गद्दाफ़ी की मौत के बाद
अरब जनउभार: किस ओर?

शिशिर

अक्टूबर में नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल के विद्रोहियों ने गद्दाफ़ी को उनके ही सिरते शहर में मार डाला। गद्दाफ़ी की मौत का वीडियो कुछ ही घण्टों बाद इण्टरनेट के जरिये पूरी दुनिया में चर्चा का विषय बन गया। जिस बर्बर तरीक़े से गद्दाफ़ी की हत्या की गयी वह साफ़ तौर पर दर्शा रहा था कि यह किसी संगठित और उसूलों पर चल रहे आन्दोलन की सफ़लता नहीं थी, बल्कि एक अराजकतापूर्ण पाशविक गृहयुद्ध की परिणति थी। पूरी दुनिया में एक अजीब किस्म के आनन्ददायी सिहरन और अमानवीयतापूर्ण असंवेदनशीलता के साथ तमाम लोग इस वीडियो को देख रहे थे। यहाँ उस पूरे जुगुप्सित घटनाक्रम का जिक्र करने की आवश्यकता नहीं है कि किसी तरह से गद्दाफ़ी को विद्रोहियों ने पकड़ा और फिर मारा-पीटा, सिरते की सड़कों पर घुमाया, उनकी हत्या की और फिर लाश की नुमाइश की, काफ़ी-कुछ वैसे ही जैसे पहले के ज़माने में कबीले युद्ध में विजय के बाद किया करते थे।

गद्दाफ़ी की मौत लीबिया के लिए एक युग का समापन था और कहना चाहिए कि काफ़ी हद तक गद्दाफ़ी की नियति इतिहास ने पहले ही सुनिश्चित कर दी थी। गद्दाफ़ी अरब अफ्रीका के उन नेताओं की कतार में आखि़री थे, जो मिस्र के जनरल नासिर से शुरू होती है। मिस्र में नासिर के नेतृत्व में राष्ट्रीय क्रान्ति के बाद अरब अफ़्रीका में ही नहीं, बल्कि पूरे अफ़्रीका में एक रुझान की शुरुआत हुई। मिस्र की नासिर की अगुआई वाली क्रान्ति रैडिकल राष्ट्रीय पूँजीवादी क्रान्ति थी जिसका उपनिवेश-विरोध मुखर था। इसके बाद ऐसी क्रान्तियाँ लीबिया, अल्जीरिया, आदि जैसे कई अफ़्रीकी देशों में हुई। इन सभी देशों में क्रान्ति के बाद एक रैडिकल राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग सत्ता में आया। मिस्र में नासिर, लीबिया में गद्दाफ़ी, अल्जीरिया में बेन बेला ऐसे ही नेता थे। इन नेताओं ने शीत युद्ध के दौर में किसी भी एक साम्राज्यवादी शिविर के साथ अपने आपको नत्थी करने से इंकार कर दिया और कई मौकों पर साम्राज्यवाद-विरोधी अवस्थिति अपनायी। लेकिन साथ ही इन नेताओं ने अपने देश के भीतर किसी भी किस्म के विरोध का सख़्ती से दमन किया। हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचल कर रख दिया गया। अधिकांश देशों में इस राजनीतिक विरोध की नुमाइन्दगी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट ताकतें कर रही थीं। वास्तव में, इण्डोनेशिया और भारत में भी स्वतन्त्रता के बाद अस्तित्व में आये पूँजीपति वर्ग ने भी कम्युनिस्टों का बर्बर दमन किया।

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इस रैडिकल राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग ने अधिकांश मामलों में अपने-अपने देशों में अलग-अलग किस्म के “कल्याणकारी” पूँजीवादी राज्य और अर्थव्यवस्था की स्थापना की। अरब अफ़्रीका में इस किस्म के के रुझान का सबसे प्रातिनिधिक उदाहरण था नासिर का मिस्र। इस उदाहरण का लीबिया और अल्जीरिया से लेकर तमाम देशों में अलग-अलग मात्र में अनुसरण किया गया। गद्दाफ़ी का लीबिया में भी उसमें से एक था। राष्ट्रीय मुक्ति के बाद के करीब दो-तीन दशक इन सभी देशों में यह पूँजीवादी “कल्याणवाद” आराम से चलता रहा। लेकिन इसके बाद पूँजी संचय की प्रक्रिया में सार्वजनिक क्षेत्र और “कल्याणकारी” राज्य आड़े आने लगा। इसका नतीजा इन देशों में उस रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के पतित और भ्रष्ट होने की प्रक्रिया की शुरुआत के साथ सामने आया। मिस्र में मुबारक की सत्ता, ट्यूनीशिया में आबिदीन अली की सत्ता, और एक दूसरी तरह से और अलग मात्र में लीबिया में गद्दाफ़ी की सत्ता अरब अप़फ़्रीका के इसी नासिरवादी रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के नायकत्व के खण्डित होने और वैभव के पराभूत होने की कहानी कह रही थीं। इन सभी देशों में रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग ने साम्राज्यवाद का विरोध तो किया लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प के तौर पर समाजवाद को अपनाने की बजाय सार्वजनिक क्षेत्र वाले “कल्याणकारी” पूँजीवाद का रास्ता अख्तियार किया। और ऐसे “कल्याणकारी” पूँजीवाद की परिणति हर जगह अन्ततः सार्वजनिक क्षेत्र के निजीकरण और पूरी अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के रूप में ही सामने आती है। कहीं पर यह किसी राजनीतिक उथल-पुथल और हिंसक आन्दोलनों के बिना होता है (जैसे कि भारत समेत तमाम एशियाई नव-स्वाधीन देश) और कहीं यह ज़बर्दस्त उथल-पुथल और विद्रोह के परिणाम के तौर पर होता है (जैसे कि अभी अरब अफ़्रीकी देशों में हो रहा है)। निश्चित रूप से अरब अफ़्रीकी देशों में यह तानाशाही के पतन और पूँजीवादी उदार संसदीय जनतन्त्र की स्थापना के तौर पर हो रहा है, लेकिन हो यही रहा है। नासिरवाद के पतन के रूप में गद्दाफ़ी की नियति काफ़ी पहले से ही सुनिश्चित हो गयी थी। यह किसी न किसी रूप में कभी न कभी होना ही था।

जहाँ तक अरब जनउभार के एक अंग के तौर पर लीबिया के विद्रोह का सवाल है, लीबिया का विद्रोह उसी समय अरब जनविद्रोह से अलग हो गया था जब नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल ने गद्दाफ़ी समर्थकों से हार के बाद हार का सामना करने के बाद नाटो की सैन्य सहायता लेना स्वीकार कर लिया था। इसके पहले गद्दाफ़ी-विरोधी शक्तियों ने साफ़ शब्दों में साम्राज्यवादी देशों से मदद लेने से इंकार कर दिया था। इसी बीच नाटो ने एकपक्षीय तरीके से लीबिया में हस्तक्षेप का प्रस्ताव पास कर लिया और लीबिया में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की शुरुआत हो गयी। विद्रोहियों के पास भी गद्दाफ़ी को हराने के लिए इस हस्तक्षेप का इस्तेमाल करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। लेकिन इस हस्तक्षेप को विद्रोहियों के समर्थन के साथ ही लीबिया का विद्रोह अरब जनविद्रोह का हिस्सा नहीं रह गया, जहाँ बिना किसी बाहरी साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के जनता ने अपने देश के तानाशाहों की सत्ता को उखाड़ फेंका। यह बात अलग है कि कोई स्पष्ट विचारधारा और संगठन न होने के कारण वे पूरी पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं दे सकी, और अन्ततः मिस्र और ट्यूनीशिया में आज जो हो रहा है वह क्रान्ति का ध्वंस ही कहा जायेगा। एक नग्न निरंकुश व्यक्ति आधारित पूँजीवादी तानाशाही से एक उदार पूँजीवादी संसदीय जनतन्त्र में संक्रमण, जो कि एक दूसरे नरम चेहरे में पूँजीपति वर्ग की ही तानाशाही होगी – इससे ज़्यादा मिस्र, ट्यूनीशिया और अल्जीरिया में जनता कुछ नहीं हासिल कर पायी। एक क्रान्तिकारी परिस्थिति ज़रूर तैयार हुई थी, लेकिन राजनीतिक निर्वात को भरने के लिए कोई क्रान्तिकारी ताकत मौजूद न होने के कारण उसे कहीं सेना और इस्लामिक कट्टरपन्थियों के गठजोड़ ने भरा, तो कहीं उदार पूँजीवादी ताकतों और अराजकतावादियों के गठजोड़ ने। और अब वह क्रान्तिकारी घड़ी बीत चुकी है। अवसर गँवाया जा चुका है।

लीबिया की घटनाएँ एक बार फिर साम्राज्यवादियों के दोमुँहेपन और दोगलेपन को साफ़ तौर पर नंगा कर देती हैं। जनतन्त्र के नाम पर एक ओर लीबिया में अमेरिका, फ़्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली जैसे साम्राज्यवादी देश तानाशाही का विरोध करते हैं और वहीं दूसरी ओर सऊदी अरब, यमन, बहरीन आदि जैसे देशों में शाहों और सुल्तानों की बर्बर ग़ैर-जनवादी सत्ताओं का पूरा समर्थन करते हैं। आज सारी दुनिया जानती है कि इराक़ में जनसंहार के कोई हथियार नहीं थे और इराक़ी जनता का कत्लेआम सिर्फ तेल संसाधनों पर कब्ज़े के लिए था। इराक़ में जनता द्वारा चुनी हुई सत्ता को अमेरिका ने निशाना बनाया क्योंकि वह उसके वैश्विक हितों के नक्शे में कहीं फिट नहीं बैठ रही थी। लेकिन साम्राज्यवादियों को अरब की शाहों की सत्ताएँ नहीं दिखतीं जहाँ जनवाद नाम की कोई चीज़ ही नहीं है। लीबिया में गद्दाफ़ी की सरकार के जितने विरोधी थे, उससे कम समर्थक भी नहीं थे। कारण यह है कि गद्दाफ़ी ने देश की जनता को निशुल्क आवास, चिकित्सा, शिक्षा और तमाम नागरिक सुविधाएँ प्रदान कर रखी थीं; तेल की अकूत सम्पदा से आने वाली आय को गद्दाफ़ी सभी लीबियाई नागरिकों के बैंक खाते में बराबरी से स्थानान्तरित कर देते थे; ये ही वे कारण थे, जिसके चलते संयुक्त राष्ट्र के मानव विकास सूचकांकों में लीबिया का अक्सर पहला स्थान हुआ करता था। लेकिन 2001 में बुश के सामने समझौता करने के बाद गद्दाफ़ी के लिए इन कल्याणकारी नीतियों को जारी रख पाना मुश्किल हो रहा था। एक वैश्वीकृत विश्व में गद्दाफ़ी ने जो रास्ता चुना था, उस पर अकेले हमेशा के लिए टिके रह पाना सम्भव नहीं था। पश्चिम द्वारा स्वीकार किये जाने की चाहत वास्तव में गद्दाफ़ी की बाध्यता थी। 2001 में बुश की धमकी सामने घुटने टेकने के बाद से गद्दाफ़ी की सत्ता की स्वीकार्यता लीबिया की जनता में कम होने लगी। एक हद तक नवउदारवाद की नीतियों की शुरुआत ने लीबियाई जनता में ग़रीबी, बेरोज़गारी और बेघरी को बढ़ाया और तेल अधिशेष में कमी आनी शुरू हुई। दूसरी ओर, यह भी एक सच है कि लीबिया कभी एक संगठित एक-जातीय राष्ट्र रहा ही नहीं। यह कबीलों में बँटा समाज था, जिसे देश की समृद्धि और “कल्याणवाद” ने एक सूत्र में पिरो रखा था। जैसे ही एकीकरण की ये ताकतें कमज़ोर हुईं वैसे ही ऐतिहासिक तौर पर मौजूद पूरब और पश्चिम का बँटवारा एक विरोध में तब्दील हो गया। हालिया गृहयुद्ध वास्तव में गद्दाफ़ी समर्थक पश्चिमी लीबिया और विद्रोही पूर्वी लीबिया के बीच का संघर्ष भी था। गद्दाफ़ी का पतन इन कारणों से भी अवश्यम्भावी था।

साम्राज्यवाद-समर्थित नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल जिसने कि आठ महीनों में चुनाव कराने का वायदा किया है, एक ऐसे लीबिया में सत्तासीन हुई है जो पहले से कहीं ज़्यादा खण्डित और विभाजित समाज है। पश्चिम और पूरब का विरोध भयंकर हिंस्र रूप में फूटता रहेगा; भाषाई और जातीय (एथनिक) टकराव अभी से ही सिर उठाने लगे हैं; लीबियाई अरब जनता और लीबियाई तुआरेग जनता के बीच का विरोध पहले भी मौजूद था और अब और ज़्यादा गहरा गया है; नस्लवाद भी सिर उठा रहा है क्योंकि नेशनल ट्रांजिशनल काउंसिल अश्वेत लीबियाई जनता पर यह बोलकर हमले कर रही है कि अश्वेत लोग गद्दाफ़ी की मदद कर रहे थे। अश्वेत लीबियाई और सब सहारन अप़फ़्रीकी देशों से आये प्रवासी मज़दूरों का भयंकर दमन शुरू हो चुका है और इसका नस्लीय चरित्र नस्लवादी टकरावों को जन्म देने वाला है। कबीलों और जातीय गुटों के बीच भी टकराव का बढ़ना आसन्न है और सिर्फ समय की बात है।

लुब्बे-लुबाब यह कि साम्राज्यवाद ने अपने नियन्त्रण और तेल सम्पदा पर कब्ज़े के लिए एक और देश को अराजकता के दलदल में धकेल दिया है। लीबिया हमेशा से ज़्यादा खण्डित, विभाजित, अव्यवस्थित, अराजकतापूर्ण और विनाशपूर्ण स्थिति में है। गद्दाफ़ी के बाद, लीबिया पहले से कहीं ज़्यादा बुरी हालत में है। यह एक सच है। अगर देश के भीतर जारी बग़ावत बिना किसी बाह्य हस्तक्षेप के जारी रहती तो अन्त में जो भी नतीजा होता, इससे तो निश्चित रूप से बेहतर होता। पूरा अरब जनउभार वास्तव में उस घड़ी से आगे जा चुका है जिसे क्रान्तिकारी घड़ी कहा जा सकता था। मिस्र ही इस बार भी अग्रिम कतार में था और वहाँ कोई भी जनक्रान्ति पूरे अरब विश्व में एक ‘चेन रिएक्शन’ शुरू कर सकती थी। लेकिन किसी विकल्प, विचारधारा, संगठन और क्रान्तिकारी नेतृत्व की ग़ैर-मौजूदगी में यह घड़ी बीत गयी है। यह आने वाले समय के सभी जनान्दोलनों के लिए एक महत्वपूर्ण सबक दे गया है। स्वतःस्फूर्त जनान्दोलन और पूँजीवाद-विरोध पर्याप्त नहीं है। विकल्प का स्पष्ट ढाँचा और उसे लागू कर सकने के लिए सही विचारधारात्मक समझ वाला नेतृत्व और संगठन अपरिहार्य है, यदि वास्तव में हम एक बेहतर समय में प्रवेश करना चाहते हैं।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-अक्‍टूबर 2011

 

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