ड्रोन हमले – अमेरिकी हुक्मरानों का खूँखार चेहरा
लखविन्दर
पाकिस्तान के वज़ीरिस्तान प्रान्त के दत्ता खेल टाउन सेण्टर में 17 मार्च 2011 को एक मसला हल करने के लिए लगभग 40 लोग जुटे थे। इनमें आम लोगों सहित क़बीलों के सरदार, सरकारी अधिकारी और कर्मचारी भी शामिल थे। इसके अलावा वहाँ 35 पुलिस वाले भी मौजूद थे। इस सभा की जानकारी पाकिस्तानी सेना को दस दिन पहले ही दे दी गयी थी। जब बहस चल ही रही थी कि वहाँ जुटे लोगों पर एक मिसाइल हमला हुआ जिसमें 42 लोग मारे गये। बुज़ुर्गों में से एक भी नहीं बचा।
यह अमेरीकी खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. द्वारा किया गया ‘ड्रोन हमला’ था। ड्रोन ऐसे छोटे लड़ाकू हवाई जहाज़ को कहा जाता है जिसमें कोई पायलट नहीं बैठता बल्कि इन्हें कहीं दूर स्थित सैनिक अड्डे से रिमोट द्वारा संचालित किया जाता है। ड्रोन हमले की यह कोई एक घटना नहीं है। दुनिया के कई देशों में हज़ारों बेगुनाह बुजुर्गों, बच्चों, स्त्रियों, पुरुषों का लहू इन घातक ड्रोन हमलों द्वारा बहाया जा चुका है।
‘कण्ट्रोल रूम’ में बैठे आपरेटरों के लिए यह सब एक वीडियो गेम की तरह होता है। सामने खड़े इन्सानों को मारने की तुलना में कम्प्यूटर स्क्रीन पर दिखायी दे रहे ‘टारगेट’ को बटन दबाकर उड़ा देना कहीं आसान होता है। इसलिए हमले की क्रूरता और भी बढ़ जाती है। शादी, मातम, या अन्य अवसरों पर इकट्ठा हुए लोगों के भारी समूह एक बटन दबाकर उड़ा दिये जाते हैं। घरों में सो रहे लोगों को एक पल में मलबे के ढेर में मिला दिया जाता है। बसों-कारों में बैठी सवारियों की ज़िन्दगी का सफ़र किसी “आतंकवादी” के सवार होने के शक के आधार पर ख़त्म कर दिया जाता है। यहाँ तक कि अकसर हमले के बाद घायलों और मृतकों के पारिवारिक सदस्यों, आम लोगों, सामाजिक कार्यकर्ताओं तक को फिर से मिसाइल दाग कर निशाना बनाया जाता है।
अमेरिका में स्थित सैनिक अड्डों में बैठे अमेरिकी कमाण्डर कम्प्यूटर और उपग्रहों द्वारा कण्ट्रोल होने वाले इन मानवरहित ड्रोन विमानों द्वारा दूसरे देशों में तथाकथित आतंकवादियों को निशाना बनाते हैं। हमले एक सफाया सूची के आधार पर किये जाते है। यह सफाया सूची मुख्य रूप से शक के आधार पर बनायी जाती है। हमले दो तरह के होते हैं। ‘पर्सनेलिटी स्ट्राइक’ वे ड्रोन हमले होते हैं जिनमें किसी एक व्यक्ति को निशाना बनाया जाता है। ‘सिगनेचर स्ट्राइक’ हमलों द्वारा अनजान लोगों के समूह को शिकार बनाया जाता है जिसमें शामिल लोगों को शक के आधार पर अमेरिका-विरोधी आतंकवादी मान लिया गया जाता है। अधिकतर हमले दूसरी तरह के होते हैं।
अमेरिकी खुफिया एजेंसी सी.आई.ए. द्वारा पहला ड्रोन हमला जार्ज डब्ल्यू बुश के राष्ट्रपति काल में 2 फरवरी 2002 को अफ़गानिस्तान में किया गया था। इस पहले ड्रोन हमले में तीन बेहद ग़रीब लोग मारे गये थे। सी.आई.ए. ने इनमें एक के ओसामा बिन लादेन होने का अनुमान लगाया था। अनुमान का आधार था उस व्यक्ति का लम्बा कद! (हालाँकि मारे गये व्यक्ति का कद पाँच फुट ग्यारह इंच था, लादेन से छह इंच कम)। पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, यमन, लीबिया, इराक़ और सोमालिया में अब तक सैकड़ों ड्रोन हमले किये जा चुके हैं जिनमें हज़ारों बेगुनाहों का ख़ून बहाया जा चुका है। कितने लोग मारे जा चुके हैं और कितने घायल और अपंग हुए इसके बारे में पूरी जानकारी हासिल करना असम्भव है लेकिन फिर भी कुछ जानकारी सामने आयी है।
अमेरिका की रिपब्लिकन पार्टी के एक सेनेटर, जो ड्रोन हमलों का कट्टर समर्थक है, ने 20 फरवरी 2012 को एक बयान में कहा कि अमेरिकी ड्रोन विभिन्न देशों में अब तक 4700 लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं। एक ब्रिटिश जाँच संगठन ‘ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिज़्म’ का तब तक का यह अन्दाज़ा था कि इन हमलों के दौरान तीन देशों – पाकिस्तान, यमन और सोमालिया – में 3,072 से लेकर 4,756 लोग मारे जा चुके हैं।
अफ़गानिस्तान के साथ लगे हुए पाकिस्तान के सरहदी इलाक़ों में तालिबान, अल क़ायदा आदि संगठनों के आतंकवादियों को मारने के नाम पर 2004 में ड्रोन हमले शुरू हुए थे। अफ़गानिस्तान पर अमेरिकी क़ब्ज़े का विरोध कर रहे लोग इस इलाके में सक्रिय हैं। अमेरिका हर सूरत में अफ़गानिस्तान पर अपना नियन्त्रण बनाये रखना चाहता है। ‘ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टीगेटिव जर्नलिज़्म” के मुताबिक़ जून 2004 से सितम्बर 2012 तक ड्रोन हमलों में पाकिस्तान के 2,562 से लेकर 3,325 लोग मारे गये थे, जिनमें 474 से 881 के बीच आम नागरिक थे, 174 बच्चों सहित। इस रिपोर्ट के मुताबिक़ 1228 से 1362 लोग इसमें ज़ख़्मी हुए।
‘ब्यूरो’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक यमन में 2002 से जुलाई 2013 तक करीब 157 ड्रोन हमले हुए जिनमें अनुमानतः 818 लोग मारे गये। रिपोर्ट के मुताबिक़ ज़ख़्मी हुए लोगों की संख्या 170 बतायी गयी। इनमें बच्चे, औरतें और बजुर्गों सहित साधारण नागरिक शामिल हैं। इसी रिपोर्ट में सोमालिया में 2007 से 31 जुलाई 2013 तक 21 हमले होने का अन्देशा है जिनमें अन्दाज़न 152 लोग मारे गये और 44 ज़ख़्मी हुए।
अख़बारों, टी.वी. चैनलों, सरकारी विभागों, सामाजिक संगठनों की ख़बरों व रिपोर्टों से तैयार किये गये ये आँकड़े अमेरिकी हाकिमों द्वारा किये जा रहे मानवता के विनाश की पूरी तस्वीर पेश नहीं कर सकते। इन देशों की सरकारें अमेरिकी ड्रोन हमलों का विरोध तो करती हैं लेकिन असलियत में इन्हें उनका पूरा समर्थन है। अमेरिका और सम्बधित देशों की सरकारों द्वारा ड्रोन हमलों में मरने और घायल होने वालों की संख्या कम करके बतायी जाती है, और यह मानकर चला जाता है कि सैनिक आयु का हर व्यक्ति ‘आतंकवादी’ है! लेकिन इन आँकड़ों से एक हद तक अमेरिकी साम्राज्यवादियों की हैवानियत के दर्शन तो होते ही हैं।
सिर्फ़ मौतों और घायलों की संख्या से ही ड्रोन हमलों के बेगुनाह लोगों पर ढाये जा रहे कहर का अन्दाज़ा नहीं लगाया जा सकता। जिनके सिर पर अक्सर घण्टों तक ड्रोन मँडराते रहते हों उनके द्वारा भोगे जा रहे सन्ताप का आप अन्दाज़ा नहीं लगा सकते। ड्रोन हमलों का निशाना बनने वाले इलाकों के लोग हमेशा गम्भीर मानसिक परेशानी से घिरे रहते है। उनको हर समय मारे जाने का डर सताता रहता है। लोग बच्चों को स्कूल भेजने से डरते है। घरों से निकलने से तो लोग डरते ही हैं बल्कि घरों के अन्दर भी लोग सुरक्षित महसूस नहीं करते। लगातार तनाव के चलते मानसिक बीमारियाँ बढ़ती जा रही हैं।
लन्दन के एक मनोविज्ञानी पीटर शाप्वेल्ड ने 2013 में यमन में ड्रोन हमलों वाले इलाके के लोगों से सम्बन्धित एक रिपोर्ट में बताया कि जिन लोगों की उन्होंने जाँच की उनमें 92 प्रतिशत मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं। बच्चे इस बीमारी से अधिक पीड़ित हैं। उन्होंने बताया कि ड्रोनों के डर से औरतें गर्भपात का शिकार हो रही हैं। शाप्वेल्ड कहते हैं कि एक व्यक्ति की मौत सैकड़ों लोगों को भयानक मानसिक चोट पहुँचाती है। ड्रोनों का डर एक पूरी पीढ़ी को भयानक मानसिक सदमा पहुँचा रहा है। यमन के एक स्कूल के प्रिंसिपल ने एक पत्रकार को बताया कि बच्चे ज़रा सी आवाज से डर जाते हैं। बहुत से बच्चे हमेशा गुस्से में रहते हैं और किसी से बात नहीं करते। ड्रोनों का डर इतना ज़्यादा है कि उन्हें रात को नींद नहीं आती।
हमारे देश में ही नहीं बल्कि दुनियाभर में अमेरिकी साम्राज्यवादियों और उनके सहयोगी देशों द्वारा अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, लीबिया, यमन, सोमालिया, इराक़ और फ़िलिस्तीन में किये जा रहे इन भयंकर ड्रोन हमलों के बारे में बहुत कम जानकारी है। बहुत से लोगों को ऐसा लगता है जैसे अमेरिकी सरकार अमेरिका और संसार के लोगों की इस्लामी आतंकवादियों से रक्षा के लिए लड़ रही है। साम्राज्यवादी मीडिया या तो अमेरिकी साम्राज्यवाद के भयानक दुष्कर्मों के बारे में मौन धारे रखने की नीति पर चलता है और या फिर इसके दुष्कर्मों को “आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई” बताकर लोगों को गुमराह करता है।
अमेरिकी पूँजीपति वर्ग अपने देश के मेहनतकश लोगों की लूट तो करता ही है बल्कि उससे भी ज़्यादा दूसरे देशों ख़ासकर एशिया, अफ्रीका, लातिनी अमेरिका के देशों के कच्चे माल और मेहनतकश जनता की लूट से बेहिसाब मुनाफ़े बटोरता आया है। अरब देशों के तेल स्रोतों पर कब्ज़ा करना इसका हमेशा से मुख्य एजेण्डा रहा है। अपना दबदबा क़ायम रखने के लिए आर्थिक तौर-तरीक़ों का उपयोग तो करता ही है, बल्कि सीधी फौजी दख़लन्दाज़ी द्वारा और इसका डर दिखाकर दबदबा बनाये रखने की घिनौनी चालें चलता रहा है। “आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई” के बहाने दूसरे देशों की जनता पर युद्ध थोपे जाते रहे हैं। इस समय अफ़गानिस्तान, इराक़, सोमालिया, यमन, पाकिस्तान आदि देशों में जारी सैनिक दख़लन्दाज़ी अमेरिकी पूँजीपति वर्ग की साम्राज्यवादी नीति का ही एक हिस्सा है न कि “आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई” और “विश्व में शान्ति स्थापित करने की लड़ाई” का हिस्सा। जिस अल क़ायदा को ख़त्म करने का बहाना बनाकर विभिन्न देशों में अमेरिकी हाकिम बेगुनाहों का ख़ून बहा रहे हैं वही अल क़ायदा अमेरिका की मदद से ही एक बड़ी ताक़त बनकर उभरा था। सोवियत साम्राज्यवाद के साथ अपनी लड़ाई में अमेरिकी साम्राज्यवादी हुक्मरानों ने अल क़ायदा की पैसे, हथियारों और ट्रेनिंग द्वारा मदद की थी। अल क़ायदा ने आज तक मानवता के ख़िलाफ़ जो अपराध किये हैं वास्तव में वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के अपराध हैं। आज अल क़ायदा के ख़िलाफ़ लड़ाई के नाम पर अमेरिकी हुक्मरान अपने लुटेरे हितों की पूर्ति की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए ड्रोन हमलों द्वारा अल क़ायदा के ख़िलाफ़ लड़ाई तो सिर्फ़ एक बहाना है, असली निशाना तो दूसरे देशों की मेहनतकश जनता की लूट करना है। यह भी एक तथ्य है कि विभिन्न मुसलिम देशों में फौजी दख़लन्दाज़ी द्वारा जनता पर ढाये जा रहे अत्याचारों ने अल क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठनों के हाथ और मज़बूत ही किये हैं।
इस हमलावर नीति के ख़िलाफ़ अमेरिकी जनता में काफ़ी असन्तोष मौजूद है। मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जनवरी 2009 में पहली बार राष्ट्रपति बनने से पहले अपनी चुनाव अभियान में वादा किया था कि अगर वह राष्ट्रपति बनता है तो वह अमेरिका की हमलावर नीति को त्याग देगा। पिछले पाँच वर्षों के दौर ने यह साबित किया है कि यह महज़ एक चुनावी स्टण्ट था। हमलावर नीति को छोड़ने या कम करने की तो बात ही दूर, बल्कि यह पहले से भी अधिक उग्र हो गयी है। यह बात ड्रोन हमलों से भी बख़ूबी समझी जा सकती है। 2001 से 2009 तक बुश के आठ साल के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान 45 से 52 ड्रोन हमले किये गये थे। ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद इनमें बेहद तेज़ी आयी। ‘ब्यूरो’ की 23 जनवरी 2014 की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ ओबामा के पहले पाँच वर्ष के कार्यकाल के दौरान तीन देशों पाकिस्तान, यमन और सोमालिया में कम से कम 390 ड्रोन हमले हो चुके हैं जिनमें कम से कम 2400 लोग मारे गये।
उल्लेखनीय है कि अन्तरराष्ट्रीय क़ानूनों के अन्तर्गत भी कोई देश किसी देश द्वारा हमला होने की सूरत में ही जवाबी कारवाई के रूप में वापस हमला कर सकता है। अपने ख़ुद के बनाये क़ानूनों की साम्राज्यवादी देश हमेशा से ही धज्जियाँ उड़ाते रहे हैं। अमेरिका इनमें सबसे आगे है। अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान, यमन, सोमालिया, इराक़ या किसी और देश द्वारा अमेरिका पर कभी कोई हमला नहीं हुआ। लेकिन अमेरिकी हमलावर सेनाएँ इन देशों में युद्ध कर रही हैं। ड्रोन हमलों के बारे अमेरिकी सरकारें पहले तो कुछ भी बोलने से बचती रही हैं। लेकिन ड्रोन हमलों के ख़िलाफ़ उठ रही आवाज़ों से मजबूरहोकर 23 मई 2013 को ओबामा ने इसके बारे अपना मुँह खोला और सरेआम झूठ बोला। “शान्ति” का “नोबेल पुरस्कार” प्राप्त करने वाले “महापुरुष” ओबामा ने कहा कि जनता की सुरक्षा के प्रति सरोकार और बहुत ही मुश्किल चुनाव के तहत ही वह ड्रोन हमले कर रहे हैं। उसने कहा कि ये हमले पूरी तरह क़ानूनी हैं। ओबामा का कहना था कि बहुत जाँच-पड़ताल के बाद ही हमले किये जा रहे हैं पर फिर भी कुछ साधारण नागरिक इसका शिकार हुए हैं जिसके लिए उसे ज़िन्दगी भर दुख रहेगा। उसने कहा कि भविष्य में साधारण नागरिकों के शिकार होने की शून्य सम्भावना रखकर ही हमले किये जायेगें। ओबामा के इस महाझूठ की पोल उसके इस भाषण के बाद बार-बार खुलती रही है। सिर्फ़ शक के आधार पर लोगों के समूहों पर लगातार हमले इसके बाद भी जारी हैं। बेगुनाह बच्चे, औरतें, बुज़ुर्गों सहित साधारण नागरिक बड़ी संख्या में ओबामा के इस भाषण के बाद भी मारे जाते रहे हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार ड्रोन हमलों का शिकार हुए लोगों में सिर्फ़ दो प्रतिशत ही अल क़ायदा के बड़े नेता थे। बाकी 98 प्रतिशत साधारण नागरिक, अल क़ायदा के साधारण सदस्य और समर्थक और यहाँ तक कि अल क़ायदा के विरोधी थे।
अमेरिकी सेना बड़ी संख्या में ड्रोन विमानों की ख़रीद पर ख़र्च कर रही है। 2001 में अमेरिकी सेना के पास 25 ड्रोन थे। जनवरी 2012 में इनकी संख्या बढ़ कर 7000 हो चुकी है। इराक़ और अफ़गानिस्तान में अमेरिकी सेना ने बड़े पैमाने पर ड्रोन इस्तेमाल किये हैं। हथियार उद्योग अमेरिकी अर्थव्यवस्था का महत्त्वपूर्ण अंग है। अमेरिकी पूँजीपति वर्ग युद्धों से बड़े पैमाने पर मुनाफ़ा कमाता है। आतंकवाद के ख़िलाफ़ युद्ध, ड्रोन और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के बीच के नट-बोल्ट किसी से छिपे नहीं है। इसमें भी कोई हैरानी की बात नहीं कि अमेरिका में उसके अपने नागरिकों की जासूसी और कत्लों के लिए अगले दस वर्षों में विभिन्नि तरह के 30,000 से ज़्यादा ड्रोन स्थापित करने का प्रोग्राम बन चुका है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि अमेरिका ड्रोन तकनीक पूरे संसार में इस्तेमाल करने की कोशिश करेगा। विश्व की जनता के ख़िलाफ़ निरन्तर युद्ध में लगे रहना अमेरिकी साम्राज्यवाद का चरित्र और उसकी ज़रूरत है।
अमेरिकी साम्राज्यवाद आज जिस आर्थिक संकट का शिकार है उसका हमलावर रुख अपनाना, दूसरे देशों के कच्चे माल और बाज़ार पर ज़्यादा से ज़्यादा क़ब्ज़ा जमाने की कोशिश करना उसकी मजबूरी है। इसके बिना यह ज़िन्दा नहीं रह सकता। लेकिन साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था की अपनी ख़ुद की गति इसको कभी भी आर्थिक संकटों से छुटकारा हासिल नहीं करने देगी। आर्थिक संकट और जनता पर दमन-अत्याचार पूँजीवादी-साम्राज्यवाद के घोर मानवता विरोधी होने को दुनिया की लोगों के सामने अधिक से अधिक नंगा करते जायेंगे।
अमेरिका और दूसरे देशों में ऐसे लोग हैं जो सिर्फ़ ड्रोन हमलों का विरोध करते हैं लेकिन समूची सैनिक दख़लन्दाज़ी का नहीं। वास्तव में ड्रोन हमले सैनिक दख़लन्दाज़ी का ही हिस्सा हैं। अफ़गानिस्तान में अमेरिकी युद्ध ने 30 लाख अफ़गानियों को शरणार्थी बना दिया है। अफ़गानिस्तान में औसत आयु 48 वर्ष रह गयी है। 75 प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं। 2012 में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर 1000 पर 137 थी जो कि विश्व में सबसे ज़्यादा है। अमेरिका द्वारा बिठायी गयी कठपुतली सरकार ने घोर स्त्री विरोधी क़ानून बनाये हैं जिनके अनुसार पति को अपनी पत्नी को पीटने का अधिकार है, स्त्रियों का किसी मर्द को साथ लिये बिना घर से निकलना ग़ैरक़ानूनी है, कि स्त्रियाँ और पुरुष किसी कार्यस्थल पर इकट्ठा काम नहीं कर सकते। अफ़गानिस्तान में आधे से अधिक लोग युद्ध के कारण मानसिक बीमारीयों से पीड़ित हो चुके हैं। यह है जो “जनवाद” “शान्ति” पसन्द अमेरिकी हुक्मरानों के “आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध” ने अफ़गानिस्तानी लोगों को तोहफ़े के तौर पर दिया है। इसलिए सिर्फ़ ड्रोन हमलों ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण सैनिक दख़लन्दाज़ी का ही विरोध करना चाहिए।
अमेरिकी हुक्मरानों द्वारा ड्रोन हमले और फौजी दख़लन्दाज़ी के विरोध का यह अर्थ नहीं कि हम सिर्फ़ अमेरिकी साम्राज्यवाद का ही विरोध करते हैं। रूस या किसी अन्य देश के साम्राज्यवादी भी मानवता के बराबर के दुश्मन हैं। वास्तव में विश्व में क़ायम समूची पूँजीवादी-साम्राज्यवादी व्यवस्था ही मानवता की दुश्मन है। अल क़ायदा जैसे आतंकवादी संगठन भी इसी व्यवस्था के समर्थक हैं। इसलिए ड्रोन हमलों के विरोध का मतलब यह भी नहीं है कि हम अल क़ायदा जैसे धार्मिक कट्टरपन्थी और आतंकवादी संगठनों का पक्ष ले रहे हैं। इन सभी जनविरोधी ताक़तों के आपस के अन्तरविरोधों में हमेशा मेहनतकशों को ही पिसना पड़ा है। मज़दूरों-मेहनतकशों को सभी रंग-बिरंगी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़नी होगी।
दमनकारियों द्वारा जनता का दमन हमेशा जारी नहीं रह पायेगा। जनता पहले भी पूँजीवादी-साम्राज्यवादी हुक्मरानों के ताबूत में कील ठोंकती आयी है और आगे भी ठोंकती रहेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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