छात्र-नौजवान नयी शुरुआत कहाँ से करें? 

सम्‍पादक

जो नौजवान इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को मानव इतिहास की आख़िरी मंज़िल – ‘इतिहास का अन्त’ – नहीं मानते, जिन्होंने प्रतिक्रिया की आततायी शक्तियों की वर्तमान विजय को अपनी नियति के रूप में स्वीकार नहीं किया है, जिनके पास अतीत के क्रान्तिकारी संघर्षों की स्मृतियों की विरासत है, वे निश्चय ही भविष्य-स्वप्नों को मुक्ति की नयी परियोजनाओं में ढालने के लिए आगे आयेंगे। एक नये विश्व-ऐतिहासिक महासमर की तैयारी में ऐसे ही नौजवान अगली क़तारों में होंगे।

जहाँ बज रही है भविष्य-सिम्फ़नी

जहाँ स्वप्न खोजी यात्राएँ कर रहे हैं

जहाँ ढाली जा रही हैं आगत की साहसी परियोजनाएँ,

स्मृतियाँ जहाँ ईंधन हैं,

लुहार की भाथी के कलेजे में भरी

बेचैन गर्म हवा जहाँ ज़िन्दगी को रफ़्तार दे रही है,

वहाँ तुम्हें होना है

अगर तुम युवा हो!

 (शशि प्रकाश)

zwartऐसे सभी बहादुर, स्वाभिमानी, स्वप्नद्रष्टा और संवेदनशील युवाओं को विचारसम्पन्न बनने – क्रान्ति के विज्ञान को समझने – की प्रक्रिया में सबसे पहले इतिहास की एक बुनियादी शिक्षा को आत्मसात करना होगा और वह यह है कि केवल शौर्य और शहादत के जज़्बे के सहारे थोड़े-से नौजवान क्रान्ति को अंजाम नहीं दे सकते। किसी देश के नौजवानों की बहुसंख्या भी यदि विद्रोह के लिए उठ खड़ी हो तो क्रान्ति का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता। आनन–फ़ानन में क्रान्ति कर डालने का रूमानी ख़याल बेचैन, विद्रोही युवा दिलों को प्रायः आकर्षित करता है और प्रायः युवा आन्दोलन को दुस्साहसवाद के आत्मघाती दलदल में ले जाकर धँसा देता है। अच्छी नीयत और पवित्र भावनाओं के बावजूद यह दुस्साहसवाद भी क्रान्ति के लिए वैसा ही घातक होता है, जैसा रियायतों के चीथड़ों की भीख माँगने वाला सुधारवाद। एक सच्ची क्रान्ति हर–हमेशा जनक्रान्ति हुआ करती है। बहुसंख्यक मेहनतकश जनता की संगठित शक्ति ही क्रान्तियों को अंजाम दे सकती है। पूँजी की सत्ता की सुरक्षा में सन्नद्ध मारक से मारक शस्त्रों से लैस सामरिक शक्ति को वह प्रचण्ड वेगवाही तूफ़ान की तरह तबाह कर देती है। इतिहास का निर्माण नायक नहीं, बल्कि वह आम जनता करती है जो समस्त सामाजिक सम्पदा और संस्कृति की निर्मात्री होती है। इस बुनियादी सूत्र को कभी भुला नहीं दिया जाना चाहिए। नायक जन्मना नहीं होते। संघर्ष और निर्माण की अनवरत प्रक्रिया में जनता के बीच से जो हरावल शक्तियाँ उभरकर आगे आती हैं, वही नायक की भूमिका निभाती हैं और उनमें से कुछ लोग मानो क्रान्ति का प्रतीक-चिन्ह बन जाते हैं।

शहीद क्रान्तिकारी विचारक भगतसिंह ने भी अपने समय तक के भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास और अपनी पीढ़ी के अनुभवों से यही निष्कर्ष निकाला था कि थोड़े-से क्रान्तिकारी युवा जनता को जागृत और संगठित किये बिना स्वयं हथियार उठाकर क्रान्ति को सफ़ल नहीं बना सकते। निस्सन्देह, समाज- व्यवस्था-परिवर्तन में बल की भूमिका धाय की होती है, बल-प्रयोग के बिना किसी राज्यसत्ता को चकनाचूर नहीं किया जा सकता। लेकिन ऐसा बल-प्रयोग केवल जागृत-संगठित जनशक्ति ही कर सकती है। उस जनशक्ति को जागृत-संगठित करने के लिए समाज के जागरूक, अग्रणी तत्व जनता के बीच जाते हैं, उसके बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई चलाते हैं और रोज़मर्रा की छोटी-छोटी माँगों को लेकर उन्हें संगठित होकर संघर्ष करना सिखलाते हैं। और इससे भी पहले, इस प्रक्रिया में वे स्वयं समाज का अध्ययन करते हैं, अपनी समझ को परखते और पुख़्ता बनाते हैं; उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे को समझते हुए जनता को शोषण एवं दमन के बुनियादी कारणों एवं तौर–तरीक़ों से परिचित कराते हैं, उसके सामने एक न्यायपूर्ण और समतापूर्ण वैकल्पिक सामाजिक ढाँचे की विश्वसनीय एवं व्यावहारिक तस्वीर पेश करते हैं और फ़िर उसके लिए संघर्ष के वास्ते जनसमुदाय को संगठित करते हैं। इस पृष्ठभूमि में उस महान सन्देश की प्रासंगिकता सहज ही समझी जा सकती है, जो पचहत्तर वर्ष पहले फ़ाँसी की कालकोठरी से भगतसिंह ने इस देश के नौजवानों को भेजा था:

“नौजवानों को क्रान्ति का यह सन्देश देश के कोने-कोने में पहुँचाना है, फ़ैक्ट्री-कारख़ानों के क्षेत्रों में, गन्दी बस्तियों और गाँवों की जर्जर झोंपड़ियों में रहने वाले करोड़ों लोगों में इस क्रान्ति की अलख जगानी है जिससे आज़ादी आयेगी और तब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण असम्भव हो जायेगा।”

कोई पूछ सकता है कि यह ज़िम्मेदारी नौजवानों के ही कन्धों पर क्यों? इसका सटीक उत्तर चीनी क्रान्ति के महान नेता माओ त्से-तुङ ने काफ़ी पहले इन शब्दों में दे दिया था: “नौजवान लोग समाज की सबसे अधिक सक्रिय और सबसे अधिक प्राणवान शक्ति होते हैं। उनमें सीखने की सबसे तीव्र इच्छा होती है तथा उनके विचारों में रूढ़िवाद का प्रभाव सबसे कम होता है।” छात्रों से बातचीत करते हुए एक बार उन्होंने कहा था: “यह दुनिया तुम्हारी है, यह हमारी भी है, लेकिन अन्ततोगत्वा यह तुम्हारी ही होगी। तुम नौजवान लोग ओजस्विता और जीवन–शक्ति से भरपूर, सुबह आठ या नौ बजे के सूरज की तरह अपनी ज़िन्दगी की पुरबहार मंज़िल में हो। हमारी आशाएँ तुम पर लगी हुई हैं।“

व्यापक मेहनतकश जनता दो जून की रोटी और बुनियादी ज़रूरतों के लिए दिन-रात हाड़तोड़ मेहनत करती हुई उजरती ग़ुलामी की चक्की में पिसती रहती है। सभ्यता-संस्कृति की विरासत और इतिहास के ज्ञान से वंचित करके, उससे इंसानी ज़िन्दगी की न्यूनतम शर्तें तक छीन ली जाती हैं। हालात से विद्रोह करके उनकी चेतना सामाजिक क्रान्ति की दिशा में बार-बार आगे बढ़ती है, लेकिन समाज और इतिहास के अध्ययन तथा क्रान्ति के विज्ञान की समझ के बिना क्रान्ति को संगठित नहीं किया जा सकता। ऐसे में क्रान्तिकारी परिवर्तन के स्वरूप, तरीक़े और राह से उन्हें परिचित कराने का दायित्व उन थोड़े से शिक्षित युवाओं के कन्धों पर ही होता है जो ज्ञान और संस्कृति की विरासत से लैस होते हैं और सभ्यता-समीक्षा में सक्षम होते हैं। निश्चित ही वे शिक्षित युवा इस काम को अंजाम नहीं दे सकते, जो मुँह में चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं और जिनका “स्वर्ग” इसी व्यवस्था में सुरक्षित है। परजीवी शोषक जमातों से अपवादस्वरूप ही ऐसे साहसी युवा आयेंगे, जो अपने वर्ग से ख़ुद को तोड़कर उत्पीड़ित जनता की मुक्ति-परियोजना से जुड़ेंगे। यह दायित्व हर हाल में आम जनता के बहादुर, विवेकवान सपूतों का ही होगा।

ऐसे क्रान्तिकारी भावनाओं-विचारों वाले युवक आम जनता के बीच क्रान्ति का सन्देश महज़ प्रचारक या उपदेशक के रूप में लेकर नहीं जायेंगे। जनता का हरावल बनने के लिए उन्हें ‘जनता का आदमी’ बनना होगा, उसके जीवन और संघर्षों से एकरूप हो जाना होगा, उसे सिखाने के पहले उससे सीखना होगा। क्रान्ति के बारे में सिर्फ़ किताबी जानकारी के बूते वे अमली कार्रवाइयों में सक्षम नहीं हो सकते। सिर्फ़ ज्ञान–जगत में प्रतिबिम्बित जीवन से ही नहीं, बल्कि उन्हें सीधे जीवन से भी सीखना होगा। तभी वे वास्तव में क्रान्तिकारी युवा बन सकेंगे। ‘नौजवान आन्दोलन की दिशा’ नामक अपने प्रसिद्ध लेख में माओ त्से-तुङ ने लिखा है: “कोई नौजवान क्रान्तिकारी है अथवा नहीं, यह जानने की कसौटी क्या है? उसे कैसे पहचाना जाये? इसकी कसौटी केवल एक है, यानी यह देखना चाहिए कि वह व्यापक मज़दूर–किसान जनता के साथ एकरूप हो जाना चाहता है अथवा नहीं, तथा इस बात पर अमल करता है अथवा नहीं? क्रान्तिकारी वह है जो मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाना चाहता हो, और अपने अमल में मज़दूरों व किसानों के साथ एकरूप हो जाता हो, वरना वह क्रान्तिकारी नहीं है या प्रतिक्रान्तिकारी है।” निश्चित ही, किसानों से तात्पर्य आज की स्थिति में पूँजीवादी लूट-मार के शिकार छोटे किसानों से ही हो सकता है, स्वयं मेहनतकश का शोषण करने वाले मुनाफ़ाख़ोर ख़ुशहाल मालिक किसानों से नहीं। निचोड़ यह कि सबसे पहले, क्रान्तिकारी युवाओं को समस्त सामाजिक सम्पदा के उत्पादक श्रमजीवी वर्गों के साथ एकरूप होना होगा, उनके बीच जाना होगा, सुधार की बहुविध कार्रवाइयों के जरिये सच्चे दिल से उनकी सेवा करनी होगी, बौद्धिक श्रम और शारीरिक श्रम के सामाजिक बँटवारे से जन्मे बुद्धिजीवियों के सभी विशेषाधिकारों और श्रेष्ठ होने की मानसिकता को पूरी तरह से त्यागना होगा। तभी आम लोग उन्हें अपना समझकर उन पर भरोसा करेंगे, दिल से उनकी बातें सुनेंगे और उन पर अमल करेंगे। और क्रान्तिकारी युवा भी केवल तभी व्यावहारिक क्रान्तिकारी बन पायेंगे, सामाजिक जीवन के सभी अन्तरविरोधों को समझ पायेंगे और क्रान्तिकारी संघर्षों की तैयारी और प्रगति में कामयाब हो सकेंगे।

साथ ही, जनता का विश्वास जीतने और क्रान्ति के विज्ञान को अमली रूप में समझने के लिए यह भी अनिवार्य है कि क्रान्तिकारी नौजवान अपने आदर्शों को स्वयं अपने जीवन में लागू करते हों। मसलन, शारीरिक श्रम को नीचा करके देखने की मानसिकता से पूरी तरह मुक्त होने के साथ ही, उन्हें जातिगत भेदभाव की मानसिकता से और तमाम सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़िवाद से राई–राई रत्ती-रत्ती मुक्त होना होगा। तभी वे क्रान्ति के राह की इन सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं के विरुद्ध सतत आन्दोलन चला सकेंगे और व्यापक जनएकजुटता क़ायम कर सकेंगे, जो व्यवस्था-परिवर्तन के लिए जनता की जुझारू लामबन्दी की बुनियादी शर्त है।

जिसे आमतौर पर “सुधार की कार्रवाई” कहा जाता है, उसके बारे में भी अपना नज़रिया साफ़ कर लेना एक क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन के पुनर्निर्माण के लिए बेहद ज़रूरी है। जनता की जीवन–स्थितियों में सुधार और इसी सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के भीतर उसे कुछ सहूलियतें दिलवा देना यदि हमारा अन्तिम लक्ष्य हो तो यह सुधारवाद होगा। इसका मतलब होगा, इस शोषक व्यवस्था को क़ायम रखते हुए इसके नग्न अनाचारों-अत्याचारों में कुछ कमी लाना और इस व्यवस्था की उम्र लम्बी बनाना।

इसका मतलब होगा पूँजीवाद के दामन पर लगे ख़ून के धब्बों को साफ़ करना। इसका मतलब होगा जनता को यह बताना कि पैबन्द माँग-माँगकर पूरी क़मीज़ तैयार की जा सकती है, यानी यह बताना कि रियायतों की छोटी-छोटी लड़ाइयों और सुधारों से ज़िन्दगी जीने लायक़ बनाकर गुज़र कर लो, क्योंकि इतना ही सम्भव है और क्रान्ति असम्भव या अव्यावहारिक है। इसका मतलब होगा जनता को यह भ्रम देना कि हुकूमती जमातों को समझा-बुझाकर और कुछ दबाव देकर धीरे-धीरे अपना हक़ हासिल किया जा सकता है या शान्तिपूर्ण ढंग से उनका दिल बदलकर या उन्हें क़ायल करके, व्यवस्था भी बदली जा सकती है, अतः बलात परिवर्तन या क्रान्ति की “परेशानियाँ” उठाने की कोई ज़रूरत नहीं। वर्ग-शोषण वाले समाजों में, और विशेषकर पूँजीवादी समाज में, सुधारवाद हमेशा ही अनेकशः रूपों में मौजूद रहा है और नये-नये रूपों में सामने आता रहा है। यह जनाक्रोश के दबाव को कम करने वाले ‘सेफ़्टी वॉल्व’ की, व्यवस्था की दूसरी सुरक्षा-पंक्ति की और जनता के लिए ‘धोखे की टट्टी’ की भूमिका निभाता रहा है। क्रान्ति-मार्ग का परित्याग कर चुकी भारत की सभी चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ भी सुधारवाद पर ही अमल करती हैं और आजकल पूरे देश में सक्रिय एन.जी.ओ. सुधारवादी राजनीति के सबसे नये और सबसे प्रभावी उपकरण हैं।

लेकिन जो क्रान्तिकारी नौजवान पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के विरुद्ध व्यापक जनता को एक निर्णायक क्रान्तिकारी संघर्ष के लिए संगठित करना चाहते हैं, उन्हें भी क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार एवं शिक्षा के साथ-साथ न केवल रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की छोटी-छोटी माँगों को लेकर जनान्दोलन संगठित करने होंगे, बल्कि अनेकशः स्तरों पर सुधरपरक कार्रवाइयाँ भी संगठित करनी होंगी। यदि क्रान्तिकारी परिवर्तन का लक्ष्य और एक सुनिश्चित कार्य-योजना हमारे पास हों तो व्यापक आबादी से एकजुटता बनाने, उसकी चेतना को जुझारू बनाने तथा उसे जागृत, गोलबन्द और संगठित करने के उद्देश्य से संगठित सुधार की कार्रवाइयाँ और अधिकारों की

छोटी-छोटी लड़ाइयाँ एक लम्बे क्रान्तिकारी संघर्ष की कड़ी बन जाती हैं। ऐसे उपक्रम युवाओं को यह अवसर देते हैं कि वे आम जनता की ज़िन्दगी के निकट जायें, उससे एकरूप हो जायें और उसका विश्वास जीतें। इस दौरान युवाओं को सामाजिक अध्ययन और जाँच-पड़ताल का भी अवसर मिलता है। कहने की आवश्यता नहीं कि चीज़ों को बदलने के लिए उन्हें जानना अनिवार्य होता है।

कुछ ठोस उदाहरण लें। किसी भी व्यवस्था में शिक्षा और संस्कृति का स्वरूप और ढाँचा इस बात से तय होता है कि राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था का चरित्र क्या है और राज्यसत्ता किस वर्ग के हाथों में है। सभी वर्ग-समाजों में शासक वर्ग की शिक्षा-संस्कृति ही समाज पर हावी होती है। शिक्षा-संस्कृति के ढाँचे को निर्णायक तौर पर तभी बदला जा सकता है, जब शासन–सूत्र वास्तव में जनता के हाथों में आ जाये। लेकिन सामाजिक क्रान्ति की तैयारी के दौरान भी हम शिक्षा और संस्कृति के वैकल्पिक उपक्रम संगठित करते हैं और जनता की चेतना के क्रान्तिकारीकरण के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं। मिसाल के तौर पर, क्रान्तिकारी छात्र और युवा संगठनों को जातिगत-सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों और अन्धविश्वास के विरुद्ध, नौजवानों के साथ-साथ व्यापक आम आबादी की भी चेतना जागृत करने के लिए अध्ययन मण्डलों, रात्रि-पाठशालाओं, पुस्तकालयों, नाट्य एवं गायन टीमों आदि-आदि का गठन करना होगा। ऐसा करके वे निश्चय ही पूँजीवादी शिक्षा और संचार–माध्यमों को बराबरी की टक्कर नहीं दे सकते, लेकिन ऐसे संगठित प्रयासों के द्वारा वे रूढ़ियों और अन्धविश्वासों की दिमाग़ी ग़ुलामी से आम जनता और नौजवानों के जितने बड़े हिस्से को और जिस हद तक मुक्त कर सकेंगे, उतनी हद तक क्रान्ति की क़तारों में नौजवानों की भर्ती की सम्भावनाएँ बढ़ जायेंगी और आम जनता की पहलक़दमी और सर्जनात्मकता भी निर्बन्ध होती जायेगी। मान लें कि क्रान्तिकारी युवाओं का कोई संगठन मज़दूरों की किसी बस्ती में स्वास्थ्य-शिविर आयोजित करता है तो वह जनता की सेवा करने और उनका विश्वास जीतने के साथ ही उनके बीच यह प्रचार भी करता है कि निःशुल्क स्वास्थ्य-सुविधा आम जनता का एक बुनियादी अधिकार है और यह बाज़ार में बिकने वाला माल नहीं है। यहाँ से इस बुनियादी अधिकार के लिए संघर्ष की तैयारी शुरू हो जाती है। मान लें कि ऐसा कोई युवा संगठन जनपहलक़दमी को जागृत करके किसी बस्ती या गाँव में सफ़ाई–अभियान, सड़क मरम्मत, पुल-निर्माण जैसा कोई काम हाथ में लेता है, तो वह जनता को इस बात के लिए भी तैयार करता है कि वह सरकार और जनप्रतिनिधियों को कठघरे में खड़ा करे तथा अपनी इन माँगों को लेकर आन्दोलन के लिए तैयार हो। ऐसे अनगिनत प्रयासों की कड़ियाँ जब जुड़ती चली जाती हैं तो जनता स्वयं अपनी संगठित शक्ति और सर्जनात्मकता से परिचित होकर आगे बढ़ती है, उसमें फ़ैसले लेने का आत्मविश्वास पैदा होता है (जो बाद में आगे बढ़कर शासन चलाने का आत्मविश्वास बन जाता है) और इस प्रक्रिया में जगह-जगह भ्रूण रूप में वैकल्पिक लोक-सत्ता के प्लेटफ़ार्म उभरने लगते हैं। नौजवानों को यह बात भूलनी नहीं चाहिए कि क्रान्तिकारी परिवर्तन का संघर्ष शोषक और शोषित वर्गों के बीच का वर्ग-युद्ध है, जिसमें मात्र कुछ छिटफ़ुट झड़पों और चलायमान युद्धों से फ़ैसला नहीं होगा। फ़ै़सला भले ही अन्ततोगत्वा व्यापक जनविद्रोह के तड़ित-प्रहार द्वारा पूँजीवादी राज्यसत्ता के दुर्ग को ध्वस्त करने द्वारा होगा, लेकिन उस मंज़िल तक पहुँचने की प्रक्रिया कुछ ऐसी होगी मानो दो पक्ष किसी युद्ध में ‘पोज़ीशन’ बाँधकर लम्बे समय तक युद्धरत हों। इसके लिए जनान्दोलनों और जनता के बीच क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार के साथ-साथ जनपहलक़दमी व जनसर्जनात्मकता को जगाकर ऐसी संस्थाएँ व ऐसे उपक्रम खड़े करने होंगे, जो निर्माणाधीन “जनदुर्ग” के बुर्जों और परकोटों की भूमिका निभायें। तभी व्यापक जनसमुदाय में यह भरोसा भी पैदा होगा कि एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण सम्भव है जिसमें उत्पादन, राजकाज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वालों का नियन्त्रण होगा और फ़ैसले की ताक़त उनके हाथों में होगी।

बेशक ‘सबके लिए समान शिक्षा और सबके लिए रोज़गार के समान अवसर’ का नारा ही क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन का केन्द्रीय नारा हो सकता है। तब पूछा जा सकता है कि इसके बजाय हमने सबसे पहले और सबसे विस्तार से इस बात की चर्चा क्यों की है कि नौजवानों को व्यापक मेहनतकश आबादी के बीच जाकर घुल-मिल जाना चाहिए, क्रान्तिकारी प्रचार की कार्रवाई करनी चाहिए, कुछ रचनात्मक कार्यक्रम चलाने चाहिए आदि-आदि।

इसका एक सीधा-सा उत्तर यह दिया जा सकता है कि भगतसिंह के ऊपर उद्धृत कथन को हम आज की परिस्थिति में, जब प्रगति की लहर पर हावी प्रतिक्रिया की लहर को पीछे धकेलकर इंसानियत की रूह में हरकत पैदा करने के लिए एक नयी शुरुआत की ज़रूरत है, एकदम सटीक और प्रासंगिक मानते हैं कि नौजवानों को क्रान्ति का सन्देश लेकर कल-कारख़ानों, गन्दी बस्तियों और गाँव की जर्जर झोंपड़ियों तक जाना होगा। यह नौजवानों का सर्वोपरि दायित्व है। उन्नत चेतना वाले क्रान्तिकारी युवाओं के ऊपर ही यह ज़िम्मेदारी है कि वे मेहनतकश जनता के संघर्षों को क्रान्ति के विज्ञान से लैस करें और ऐसा वे तभी कर सकते हैं, जब जनता के बीच जाकर वे आन्दोलनात्मक और रचनात्मक कार्यों में भागीदारी करें, उसके जीवन से एकरूप हो जायें तथा स्वयं जीवन एवं क्रान्ति की व्यावहारिक शिक्षा लेते हुए अपना व्यक्तित्वान्तरण करें।

शिक्षा और रोज़गार के प्रश्न पर नौजवानों का संघर्ष समाज के अन्य संघर्षों से अलग-थलग नहीं, बल्कि उनसे अविभाज्यतः जुड़ा हुआ है। राजनीतिक अर्थशास्त्र की दृष्टि से देखें तो बेरोज़गारी एक ऐसी परिघटना है, जो पूँजीवादी व्यवस्था में अनिवार्यतः मौजूद रहती है और व्यवस्था का संकट बन जाती है। इसी तरह औकात के हिसाब से बँटी हुई असमान शिक्षा और बाज़ार में बिकाऊ माल जैसी उसकी स्थिति भी वस्तुतः पूँजीवाद की एक बुनियादी अभिलाक्षणिकता है। यानी सबके लिए समान शिक्षा और रोज़गार के समान अवसर के लिए संघर्ष पूँजीवाद की एक आम बुनियादी प्रवृत्ति के विरुद्ध संघर्ष है। यह संघर्ष पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष है और आम जनता के सभी वर्गों के पूँजीवाद-विरोधी संघर्ष से जुड़कर, उसका अंग बनकर ही, यह सार्थक और सफ़ल हो सकता है। अन्यथा सुधारवाद की अन्धी, चक्करदार गलियों में गुम हो जाना इसकी नियति होगी।

इसलिए ‘सबके लिए समान शिक्षा और सबको रोज़गार के समान अवसर’ के लिए छात्रों-युवाओं की व्यापक आबादी को संगठित करने के साथ ही यह काम भी क्रान्तिकारी युवाओं की अगुवा क़तारों का ही है कि वे पूँजी द्वारा सड़कों पर धकेले जाने वाली और दर-बदर की जाने वाली और उजरती ग़ुलामी की चक्की में दिन-रात पिस रहे मेहनतकश जनसमुदाय तक जायें, उसके संघर्षों में भागीदारी करें, अपना वर्ग-रूपान्तरण करके संघर्ष की प्रारम्भिक अवस्थाओं में उसके हरावल की भूमिका निभायें, उन्हें क्रान्ति के विज्ञान से परिचित करायें और फ़िर उनके बीच से क्रान्ति के हरावल दस्ते पैदा करने में भूमिका निभायें। साथ ही, यह भी उन्हीं का दायित्व है कि वे शिक्षा और रोज़गार के सवाल को लेकर उद्वेलित और आन्दोलित व्यापक छात्र-युवा आबादी को यह बतायें कि अपने संघर्ष को व्यापक मेहनतकश आबादी के पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष से जोड़े बिना वे कुछ राहतें-रियायतें भले ही हासिल कर लें, लेकिन अपने मक़सद में कामयाब क़तई नहीं हो सकते। इसलिए उन्हें न केवल आम आबादी के क्रान्तिकारी संघर्ष से जुड़ना होगा बल्कि उसे नये सिरे से संगठित करने और आगे बढ़ाने में भी अपनी भूमिका निभानी होगी। एक नयी शुरुआत तभी हो सकेगी जब छात्र-युवा आन्दोलन आम जनता के सभी वर्गों के संघर्ष के लिए एक क्रान्तिकारी भर्ती केन्द्र बन जाये। क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन का यह पहलू आज उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पहलू है।

सोचने की बात है कि छात्रों और नौजवानों के लगभग सभी संगठन समान शिक्षा और सबको रोज़गार के अधिकार को लेकर लड़ने की बातें करते हैं, फ़िर इन माँगों पर कोई छात्र-युवा आन्दोलन संगठित क्यों नहीं हो पाता? इन नारों का ज़ुबानी जमाख़र्च करने वाले अधिकांश छात्र संगठन इस या उस पूँजीवादी चुनावी पार्टी के पुछल्ले हैं। वे छात्र आबादी को भरमाने के लिए ऐसे नारे उछालते हैं। अपनी साख बचाने के लिए कभी-कभार वे कुछ आन्दोलनों की रस्मी क़वायद करते हैं और कभी-कभार यदि कुछ रियायतें हासिल भी हो जायें तो वह किसी पार्टी विशेष या उस समय सत्तारूढ़ सरकार की साख बढ़ाने के काम आता है। ऐसे छात्र-युवा संगठन आन्दोलन को व्यापक मेहनतकश जनता के संघर्ष की कड़ी बना ही नहीं सकते। यह उनका मक़सद ही नहीं होता। उनका एकमात्र मक़सद होता है, छात्र-युवा आबादी को क्रान्तिकारी लक्ष्य से दूर करना; ग़ैरमुद्दों पर भड़काकर बुनियादी मुद्दों से उनका ध्यान हटाना; उन्हें क्षेत्र, जाति, धर्म, भाषा आदि के आधार पर बाँट देना और छात्र-युवा आन्दोलन को पूँजीवादी चुनावी राजनीति के नये रंगरूटों की भर्ती एवं प्रशिक्षण केन्द्र बनाये रखना। संसद में बहसबाज़ी करने वाली नक़ली वामपन्थी पार्टियों के पुछल्ले छात्र-युवा संगठन भी मूलतः यही खेल खेलते हैं, लेकिन फ़र्क़ यह है कि वे अपना खेल कुछ गर्मागर्म नारों और “मज़दूर क्रान्ति” आदि के ज़ुबानी जमाख़र्च के साथ-साथ खेलते हैं। चुनावी वामपन्थी पार्टियाँ मज़दूरों के बीच अर्थवादी-सुधारवादी सरगर्मियाँ करती हैं और इनके छात्र-युवा संगठन सालाना कुछ रस्मी आन्दोलनों और कुछ जलसों की क़वायद करते रहते हैं। हाल के वर्षों में यह फ़र्क़ ज़रूर पड़ा है कि ऐसे नामधारी वामपन्थी छात्र-युवा संगठनों की नक़ली-क्रान्तिकारिता आम छात्रों-युवाओं के बीच काफ़ी हद तक नंगी हो चुकी है। लेकिन क्रान्तिकारी छात्र-युवा राजनीति का इनका भोंड़ा स्वाँग अभी भी बदस्तूर जारी है।

आज की नंगी सच्चाई यह है कि कैम्पसों के बाहर, समाज में, सड़कों पर किसी नौजवान आन्दोलन की रस्मी सरगर्मियाँ भी नाममात्र को ही देखने को मिल रही हैं। कॉलेजों, विश्वविद्यालयों के कैम्पसों में पिछले एक दशक से भी कुछ अधिक समय से पसरा हुआ सन्नाटा टूटने के संकेत अभी नज़र नहीं आ रहे हैं। पूँजीवादी और छद्म-वामपन्थी छात्र-संगठनों और व्यक्तिवादी-कैरियरवादी छात्र-नेताओं की ओर आम छात्रों ने उम्मीद की निगाह से देखना काफ़ी पहले बन्द कर दिया। लेकिन ऐसा कोई प्रभावी क्रान्तिकारी विकल्प उनके सामने मौजूद नहीं है, जो उनमें नयी उम्मीदें जगा सके। इस कड़वी सच्चाई की अनदेखी नहीं की जा सकती कि निराशा और ठहराव के इस माहौल में छात्रों की आबादी के बीच फ़ासीवादी प्रवृत्तियों ने भी विविध रूपों में तेज़ी से पैर पसारे हैं। पीले बीमार चेहरों वाले, रुग्ण मानस आम मध्यवर्गीय युवाओं की एक अच्छी-ख़ासी तादाद धार्मिक कट्टरपन्थ या उग्र जातिवाद की या तरह-तरह की गुण्डागर्दी की राजनीति करने वाले, चिकने चमकदार चेहरों वाले कुटिल गिरोहबाज़ों के पीछे जा खड़ी हुई है। इस माहौल में आम छात्रों की एक अच्छी-ख़ासी आबादी निराशा और निरुपायता के चलते अराजनीतिकरण की घातक प्रवृत्ति का शिकार होकर अपने खोल में सिकुड़ती चली गयी है।

छात्रों-युवाओं के बीच एन.जी.ओ. की घुसपैठ हालात को और अधिक गम्भीर बना रही है। साम्राज्यवादियों, देशी पूँजीपतियों और सरकार के पैसों से चलने वाले ये संगठन समाज में वर्ग-अन्तरविरोधों को धूमिल करने के लिए सुधारवादी पैबन्दबाज़ी की नयी-नयी शातिराना चालें चलने और पूँजीवादी व्यवस्था की नयी सुरक्षा पंक्ति तथा नये ‘सेफ़्टी वॉल्व’ के रूप में काम करने के साथ ही, क्रान्ति की क़तारों में भर्ती की सम्भावना से लैस जुझारू, ईमानदार युवाओं को सामाजिक कार्यों की आड़ में भरमा-बहकाकर सुधारवाद के दलदल में फ़ँसा देते हैं, उन्हें “वेतनभोगी सामाजिक कार्यकर्ता” बनाकर भ्रष्ट कर देते हैं और व्यवस्था में समायोजित कर लेते हैं। हालत यह है कि कल तक क्रान्तिकारी वाम छात्र राजनीति की धारा से जुड़े हुए (और आज भी ऐसा दावा करने वाले) कुछ छात्र संगठन ऐसे भी हैं जो एन.जी.ओ. के साथ खुलेआम अभिसार कर रहे हैं और ऐसे कैरियरवादी, निठल्ले, फ़ैशनपरस्त वामपन्थी युवाओं के जमावड़े बन चुके हैं जो कुछ दिनों तक छात्र राजनीति का शौक़ पूरा कर लेने के बाद इस या उस एन.जी.ओ. के टुकड़खोर या चाकर बन जाते हैं।

क्रान्तिकारी वामपन्थी धारा के बहुतेरे ऐसे छोटे-छोटे छात्र संगठन हैं जो कुछ रस्मी काम और कुछ गरम नारों की जुगाली करते हुए, विपथगामी होकर नक़ली वामपन्थी छात्र संगठन के गिरोह में शामिल हो जाने की दिशा में उन्मुख हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो वैचारिक संकीर्णता, कठमुल्लेपन और अतिवामपन्थी लफ़्फ़ाज़ी के शिकार हैं। ज़मीनी कार्रवाइयों और व्यापक छात्र आबादी को जागृत-संगठित करने के लिए जनदिशा पर अमल करने के बजाय वे गर्मागर्म नारे देते हैं तथा आनन–फ़ानन में हथियारबन्द क्रान्ति का रोमानी सपना दिखाते हैं। साम्राज्यवाद-पूँजीवाद के विरुद्ध नयी समाजवादी क्रान्ति की बदली परिस्थितियों को समझने के बजाय ये संगठन आज भी भारत को अर्द्धसामन्ती-अर्द्धऔपनिवेशिक बताते हैं और राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का नारा देते हैं। जनकार्रवाइयों के बारे में समझ के अभाव और देश की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की ग़लत समझ के चलते ऐसे छात्र संगठन अब तक व्यापक छात्र आबादी का कोई आन्दोलन न तो संगठित कर पाये हैं, न ही भविष्य में कर पायेंगे। व्यवहारतः ऐसे छात्र संगठन देश के कुछ पिछड़े-दुर्गम क्षेत्रों में “वामपन्थी” दुस्साहसवादी लाइन पर जारी सशस्त्र संघर्षों के लिए कैम्पसों से कुछ नये रंगरूट भर्ती करने के साथ-साथ या तो कुछ सेमिनार–टाइप बौद्धिक अनुष्ठान करते हैं या फ़िर कुछ रैडिकल सुधारवादी कार्रवाइयाँ करते हैं।

मुद्दा चाहे बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट और तमाम सरकारी निर्णयों द्वारा लगातार थोपी जा रही घोर पूँजीपरस्त शिक्षा-नीतियों का हो, लगातार बढ़ती फ़ीसों और घटती सीटों का हो, शिक्षा संस्थानों को सीधे पूँजीपति घरानों को सौंपने का हो या कैम्पसों में लगातार सिकुड़ते जा रहे जनवादी ‘स्पेस’ का हो, छात्र आन्दोलन कहीं भी प्रभावी प्रतिरोध संगठित कर पाने की स्थिति में नहीं है।

इस स्थिति को तोड़ने के लिए इसके मूलभूत कारणों को समझना ज़रूरी है। पहली बात तो यह कि जब पूरी दुनिया और पूरे देश के पैमाने पर क्रान्ति की लहर पर प्रतिक्रान्ति की लहर हावी है और क्रान्तिकारी राजनीति की धारा वैचारिक कमज़ोरी, परिस्थितियों की ग़लत समझ, अतीत की क्रान्तियों के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति तथा इन सबके परिणामस्वरूप ठहराव एवं विघटन की शिकार है, तो यह पूरा परिदृश्य क्रान्तिकारी छात्र एवं युवा राजनीति के परिदृश्य को भी प्रभावित कर रहा है। लेकिन इस स्थिति को बदलने में भी क्रान्तिकारी नौजवानों को ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है। स्थितियों की सही समझ के आधार पर छात्र-युवा आन्दोलन के पुनर्निर्माण के प्रयासों के साथ ही प्रबुद्धक्रान्तिकारी युवाओं को मेहनतकश वर्गों की क्रान्तिकारी राजनीति के पुनर्निर्माण के बारे में भी सोचना होगा, मेहनतकश वर्गों के बीच भी काम करना होगा और क्रान्ति की हरावल क़तारों में छात्रों-युवाओं के बीच से नयी भर्ती की ज़बरदस्त मुहिम छेड़नी होगी।

कैम्पसों में छात्र आन्दोलन के ठहराव-बिखराव का एक दूसरा अहम कारण विगत लगभग बीस वर्षों के दौरान छात्र आबादी की संरचना में आया महत्त्वपूर्ण बदलाव भी है। लगातार घटती सीटों और बढ़ती फ़ीसों के चलते आज उच्च शिक्षा के केन्द्रों में छात्र आबादी बहुत घट गयी है। और जो हैं भी, वे ज़्यादातर खाते-पीते घरों के स्वार्थी, कैरियरवादी और सामाजिक सरोकारों से रहित लाड़ले हैं, जिनका “स्वर्ग“ काफ़ी हद तक इसी व्यवस्था में सुरक्षित हैं। तकनोलॉजी, प्रबन्धन आदि ‘प्रोफ़ेशनल कोर्सेज़’ पर ज़ोर बढ़ा है और महँगी पढ़ाई के इन क्षेत्रों में समाज के धनिक वर्गों के छात्रों का वर्चस्व है। आम घरों के छात्र कुछ उपेक्षित विषयों की पढ़ाई ही कर पाते हैं और किसी भी तरह का रोज़गार पा लेने की बदहवास कोशिशों में लगे रहते हैं। बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी से तो अपवादस्वरूप ही कोई युवा उच्च शिक्षा के कैम्पसों तक पहुँच पाता है। अब ज़्यादातर निम्न मध्यवर्गीय छात्र भी विश्वविद्यालयों और प्रतिष्ठित कॉलेजों के कैम्पसों से बाहर ठेल दिये गये हैं। वे या तो महानगरों के निम्नमध्यवर्गीय रिहायशी इलाकों या फ़िर दूर-दराज़ के क़स्बे-देहात के उपेक्षित कॉलेजों में हताश कुण्ठित पड़े हुए भविष्य के अन्धकूप में डूब-उतरा रहे हैं, या कोई छोटा-मोटा रोज़ी-रोज़गार करते हुए बेहतर रोज़गार पाने की कोशिश में लगे हैं, या फ़िर कारख़ाना-गेटों पर दिहाड़ी और ठेका मज़दूरों की क़तारों में खड़े हैं।

इसीलिए आज कैम्पस केन्द्रित छात्र आन्दोलनों की सम्भावनाएँ वस्तुगत तौर पर भी कम हो गयी हैं। छात्र आन्दोलन और नौजवान आन्दोलन के संयुक्त रूप में एक छात्र-युवा आन्दोलन के रूप में संगठित होने की अनुकूल परिस्थितियाँ अब पहले हमेशा से अधिक तैयार हैं और उसे व्यापक मेहनतकश अवाम के पूँजी-विरोधी संघर्षों से सीधे जोड़ देने की सम्भावनाएँ भी पहले से अधिक पैदा हो गयी हैं। पूरे समाज से लेकर कैम्पस तक में आये संरचनागत बदलावों के चलते, क्रान्तिकारी छात्र आन्दोलन के पुराने जड़ीभूत, बद्धमूल साँचे और खाँचे को पूरी तरह से बदल देना होगा और उपरोक्त बदलावों के मद्देनज़र एक नये कार्यक्रम के आधार पर नयी शुरुआत करनी होगी।

छात्रों और युवाओं को अपनी राजनीतिक प्रचारमूलक तथा आन्दोलनात्मक सरगर्मियों को कैम्पसों से बाहर सड़कों पर और मेहनतकश तथा निम्नमध्यवर्गीय रिहायशी बस्तियों में लाना होगा। वहाँ छात्रों-युवाओं को शिक्षा और रोज़गार के मुद्दों पर संगठित करते हुए उन्हें आम मेहनतकश आबादी के बीच भी अनेकशः रचनात्मक कार्यक्रम लेने पड़ेंगे, उनके आन्दोलनों में भागीदारी करनी होगी तथा उनके बीच क्रान्तिकारी प्रचार की कार्रवाई संगठित करनी होगी।

कैम्पस के बाहर युवा शक्ति जिस हद तक संगठित और आन्दोलित होगी और आम जनता के संघर्षों से जितनी जुड़ी होगी, उतनी ही अधिक मदद हमें कैम्पस में भी रोज़मर्रा के मुद्दों पर, जनवादी अधिकार के मुद्दों पर तथा शिक्षा और रोज़गार के व्यापक प्रश्नों पर आम छात्रों को संगठित करने में मिलेगी। छात्र आन्दोलन संगठित करने की दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों के कैम्पसों पर केन्द्रित करना अधिक उचित होगा क्योंकि वहाँ आम घरों के छात्र बड़ी तादाद में होंगे, हालाँकि उनकी पिछड़ी सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना के चलते राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण का काम अधिक चुनौतीपूर्ण होगा। जो उच्च शिक्षा के प्रतिष्ठित महानगरीय कैम्पस हैं, वहाँ छात्र आन्दोलन की ज़मीन तो कमज़ोर होगी, लेकिन वहाँ से क्रान्ति की क़तारों में ऐसे उन्नत तत्वों की भर्ती की सम्भावना अधिक होगी, जो संख्या में तो निश्चित ही कम होंगे, पर यदि वे आम मेहनतकश जनता के साथ एकरूप हो सके तो अत्यन्त बहुमूल्य सिद्ध होंगे।

हमारा प्रस्ताव है कि बदली परिस्थितियों के इस आकलन पर तथा नये सिरे से क्रान्तिकारी छात्र-युवा आन्दोलन के निर्माण के रास्ते के बारे में, उसके स्वरूप, एजेण्डा और प्राथमिकताओं के बारे में, हमारी इस सोच पर इस देश के सभी परिवर्तनकामी छात्र युवा संजीदगी के साथ सोचें, बहस-मुबाहसा करें और प्रयोग करते हुए एकराय होने की कोशिश करें।

राह चाहे हज़ार मील लम्बी हो, शुरुआत एक क़दम उठाकर ही की जाती है। हमें एक नयी शुरुआत करनी ही होगी।

भगतसिंह ने जो भविष्य-स्वप्न देखा था, उसे मुक्ति की परियोजना में ढालने और अमली जामा पहनाने का काम अभी भी हमारे सामने एक यक्ष प्रश्न के रूप में खड़ा है। उस महान युवा विचारक क्रान्तिकारी की शहादत के पचहत्तर वर्ष पूरे होने को आ रहे हैं। क्या अब भी हम उस आह्वान की अनसुनी करते रहेंगे? क्रान्तिकारी तूफ़ानों में उड़ान भरने के लिए अपने पंखों को तोलने के वास्ते भविष्य मुक्तिकामी युवा दिलों का आह्वान कर रहा है। गर्वीले गरुड़ और तूफ़ानी पितरेल इस आह्वान की अनसुनी क़तई नहीं कर सकते।

‘आह्वान कैंपस टाइम्‍स’, जनवरी-मार्च 2005

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