स्टीव जॉब्स: सच्चा “नायक” लेकिन किसके लिए?

सनी

गत 5 अक्टूबर को स्टीव जॉब्स की मृत्यु हो गयी। लम्बे समय से कैंसर से जूझने के बाद उनकी मृत्यु हुई। मीडिया ने इस घटना को इस तरह प्रचारित किया मानो वह अनाथ हो गया हो। दुनिया का सबसे बड़ा ‘अन्वेषक’ अब नहीं रहा! ऐपल के पूर्व सी-ई-ओ- तथा ‘पिक्सर’ के संस्थापक को बुर्जुआ मीडिया ने एक सच्चे हीरो की श्रद्धांजलि दी। यह सच है कि स्टीव जॉब्स एक सच्चे नायक थे! बस सवाल यह है कि किनके लिए? आइये कुछ वाकयों से समझें।

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मुनाफ़े के लिए उनकी नज़र सदा अपने प्रतिद्वन्दियों (कई बार सहयोगियों) की गर्दन पर रहती थी और मौका मिलते ही छुरा चलाने में वे काफ़ी माहिर थे। वे मीडिया के सेलिब्रिटी थे, यानी कि मीडिया जिनका जश्न मनाता है या यूँ कहें कि ऐसे व्यक्ति जिनके वैयक्तिक पतन और रोज़मर्रा की गतिविधियों को भी मीडिया सेलिब्रेट करता है। देखिये कैसे! यह वही स्टीव जॉब्स हैं जिन्होंने 1978 में जन्मी बच्ची लिसा को यह कहकर अपनी बच्ची मानने से इंकार कर दिया था कि वे नपुंसक हैं! (ताकि पालन-पोषण का खर्चा देने से बचा जा सके!!) वाकई नवोन्मेषक बुद्धि की दाद देनी होगी! अपने साथी नवोन्मेषक वोजि़्नयाक को उनकी साझा कम्पनी से निकालने का मसला हो या जोन स्कली के साथ विवाद, उन्होंने अपनी कॉरपोरेट नवोन्मेषक भावना को बार-बार साबित किया! हर रिश्ता, हर नैतिकता सिर्फ पैसे में तोली जाती है – स्टीव जॉब्स ने इसे जीवन के हर कदम पर निष्ठा के साथ लागू किया। स्टीव जॉब्स को उनकी कम्पनी में ‘तानाशाह’ के नाम से जाना जाता था। उनकी कम्पनी ऐपल आई-पैड, लैपटॉप, पी-सी-, सॉफ्रटवेयर इत्यादि उत्पाद बनाती है। उपभोक्ताओं के सामने वे सदा ऐसे उत्पाद लाते थे जिनसे उनकी जिन्दगी में निर्णायक बदलाव आ जाये! जैसे कि आई-पैड ने कई उच्च मध्यमवर्गीय तथा उच्च वर्ग के नौजवानों के व्यक्तित्व का निर्माण किया होगा! अब आइये स्टीव जॉब्स के नायकत्व के तीन प्रमुख पहलुओं के बारे में जानें।

पहला, मुनाफ़े की होड़ में स्टीव जॉब्स ने उन लाखों मज़दूरों को जो उनकी फैक्ट्री या उनकी ठेका कम्पनियों में काम कर रहे थे मुनाफ़े की भेंट चढ़ाया। चीन की फॉक्सकॉन तथा इन्वेंटेक ऐपल कि मुख्य ठेका कम्पनियाँ हैं। यहाँ मज़दूरों को नारकीय परिस्थितियों में मुनाफ़े की भेंट चढ़ाया जाता है। फॉक्सकॉन में मज़दूरों से 16-16 घण्टे तक काम कराया जाता है। मज़दूरों पर नज़र रखने के लिए हर जगह कैमरे मौजूद रहते हैं। यहां मज़दूरों का भीषण शोषण होता है। कम्पनी के सुपरवाईजरों के दुर्व्यवहार तथा अमानवीय परिस्थितियों से तंग आकर कई मज़दूर यहाँ आत्महत्या भी कर चुके हैं। मज़दूरों के शरीर से ख़ून की आखि़री बूँद तक निचोड़ लेने के लिए ऐपल सरीखी कम्पनियां फॉक्सकॉन जैसे नारकीय मज़दूर कैम्पों को विनिर्माण के लिए चुनती हैं। ऐपल का सारा मुनाफ़ा चीन तथा अन्य तीसरी दुनिया के देशों व ख़ुद अमेरिका के मज़दूरों के शोषण से पैदा होता है। स्टीव जॉब्स को इस कला में महारत हासिल थी कि कौन-से ऐसे नये तरीके हैं जिनसे कम्पनी का मुनाफ़ा और मज़दूरों का शोषण बढ़े।

दूसरा, ऐपल जैसी कम्पनियाँ मशीनरी तथा तकनीक के विकास का उपयोग मानवता के जीवन और अधिक वैविध्यपूर्ण बनाने के लिए नहीं करतीं बल्कि इसके ज़रिये मज़दूरों का शोषण बढ़ाती हैं। यह बात स्टीव जॉब्स की ऐपल के साथ उन तमाम कम्पनियों के लिए भी लागू होती हैं जो ओटोमेटेड मशीनरी, रोबोटिक मशीनरी के उत्पादन में लगी हुई हैं। यह वह दूसरा तरीका है जिससे कि पूँजीपति मज़दूरों का शोषण करता है। बेहतर मशीनरी उत्पादन को बढ़ाती है, यानी अब मज़दूर की एक दिन की श्रम शक्ति पहले से अधिक उत्पादन करती है। श्रम की उत्पादकता जिस रफ्तार से बढ़ती है मज़दूरी उस रफ्तार से नहीं बढ़ती और जैसे-जैसे उत्पादकता बढ़ती है मज़दूरों की एक संख्या काम से बाहर होती जाती है। यह संख्या मज़दूरों की रिज़र्व आर्मी का निर्माण करती है और इसके कारण पूँजीपतियों की मोलभाव करने की क्षमता बढ़ जाती है। नतीजतन, जो बेरोज़गार नहीं होते वे भी दरिद्र होते जाते हैं। मुद्रास्फीति के जरिये वैसे भी पूँजीपति अपना मुनाफ़ा बढ़ाता है और मज़दूर की वास्तविक मज़दूरी घटाता जाता है। अगर आप मुद्रास्फीति को समायोजित कर दें तो पायेंगे की आज से 5 साल पहले एक मज़दूर को आज से अधिक मज़दूरी मिलती थी। आई-बी-एम-, माइक्रोसॉफ्रट, ऐपल, एच-पी-, कावासाकी, कुका व अन्य जापानी कम्पनियाँ आज मुख्यतः तकनोलॉजी के भिन्न आयामों के विस्तार में लगी हुई हैं। मज़दूर के श्रम की व्यवस्थित तथा सघन लूट के नये-नये तरीके ईजाद करने के लिए कारपोरेट मीडिया के हीरो हैं, तो इसमें हैरत कैसी?

तीसरा, ऐपल सरीखी कम्पनियों (सैमसंग, सोनी, तोशिबा, माइक्रोसाफ्रट आदि) के उत्पाद की श्रेणी में मुख्यतः आई-पॉड, आई-फोन, एक्स-बोक्स, लैपटॉप, होम एप्लायंस तथा तमाम ऐसे उत्पाद आते हैं जो वैयक्तिक उपभोग के लिए होते हैं। ये वे उत्पाद हैं जिनका इस्तेमाल आज मुख्यतः मनुष्य को उसकी श्रम संस्कृति तथा सामाजिकता से दूर करते हैं व व्यक्तिवाद, विलासिता, अलगाव व उपभोक्तावाद को हावी करते हैं। निश्चित तौर पर तकनोलॉजी ने व्यक्ति को मुक्त किया है। मनोरंजन के साधनों, सूचना का आदान-प्रदान, कला तथा ख़ुद विज्ञान को गहनतम तथा नये स्तर तक विकसित करने में भूमिका निभायी है। परन्तु मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था यह सब उन लोगों को मुहैया कराती है जिनके पास तमाम ऐसे संसाधन खरीद पाने के लिए पैसे हैं। इसने सृजन से अधिक विनाश किया है। लैपटॉप, इण्टरनेट, आई-पॉड, मोबाईल इत्यादि पर विडियो गेम, सोशल नेटवर्किंग साईट, पोर्नोग्राफी, फिल्मों, गानों इत्यादि के जरिये मध्यमवर्ग की आबादी के दिमाग़ को आज तरह-तरह के नशे की खुराकें दी जा रही हैं। ‘खाओ पीयो ऐश करो’, ‘अपने लिए जियो’, ‘लालच अच्छा है’, इत्यादि नारे आज युवा आबादी के बीच यहीं से पोषित किये जाते हैं। ऊपर से हर साल नयी तकनोलॉजी से लैस उपकरण लेकर ऐपल सरीखी कम्पनियां आपके पुराने उपकरण को घटिया व पुराना बताती हैं तथा नए उपकरण खरीदने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। एक इंसान की पहचान उसके पास मौजूद तमाम इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से होती है! आज तमाम विज्ञापन जगत इन्हीं उत्पादों की प्रतिस्पर्धा का क्षेत्र है। तमाम बुर्जुआ मीडिया को यही कम्पनियां विज्ञापनों या अन्य प्रचार कार्यक्रमों के बदले भारी रकम देती हैं।

ऐसे में ताज्जुब कोई पागल ही करेगा कि मीडिया स्टीव जॉब्स के लिए आँसू क्यों बहा रहा है। मीडिया सदा ही कॉर्पोरेट जगत के स्टीव जॉब्स, बिल गेट्स व अन्य लुटेरों को महान अन्वेषक मानता है तथा मानवता को नये आयामों तक ले जाने वाले हीरो की तरह पेश करती है। ख़ैर बुर्जुआ मीडिया का अपने मालिक के आगे पूँछ हिलाना लाजिमी ही है। स्टीव जॉब्स कम-से-कम उनका नायक तो है ही!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-अक्‍टूबर 2011

 

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