रुपये के मूल्य में गिरावट के निहितार्थ

आनन्‍द

वर्ष 2008 की विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के शुरुआती चरण में भारत के हुक़्मरान इस बात पर अपनी ही पीठ थपथपा रहे थे कि भारतीय अर्थव्यवस्था इस संकट से सापेक्षतः कम प्रभावित हुई थी। परन्तु श्रेय लेने का यह सिलसिला ज़्यादा लम्बे समय तक न चल सका क्योंकि धीरे-धीरे भारतीय अर्थव्यवस्था भी मौजूदा विश्वव्यापी पूँजीवादी ढाँचागत संकट की गिरफ़्त में आती गई और पिछले कुछ महीनों में तो हालात यहाँ तक पहुँच गये कि यहाँ के हुक़्मरान और उनके टुकड़खोर बुद्धिजीवी भी मायूस होकर इस बात को मानने पर मज़बूर हो गये कि भारतीय अर्थव्यवस्था पूरी तरह इस विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी की चपेट में आ चुकी है। वर्ष 2012-2013 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर घटकर 5 फीसदी रह गया जो पिछले एक दशक में सबसे कम है। मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में यह दर 4.4 रही। वहीं दूसरी ओर महँगाई भी कम होने का नाम नहीं ले रही है। सितम्बर माह के आँकड़ों के अनुसार मुद्रा स्फीति की दर पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक रही। यही नहीं मौजूदा संकट का स्पष्ट लक्षण अगस्त के महीने में रुपये के मूल्य में रिकॉर्ड गिरावट के रूप में सामने आया जब रुपया लगभग रोज ही लुढ़कने का नया कीर्तिमान स्थापित कर रहा था। जुलाई और अगस्त के महीने में ही रुपये के मूल्य में 16 फीसदी तक की गिरावट देखने को आई।

भारतीय अर्थव्यवस्था का मौजूदा संकट इतना गहरा है कि अब पूँजीवादी अर्थशास्त्रियों के भी हाथ-पाँव फूलने लगे हैं कि कहीं 1990 जैसा भुगतान-सन्तुलन (बैलेंस ऑफ पेमेंट) का संकट न पैदा हो जाये जब स्थिति इतनी बिगड़ गयी थी कि इस संकट ये निजात पाने के लिए भारत को अपना सोना गिरवी रखना पड़ा था। ग़ौरतलब है कि इसी संकट के बाद विश्व बैंक और आईएमएफ जैसी संस्थाओं के निर्देश पर भारतीय अर्थव्यवस्था में नवउदारवादी युग का पदार्पण हुआ था। इसे एक त्रासदपूर्ण विडंबना ही कहा जायेगा कि 23 वर्षों बाद भारतीय अर्थव्यवस्था एक बार फिर उसी संकट से रूबरू हो रही है जिसके समाधान के रूप में उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों को ज़ोर-शोर से बढ़ावा दिया गया था। आगे हम देखेंगे कि दरअसल मौजूदा संकट इन्हीं नवउदारवादी नीतियों की तार्किक परिणति है।

इस समस्या को समझने के लिए आइये पहले यह देखते हैं कि भुगतान-सन्तुलन के मायने क्या हैं और इसका क्या महत्व है। भुगतान-सन्तुलन में किसी एक देश के निवासियों और शेष विश्व के बीच वस्तुओं, सेवाओं और परिसम्पत्तियों के लेन-देन का विवरण दर्ज होता है। इसके दो मुख्य खाते होते हैं – चालू खाता (करेण्ट अकाउण्ट) और पूँजी खाता (कैपिटल अकाउण्ट)। चालू खाते में आयात-निर्यात, सेवाओं और अन्तरण-भुगतान (ट्रांसफर ऑफ पेमेण्ट) के विवरण दर्ज किये जाते हैं। निर्यात और आयात के बीच के अन्तर को व्यापार सन्तुलन (ट्रेड बैलेंस) कहा जाता है। जब निर्यात आयात से अधिक होता है तो व्यापार आधिक्य (ट्रेड सरप्लस) होता है और जब निर्यात आयात से कम होता है जो व्यापार घाटा (ट्रेड डेफिसिट) होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में अमूमन व्यापार घाटे की स्थिति रहती है क्योंकि भारत निर्यात से अधिक आयात करता है। सेवाओं के व्यापार, जिसे अदृश्य व्यापार (इनविज़िबल ट्रेड) (क्योंकि उसे राष्ट्रीय सीमाओं को पार करते नहीं देखा जा सकता है) भी कहते हैं, में जहाज़रानी, बैंकिंग, बीमा, पर्यटन, साफ़्टवेयर सेवाएँ आदि आते हैं। अन्तरण-भुगतान ऐसी प्राप्तियाँ होती हैं जो किसी देश के निवासियों को ‘निःशुल्क’ मिलती हैं। और उनके बदले उन्हें वर्तमान या भविष्य में कोई भुगतान नहीं करना पड़ता है। उनमें प्रेषित धन (रेमिटेंसेज़), उपहार और अनुदान शामिल हैं। वे सरकारी अथवा निजी हो सकते हैं। व्यापार संतुलन में सेवाओं और शुद्ध अन्तरण का योग कर चालू खाता सन्तुलन (करेण्ट अकाउण्ट बैलेंस) प्राप्त किया जाता है। पूँजी खाते (कैपिटल अकाउण्ट) में परिसम्पत्तियाँ जैसे मुद्रा, स्टॉक, बॉण्ड आदि के सभी प्रकार के अन्तर्राष्ट्रीय क्रय-विक्रय का विवरण होता है।

इन दिनों भारतीय अर्थव्यवस्था चालू खाते के घाटे (करेण्ट अकाउण्ट डेफिसिट) के दौर से गुज़र रही है यानी कि व्यापार घाटा तो है ही पर साथ ही साथ सेवाओं और अन्तरण भुगतान को जोड़ने के बाद भी चालू खाते की आय उसके व्यय से कम है। जिस प्रकार अपनी आय से अधिक व्यय करने वाले किसी व्यक्ति को अपनी परिसम्पत्तियाँ बेचकर या उधार लेकर आय-व्यय के अन्तर को पूरा करना पड़ता है, उसी प्रकार चालू खाते में घाटे की स्थिति में किसी देश को अपनी परिसम्पत्ति बेचकर या विदेशों से कर्ज़ लेकर उस कमी के लिए वित्त की व्यवस्था करनी पड़ती है। इस प्रकार चालू खाते के घाटे को पूँजी खाते से पूरा किया जाता है। लेकिन इस प्रक्रिया में उस देश पर विदेशी कर्ज़े का बोझ बढ़ जाता है। इसके अलावा उस देश के पास एक अन्य विकल्प यह होता है कि वह विदेशी विनिमय बाज़ार (फ़ॉरेन इक्सचेंज मार्केट) में विदेशी करेंसी को बेचकर तथा अपने विदेशी विनिमय आरक्षित निधि (फॉरेन इक्सचेंज रिज़र्व) को कम करके अपने चालू खाते के घाटे को पूरा कर सकता है। परन्तु विदेशी विनिमय आरक्षित निधि में कमी आने से यह ख़तरा होता है कि भविष्य में आयात के लिए ज़रूरी विदेशी करेंसी की उपलब्धता कम हो जाती है। यही वह स्थिति थी जिसमें 1990 में भारत को सोना गिरवी रखना पड़ा था क्योंकि उस वक़्त विदेशी विनिमय आरक्षित निधि में मौजूद विदेशी करेंसी महज़ कुछ हफ्तों के आयात के लिए ही पर्याप्त थी।

Rolling rupee or parliament

रुपये में गिरावट सीधे चालू खाते के घाटे से जुड़ी है क्योंकि यह घाटा रुपये की तुलना में विदेशी करेंसी की कम आपूर्ति को दिखाता है। कुछ बुर्जुआ अर्थशास्त्री रुपये के मूल्य में गिरावट की वजह लोगों के पास ज़्यादा मुद्रा होना बताते हैं यानी कि अर्थव्यवस्था में माँग का बढ़ना बताते हैं। वे यह दावा करते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में सरकार ने मनरेगा जैसी नीतियों के तहत रुपया पानी की तरह बहाया है जिसकी वजह से अर्थव्यवस्था में माँग बढ़ी है और आयात भी बढ़ा है जिसकी वजह से चालू खाते का घाटा बढ़ गया है। इसी हास्यास्पद तर्क की आड़ लेकर ये टुकड़ख़ोर खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भी विरोध कर रहे हैं क्योंकि उनके अनुसार इससे माँग और बढ़ेगी, आयात बढ़ेगा और चालू खाते का घाटा और बढ़ेगा जिससे अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ जायेगा। इनसे यह पूछा जाना चाहिए कि मनरेगा और खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत मिलने वाली थोड़ी-बहुत सुविधाओं का लाभ जिस ग़रीब आबादी को मिलता है वह गाड़ी-मोटर तो चलाती नहीं, वह सोने और कीमती हीरे-जवाहरात भी नहीं ख़रीदती तो फिर उनके भरपेट खाने भर से भला आयात कैसे बढ़ जायेगा! इनके लचर तर्क से यह स्पष्ट है कि ग़रीबों का पेट भर खाना और उनके लिए रोज़गार के मामूली अवसर भी इन लग्गुओं-भग्गुओं को फूटी आँख नहीं सुहाता। शासक वर्ग के टुकड़ों पर पलने वाले ये टुकड़खोर अर्थशास्त्री हर साल कॉरपोरेटों को दी जाने वाली अरबों की सब्सिडी के बारे में मौन रहते हैं।

सच्चाई तो यह है कि भुगतान सन्तुलन के चालू खाते का घाटा, जो रुपये की गिरावट की मुख्य वजह है, वह पिछले दो दशकों से ज़ारी नवउदारवादी नीतियों की तार्किक परिणति है। इन नीतियों के तहत विदेशी व्यापार को विकास का मुख्य इंजन बताया गया। आयात का उदारीकरण करने से छोटे-पैमाने के तमाम देशी कल-कारखाने तबाह हो गये और भारतीय बाज़ार विदेशी मालों से पट गया। पूँजीवादी विकास की विलासिता को क़ायम रखने के लिए ऊर्जा की ख़पत में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई जिसका सीधा असर तेल के बढ़ते आयात के रूप में सामने आया। इसके अतिरिक्त गैर-ज़रूरी समानों जैसे सोना और हीरे-जवाहरात तथा लक्ज़री कारों जैसे विलासिता के साजो-समान के आयात में भी बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई। ज्ञात हो कि भारत में तेल का आयात कुल आयात का लगभग 1/3वाँ हिस्सा और सोने का आयात कुल आयात का 1/5वाँ हिस्सा है। इस प्रकार व्यापार घाटा लगातार बढ़ता गया क्योंकि आयात के मुकाबले निर्यात में वृद्धि की रफ़्तार धीमी रही। सॉफ़्टवेयर जैसी सेवाओं के निर्यात और विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा प्रेषित विदेशी मुद्रा के ज़रिये कुछ समय तक तो व्यापार घाटे को सन्तुलित कर चालू खाते के घाटे को छिपाया गया। परन्तु 2008 की विश्वव्यापी मन्दी के बाद निर्यात पर ज़बर्दस्त असर पड़ा। अब हालात यहाँ तक पहुँच चुके हैं कि चालू खाते के घाटे को पूरो करने में सेवा क्षेत्र और प्रेषित विदेशी मुद्रा भी पर्याप्त नहीं है।

अगस्त के माह में रुपये के मूल्य में आयी तीखी गिरावट की तात्कालिक वजह अमेरिकी केन्द्रीय बैंक फ़ेडरल रिज़र्व के प्रमुख बेन बर्नाके की उस घोषणा को बताया जा रहा है जिसमें उन्होंने मौजूदा मन्दी के दौरान विश्व बाज़ार में डॉलर की आपूर्ति बढ़ाने की नीति क्वाण्टिटेटिव ईजिंग को वापस लेने की सम्भावना जतायी थी जिससे बाज़ार में यह क़यास लगने शुरू हो थे कि विदेशी निवेशक अपनी पूँजी भारत जैसे बाज़ारों से खींचकर अमेरिका में लगा देंगे। निश्चित रूप से रुपये के मूल्य में गिरावट की तमाम वजहों में से एक वजह यह भी थी जो अपने आप में भारतीय अर्थव्यवस्था का अपने साम्राज्यवादी आकाओं पर अत्यन्त निर्भरता को ही दिखाता है। परन्तु इसको प्रमुख वजह बताकर इस संकट की वास्तविक ढाँचागत वजह यानी चालू खाते का घाटा और ख़ासकर व्यापार घाटा को ढकने का प्रयास किया जाता है। इसके अतिरिक्त शेयर बाज़ार में दलालों द्वारा रुपये के मूल्य पर ज़बर्दस्त सट्टेबाजी भी रुपये के मूल्य में गिरावट की एक वजह रही।

रिज़र्व बैंक के नये गवर्नर रघुराम राजन, जिन्हें कॉरपोरेट मीडिया रॉकस्टार और सुपरमैन की तरह प्रस्तुत कर रहा है, ने आते ही रुपये की कीमत काबू में करने के लिए कुछ ठोस कदमों की घोषणा की। जहाँ एक ओर विदेशी पूँजी को आकर्षित करने के लिए विदेशी निवेशकों को कुछ और रियायतें दी गईं वहीं दूसरी ओर भारतीय पूँजीपतियों द्वारा विदेशों से कर्ज़ लेना पहले के मुकाबले और सुगम कर दिया गया। यानी कि जिन नवउदारवादी नीतियों की वजह से यह संकट उत्पन्न हुआ है उसी को समाधान की तरह पेश किया जा रहा है। ग़ौरतलब है कि देश के शीर्ष कॉरपोरेट घराने पहले ही देशी और विदेशी कर्ज़ में डूबे पड़े हैं। अभी हाल ही में क्रेडिट स्विस की एक रिपोर्ट में यह सच्चाई उभर कर सामने आयी कि रिलायंस एडीए, वेदान्त, एस्सार और अदानी समेत देश के 10 चोटी के कॉरपोरेट घराने देशी और विदेशी बैंकों के कर्ज़ से डूबे हुए हैं। पिछले छह वर्षों में इन घरानों की देनदारी में छह गुना का इज़ाफ़ा हुआ है। ऐसे में यदि इनमें से कोई कारपोरेट घराना कर्ज़ का भुगतान नहीं कर पाता है जो इसका सीधा प्रभाव उस बैंक पर भी पड़ेगा जहाँ से कर्ज़ लिया गया था क्योंकि उनके नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स बढ़ जायेंगे और समूची अर्थव्यवस्था बैंकिंग संकट की चपेट में आ सकती है। रुपये के मूल्य में गिरावट आने का एक और प्रभाव यह होगा कि भारतीय पूँजीपतियों द्वारा लिये गये विदेशी कर्ज़ों का कुल मूल्य फिर बढ़ जायेगा। यानी तात्कालिक रूप से भले ही संकट टल जाये परन्तु रिज़र्व बैंक के नये गवर्नर की घोषणाओं ने भविष्य में इससे भी भयानक संकट के आने की पूर्वपीठिका बना दी है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2013

 

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