‘‘स्‍वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव’’ की असलियत

योगेश

हाल ही में सम्पन्न पाँच राज्यों के चुनावों में मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी आचार संहिता को सख़्ती से लागू करने की कोशिश करते नज़र आये! केन्द्रीय कानून मन्त्री सलमान खुर्शीद द्वारा चुनाव के दौरान एक विवादित बयान या कुछेक घटनाओं को छोड़कर इन चुनावों को ‘स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव’ के रूप में बुर्जुआ मीडिया द्वारा प्रचारित किया गया। राजनीतिक विश्लेषक निष्पक्ष और शान्तिपूर्ण ढंग से चुनाव सम्पन्न करा लेने के लिए चुनाव आयोग को लख-लख बधाइयाँ दे रहे हैं! मतदान प्रतिशत के थोड़ा-बहुत बढ़ने से लहालोट हुए बुर्जुआ मीडिया ने इसका श्रेय चुनाव आयोग द्वारा अपनाये गये सख़्त नियम-कानूनों को दिया। इससे यह भी भ्रम फैला की आम जनमानस की मौजूदा चुनाव प्रणाली में आस्था बढ़ने लगी है। हालाँकि ऐसा कतई नहीं है और वैसे भी पूँजीवादी चुनाव प्रक्रिया लोगों के वास्तविक जनादेश को दर्शाती ही नहीं है।

फिर भी ‘स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव’ की असलियत को जानने के लिए मुख्य चुनाव आयुक्त एस.वाई. कुरैशी द्वारा उठाये गए कदमों की भी पड़ताल कर ली जाये। चुनाव आयोग द्वारा उत्तर प्रदेश की मुख्यमन्त्री मायावती और उनके द्वारा बनवायी गई हाथियों की मूर्तियों को कपड़े से ढकवाने में लाखों रुपये लगाने हों, कांग्रेस के एक विज्ञापन को नामंजूर करना हो, मीडिया द्वारा ‘ओपिनियन पोल’ पर प्रतिबन्ध लगाना या इन सब से थोड़ा बढ़कर केन्द्रीय कानून मन्त्री सलमान खुर्शीद द्वारा चुनाव के दौरान मुसलमानों को अतिरिक्त आरक्षण के बयान को आचार संहिता का उल्लंघन मानते हुए उनकी शिकायत करना हो, यह सब एक स्वाँग ही था। सलमान खुर्शीद के मुसलमानों को आरक्षण देने के बयान पर मचा हल्ला भी एक ड्रामा ही था, क्योंकि राष्ट्रपति ने शिकायत-पत्र प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को भेज दिया और मनमोहन सिंह चुनाव के दौरान अपनी ही पार्टी के किसी मन्त्री पर कोई कार्रवाई क्यों करेंगे? स्वयं सलमान खुर्शीद ने चुनाव आयुक्त को एक पत्र लिखकर इस संस्था के प्रति सम्मान जाहिर किया; वे भी समझ गये कि ‘निष्पक्ष चुनाव’ के ढोंग के इस खेल में चुनाव आयोग से ही लोगों का विश्वास उठ जाये तो यह उनके लिए भी ख़तरनाक होगा। इतना सब करने के बाद भी चुनाव आयोग की आचार संहिता का उल्लंघन नए-नए तरीकों से होता रहा। मीडिया के ‘ओपिनियन पोल’ पर रोक लग जाने के बावजूद भी वह किसी न किसी पार्टी के समर्थन में राय बनाता रहा। चुनाव आयुक्त चुनावी पार्टियों से आग्रह कर रहे थे कि जिन लोगों पर हत्या, बलात्कार आदि का केस दर्ज है उन्हें टिकट न दिया जाये। पर असलियत है कि इन चुनावों में आधे से ज्यादा प्रत्याशी आपराधिक पृष्ठभूमि के थे जिन पर अलग-अलग मामलों में केस दर्ज़ हैं। कई ऐसे भी थे जो जेल में बन्द रहकर ही चुनाव लड़ रहे थे! और इन मुद्दाविहीन चुनावों में एक-दूसरे की पार्टी को गुण्डों और अपराधियों की पार्टी बता रही सपा, बसपा, भाजपा, कांग्रेस और अन्य सभी पार्टियों या क्षेत्रीय दलों ने स्वयं अपराधी लोगों को टिकट देने में कोई लाज नहीं दिखाई। अनैतिकता और लूट पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत एकदम नंगे रूप में लोगों के सामने न आये इसलिए पहले टी.एन शेषन, जे.एम. लिंगदोह, और अब एस.वाई. कुरैशी एक अच्छे रेफरी की भूमिका निभाते हुए मैदान में कूद पड़े हैं। दरअसल पूँजीवादी जनतन्त्र के खेल में चुनाव आयोग की भूमिका महज़ एक रेफरी की ही होती है। इस खेल में शामिल होने की जो शर्त है, जो नियम और तौर-तरीके हैं उसके चलते ग़रीब मेहनतकश जनता तो इस खेल में खिलाड़ी के रूप में शामिल हो ही नहीं सकती है (और उसे इस खेल में शामिल होने की कोई दरकार भी नहीं है!)। वह इस खेल में महज़ एक मोहरा या अधिक से अधिक मूकदर्शक ही होती है। एक अच्छे रेफरी के बतौर चुनाव आयोग की भूमिका बस इतनी होती है कि खिलाड़ी ‘फाउल’ न खेले जिससे खेल में दिलचस्पी बनी रहे और मोहरे बिदक न जायें। पिछले कई चुनावों से इस खेल में शामिल खिलाडि़यों के बीच ‘फाउल’ खेलकर ही जीतने की होड़ मची हुई है। इसलिए चुनाव आयोग अति सजग और सक्रिय होने की कोशिश करता है। उसकी चिन्ता रहती है कि कहीं सारा खेल ही चौपट न हो जाये। एक बार अगर यह मान भी लिया जाये कि यह चुनाव वाकई स्वतन्त्र और निष्पक्ष हो जाए तो भी सच्चे मायनों में आम जनता के जनप्रतिनिधि का चुनाव नहीं हो सकता। जिन चुनावों में एक आम आदमी चुनाव में खड़ा होने की हैसियत ही न रखता हो; जहाँ चुनाव में कोई नेता एक बार चुने जाने के बाद जनता का विश्वास खोने पर भी पाँच साल के लिए जनता की छाती पर मूंग दलने के लिए आज़ाद हो; जहाँ विशालकाय निर्वाचक मण्डलों में होने वाले चुनाव अपने आपमें करोड़ों रुपये के निवेश वाला व्यवसाय बन जाते हों, जो कि सिर्फ पूँजी के दम पर लड़े जा सकते हों; जहाँ जनतन्त्र धनतन्त्र पर टिका हो; जहाँ समाज की अस्सी फीसदी आबादी भयंकर ग़रीबी में जीती हो; वहाँ चुनाव प्रणाली को स्वतंत्र; और निष्पक्ष कहा ही नहीं जा सकता है।

दरअसल किसी भी चुनाव प्रणाली को सामाजिक-आर्थिक जीवन से अलग विश्लेषित ही नहीं किया जा सकता। एक ऐसे समाज में जिसमें आर्थिक असमानता, अवैज्ञानिकता और सच्चे जनतान्त्रिक मूल्यों की अनुपस्थिति हो; जहाँ व्यवस्था के केन्द्र में मनुष्य न होकर महज मुट्ठीभर लोगों का मुनाफा हो; वहाँ का जनतन्त्र जनता को छलने के उपकरण से अधिक कुछ भी नहीं हो सकता। ऐसा जनतन्त्र महज धनतन्त्र होगा और उसकी चुनावी प्रक्रिया एवं चुनाव जनता को भ्रम में रखने का उपकरण मात्र होगा। आज जब मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से एक-एक करके लोगों का मोहभंग हो गया है तो ऐसे में चुनाव आयोग एवं अन्य संवैधानिक संस्थाओं की सारी ‘मेहनत एवं संकल्प’ इसी व्यवस्था में जनता की आस्था को बनाये रखने का प्रयास है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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