शासन–प्रशासन तंत्र की आपराधिक संवेदनहीनता ने छीन ली हज़ारों बच्चों की ज़िन्दगी
पूर्वी उत्तर प्रदेश में इंसफ़ेलाइटिस का कहर

(‘बिगुल’ से साभार) 

–पिछले 27 वर्षों में हजारों बच्चों की मौत
–“यह सामान्य मृत्यु नहीं हत्या है!”
–मेडिकल कालेज में न वाइरोलाजी लैब, न ही जाँच की व्यवस्था
–सरकारें आती-जाती रहीं पर टीकाकरण अभियान नहीं चल सका

गोरखपुर। पूर्वी उत्तर प्रदेश इस बार फ़िर इंसफ़ेलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) की चपेट में है। यह टिप्पणी लिखे जाने तक (30 अगस्त तक) केवल बाबा राघव दास मेडिकल कालेज, गोरखपुर में 300 से अधिक बच्चों की मौतें हो चुकी हैं। मरीजों का भर्ती होना अभी जारी है। महराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, देवरिया आदि जिलों के जिला अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में भी बीमार बच्चे लगातार भर्ती हो रहे हैं। यहाँ से भी बच्चों के मरने की खबरें लगातार आ रही हैं।

encephalitisसंजय गाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान के डॉक्टरों की टीम के साथ जापानी बुखार से प्रभावित इलाकों का दौरा करने के बाद संस्थान के माइक्रोबाइलॉजी विभाग के प्रोफ़ेसर टी.एन.ढोले ने कहा है कि इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या दस हजार तक हो सकती है। ज्यादातर मौतें गांवों में और निजी डाक्टरों के यहाँ हो रही हैं जिनकी कोई  गिनती सरकारी आंकड़ों में नहीं है। अखबारों के मुताबिक सिर्फ़ कुशीनगर जिले के एक इलाके में 150 से अधिक बच्चों की लाशें बूढ़ी गंडक में बहाई जा चुकी हैं। ज़ाहिर है कि इस बीमारी का शिकार होने वालों में ज्यादातर बेहद गरीब लोग हैं।

पूर्वांचल में आज से 27 साल पहले ही इस बीमारी ने दस्तक दे दी थी जब 100 से अधिक बच्चों को अपनी जिन्दगी गँवानी पड़ी थी। तब से लेकर आज तक कई सरकारें आयी-गयीं लेकिन इसकी रोकथाम के लिए कोई कारगर उपाय नहीं किया गया। इस दौरान सरकारें ढपोरशंखी घोषणाएँ करती रहीं, नौकरशाही इस बीमारी से निबटने के नाम पर आवंटित धन भकोसती रही, तमाम चुनावी पार्टियों के नेता बच्चों की लाशों पर सियासत करते रहे! नतीजा यही सामने आना था। व्यापक टीकाकरण अभियान चलाकर जिस बीमारी का समूल नाश किया जा सकता था वह आज महामारी का रूप धारण कर चुकी है। शासन–प्रशासन तंत्र की आपराधिक संवेदनहीनता के चलते हर साल सैकड़ों बच्चों की मौतें हो जाती हैं। ये साधारण मौतें नहीं हत्याएं हैं जिसकी जिम्मेदारी सरकारों और आला अफ़सरों के सिर पर जाती है।

विगत 30 अगस्त को गोरखपुर मेडिकल कालेज के इंसफ़ेलाइटिस वार्ड में भर्ती मरीजों की जाँच के लिए डॉक्टरों की टीम के साथ आये प्रोफ़ेसर टी.एन.ढोले तक ने स्थानीय पत्रकारों से बातचीत में कहा कि बच्चों की मौतें साधारण मौतें नहीं हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यह बच्चों की हत्या है जिसकी जाँच के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश और मानवाधिकार आयोग के चेयरमैन को बुलाया जाना चाहिए और इस आपराधिक कृत्य के लिए जिम्मेदार लोगों को बख्शा नहीं जाना चाहिए।

प्रो. ढोले देश की पूँजीवादी शासन प्रणाली व न्याय व्यवस्था के बारे में भ्रमों के शिकार हो सकते हैं लेकिन उनके द्वारा कही गयी बातों की सच्चाई से कोई इन्कार नहीं कर सकता। उन्होंने यह भी  कहा कि इस रोग से प्रभावित मरीजों की ठीक-ठीक संख्या का पता तो नहीं लगाया जा सकता लेकिन उनका अनुमान है कि एक लाख से अधिक लोग इससे प्रभावित हैं। इनमें बच्चों की संख्या अधिक है और इन बच्चों में भी कुपोषित और दुर्बल बच्चों की संख्या अधिक है।

यही सच्चाई है। इंसफ़ेलाइटिस से पीड़ित होने वाले अधिकांश बच्चे गरीबों के ही हैं। इसका कारण भी बहुत साफ़ है। यह बीमारी मच्छरों के काटने से फ़ैलती है जो ठहरे हुए पानी में और गन्दे स्थानों पर पलते हैं। समझा जा सकता है कि गाँवों और शहरों की गन्दी बस्तियों में रहने वाली आबादी जापानी इंसफ़ेलाइटिस के विषाणुओं के वाहक मच्छरों के लिए आसान शिकार हैं। यही असल कारण भी है कि क्यों शासन–प्रशासन तंत्र पिछले 27 सालों से इसके रोकथाम के कारगर उपाय नहीं कर रहा है। पूँजीपतियों और अमीरों की सेवा में दिन-रात जुटी रहने वाली शासन–प्रशासन की मशीनरी के लिए गरीबों की जान की कोई कीमत ही नहीं है।

चुनावी पार्टियों के लिए गरीब आबादी वोट बैंक के सिवा कुछ नहीं है। इसीलिए जब इस बीमारी का हमला शुरू हो जाता है और हर रोज मौतों की खबरें आनी शुरू होती हैं तो अखबारी बयानबाजियाँ और एक दूसरे पर तोहमतें मढ़ने का खेल शुरू हो जाता है। फ़िर मौसम बदलते ही उनकी सारी चीखपुकार अगले मौसम तक के लिए शान्त हो जाती है। सरकारी सक्रियता भी बीमारी का प्रकोप शुरू होने पर और हल्ला मचने पर कुछ समय के लिए दिखायी पड़ता है। इस बार भी यही हो रहा है। केन्द्र और प्रदेश सरकार के मंत्रियों और अफ़सरों के दौरे हो रहे हैं, स्वास्थ्य विभाग के अफ़सरों- कर्मचारियों को डाँट-फ़टकार पिलायी जा रही है, बीमारी से निबटने के लिए टीकाकरण अभियान चलाने के ऐलान हो रहे हैं। वही हर बार दुहराया जाने वाला अश्लील नाटक। सरकार के नुमाइन्दों और आला अफ़सरों के  दौरों के साथ गोरखपुर मेडिकल कालेज प्रशासन भी सब कुछ ठीक-ठाक होने और व्यवस्था दुरुस्त दिखाने की कवायदों में जुटा रहता है। जबकि असलियत यह है कि खुद मेडिकल कालेज में ही गन्दगी का ढेर पड़ा रहता है, गड्डों में पानी जमा रहता है। हद तो तब हो जाती है जब प्रदेश की मुख्य सचिव नीरा यादव के दौरे के समय मेडिकल कालेज प्रशासन अपनी मुस्तैदी दिखाने के लिए मर चुके बच्चे को ऑक्सीजन देने का नाटक करता है। मृतक बच्चों के परिजनों के विलाप और आर्तनाद साहब लोगों को सुनायी न दें, इसका पक्का इन्तजाम किया जाता है। इन सब कवायदों के बीच हर रोज एक दर्जन से अधिक बच्चों की मौतें होती रहती हैं।

गोरखपुर मण्डल के एकमात्र प्रतिनिधि मेडिकल कालेज में सुविधाओं का आलम यह है कि मरीजों को भर्ती करने के लिए पर्याप्त वार्ड ही नहीं हैं। इंसफ़ेलाइटिस का पता लगाने के लिए होने वाली विशेष प्रकार की खून की जाँच की कोई व्यवस्था कालेज में नहीं है। इसके लिए जरूरी उपकरण एवं बुनियादी ढाँचा तक पिछले 27 सालों में विकसित नहीं हो पाया। प्रदेश के पूर्व राज्यपाल विष्णुकान्त शास्त्री ने मेडिकल कालेज में जरूरी उपकरणों की खरीद और बुनियादी ढाँचे के विकास के नाम पर 73.60 लाख रुपये दिये थे लेकिन उपकरणों की खरीद में कमीशन की बन्दरबाँट का मामला न सुलट पाने के कारण फ़ाइलें गोरखपुर मेडिकल कालेज, लखनऊ मेडिकल कालेज और प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में दौड़ती रहीं। जब फ़िर इस साल इंसफ़ेलाइटिस का कहर बरपा हुआ और कुछ अखबारों ने इस बाबत जानकारी इकट्ठा की तो पता चला कि इस मद का अधिकांश पैसा खर्च हो चुका है पर गोरखपुर मेडिकल कालेज में सुविधाओं के नाम पर कुछ नजर नहीं आता।

इंसफ़ेलाइटिस का प्रकोप गोरखपुर मण्डल के महराजगंज और कुशीनगर जिलो में सर्वाधिक है। जब गोरखपुर मेडिकल कालेज की यह दुरवस्था है तो इन जिलों के जिला अस्पतालों और प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की हालत के बारे में क्या कहा जाये। सभी जानते हैं कि सरकारी अस्पतालों में पहले जो सुविधाएँ और दवाएँ उपलब्ध थी वे भी लगातार कम होती जा रही हैं। यह स्वास्थ्य सुविधाओं का निजीकरण करने की सरकारी नीतियों का नतीजा है। दूर-दराज के गाँवों के गरीब यातायात के साधनों के अभाव और आर्थिक तंगी के कारण समय पर मेडिकल कालेज या जिला अस्पताल पहुँच नहीं पाते। प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर समय पर डाक्टर जब उपलब्ध नहीं होते तो एम्बुलेंस की सुविधा मौजूद होने के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता। नतीजतन जब बीमार बच्चे मेडिकल कालेज पहुँचते हैं तो ज्यादातर मामलों में बीमारी बेकाबू हो चुकी होती है। जिनके बचने की थोड़ी-बहुत उम्मीद होती है वे असंवेदनशील और आपराधिक हदों तक लापरवाही करने वाले डाक्टरों की भेंट चढ़ जाते हैं। आखिर ये डाक्टर भी तो उसी बाजार और मुनाफ़े के तंत्र के ही हिस्से हैं। यह तंत्र संवेदनशील और मानवतावादी चिकित्सकों को भी लगातार संवेदनहीन बनाता रहता है। इसी प्रक्रिया में ऐसे डाक्टर भी पैदा हो जाते हैं जो कफ़नखसोटों की जमात में शामिल हो जाते हैं।

पूर्वांचल में इस साल इंसफ़ेलाइटिस का कहर पिछले सालों की तुलना में कई गुना प्रचण्ड रूप धारण कर आया है। यह महामारी जैसा रूप धारण कर चुका है। इसलिए स्थानीय अखबारों में चर्चाएँ भी पिछले सालों के मुकाबले अधिक हुईं। चुनावी सियासत के खेल में पिछड़ने के डर से इस बार मुलायम सरकार ने इसकी रोकथाम के लिए व्यापक उपायों की घोषणाएँ की है। नवम्बर में व्यापक टीकाकरण अभियान शुरू करने की घोषणा की गयी है। प्रदेश सरकार के अनुरोध पर केन्द्र सरकार ने 75 लाख टीके उपलब्ध भी करा दिये हैं। मेडिकल कालेज को भी सुविधासंपन्न बनाने के लिए फ़ण्ड की कमी नहीं होने देने का दावा किया गया है। लेकिन यह मौसमी सक्रियता आगे भी जारी रहेगी इसकी गारण्टी कैसे होगी? सरकारी तंत्र वही, नौकरशाही वही, स्वास्थ्य विभाग वही-ज्यादा सम्भावना यही है कि फ़िर वही ढाक के तीन पात होंगे। इसके पहले चले टीकाकरण अभियान कागजों पर ही चले हैं इसका सबूत यह है कि कागजों पर जिन जगहों पर टीकाकरण अभियान चलाना दर्शाया गया है वहाँ से भी इंसफ़ेलाइटिस के मरीज सामने आये हैं।

इस बीमारी का प्रकोप जुलाई से अक्टूबर माह तक होता है। जो स्वास्थ्य विभाग इस समय जगह-जगह मच्छरों को मारने वाले रसायनों का छिड़काव करता दिखायी दे रहा है वह अब तक कुम्भकर्णी नींद क्यों सोया हुआ था। यह सवाल भी भविष्य के बारे में आश्वस्त नहीं होने देता। इसके साथ ही कुछ विशेषज्ञ चिकित्सक टीकाकरण अभियान की तकनीकी-चिकित्सकीय खामियों की ओर भी इशारा कर रहे हैं। इनका कहना है कि मनुष्यों के साथ ही उन पशुओं को भी टीकाकरण अभियान का लक्ष्य बनाया जाना चाहिए जो जापानी इंसफ़ेलाइटिस के विषाणु के ‘स्टोर हाऊस’ हैं, जैसे सुअर। विषाणुओं के वाहक मच्छर मनुष्यों को काटने से पहले जब सुअर को काटते हैं तभी इंसफ़ेलाइटिस के विषाणु मनुष्य के रक्त के सहारे उसके मस्तिष्क में पहुँचते हैं। इसके पहले विषाणुओं का जीवन–चक्र पूरा नहीं होता। लेकिन जिस टीकाकरण अभियान की घोषणा की गयी है उसमें पशुओं को टीका लगाने की बात नहीं है। यह अपने आप में टीकाकरण अभियान की कारगरता पर सवाल है।

और सवाल सिर्फ़ इंसफ़ेलाइटिस का नहीं है। सवाल जनस्वास्थ्य के समूचे ढाँचे का है। सोचने की बात है कि एड्स जैसी बीमारियों का हौव्वा खड़ा करने के लिए तमाम सरकारी व गैरसरकारी एजेंसियां जितने पैसे बहाती हैं वे आम लोगों को आम तौर पर होने वाली उन साधारण बीमारियों-जैसे टी.बी., खूनी पेचिश, काला जार आदि-की रोकथाम और उपचार के सवालों से आँखें क्यों मूँदे रहती हैं। निजीकरण के मौजूदा दौर में अब इस बारे में सोचना भोलापन होगा कि सरकारें जन-स्वास्थ्य का कोई व्यापक और कारगर ढाँचा खड़ा करने की दिशा में कदम उठाएंगी। मौजूदा पूँजीवादी ढाँचे में हर चीज की तरह मनुष्य का स्वास्थ्य भी बाजार की राक्षसी शक्तियों के हवाले है। चिकित्सा शिक्षा से लेकर अस्पतालों और अन्य सेवाओं तक-हर क्षेत्र में मुनाफ़े का खेल है। इसलिए यह समझना कठिन नहीं है कि अब जनस्वास्थ्य के ढाँचे का सवाल भी पूँजीवादी आर्थिक ढाँचे और उसकी बुनियाद पर खड़े शासन के ढाँचों के रहने-न रहने के साथ जुड़ गया है। जब तक यह ढाँचा बरकरार रहेगा जनस्वास्थ्य का कोई कारगर ढाँचा खड़ा ही नहीं हो सकता। नौकरशाही और चिकित्सकों की संवदेनहीनता और धनपिपासा को नैतिक सदुपदेशों से न तो दूर किया जा सकता है और न ही मौजूदा निरंकुश राजनीतिक सत्ता तंत्र से यह उम्मीद की जा सकती है कि वह जनता की जिन्दगी के साथ खिलवाड़ न करे। मौजूदा उत्पादन प्रणाली और शासन प्रणाली का खात्मा ही अब वह रास्ता है जिस पर चलकर गरीब मेहनतकश जनता जब अपनी सत्ता कायम करेगी, केवल तभी जनस्वास्थ्य का एक कारगर व संवेदनशील ढाँचा खड़ा किया जा सकता है। जब ऐसा समाज बनेगा जो मुनाफ़े के लिए उत्पादन पर नहीं वरन लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए उत्पादन की बुनियाद पर खड़ा होगा तभी आम जनता के स्वास्थ्य की देखभाल राज्य की जिम्मेदारी बन सकेगी। पिछली सदी में रूस, चीन जैसे देशों में जब मेहनतकशों की सत्ताएँ कायम थी, सच्चा समाजवाद जि़न्दा था, तब वहाँ जनता की स्वास्थ्य रक्षा राज्य की जिम्मेदारी बना दी गयी थी और जनता का जन्मसिद्ध अधिकार। व्यापक जन अभियान चलाकर उन सत्ताओं ने तमाम महामारियों और आम बीमारियों से समूची जनता को निजात दिला दी थी। यही कारण था कि इन समाजों में शिशु मृत्यु दर घट गयी थी  और लोगों की औसत आयु में भी आश्चर्यजनक बढ़ोत्तरी हुई थी। इन समाजों के उदाहरण स्वयं यह रास्ता दिखाते हैं कि हमें किस राह पर चलना चाहिए।

 

आह्वान कैम्‍पस टाइम्‍स, जुलाई-सितम्‍बर 2005

 

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