‘सर! आप क्या बेच सकते हैं?’
गीतिका, इलाहाबाद
‘क्या उस मंज़िल तक पहुँचूँगी कभी…’ उधर सानिया मिर्ज़ा ने शुरुआती सफ़लता के कदम रखे, इधर उनके विज्ञापनों की भीड़ लग गयी। मंज़िल यह थी कि वे ‘ब्राण्ड एम्बेसडर’ बनीं, एक ऐसी कम्पनी की जिसकी विश्व में मात्र दो या तीन नामी-गिरामी टेनिस स्टार ब्राण्ड एम्बेसडर हैं।
बिग बी का जो हाल है ‘सर्वत्र विद्यमान’। बीच की उनकी कुछ घटिया फ़िल्मों से खोयी छवि जब उन्हें केबीसी के ज़रिये पुनः हासिल हुई, तब से अभी तक आप कोई भी चैनल पलटिये, बच्चन जी कुछ बेचते हुए नज़र आएँगे।
शायद कुछ लोगों को यह बात सामान्य-सी लगे। अरे विज्ञापन में काम करके कुछ प्रतिभावान लोग पैसा कमा रहे हैं तो उसमें गलत ही क्या है? लेकिन क्या प्रतिभाओं की महत्ता इसी में है कि हम उसे चीज़ों को बेचने में इस्तेमाल करें?
सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट में जो कीर्तिमान स्थापित किये सो किये, विज्ञापनों के भी कीर्तिमान स्थापित कर दिये हैं और आज के नये खिलाड़ियों में इरफ़ान पठान, वीरेन्द्र सहवाग और भज्जी भी उनके नक़्शे-कदम पर चल रहे हैं।
कोई कुछ भी अच्छा करे, तो कुछ न कुछ बेचने में काम आएगा और ऐसा हो भी क्यों न, यह व्यवस्था ही तो बेचने-खरीदने पर टिकी हुई है।
अभी कुछ दिनों पहले टी.वी. के एक कार्यक्रम इण्डियन आइडल ने काफ़ी लोकप्रियता हासिल की। किस तरह वह मार्केट से जुड़ा है, वह तब दिखता है जब इस कार्यक्रम की एंकर एक प्रतियोगी से विज्ञापन का स्लोगन बोलने को कहती है और बाद में उसकी तारीफ़ करती है कि ‘काम इन्ही लोगों से कराना चाहिये!’ मतलब उसके अच्छा गा लेने तक तो ठीक था, पर वह तब हमारे लिए और अच्छा है जब वह विज्ञापन का स्लोगन अच्छे ढंग से बोल सके। क्या पता आगे वो गाना गाने का हुनर ही भूल जाये और बस विज्ञापनों के जिंगल ही याद रखे।
पूँजीवादी युग में आपकी उपयोगिता में चार–चाँद लग जाते हैं, अगर आप कुछ बेच सकें। चाहें अच्छे गायक होने के चलते, चाहे अच्छे एक्टर होने के चलते; और अगर आप खिलाड़ी हैं तब तो कहने ही क्या! बस आप अच्छा खेलते रहिये और बेचते रहिये।
सिर्फ़ विज्ञापनों की बात नहीं है, मार्केट वैल्यू का प्रकोप हर जगह व्याप्त है–खबरों में भी और फ़िल्मों में भी! आजकल पत्रकारिता का प्रशिक्षण भी इसी रूप में दिया जाता है कि तुम्हारी रिपोर्ट या लेख इस तरह का हो जो बाज़ार में बिके। उसी हिसाब से तुम्हारी मार्केट वैल्यू होगी। नतीजतन फ़ूहड़ खबरों को मिर्च-मसालों के साथ परोसा जाता है और उसमें अधिक सतहीपन और संवेदनहीनता होती है। सच्चाई और गम्भीरता से आज के अखबारों का दूर-दूर का नाता नहीं है। यही हाल फ़िल्मों का है ‘सार्थक सिनेमा’ की बात पुरानी पड़ चुकी है। फ़िल्में समाज में इंसानियत के मूल्यों को बढ़ावा दें, यह बात अब बड़ी बेतुकी सी लगती है। फ़िल्म बनाने वाले का एक ही मकसद है–लागत से अधिक वसूली। उसके लिए वो कोई भी घटिया से घटिया पब्लिसिटी स्टण्ट अपना सकता है, उसे कहानी या थीम की कोई ज़रूरत नहीं।
आज के सतही समाज में गुणवत्ता नहीं ‘मोल’ प्राथमिक है। यह पूँजीवादी समाज की नियति है कि उसने हर इंसानी प्रतिभा को बिकाऊ बना दिया हैं। यहाँ तक कि इंसान को भी बिकाऊ बना दिया है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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