कॉ. शालिनी: सामाजिक परिवर्तन की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने को समर्पित एक ऊर्जस्वी जीवन
“दूसरों के लिए प्रकाश की एक किरण बनना, दूसरों के जीवन को देदीप्यमान करना, यह सबसे बड़ा सुख है जो मानव प्राप्त कर सकता है। इसके बाद कष्टों अथवा पीड़ा से, दुर्भाग्य अथवा अभाव से मानव नहीं डरता। फिर मृत्यु का भय उसके अन्दर से मिट जाता है। यद्यपि, वास्तव में जीवन को प्यार करना वह तभी सीखता है। और, केवल तभी पृथ्वी पर आँखें खोलकर वह इस तरह चल पाता है कि जिससे कि वह सब कुछ देख, सुन और समझ सके, केवल तभी अपने संकुचित घोंघे से निकलकर वह बाहर प्रकाश में आ सकता है और समस्त मानवजाति के सुखों और दुःखों का अनुभव कर सकता है। और केवल तभी वह वास्तविक मानव बन सकता है।” (ए.ई. बुलहाक के नाम एफ़. ज़िज़र्न्स्की का पत्र, 16 जून 1913)
युवा क्रान्तिकारी और जनमुक्ति समर की वैचारिक-सांस्कृतिक बुनियाद खड़ी करने के अनेक क्रान्तिकारी उपक्रमों की प्रमुख और संगठनकर्ता शालिनी का गत वर्ष 29 मार्च को कैंसर की घातक बीमारी से निधन हो गया था। वे सिर्फ़ 38 वर्ष की थीं। शालिनी ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रतिष्ठान की सोसायटी की अध्यक्ष, ‘अनुराग ट्रस्ट’ के न्यासी मण्डल की सदस्य, ‘राहुल फ़ाउण्डेशन’ की कार्यकारिणी सदस्य और परिकल्पना प्रकाशन की निदेशक थीं। प्रगतिशील, जनपक्षधर और क्रान्तिकारी साहित्य के प्रकाशन तथा उसे व्यापक जन तक पहुँचाने के काम को भारत में सामाजिक बदलाव के संघर्ष का एक बेहद ज़रूरी मोर्चा मानकर वे पूरी तल्लीनता और मेहनत के साथ इसमें जुटी हुई थीं। अपने छोटे-से जीवन के अठारह वर्ष उन्होंने विभिन्न मोर्चों पर सामाजिक-राजनीतिक कामों को समर्पित किये। बलिया में 1974 में जन्मी कॉ. शालिनी का राजनीतिक जीवन बीस साल की उम्र में ही शुरू हो गया, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्होंने एक माह तक चली एक सांस्कृतिक कार्यशाला में और फिर ‘शहीद मेला’ के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कॉमरेडों के एक कम्यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्यून में रहने के दौरान शालिनी स्त्री मोर्चे पर, सांस्कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्होंने गोरखपुर विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं। कॉ. शालिनी ने एक ऐसे कम्युनिस्ट संगठनकर्ता का जीवन जिया जिसके पास अठारह वर्षों के राजनीतिक जीवन के उतार-चढ़ावों का गहरा अनुभव था और जिसकी कम्युनिज़्म में अडिग आस्था थी। एक बार जीवन लक्ष्य तय करने के बाद पीछे मुड़कर उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने में शालिनी ने पलभर की भी देरी नहीं की। एक व्यापारी, सूदखोर और भूस्वामी परिवार की पृष्ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्पत्ति-सम्बन्धों से निर्णायक विच्छेद किया और जिस निष्कपटता के साथ कम्युनिस्ट जीवन-मूल्यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। कॉ. शालिनी का जीवन, क्रान्तिकर्म के प्रति उनका एकनिष्ठ समर्पण, अपने निजी सुख-दुख और स्वप्नों-आकांक्षाओं को पूरी तरह जनमुक्ति संग्राम में अपनी भूमिका के अधीन कर देने की उनकी प्रतिबद्धता और कम्युनिस्ट जीवन मूल्यों तथा संस्कारों के प्रति उनका अटूट विश्वास आज के दौर में एक मिसाल है। इतिहास में जितने भी सामाजिक परिवर्तन हुए उनकी अग्रणी कतारों में ऐसे ही नौजवान थे। हमारे देश में भी एक नये सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के वैचारिक-सांस्कृतिक कार्यों की बुनियाद खड़े करनेवालों की अग्रिम कतारों में कॉ. शालिनी होंगी और आनेवाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्रोत भी। उन्हें हमारा क्रान्तिकारी सलाम!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2014
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