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सियाह हाशिये
सआदत हसन ‘मण्टो’
इस्लाह
“कौन हो तुम?” “तुम कौन हो?” “हर-हर महादेव – हर-हर महादेव – हर हर महादेव।” “सबूत क्या है?” “सबूत – मेरा नाम धर्मचन्द है।” “यह कोई सबूत नहीं।” “चार वेदों में से कोई भी बात मुझसे पूछ लो।” “हम वेदों को नहीं जानते। सबूत दो।” “क्या?” “पायजामा ढीला करो।” पायजामा ढीला हुआ तो शोर मच गया- “मार डालो, मार डालो।” “ठहरो, ठहरो, मैं तुम्हारा भाई हूँ। भगवान की क़सम तुम्हारा भाई हूँ।” “तो यह क्या सिलसिला है?” “जिस इलाके से आ रहा हूँ, हमारे दुश्मनों का था इसलिए मजबूरन मुझे ऐसा करना पड़ा, सिर्फ़ अपनी जान बचाने के लिये। एक यही चीज़ ग़लत हो गयी है। बाकी बिलकुल ठीक हूँ।” “उड़ा दो ग़लती को।” ग़लती उड़ा दी गयी। धर्मचन्द भी साथ ही उड़ गया।
दावते-अमल
आग लगी तो सारा मुहल्ला जल गया- सिर्फ़ एक दुकान बच गयी, जिसकी पेशानी पर यह बोर्ड लगा हुआ थाः “यहाँ इमारतसाज़ी का सारा सामान मिलता है।’
पेशबन्दी
पहली वारदात नाके के होटल के पास हुई। फौरन ही वहाँ एक सिपाही का पहरा लगा दिया गया।
दूसरे रोज शाम को स्टोर के सामने हुई। सिपाही को पहली जगह से हटाकर दूसरी वारदात के मुकाम पर नियुक्त कर दिया गया।
तीसरा केस रात के बारह बजे लाण्ड्री के पास हुआ।
जब इन्सपेक्टर ने सिपाही को इस नयी जगह पहरा देने का हुक्म दिया तो उसने कुछ देर ग़ौर करने के बाद कहा, “मुझे वहाँ खड़ा कीजिए, जहाँ नयी वारदात होनेवाली हो।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2013
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