शोधपत्र में आइन्स्टीन ने प्रकाश के कणों या क्वाण्टमों या फ़ोटॉनों के बारे में नया सिद्धान्त प्रस्तुत किया। इसके पूर्व क्वाण्टम सिद्धान्त का मैक्स प्लांक द्वारा सूत्रपात हो चुका था। लेकिन सच पूछें तो आइन्स्टीन का यह शोधपत्र ही क्वाण्टम क्रान्ति का पहला तोप का धमाका था। इस शोधपत्र में आइन्स्टीन ने यह युक्तियुक्त परिकल्पना प्रस्तुत की कि प्रकाश पदार्थ के साथ अपनी अर्न्तक्रिया के दौरान अपनी फ्रीक्वेंसी के समानुपातिक ऊर्जा की एक सुनिश्चित मात्र या ‘क्वाण्टम’ से युक्त कण के समान व्यवहार करता है। अगले दो दशकों के दौरान प्रयोगों ने फ़ोटॉन की इस परिकल्पना को सही सिद्ध किया और इसके लिए आइन्स्टीन को 1921 में नोबेल पुरस्कार दिया गया। उसी वर्ष 18 जुलाई को प्रकाशित होने वाला आइन्स्टीन का दूसरा शोधपत्र ब्राउनियन गति की व्याख्या से सम्बन्धित था जिसने परमाणुओं की वास्तविक स्थिति को निर्णायक रूप से स्पष्ट करने के साथ ही ऐसी पद्धतियाँ विकसित कीं जो आज भी आधुनिक सांख्यिकीय भौतिकी के बुनियादी अवयव हैं।
सापेक्षिकता के विशेष सिद्धान्त से सम्बन्धित आइन्स्टीन के दो शोधपत्र क्रमशः सितम्बर और नवम्बर 1905 में ‘अन्नालेस डेर फ़िज़िक’ में प्रकाशित हुए। सापेक्षिकता सिद्धान्त ने दिक् (स्पेस) और काल के अन्तर्सम्बधों पर पुनर्विचार करते हुए उनके एकीकरण की क्रान्तिकारी अवधारणा निरूपित की। प्रकाशिकी और विद्युत गतिकी के विकास के फ़लस्वरूप निरपेक्ष काल, निरपेक्ष समक्षणिकता (साइमल्टेनिटी) और निरपेक्ष दिक् की अवधारणाओं का परित्याग कर दिया गया। विशेष सापेक्षिकता सिद्धान्त के अनुसार, काल का प्रवाह किसी प्रणाली की गति पर निर्भर करता है और काल के अन्तराल (और दिक् के आयाम भी) इस तरह से परिवर्तित होते हैं कि सम्ब) प्रणाली में प्रकाश का वेग प्रणाली की गति के अनुसार परिवर्तित नहीं होता। यानी प्रकाश का वेग, इसके उत्सर्जन के वेग से स्वतंत्र, हमेशा स्थिर या अचर होता है। इस पूर्वाधार पर बहुत बड़ी संख्या में वे युगान्तरकारी भौतिक निष्कर्ष निकाले गए, जिन्हें सामान्यतः ‘‘सापेक्षकीय’’ कहा जाता है। अपने चौथे शोधपत्र में प्रतिपादित आइन्स्टीन का यह निष्कर्ष सभी पूर्व धारणाओं को उलट-पुलट कर नाभिकीय भौतिकी की नई आधारशिला सिद्ध हुआ कि किसी पिण्ड का द्रव्यमान उसकी ऊर्जा का समानुपातिक होता है और इस समानुपातिकता का नियतांक प्रकाश की गति का वर्ग फ़ल होता है (म्त्रउब्2)।
दिक् और काल के एकीकरण की अवधारणा ने न्यूटोनियन यांत्रिकी को बीते युग की चीज़ बना दिया। 1915 में सापेक्षिता के विशेष सिद्धान्त का सामान्यीकरण करते हुए आइन्स्टीन ने सापेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त विकसित किया और न्यूटोनियन यांत्रिकी के युग का निर्णायक रूप से अवसान हो गया। क्लासिकीय भौतिकी से निर्णायक प्रस्थान का यह दूसरा चरण था। सापेक्षिकता का सामान्य सिद्धान्त गुरुत्वाकर्षण का एक नया सिद्धान्त प्रस्तुत करता है, जिसके अनुसार, द्रव्यमान को दिक्-काल की वक्रता के रूप में देखा जाता है। यानी सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त दिक्-काल की वक्रता और गुरुत्वाकर्षण की शक्तियों की क्रिया को एक मानता है। यह इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि चतुआर्यामी दिक्-काल सातत्य, जिसमें गुरुत्वाकर्षण की शक्तियाँ काम करती हैं, अयूक्लीडीय ज्यामिति के सहसम्बन्धों के अधीन होता है। आइन्स्टीन चतुआर्यामी दिक्-काल में ज्यामितीय सहसम्बन्धों के यूक्लीडीय सहसम्बन्धों से विचलन को ही दिक्-काल की वक्रता मानते थे और उसे ही द्रव्यमान के रूप में देखते थे। 1919 के सूर्यग्रहण अभियान से प्राप्त आँकड़ों ने आइन्स्टीन के इस सिद्धान्त की प्रायोगिक धरातल पर पुष्टि कर दी, जब यह पाया गया कि किसी सीधी रेखा के ‘प्रोटोटाइप’ के रूप में तारों से आती प्रकाश की किरणें सूर्य के निकट गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में मुड़कर वक्र हो जाती हैं।
यहाँ यह उल्लेख दिलचस्प और प्रासंगिक है कि सापेक्षिकता सिद्धान्त के दार्शनिक निष्कर्ष मार्क्स-एंगेल्स द्वारा निरूपित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की मूल स्थापनाओं की पुष्टि करते हैं और उन्हें समृद्ध बनाते हैं। यह सिद्धान्त दिक्-काल अन्तराल की एकिलत अवधारणा के माध्यम से दिक् और काल के बीच के अटूट सम्बन्धों को प्रदर्शित करता है। साथ ही, यह भौतिक गति और उसके अस्तित्व के दिक्-काल रूपों के बीच के अटूट सम्बन्धों को भी प्रदर्शित करता है। पदार्थ की गति की विशेषताओं (काल का ‘‘धीमा होना’’ और दिक् की ‘‘वक्रता’’) पर आश्रित दिक्-काल के गुणों की व्याख्या ने निरपेक्ष दिक् और काल के सम्बन्ध में क्लासिकीय भौतिकी की अवधारणाओं की संकीर्णता स्पष्ट कर दी और यह भी स्पष्ट कर दिया कि दिक्-काल की अवधारणाओं को गतिशील पदार्थ की अवधारणा से पृथक नहीं किया जा सकता। सापेक्षिकता सिद्धान्त क्लासिकीय यांत्रिकी का युक्तियुक्त सामान्यीकरण बन गया। उसने क्लासिकीय यांत्रिकी के सिद्धान्तों को प्रकाश के वेग के समीप पहुँचते वेगों से गतिमान पिण्डों के क्षेत्र तक विस्तारित कर दिया। यूँ कहें कि सापेक्षिकता सिद्धान्त क्लासिकीय यांत्रिकी की तुलना में यथार्थ का अधिक सटीक परावर्तन है।
पूँजीवादी दर्शन की प्रत्ययवादी या भाववादी (आइडियलिस्ट) और प्रत्यक्षवादी (पॉज़िटिविस्ट) धाराओं ने सापेक्षिकता सिद्धान्त की निष्पत्तियों को विकृत करते हुए इसे अपने इस दावे को पुष्ट करने के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश की कि विज्ञान का मूल चरित्र मनोगत (सब्जेक्टिव) होता है तथा भौतिक प्रक्रियाएँ प्रेक्षण पर निर्भर करती हैं। यथार्थ की निरपेक्षता की अस्वीकृति को उन्होंने यथार्थ के वस्तुगत चरित्र की अस्वीकृति में बदल दिया और इस तरह सापेक्षिकता सिद्धान्त को दार्शनिक सापेक्षवाद (रिलेटिविज़्म) के साथ उलझा दिया। इस मायने में आइन्स्टीन की अवस्थिति सुस्पष्ट भौतिकवादी थी। काण्ट के क्लासिकीय जर्मन प्रत्ययवाद में निहित अनुभवनिरपेक्षता के वह पहले से ही प्रखर आलोचक थे। प्रख्यात फ्रांसीसी गणितज्ञ प्वाइंकारे (जो 1905 में विशेष सापेक्षिकता सिद्धान्त की कुछ निष्पत्तियों तक स्वतंत्र रूप से आइन्स्टीन के साथ-साथ पहुँचे थे) और कुछ अन्य लोगों ने जब यह कहा कि वैज्ञानिक सत्य ‘‘सोपाधिक’’ (कण्डीशनल) होता है तो आइन्स्टीन ने उनका कड़ा विरोध किया और संसार के वस्तुगत तथा ज्ञेय होने में तथा प्रकृति की सभी क्रियाओं की कारणात्मक परस्पर निर्भरता में अपना दृढ़ विश्वास प्रकट किया। आस्ट्रियाई भौतिकवादी एवं अन्र्स्ट माख़ भी वस्तुओं को ‘‘संवेदनों का समुच्चय’’, संकल्पनाओं को ‘‘संवेदनाओं के समुच्चय’’ का प्रतीक और विज्ञान को प्राकल्पनाओं का योग मानता था और इसकी जगह प्रत्यक्ष पर्यावलोकन को स्थापित करने की बात करता था। माख़ के इस मनोगत प्रत्ययवाद और आलोचनात्मक अनुभववाद की सुसंगत आलोचना लेनिन ने अपनी कृति ‘भौतिकवाद तथा आलोचनात्मक अनुभववाद’ में प्रस्तुत की थी। आइन्स्टीन हालाँकि शुरू में माख़ से प्रभावित थे, लेकिन बाद में, माख़वाद को उन्होंने दृढ़तापूर्वक ठुकरा दिया और 1920 में माख़ को एक ‘‘घटिया दार्शनिक’’ कहा।
क्वाण्टम यांत्रिकी की प्रत्यक्षवादी व्याख्या (खासकर कोपेनहेगेन स्कूल के प्रवर्तक एवं अनुयाई वैज्ञानिकों द्वारा) का भी आइन्स्टीन ने पुरज़ोर विरोध किया और एक भौतिकवादी अवस्थिति अपनाई। लेकिन यह बहस न केवल वैज्ञानिक, बल्कि दार्शनिक स्तर पर भी एक जटिल बहस थी, जिससे जुड़े कई मूलभूत प्रश्नों का उत्तर तब आइन्स्टीन के पास भी नहीं था और उनकी तर्क-प्रणाली के अन्तरिम विन्यास में कई बातें अधूरी और ग़लत भी थीं। क्वाण्टम यांत्रिकी का विषय-केंद्र प्रकृति की सूक्ष्म परिघटनाओं का अध्ययन था। पूरी बीसवीं शताब्दी के दौरान क्वाण्टम सिद्धान्त के सही-सटीक होने के प्रमाण रोज़-बरोज़ मिलते रहे। आज क्वाण्टम यांत्रिकी ने न केवल भौतिकी, रसायन और जैविकी में परिघटनाओं की व्यापक परिधि का विज्ञान सम्मत स्पष्टीकरण सम्भव बना दिया है, बल्कि वह इंजीनियरिंग की एक शाखा भी बन गई है, लेकिन इस क्रान्तिकारी सिद्धान्त के दार्शनिक गूढ़ार्थों पर बहस-विवाद आज भी जारी हैं। कहा जा सकता है कि क्वाण्टम यांत्रिकी ने सूक्ष्म जगत की गति के जिन रूपों से परिचय कराया, उसका लाभ उठाकर अभूतपूर्व वैज्ञानिक-तकनीकी प्रगति हासिल कर लेने में तो सफ़लता मिल गई, लेकिन उस गति की बुनियादी नियम संगति को आज भी बहुत थोड़े अंश में ही समझा जा सका है।
क्वाण्टम यांत्रिकी के अनुसार किसी घटना या परिणाम की सटीक भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, बल्कि केवल उसकी प्रायिकता (प्रोबेबिलिटी) बताई जा सकती है। इस स्थापना की भौतिकवादी व्याख्या वैज्ञानिक सत्य के अवगाहन की प्रक्रिया के और अधिक द्वंद्वात्मक हो जाने के रूप में की जाती है, जहाँ पर्यवेक्षण के सूक्ष्म स्तर पर निश्चितता और अनिश्चितता का द्वंद्व (घटना या परिणाम की प्रायिकता के रूप में) मौजूद रहता है, लेकिन इस बात को भी लगातार ध्यान में रखना होगा कि पर्यवेक्षण स्वयं ज्यादा से ज्यादा सूक्ष्म धरातल पर उतरता जाता है। यानी क्वाण्टम यांत्रिकी यांत्रिक निर्धारणवाद का खण्डन करता है, न कि कारण-कार्य सम्बन्ध या कारणिक निर्धारणवाद (कॉज़ल डेटरमिनिज़्म) का। क्वाण्टम यांत्रिकी के अनुसार, अन्योन्य क्रिया करने वाली वस्तुओं की प्रणाली में सक्रिय हस्तक्षेप के बिना अनुसन्धानकर्ता को उसका पर्याप्त ज्ञान नहीं हो सकता। कोपेनहेगेनपंथ के वैज्ञानिकों ने इस स्थापना की प्रत्यक्षवादी व्याख्या की। उन्होंने सूक्ष्म जगत के यथार्थ को केवल संज्ञान और मापन की प्रक्रिया का प्रतिफ़ल बताया, ‘‘पर्यवेक्षक’’ की भूमिका की गलत व्याख्या की तथा ‘‘कारणता के धराशायी होने’’ और ‘‘इलेक्ट्रॉन की स्वतंत्र इच्छा’’ जैसे दावों तक जा पहुँचे। इस संदर्भ में भौतिकवादी अवस्थिति यह है कि क्वाण्टम यांत्रिकी की यह स्थापना विषय (ऑब्जेक्ट) और विषयी (सब्जेक्ट) के बीच, वस्तुगत पहलू और मनोगत पहलू के बीच, पहले के प्राथमिक और दूसरे के द्वितीयक होने के सिद्धान्त का खण्डन नहीं करती, बल्कि इनके अन्तर्सम्बन्धों की घनिष्ठता एवं संश्लिष्टता को और अधिक बारीकी के साथ उजागर करती है। क्वाण्टम यांत्रिकी सहित सम्पूर्ण भौतिकी के उत्तरवर्ती विकास ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते यह सिद्ध कर दिया कि अभी भी ‘‘भौतिकी की आधारभूत भौतिकवादी भावना’’ (व्ला. ई. लेनिन: ‘भौतिकवाद और अनुभववादी आलोचना’) का पलड़ा ही भारी है। लेकिन आइन्स्टीन के समय स्थिति ऐसी नहीं थी। चूँकि आइन्स्टीन एक सुसंगत द्वंद्वात्मक भौतिकवादी दार्शनिक नहीं थे और चूँकि क्वाण्टम यांत्रिकी अभी प्रायोगिक सत्यापन के प्रारम्भिक स्तर पर थी, इसलिए आइन्स्टीन क्वाण्टम यांत्रिकी की प्रत्यक्षवादी व्याख्याओं का विरोध करते हुए इस अतिवादी निष्कर्ष तक जा पहुँचे कि क्वाण्टम यांत्रिकी के सिद्धान्त विसंगतियों से भरे हुए हैं। धीरे-धीरे वह इस धारणा से तो मुक्त हुए लेकिन इतना वह अंत तक मानते रहे कि यह एक अधूरा सिद्धान्त है और एक मायने में अपने पूर्वाग्रहों के बावजूद, उनकी यह धारणा सही भी कही जा सकती है।
1926 तक क्वाण्टम सिद्धान्त और सापेक्षिकता का विशेष सिद्धान्त अपने अलग-अलग प्रायोगिक सत्यापनों के बावजूद एक-दूसरे से सामंजस्य नहीं रखते थे। उस समय की क्वाण्टम यांत्रिकी परमाणु स्तर की जिन परिघटनाओं की व्याख्या कर रही थी, उनमें सूक्ष्म कणों की गति प्रकाश की गति से बहुत धीमी थी और इसलिए उनकी व्याख्या और उनसे जुड़े प्रयोगों के लिए दिक्-काल की क्लासिकी अवधारणा काफ़ी थी। लेकिन कण-भौतिकी (पार्टिकल फ़िज़िक्स) के उद्भव और विकास के साथ ही सूक्ष्म जगत के अधिक ऊर्जावान रूपों से-प्रायः प्रकाश की गति के निकट की गति वाले सूक्ष्म कणों से वास्ता पड़ा तो गैर-सापेक्षिक क्वाण्टम यांत्रिकी की सीमाएँ सामने आ गईं। इस समस्या के समाधान के लिए विशेष सापेक्षिकता सिद्धान्त के साथ क्वाण्टम यांत्रिकी के मेल के प्रयास 1928 में पॉल डिराक द्वारा एक ‘क्वाण्टम फ़ील्ड थियरी’ के रूप में सापेक्षिक क्वाण्टम यांत्रिकी विकसित करने के साथ शुरू हुए, जिन्हें 1949 में रिचर्ड फ़ाइनमैन, जूलियन श्विंगर और सिन इतिरो टोमोनागा के प्रयोगों ने तार्किक परिणति तक पहुँचाया।
लेकिन आइन्स्टीन के सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त के साथ क्वाण्टम यांत्रिकी का मेल करा पाना अभी आज तक सम्भव नहीं हो पाया है। चूँकि सामान्य सापेक्षिकता सिद्धान्त द्वारा प्रस्तुत गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त ही आज का प्रमाणित गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त है, अतः कहा जा सकता है कि अभी तक गुरुत्वाकर्षण का क्वाण्टम सिद्धान्त मौजूद नहीं है। यही आज की सैद्धान्तिक भौतिकी का केन्द्रीय एजेण्डा है। चूँकि इस सिद्धान्त के खोज लिए जाने के बाद प्रकृति के चार मूल बलों के एकीकरण का क्वाण्टम सिद्धान्त पूरा हो जाएगा, इसीलिए वैज्ञानिक इसे ‘‘सबकुछ का सिद्धान्त’’ (थियरी ऑफ़ एवरीथिंग) का नाम दे रहे हैं। क्वाण्टम यांत्रिकी के प्रति अपनी आशंकाओं-पूर्वाग्रहों के चलते आइन्स्टीन प्रिंसटन के उच्च अध्ययन संस्थान में काम करते हुए, गत शताब्दी के चौथे-पाँचवे दशक के दौरान भौतिकी की मुख्य धारा में काफ़ी हद तक अलग-थलग पड़ गए थे। गुरुत्वाकर्षण और विद्युत चुम्बकत्व के एकीकृत सिद्धान्त की खोज के उनके प्रयास तब सफ़ल नहीं हो सके थे, लेकिन यह उन्हीं का व्यापकतर विज़न था, जिसने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से लेकर अब तक की सैद्धान्तिक भौतिकी का एजेण्डा-सभी मूल बलों के एकीकरण के सिद्धान्त की खोज के रूप में तय किया है। निश्चित ही अपनी असफ़लताओं में भी आइन्स्टीन उतने ही महान थे।
आइन्स्टीन जीवन भर अविराम वैज्ञानिक शोध-कार्य में रत रहे। उन्होंने तीन सौ से भी अधिक शोध-निबन्ध लिखे, जो अपने आप में एक कीर्तिमान है। साथ ही दार्शनिक विषयों में भी उनकी रुचि उसी समय से थी, जब बारह वर्ष की उम्र में उनके पारिवारिक मित्र मैक्स तालमुद ने, जो एक दार्शनिक और गणितज्ञ थे, इम्मैनुअल काण्ट की कृति ‘विशुद्ध तर्कणा की समालोचना’ से उनका परिचय कराया था। प्राकृतिक परिघटनाओं के अध्ययन ने आइन्स्टीन की विश्व दृष्टि को क्रमशः ज्यादा से ज्यादा सुसंगत भौतिकवादी बनाने का काम किया था, लेकिन चूँकि सामाजिक अध्ययन और प्रयोग उनका मुख्य क्षेत्र नहीं था, इसलिए वह अपनी विश्व दृष्टि को राजनीतिक-सामाजिक क्षेत्र में सुसंगत ढंग से लागू नहीं कर सके और समाजवाद तथा तत्कालीन सोवियत संघ के अन्तर्गत जनवाद और नौकरशाही के विशेषधिकारों को लेकर वह सदैव शंकालु रहे। लेकिन आनुभविक स्तर पर वह अंधराष्ट्रवाद, सैन्यवाद, फ़ासीवाद, साम्राज्यवादी युद्ध और हर तरह के नस्लवादी- रंगभेदवादी उत्पीड़न का जीवन पर्यन्त जमकर विरोध करते रहे और मानवाधिकार एवं नागरिक स्वतंत्रता के पक्ष में लगातार दृढ़तापूर्वक आवाज़ बुलन्द करते रहे। उनका मानना था कि जब तक राष्ट्रों की सम्प्रभु सत्ताएँ बनी रहेंगी, तब तक दुनिया में युद्ध लाज़िमी तौर पर होते रहेंगे, इसलिए विश्व शान्ति और निश्शस्त्रीकरण के लिए उन्होंने एक विश्व सरकार की स्थापना का यूटोपियाई विकल्प प्रस्तुत किया और इसके लिए प्रयास भी किए, जिन्हें लाज़िमी तौर पर असफ़ल होना ही था। अपने जीवन के अन्तिम दशक में उनके विचारों में महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे थे। मंदी, बेरोजगारी, भुखमरी, असमानता और युद्धों के साथ-साथ समाज में बढ़ते अलगाव का मूलभूत कारण वह पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय प्रणाली की अराजकता में तथा मुनाफ़े की गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में देखने लगे थे तथा यह मानने लगे थे कि इसका एकमात्र विकल्प समाजवाद ही है। अपनी इन प्रस्थापनाओं को उन्होंने 1949 में ‘समाजवाद ही क्यों?’ नामक प्रसिद्ध लेख में प्रस्तुत किया जो पॉल स्वीज़ी द्वारा निकाली जाने वाली मार्क्सवादी पत्रिका, ‘मंथली रिव्यू’ के प्रवेशांक में प्रकाशित हुआ था। इससे भी पहले 1935-36 में ‘विज्ञान और समाज़’ शीर्षक से अपने निबन्ध में उन्होंने लिखा था कि पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्थाओं के अन्तर्गत हर प्रौद्योगिक विकास अनिवार्यतः बेरोजगारी और आवर्ती संकटों को जन्म देता है तथा आधुनिक शस्त्र और संचार के साधन मिलकर शरीर और आत्मा को एक केन्द्रीय सत्ता का बन्धुआ बना देते हैं।
आइन्स्टीन केवल प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों के प्राणी नहीं थे। कई शताब्दियों में पैदा होने वाला एक चिंतक-वैज्ञानिक होने के बावजूद वह रोज़मर्रे के सामाजिक-राजनीतिक जीवन की समस्याओं से गहरा सरोकार रखते थे। किताबी कीड़ों और अपने आविष्कारों की परिणतियों से असम्पृक्त वैज्ञानिकों की जमातों के वह कटु आलोचक थे। न्याय के पक्ष में जारी संघर्ष में वह उस समय से ही भागीदारी करते रहे, जब वह एक वैज्ञानिक के रूप में अपना जीवन शुरू कर रहे थे और गहनतम शोध के दौर से गुज़र रहे थे।
उनके जर्मनी छोड़कर स्विस नागरिक बनने के पीछे भी मूल कारण जर्मन सैन्यवाद का विरोध था। 1917 में उन्होंने जिस समय जर्मन सैन्यवाद के विरुद्ध जर्मन बुद्धिजीवियों के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया, उस समय वह वहाँ के ‘कैसर विल्हेल्म सैद्धान्तिक भौतिकी संस्थान’ के निदेशक थे। पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी की भूमिका का मुखर विरोध करने के कारण बर्लिन पुलिस ने उनका नाम काली सूची में डाल रखा था। वह उन चार वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने युद्ध के विरुद्ध तथा युद्धों के उन्मूलन के लिए एक एकीकृत यूरोप की स्थापना के लिए जारी ‘यूरोपीय लोगों के घोषणापत्र’ पर हस्ताक्षर किया था। इसी उद्देश्य से गठित ‘न्यू फ़ादरलैण्ड लीग़’ की भी आइन्स्टीन ने सदस्यता ली थी। उन्होंने युद्ध की समाप्ति और जर्मनी में गणतंत्र की स्थापना का स्वागत किया और छात्रों की एक सभा में भाषण दिया, जिसके बाद, कम्युनिस्टों से मतभेदों के बावजूद, जर्मन पुलिस उन्हें रैडिकल समाजवादी मानने लगी थी।
1919 में विश्वयुद्ध में जर्मनी की पराजय और जर्मन मजदूर आंदोलन के निर्मम दमन एवं बिखराव के बाद वहाँ फ़ासीवाद के विकास की प्रक्रिया शुरू हुई, जो 1933 में हिटलर के सत्तासीन होने के बाद अपनी पराकाष्ठा पर जा पहुँची। आइन्स्टीन इस दौरान फ़ासीवाद के युद्धोन्माद और नागरिक दमन का विरोध करते हुए लगातार शान्तिवाद और युद्धों की समाप्ति के लिए एक विश्व सरकार के पक्ष में प्रचार करते रहे। हालाँकि उनके द्वारा प्रस्तुत समाधान समस्या की जड़ साम्राज्यवाद और पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली में न देख पाने के कारण अव्यावहारिक और काल्पनिक ही था, लेकिन फ़िर भी नात्सी सत्ता उन्हें वामपंथी और ‘‘यहूदी देशद्रोही’’ मानकर उनपर कड़ी नजर रखने लगी। उनके सिद्धान्तों को ‘‘बोल्शेविक षड़यंत्र’’ कहा जाने लगा। 1939 में, यहूदी आबादी के व्यापक दमन की चपेट में ख्यातिलब्ध बुद्धिजीवी भी आने लगे थे। आइन्स्टीन (दुबारा) जर्मन नागरिकता छोड़कर 1933 से ही अमेरिका के प्रिंसटन स्थित उच्च अध्ययन संस्थ्शान में काम कर रहे थे। 1939 में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता ले ली। लेकिन वहाँ भी उनका दम घुटने लगा। उन्होंने देखा कि किस तरह अमेरिका ने स्पेन में गणतंत्रवादी शक्तियों को कुचलने में मदद की, फ़ासीवादी फ्रांको का समर्थन किया और सोवियत संघ के विरुद्ध षड़यंत्र किए। स्वयं अमेरिका के भीतर अश्वेत और लातिनी मूल के मज़दूरों व आम आदमी का दमन भी वहाँ के बुर्जुआ जनवाद की असलियत उघाड़ रहा था और आइन्स्टीन उसके विरुद्ध भी खुलकर आवाज़ उठा रहे थे। लेकिन चूँकि वह फ़ासीवाद को पूरी दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा मान रहे थे और जर्मनी द्वारा परमाणु बम के विकास का उन्हें अंदाजा हो गया था इसलिए परमाणु बम विकास परियोजना के पक्ष में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट को एक पत्र लिखा। आइन्स्टीन इस बम को सिर्फ़ शक्ति सन्तुलन का एक साधन मानते थे, लेकिन फ़ासीवादी धुरी की पराजय आसन्न होने के बावजूद, पूरी दुनिया पर चौधराहट जमाने की नीयत से अमेरिका द्वारा हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिराए जाने की घटना से आइन्स्टीन एकदम विचलित हो गए। विश्व शान्ति की मुहिम में वह और भी अधिक जोर-शोर से सक्रिय हो गए, लेकिन साम्राज्यवाद के चरित्र के ज्यादा से ज्यादा नंगा होते जाने के साथ ही उनकी चिन्तन-प्रक्रिया में अब महत्वपूर्ण बदलाव आ रहे थे और युद्धों तथा तमाम मानवीय आपदाओं की जड़ अब वह पूँजीवादी प्रणाली में देखने लगे थे। हालाँकि सोवियत संघ के बारे में उनकी शंकाएँ थीं और समाजवादी संक्रमण की प्रकृति एवं समस्याओं का अध्ययन नहीं होने के कारण वह समाजवाद के अन्तर्गत नौकरशाही के निरंकुश अधिकार सम्पन्न होने के बारे में चिन्तित रहते थे, फ़िर भी पाँचवे दशक के उत्तरार्द्ध तक वह मानने लगे थे कि पूँजीवाद का एकमात्र तार्किक और सम्भव विकल्प समाजवाद ही है।
यह शीतयुद्ध का दौर था जब अमेरिका कम्युनिज़्म-विरोध के कुख्यात मैकार्थीवादी उन्माद की गिरफ़्त में था। तमाम ख्यातिलब्ध बुद्धिजीवियों तक को वामपंथी होने के आरोप में गिरफ़्तार किया जा रहा था, तरह-तरह से प्रताड़ित किया जा रहा था और गायब तक करवा दिया जा रहा था। आइन्स्टीन पर भी निगाह थी, लेकिन वह निर्भीकतापूर्वक वामपंथियों के दमन के विरुद्ध तथा अश्वेतों और आम आबादी के नागरिक आज़ादी के लिए आवाज़ उठा रहे थे और अमेरिकी आक्रामक सैन्यवाद की निन्दा भी कर रहे थे। जूलियस और इथेल रोज़ेनबर्ग नामक वैज्ञानिक दम्पति को वामपंथी होने के कारण जब सोवियत जासूस बता कर फ़ाँसी की सज़ा दी गई तो आइन्स्टीन ने इसका जमकर विरोध किया था। उन्होंने तमाम बुद्धिजीवियों का आह्वान किया कि वे मैकार्थी की ‘आन्तरिक सुरक्षा समिति’ के सामने गवाही देने के लिए न जाएँ। आइन्स्टीन फ़ासीवाद और विश्वयुद्ध के दौर में यहूदियों के अभूतपूर्व नरसंहारों से अन्दर तक विचलित थे और इज़राइल में एक यहूदी होमलैण्ड के निर्माण के प्रबल समर्थक थे, लेकिन वह एक अविभाजित फ़िलिस्तीन में अरबों-यहूदियों के सहअस्तित्व के समर्थक थे और इसकी विफलता के पीछे साम्राज्यवादियों की ‘बाँटो और राज करो’ की नीति को मुख्य कारण मानते थे।
अप्रैल, 1955 में अपनी मृत्यु के समय तक आइन्स्टीन अमेरिकी सरकार और साम्राज्यवादियों के लिए अपने विचारों के चलते लगातार परेशानी का सबब बने रहे। अपनी विश्वव्यापी प्रसिद्धि और लोकप्रियता के चलते ही शायद वह जेल और यंत्रणा से बचे रह सके। यह वर्ष सापेक्षिकता सिद्धान्त का शताब्दी वर्ष होने के साथ ही आइन्स्टीन का पचासवाँ पुण्य तिथि वर्ष भी है। उनका जीवन हमें लगातार अपने सिद्धान्तों पर दृढ़ रह कर निर्भीक आचरण करने और अपने बौद्धिक कार्यों को लगातार सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की शिक्षा देता है।
आखिर क्या कारण था जो आइन्स्टीन को लगातार धारा के विरुद्ध खड़े होकर और अधिकारी-सत्ताधारी जमातों के बीच अलोकप्रिय बनकर भी अपनी मान्यताओं पर डटे रहने और निर्भीकतापूर्वक न्याय और जनता के पक्ष में आवाज़ उठाते रहने के लिए प्रेरित करता था? शायद उनकी वैज्ञानिक स्पिरिट का मानवीय दायरों तक विस्तार ही वह मूल कारण था, जैसा कि बीसवीं शताब्दी में विज्ञान के अन्य शिखिर पुरुष नील्स बोर ने उनके निधन पर श्रद्धांजलि देते हुए कहा था: ‘‘आइन्स्टीन के अवदान केवल विज्ञान के दायरे तक ही सीमित नहीं हैं। हमारे सबसे बुनियादी और अभ्यस्त अभिधारणाओं तक में से अब तक अदृष्ट अभिधारणाओं को देख लेने की उनकी प्रवृत्ति सभी लोगों को प्रत्येक राष्ट्रीय संस्कृति में अन्तर्निहित, गहराई से जड़ जमाए पूर्वाग्रहों और आत्म सन्तुष्टियों की शिनाख़्त करने और उनके विरुद्ध संघर्ष करने के लिए एक नया प्रोत्साहन देती है।’’ आज भारत के युवाओं को भी इस नए प्रोत्साहन की सख़्त ज़रूरत है और शायद सबसे अधिक ज़रूरत है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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