ख़बरदार जो सच कहा!
बेबी
इतिहास और विज्ञान से हमेशा ही फासीवादियों का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। फासीवाद का आधार ही अज्ञान और झूठ होता है। अतीत का आविष्कार, मिथकों का सृजन और झूठों की बरसात-इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल कर फासीवाद पनपता है और पूँजीपतियों की सेवा करता है। जर्मनी और इटली में फासीवादियों ने इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल किया। जर्मनी के बर्लिन में 10 मई 1933 को नात्सियों द्वारा ऑपेरा स्क्वायर में 25,000 किताबें जलायी गयीं, जिनमें फ्रायड, आइन्स्टीन, टॉमस मान, जैक लण्डन, एच.जी. वेल्स आदि लेखकों, विचारकों की किताबें शामिल थीं। हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने वहाँ उपस्थित नात्सी छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा, “भविष्य का जर्मन नागरिक किताबों का मुखापेक्षी नहीं होगा बल्कि वह अपनी चारित्रिक दृढ़ता से पहचाना जायेगा। आज इतिहास के बौद्धिक कचरे को आग के हवाले कर दिया गया है। और आप इस महान क्षण के साझीदार हैं।” प्रगतिशीलता और जनवाद से फ़ासीवाद को हर-हमेशा ख़तरा रहता है। इसलिए वह संस्कृति की दुहाई देकर इस तरह के विचारों को ख़त्म कर देने की कोशिश करता है।
भारत में भी हिटलर, मुसोलिनी, सालाज़ार, फ्रांको आदि की जारज़ औलादों यानी कि संघ परिवार और उसके आनुषंगिक संगठनों ने अपनी “चारित्रिक दृढ़ता” का समय-समय पर खूब परिचय दिया है। प्रगतिशील विचार रखनेवाले लेखकों, साहित्यकारों, इतिहासकारों की किताबों को लेकर बवाल मचाना इनका एक प्रमुख हथकण्डा रहा है। ये इतिहास को साम्प्रदायिक रंग देकर पेश करते रहे हैं। यहाँ हम मुख्य-मुख्य घटनाओं का जिक्र उदाहरण के रूप में करेंगे।
1977 में जनता पार्टी के शासनकाल में सरकार के उन लोगों ने, जो भावी भाजपा में शामिल हुए, एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित इतिहास की किताबों पर हमला बोला था। उस समय जो किताबें संघ परिवार की मुहिम का निशाना बनीं- रामशरण शर्मा, रोमिला थापर, बिपिन चन्द्र, अमलेश त्रिपाठी तथा बरुन डे आदि इतिहासकारों की किताबें थीं। निश्चित रूप से इन किताबों का संघ परिवार की नज़र में दोष यह था कि इनमें वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इतिहास को देखा गया था। संघियों की इन कारगुज़ारियों को हमें साम्प्रदायिक राजनीति को आगे ले जाने एवं जनमानस में ज़हर घोलने, अलगाव पैदा करने के लिए भारतीय इतिहास को जान बूझकर विकृत करने, तोड़ने-मरोड़ने की बानगी के रूप में देखना चाहिये।
1995 में सलमान रुश्दी के उपन्यास ‘द मूर्स लास्ट साइ’ को लेकर शिवसेना ने यह कहते हुए बवाल मचाया कि इसमें बाल ठाकरे की छवि को गलत ढंग से दिखाया गया है। इस किताब में एक पुर्तगाली सौदागर परिवार के उत्थान, पतन और विलुप्त होने की कहानी है जो दक्षिण भारत में बसा हुआ था। उपन्यास की कथा-वस्तु 1900 के दौर से लेकर वर्तमान के भारतीय इतिहास से भी जुड़ती है जैसे भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन, विभाजन, आपातकाल, बैंक ऑफ क्रेडिट एण्ड कॉमर्स इण्टरनेशनल का घोटाला(1998), हिन्दुत्ववादी राजनीति का उदय आदि।
1956 में ऑबरे मेनन की किताब ‘द रामायना बाई ऑबरे मेनन’ को लेकर शोर मचा था जिसके बारे में यह कही गया कि इसमें पवित्र रामायण का मजाक उड़ाया गया है जिससे हिन्दुओं की भावना आहत होती है। ज्ञात हो कि ऑबरे मेनन एक व्यंग्यकार हैं।
1998 में राजग की सरकार ने सत्ता में आते ही इतिहास की किताबों पर जिस तरह से हमला बोला उससे साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि ये इतिहास से कितना डरते हैं। तमाम घटिया और संघ परिवार के विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से भरी किताबों को पाठ्यक्रमों में शामिल कर लिया गया। जहाँ एक तरफ हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक राजनीति खड़ी होती है वहीं इस्लामिक कट्टरपन्थ भी पैदा होता है। 1993 में तसलीमा नसरीन की किताब ‘लज्जा’ पर प्रतिबन्ध लगाया गया। इसमें बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद बांग्लादेश में हुए हिन्दू विरोधी दंगों को दिखाया गया है। 25 फरवरी 2008 को दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने विभाग में घुसकर वहाँ के विभागाध्यक्ष एस-ज़ेड-एच- जाफरी से मारपीट की। प्रसंगवश बताते चलें कि घटनास्थल पर पुलिस मौजूद थी लेकिन चुप्पी साधे रही। मुद्दा था पाठ्यक्रम में शामिल एक लेख। यह लेख प्रख्यात विद्वान ए.के. रामानुजन द्वारा लिखा गया है जिसका शीर्षक हैः ‘थ्री हण्ड्रेड रामायणाज़ः फाइव एक्जाम्पल्स एण्ड थ्री थॉट्स ऑन ट्रांसलेशन’। संघ परिवार की इस गुण्डावाहिनी ने यह कहते हुए उत्पात मचाया कि इस लेख में राम के चरित्र को विकृत किया गया है, जबकि कई पाठक जानते भी होंगे कि इसमें भारतीय मौखिक कथा परम्परा से लेकर लिखित तक में रामकथा के विभिन्न सन्दर्भों को दिखाया गया है। उक्त लेख को पाठ्यक्रम से हटाये जाने की माँग की गयी तथा दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका भी दायर की गयी जिसे कोर्ट ने ख़ारिज कर दिया। हमले के खिलाफ छात्रों ने अपनी एकजुटता दर्ज़ करायी।
20 जनवरी 2010 को विद्यार्थी परिषद् के कार्यकर्ताओं ने पुनः दिल्ली विश्वविद्यालय के परिसर में खड़े ‘जनचेतना’ पुस्तक प्रदर्शनी वाहन पर हमला किया और वहाँ मौजूद कार्यकर्ताओं से मारपीट की, मज़दूर अखबार ‘मज़दूर बिगुल’ कि प्रतियाँ जलायीं। ज्ञात हो कि “जनचेतना’ एक सांस्कृतिक मुहिम है जो पिछले 24 वर्षों से पूरे देश में प्रेमचन्द, गोर्की, शरतचन्द्र, भगतसिंह, राहुल सांकृत्यायन, राधामोहन गोकुल जी, तोल्स्तोय, हेमिंग्वे आदि लेखकों-विचारकों के साहित्य और लेखन के जरिये समाज में प्रगतिशील विचारों के प्रचार-प्रसार में लगी हुई है। इसके पहले भी जनवाद और समानता के विचारों के प्रचार में लगी इस मुहिम पर विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हमले किये हैं। विश्वविद्यालय में हुए इस हमले के खिलाफ विभिन्न छात्र संगठनों ने विरोध प्रदर्शन किये।
जुलाई 2010 में जेम्स लेन की किताब ‘शिवाजीः ए हिन्दू किंग इन इस्लामिक इण्डिया’ को लेकर शिवसेना ने बवाल मचाते हुए कहा कि इसमें शिवाजी की छवि को विकृत करने की चेष्टा की गयी है। जबकि इसमें अलग-अलग समुदायों द्वारा शिवाजी को देखने के विभिन्न दृष्टिकोणों पर चर्चा है।
इसी वर्ष 2010 के अक्टूबर में शिवसेना ने रोहिंग्टन मिस्त्री की किताब ‘सच ए लाँग जर्नी’ की प्रतियाँ जलायीं और मुम्बई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से इसे हटाने की माँग की। ज्ञात हो कि यह किताब मुम्बई विश्वविद्यालय के बीए कोर्स में चार वर्षों से पढ़ायी जा रही थी और इससे पहले भी एम.ए. में दस सालों तक पढ़ायी जाती रही है। इस पुस्तक का रचनाकाल 1970 के दौर का है, इसमें एक पारसी परिवार के एक बैंक क्लर्क की संघर्षशील ज़िन्दगी की कहानी है। वहीं इसमें शिवसेना के हिंसक कारगुजारियों की तस्वीर भी है। शिवसेना की स्थापना 1966 में बाला साहब ठाकरे द्वारा इसी माँग को लेकर की गयी कि मुम्बई के मूल बाशिन्दों को यहाँ काम की तलाश में आये प्रवासियों से ज़्यादा तरजीह दी जाये। उपन्यास का घटनाक्रम इनका कच्चा-चिठ्ठा बयान करता है।
2011 के नवम्बर में विहिप के कार्यकर्ताओं ने इलाहाबाद के सिविल लाइन्स में स्थित एक सरकारी गर्ल्स इण्टर कॉलेज के परिसर में आयोजित पुस्तक मेले में एक किताब की प्रतियाँ यह कहते हुए जलायीं कि इसमें कृष्ण की छवि को विकृत किया गया है जिससे हिन्दू संस्कृति को ख़तरा है।
उपर्युक्त घटनाएँ सिर्फ़ घटनाओं का ज़िक्र या बयानबाज़ी भर नहीं है, बल्कि ये दिखाती हैं कि फ़ासीवाद सुनियोजित ढंग से विचारधारात्मक हमला जनता की प्रगतिशील ताकतों पर करता है। ऐसे में निश्चय ही प्रगतिशील, मुक्तिकामी शक्तियों को इनका मुँहतोड़ जवाब देने के लिए हमेशा तैयार रहने की ज़रूरत है। फासीवाद विचारों का अन्तर, विवाद और बहस बर्दाश्त नहीं कर सकता है क्योंकि उसके पीछे सच, विज्ञान और इतिहास की ताक़त नहीं है, बल्कि मिथकों, झूठों और फरेबों का अम्बार है। फासीवाद का हर देश में यही इतिहास रहा है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2013
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