ब्राज़ील में फ़ुटबाल वर्ल्ड कप का विरोध

 सनी

brazil-protestsमैस्सी बॉल से 5 मीटर दूर खड़ा है, दूसरी तरफ़ बॅाल से करीब 10 मीटर की दूरी पर दस खिलाड़ी एक रक्षात्मक दीवार बना कर खड़े हैं। बॅाल से करीब 20 मीटर दूर गोलकीपर खड़ा है। लगभग इम्पॉसिबल एंगल है जिससे गोल किया जा सके। खब्बू मैस्सी अपने छोटे-छोटे पैरों को धीरे-धीरे हिलाता है और फिर अचानक बिजली की रफ़्तार से बॉल के पास पहुँचकर अपने पैर गुलेल की तरह खींचता है और न्यूटन के पहले नियम का पालन करते हुए बॉल गुरुत्व, हवा और मैसी के पैर के संवेग के द्वन्द्व में झूमती हुई सीधे गोल के जाल पर जा पड़ती है! स्टेडियम के हज़ारों दर्शक जश्न मनाते हैं, कैमरे के फ्लैश कौंध उठते हैं। कैमरों से खींची जा रही तस्वीरें और आवाज़ सैटेलाइट से सीधे तमाम घरों में प्रसारित होती है और सब झूम उठते हैं।

brazil protest 1ठीक इसी समय इज़रायल के बमवर्षक फ़िलिस्तीन की धरती पर बम बरसा रहे हैं, यहाँ भी भौतिकी के नियम लागू हो रहे हैं। बमों के अन्दर संचित रासायनिक ऊर्जा फ़िलिस्तीन की धरती के परखच्चे उड़ा दे रही है। सूर्योदय और सूर्यास्त पर काला धुआँ छाया हुआ है। वहाँ रोशनी नहीं है। कहीं प्रसारण नहीं होता है। कुछ सूचनाएँ रिसकर पहुँच भी जाती हैं तो ये बम से इंसानों के विक्षिप्त शरीरों की दास्तान बयान कर पाती हैं। मैस्सी दुनिया के महानतम खिलाड़ियों में से एक है और ब्राज़ील में हुए विश्व कप में उसके जौहर का शोर मचा हुआ था। अखबारों और तमाम टीवी चैनलों पर ब्राज़ील के वर्ल्ड कप में मैस्सी, रोनाल्डो, नेमार, बेल और ऐसे ही तमाम देशों के महानायकों से ख़बरें रंगीन होती थीं वहीं गाज़ा की सड़कें सिर्फ़ एक रंग – लाल से रँगी थीं। पर इसे नहीं दिखाया गया। सबसे महँगा वर्ल्ड कप उन बच्चों से ज़्यादा ज़रूरी था? तो इस वर्ल्ड कप का महत्त्व क्या था? क्या फ़िलिस्तीन के बच्चों के ख़ून पर जादुई कम्बल बिछाकर छुपा देने के लिए? या ब्राज़ील की जनता को फुटबॉल विश्वकप के ख़िलाफ़ सड़क पर उतर विरोध करने के लिए? ब्राज़ील को फुटबॉल की धरती माना जाता है। ब्राज़ील की नौजवानी के डी.एन.ए. में फुटबॉल का हुनर पैबस्त है पर यही ब्राज़ीली जनता बड़े पैमाने पर इस वर्ल्ड कप के विरोध में सड़कों पर उतरी। वर्ल्ड कप शुरू होने से पहले 70 फ़ीसदी ब्राज़ीलियन आबादी ने एक सर्वे में कहा था कि वे नहीं चाहते कि वर्ल्ड कप यहाँ हो! ऐसे क्या कारण थे कि ब्राज़ील की जनता फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर पड़ी? कारण यही है – यह वर्ल्ड कप फ़ीफ़ा वर्ल्ड कप है। और फ़ीफ़ा एक बड़ा व्यापार संघ बनकर उभरा है। इस वर्ल्ड कप के दर्शक महज़ उपभोक्ता के तौर पर देखे जाते हैं। ब्राज़ील का यह वर्ल्ड कप इन उपभोक्ताओं के लिए ही था। यह ब्राज़ील के लोगों का था ही नहीं। चलिये इसी प्रश्न के ज़रिये हम वर्ल्ड कप के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझने की कोशिश करते हैं।

brazil-street-art-protest-world-cup-onartoब्राज़ील के वर्ल्ड कप पर करीब 11.6 बिलियन डॉलर ख़र्च हुए। यह सरकार के रेस्पोंसिबिलिटी मेट्रिक्स का आँकड़ा है। कहने को सरकार ने इसकी काफ़ी तारीफ़ की और ख़ुद ब्राज़ील की राष्ट्रपति डिल्मा ने कहा कि यह देश के विकास में मदद करेगा। परन्तु जब ब्राज़ील वर्ल्ड कप के लिए अपनी बोली लगा रहा था (2008 में) तब ब्राज़ील के राष्ट्रपति लूला का समर्थन लेते हुए ब्राज़ील फुटबॉल फेडरेशन के रिकार्डो टेक्सेईरा ने कहा था कि ब्राज़ील वर्ल्ड कप में सिर्फ़ बुनियादी ढाँचे पर ख़र्च करेगा और खेल सम्बन्धी सारे निवेश निजी क्षेत्र से होंगे। परन्तु स्टेडियम (जिसका पूरा ख़र्च निजी क्षेत्र उठाने वाला था) में निजी निवेश सिर्फ़ 1.6 प्रतिशत हुआ। यही हाल अन्य क्षेत्रों के निवेश में हुआ। इस पूरे वर्ल्ड कप में हुए ख़र्चे में निजी निवेश सिर्फ़ 0.4 प्रतिशत था। और जब इस अँधेरगर्दी के ख़िलाफ़ जनता सड़क पर उतरी तो सरकार ने इन ज़बर्दस्त प्रदर्शनों को देखते हुए सुरक्षा पर भी करीब 1 बिलियन डॉलर का ख़र्च किया। दिसम्बर 2013 में रक्षा मन्त्रलय ने प्रदर्शनों को देखते हुए ही एक “क़ानून और व्यवस्था की गारण्टी” नामक दस्तावेज़ निकाला जिसके तहत तमाम जन आन्दोलनों को “विरोधी ताक़तें” बताया गया था तथा हड़तालों, सड़क रोकना आदि को वे मुख्य ख़तरे बताया जिससे सेना को लड़ना चाहिए! यही ब्राज़ील के उस भागीदारी जनवाद का उदाहरण है जिसपर मार्ता आनेकर और माइकल लेबोविट्ज़ जैसे बुद्धिजीवी वारे-वारे जाते हैं। असल में ब्राज़ील से लेकर तमाम लातिन अमेरिकी “समाजवादी” सत्ताएँ धीरे-धीरे अपना गुलाबी तेवर छोड़कर दक्षिणपन्थ का रंग ओढ़ना शुरू कर रही हैं। गुलाबी ज्वार की जनप्रिय तस्वीर भी अब धुँधली पड़ने लगी है हालाँकि वेनेज़ुएला अभी भी अपनी पेट्रो-आधारित व्यवस्था के दम पर जनपक्षधर क़दम उठाता है परन्तु बोलीविया से लेकर कोलम्बिया, ब्राज़ील और अर्जेंटीना में तो यह साफ़ हो ही चुका है कि गुलाबी ज्वार का लाल झण्डे से ताल्लुक नहीं है। ब्राज़ील की लूला की सरकार और अब डिल्मा की सरकार खुले रूप में पूँजी की तानाशाही के लिए नीतियाँ बनाती हैं। फुटबॉल वर्ल्ड कप जैसे “इवेण्ट” ब्राज़ील की अर्थव्यवस्था के लिए एक बूस्ट देने वाले इंजेक्शन का काम करते हैं। अब चाहे यह इंजेक्शन फुटबॉल की शक्ल में ही क्यों न आये!

जनता ने इसका विरोध क्यों किया? क्यों रिओ द जनीरो से लेकर साओ पाउलो में लाखों लोग सड़कों पर उतरे? क्योंकि सरकार जनता का सारा पैसा स्टेडियम, साज-सज्जा और पर्यटन पर ख़र्च कर रही थी। वहीं बसों और अन्य जन सुविधाओं के ख़र्चे कम किये जा रहे थे। किराया वृद्धि हो रही थी। किराया वृद्धि के ख़िलाफ़ शुरू हुए आन्दोलनों में वर्ल्ड कप पर हो रहे ख़र्चे का जमकर विरोध किया गया और सरकार द्वारा जनता की बुनियादी सुविधाओं पर न्यूनतम ख़र्चे को लेकर अपना विरोध दर्ज कराया गया। अगर वर्ल्ड पर कुल किये जा रहे ख़र्च को ही सरकार शिक्षा पर ख़र्च करती तो ब्राज़ील के हर बच्चे को शिक्षा दी जा सकती थी। सरकार अगर इस ख़र्च को स्वास्थ्य पर करती तो करीब ब्राज़ील की अस्पतालों की बड़ी समस्या हल हो जाती। अगर हम अपनी कल्पना को और आगे दौड़ायें तो निश्चित ही हर क्षेत्र में ब्राज़ील जैसे देशों की कई बुनियादी समस्याओं को दूर किया जा सकता था। परन्तु हम वापस आते हैं क्योंकि ख़ुद ब्राज़ील के मशहूर खिलाड़ी रोनाल्डो ने कहा था कि, ‘फुटबॉल स्टेडियम में खेली जाती है, अस्पतालों में नहीं’ और वर्ल्ड कप पर हो रहे निवेश का समर्थन किया था। यह वर्ल्ड कप फ़ीफ़ा, उसके व्यापारी सहयोगी, ब्राज़ील की निर्माण कम्पनियों और ब्राज़ील की ज़मीन पर गिद्ध की तरह नज़रें अटकायी हुई बड़ी-बड़ी कम्पनियों के लिए था। यह वर्ल्ड कप मुनाफ़ा कमाने वालों के लिए जश्न है और इसमें आम जनता का कुछ भी नहीं है। दरअसल मौजूदा ढाँचे के अन्दर यह उम्मीद करना कि पूँजी का निवेश जनता के हित में होगा यह अपने में ही ग़लत होगा।

यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यह वर्ल्ड कप फुटबॉल की धरती पर भले ही खेला गया हो पर यह ब्राज़ील की आम जनता के लिए नहीं था। यह महज़ फुटबॉल प्रेमी (अगर कोई न हो तब भी प्रचार उसे बना देगा) शरीर के भीतर उपभोक्ता आत्मा तक कुछ निश्चित विज्ञापनों द्वारा उपभोग का आह्वान था। ये खेल आज सिर्फ़ पूँजी की चुम्बक बन कर रह गये हैं। जिस तरह वर्ल्ड बैंक व आई.एम.एफ. जैसे संगठन वित्तीय पूँजी के निवेश के लिए रास्ता सुगम बनाते हैं और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों द्वारा (मुख्यतः उनके देश अमेरिका से) नियंत्रित होते हैं उसी प्रकार फ़ीफा जैसे संघ भी वित्तीय पूँजी और बड़ी-बड़ी इज़ारेदार कम्पनियों के निर्देशन पर ही चलते हैं। ब्राज़ील जैसी उभरती हुई अर्थव्यवस्थाएँ ऐसे खेलों के लिए ख़ूब ज़ोर-शोर से सट्टा लगाती हैं कि वर्ल्ड कप सरीखे खेल हों और बड़ी-बड़ी इजारेदार कम्पनियाँ निवेश करें। ख़ुद अपने देश की जनता के पैसे को जन सुविधाओं पर ख़र्च करने की जगह सरकारें ऐसे खेलों के लिए जमकर पैसा बहाती हैं जिससे अधिक से अधिक विदेशी निवेशकों को बुलाया जा सके। यह इससे भी अधिक नंगे तौर पर प्रीमियर लीग सरीखे फॉर्मेट में होता है। चाहे वह इंग्लिश प्रीमियर लीग हो, ला लीगा हो या क्रिकेट में आई.पी.एल. सरीखी लीग हों। खेल का आयोजन महज़ विज्ञापन बेचने के लिए किया जाता है। मुख्य खेल नहीं है विज्ञापन हैं। खेल एक प्रयोजन होता है जिसके ज़रिये ये विज्ञापन टीवी आदि से जनता के कानों पर, आँखों पर बरसाये जाते हैं। मैस्सी, रोनाल्डो, नेमार, बेल सभी बस इजारेदार कम्पनियों के ब्राण्ड एम्बेसडर हैं और जूते, कपड़े, डिओड्रेण्ट, चड्डी, सूट, गाड़ी से लेकर सब कुछ बेचने वाले विज्ञापनों की कठपुतली हैं। फुटबॉल हो या कोई भी अन्य खेल सभी वित्तीय पूँजी के अनुसार चलते हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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