लियू ज़ियाओबो को शान्ति का नोबेल
साम्राज्यवाद की सेवा का मेवा

अन्तरा घोष

इस बार का शान्ति नोबेल पुरस्कार चीन के “शान्ति” कार्यकर्ता लियू ज़ियाओबो को दिया गया है। लियू ज़ियाओबो लेखकों के संगठन पेन के चीनी अध्याय के अध्यक्ष हैं, जिसका वित्त पोषण अमेरिकी सरकार द्वारा समर्थित एक अर्द्धसरकारी संस्था नेशनल एण्डाउमेण्ट फ़ॉर डेमोक्रेसी करती है। इसके अलावा लियू चार्टर 08 घोषणापत्र का समर्थन करने के लिए चीन की सरकार द्वारा गिरफ़्तार किये गये थे। चार्टर 08 घोषणापत्र अमेरिकी शैली के मानवाधिकारों की बात करता है और साथ ही सरकारी सेक्टर को अपने आप में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के ख़िलाफ मानते हुए बड़े पैमाने पर निजीकरण का समर्थन करता है। नोबेल पुरस्कारों के पीछे की राजनीति हमेशा से ही चर्चा का विषय रही है। इसके बारे में हम एक संक्षिप्त चर्चा सबसे बाद में करेंगे। फ़िलहाल, आइये ज़रा इस बार के शान्ति नोबेल पुरस्कार विजेता की पृष्ठभूमि और इतिहास के बारे में कुछ जानकारी हासिल करें।

आप इस शख़्स के बारे में जितना जानते जाते हैं, आपको उतना ही ताज्जुब होता जाता है कि मानवाधिकार आदि की वकालत करने के नाम पर इस व्यक्ति को शान्ति का कोई भी पुरस्कार कैसे दिया जाता है। हालाँकि, जैसे ही आप पहले मिले शान्ति नोबेल पुरस्कारों की सूची देखते हैं, वैसे ही आपका यह आश्चर्य क्षरित होता जाता है! यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि चीनी सरकार ने बेकार में ही लियू को नायक बना दिया। वास्तव में, अगर वह चुपचाप लियू को छोड़ देती तो ज़्यादा बेहतर होता। अमेरिकी साम्राज्यवाद और चीन की उभरती ताकत के अन्तरविरोधों के व्यापक समीकरणों के कारण लाभ लियू ज़ियाओबो को मिल गया!

liu xiaobo FLASH

लियू ज़ियाओबो लेखकों के अन्तरराष्ट्रीय मंच पेन  के चीनी अध्याय के अध्यक्ष हैं। इस संस्था को पैसा देने का काम अमेरिकी सरकार के इशारों पर काम करने वाली एक अर्द्धसरकारी संस्था नेशनल एण्डाउमेण्ट फ़ॉर डेमोक्रेसी  करती है। इस संस्था का मकसद उन संगठनों और व्यक्तियों को हर तरीक़े की मदद प्रदान करना है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद और भूमण्डलीकरण के “मानवतावादी” चेहरे को दिखलाते हैं, अमेरिका द्वारा थोपे गये युद्धों को सही ठहराते हैं, जो साम्राज्यवाद के हर अपराध पर पर्दा डालने का काम करते हैं, और अमेरिकी शैली के जनतन्त्र और मानवाधिकारों के प्रचारक हैं। पेन इन्हीं विचारों को सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष रूप में प्रचारित-प्रसारित करने वाले लेखकों की संस्था है। पेन की स्थापना 1920 में जॉर्ज बर्नार्ड शॉ और एच.जी. वेल्स ने की थी। उस समय भी इस संस्था का लक्ष्य पश्चिमी शैली के उदार पूँजीवादी जनवाद के मूल्यों की स्थापना करना था। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद और शीत युद्ध के दौरान इसका चरित्र बहुत तेज़ी से बदला है। कहने के लिए यह अब भी उदार पूँजीवादी जनवाद की बात करता है लेकिन इसके वित्त पोषण और इसके द्वारा विभिन्न मौक़ों पर उठाये गये मुद्दों के आधार पर इसके असली मिशन और चरित्र का पता चल जाता है। आज यह नवसाम्राज्यवाद के बौद्धिक एजेण्टों का अड्डा बन गया है। इनमें से कुछ सचेतन तौर पर नवसाम्राज्यवादी एजेण्डा का समर्थन करते हैं, और कुछ ऐसे हैं जिनकी विचारधारा और दर्शन साम्राज्यवाद की वस्तुगत रूप से सेवा करते हैं। यह सच है कि इस संस्था में बीच-बीच में ऐसे लेखक भी रहे हैं जो साम्राज्यवाद के विरोध के लिए जाने जाते रहे हैं। लेकिन उनकी रचनाओं में भी दर्शन और विचारधारा के धरातल पर कम्युनिज़्म और समाजवाद का विरोध है। और अमेरिकी वर्चस्व ऐसे साम्राज्यवाद-विरोध को विशेष रूप से पसन्द करता है, जो दिखने में तो काफ़ी गरम लगे लेकिन वस्तुगत तौर पर विकल्पहीनता की दृष्टि दे। ऐसी दृष्टि हर-हमेशा यथास्थिति की सेवा करती है। ल्योसा, पिण्टर आदि जैसे लेखक इस संस्था के ऐसे ही सदस्य रहे हैं। और आज तो पेन  का चरित्र खुले तौर पर अमेरिका-समर्थक का बनता जा रहा है। सही ही कहा गया है कि आदमी जिसका खाता है उसी का बजाता है!

एक और कहावत भी है। कहते हैं कि आदमी को उसकी संगत से पहचाना जाता है। ज़रा लियू के दिलचस्प मित्रों पर एक नज़र डालते हैं। क्या आप जानते हैं कि नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए लियू का नाम सबसे पहले किसने प्रस्तावित किया था? दलाई लामा ने! ज्ञात हो कि दलाई लामा स्वयं नेशनल एण्डाउमेण्ट फ़ॉर डेमोक्रेसी से साम्राज्यवाद की सेवा के लिए अरबों डालर लेता है। इस प्रस्ताव का समर्थन करने वाले लोगों में तमाम लोग वे हैं, जो डेविड रॉकफ़ेलर के अतिकुलीन ट्राईलेटरल कमिशन  के सदस्य हैं। यह कमिशन अमेरिका, यूरोप और जापान के महाधनिकों की एक संस्था है, जिसकी सदस्यता निमन्त्रण के आधार पर मिलती है। इसके अलावा, नाटो-समर्थक भूतपूर्व चेक राष्ट्रपति वाक्लाव हेवेल ने भी इस नामांकन का समर्थन किया। हेवेल फ़िलहाल जॉर्ज सोरोस द्वारा वित्तपोषित ह्यूमन राइट्स वॉच के अध्यक्ष हैं। यह सूची काफ़ी लम्बी है। ताज्जुब की बात है कि मानवाधिकार की वकालत आदि के नाम पर लियू को नोबेल शान्ति पुरस्कार देने की वकालत करने वाले अधिकांश लोग साम्राज्यवाद के टुकड़ों पर पलने वाले पालतू कुत्ते हैं!

नोबेल शान्ति पुरस्कार देने वाली समिति ने कहा है कि 1989 में तियेनामेन चौक पर हुए आन्दोलन में लियू की भूमिका शानदार थी। आज सारी दुनिया जानती है कि एक ओर तियेनामेन विद्रोह चीनी संशोधनवादियों की सामाजिक फ़ासीवादी सत्ता के विरुद्ध छात्रों-युवाओं और मज़दूरों का विद्रोह था, और वहीं दूसरी ओर, इस विद्रोह की अँगीठी पर अपनी रोटी सेंकने का काम अमेरिकी साम्राज्यवाद भी कर रहा था। दुनियाभर के मीडिया में इस आन्दोलन को चीनी संशोधनवादियों के सामाजिक फ़ासीवाद के विरुद्ध विद्रोह की बजाय अमेरिकी शैली के खुले निजी पूँजीवाद की स्थापना के लिए किये गये आन्दोलन के रूप में प्रचारित किया गया। इस विद्रोह ने अमेरिकी साम्राज्यवाद को मौका दिया कि वह चीन की बढ़ती साम्राज्यवादी महत्त्वाकांक्षाओं के पंख कुतर दे। उस विद्रोह के समय लियू ज़ियाओबो कोलम्बिया के विश्वविद्यालय में अध्यापन का काम कर रहा था। अचानक वह 1989 में चीन पहुँचता है और मानवाधिकार आदि की बातें शुरू करता है। ग़ौरतलब है कि चीनी सामाजिक फ़ासीवादियों पर निशाना साधने के बहाने वास्तव में वह मार्क्सवाद और समाजवाद के उसूलों पर निशाना साध रहा था और किसी भी मौक़े पर वह अमेरिकी शैली के पूँजीवाद और उसके द्वारा दी जाने वाले व्यक्तिगत अधिकारों का गुणगान करने से नहीं चूकता था। यह भी कहा जाता है कि उस समय अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी.आई.ए. चीन के अन्दरूनी मामलों में दख़ल देने की कोशिशों के लगी हुई थी और कई प्रशिक्षित लोगों को 1989 के ठीक पहले चीन में अस्थिरता पैदा करने के लिए भेजा गया था।

1989 के विद्रोह में भूमिका के अलावा लियू को नोबेल देने का जो कारण बताया गया है, वह है लियू द्वारा चार्टर 08 घोषणापत्र का लिखा जाना। ऊपर से देखने में यह घोषणापत्र मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों की बात करता नज़र आता है। लेकिन वास्तव में अगर हम पूरा घोषणापत्र देखें तो वह अमेरिकी शैली के खुले निजी पूँजीवाद की वकालत करने वाला एक दस्तावेज़ लगता है। यह घोषणापत्र मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों को बहाना बनाकर पश्चिमी पूँजीवाद के हर दुश्मन से हिसाब-किताब बराबर करने का अमेरिकी घोषणापत्र है। निश्चित रूप से, इसमें कई मुद्दे बिल्कुल सही होते हैं। लेकिन यहाँ दो बातें सोचने लायक हैं। पहली बात तो यह कि मानवाधिकार की बात करने का अमेरिका के पास कोई नैतिक अधिकार नहीं है। वास्तव में, पूरी 20वीं शताब्दी में और 21वीं शताब्दी के 11 वर्षों के दौरान मानवाधिकार हनन का कोई एक सबसे बड़ा दोषी है तो वह अमेरिकी साम्राज्यवाद है। दूसरी बात यह है कि जिन देशों में मानवाधिकार हनन के मुद्दे उठाये गये हैं, उनमें मानवाधिकार के हनन की शुरुआत अमेरिका के ही इशारों पर हुई थी। मिसाल के तौर पर, अफगानिस्तान में तालिबान और इराक में सद्दाम हुसैन अमेरिका द्वारा समर्थित थे। जब वे भस्मासुर की तरह उसके ही नियन्त्रण से निकल गये तो वे पश्चिमी पूँजीवादी जनवादी मूल्य के लिए ख़तरा बन गये। जनवाद के सबसे बड़े हितैषी के तौर पर स्वयं को पेश करने के पहले अमेरिका को अपने घर के भीतर मानवाधिकार का रिकॉर्ड दुरुस्त कर लेना चाहिए। वास्तव में, मानवाधिकार के नाम पर अमेरिका अपने साम्राज्यवादी एजेण्डे को आगे बढ़ाने का काम करता है और लियू जैसे दलाल इस काम में उसका प्यादा बनते हैं।

अब पृष्ठभूमि को छोड़ एक बार स्वयं लियू ज़ियाओबो से उनके विचार जानते हैं। लियू के पूरे राजनीतिक चिन्तन और लेखन से उसके चार विचार उभरकर सामने आते हैं। आइये इन्हें भी देख लें। पहली बात, लियू का यह मानना है कि अगर चीन 300 वर्षों के लिए किसी यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्ति का उपनिवेश बन गया होता तो वह सभ्य हो गया होता। लियू के लिए पश्चिमी साम्राज्यवाद एक सभ्यता स्थापित करने के मिशन पर था। यह देखकर आश्चर्य होता है कि कोई आज भी रुडयार्ड किपलिंग की भाषा में बात कर सकता है और उसे नोबेल शान्ति पुरस्कार भी मिल जाता है! दूसरी बात, लियू कहता है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद वियतनाम और कोरिया में सर्वसत्तावाद के विरुद्ध लड़ रहा था और वास्तव में वह वहाँ पर अपनी “नैतिक ज़िम्मेदारी” निभा रहा था। इस पर कुछ कहने की आश्यकता नहीं है! तीसरी बात, लियू का मानना है कि 2004 में इराक पर युद्ध थोपकर जॉर्ज बुश ने बिल्कुल सही किया। और चौथी बात, लियू अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो द्वारा थोपे गये साम्राज्यवादी युद्ध का कट्टर समर्थक है। अब ऐसे विचारों का कोई क्या अर्थ निकाल सकता है? नोबेल पुरस्कार समिति ने लियू ज़ियाओबो को क्या सोचकर यह पुरस्कार दिया है, यह तो वही बता सकती है। ऐसे विचार रखने वाले को अगर शान्ति का पुरस्कार मिल सकता है, तो ओसामा बिन लादेन में भी कोई बुराई नहीं है!

लेकिन अगर आप नोबेल पुरस्कार प्राप्त “शान्तिदूतों” की पूरी सूची पर एक निगाह डालें तो हर प्रकार के अचम्भे का निवारण हो जाता है। शान्ति के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वालों में कई ऐसे नाम भी हैं जिन पर किसी को आपत्ति नहीं होगी, जैसे कि नेल्सन मण्डेला, आंग सान सू की, आदि। लेकिन कुछ नाम देखकर लगता है कि शायद मण्डेला और सू की का नाम इस सूची में ग़लती से आ गया है! मिसाल के तौर पर, इज़रायल के हत्यारों यित्झाक रेबिन, मेनाचेम बेगिन, शिमोन पेरेस का नाम शान्ति का नोबेल प्राप्त करने वालों में शामिल है! 1906 में, यानी नोबेल पुरस्कार की शुरुआत के महज़ पाँच साल बाद, थियोडोर रूज़वेल्ट को शान्ति का नोबेल दिया गया। मज़ेदार बात यह थी कि अभी कुछ समय पहले ही क्यूबा पर नियन्त्रण के लिए अमेरिका द्वारा भेजे गये आक्रान्ताओं के एक दल का नेतृत्व स्वयं रूज़वेल्ट ने किया था। अमेरिकी मीडिया रूज़वेल्ट को ‘मोस्ट वॉर लाइक सिटिज़न’ भी कहता था! 1925 में ब्रिटेन के चैम्बरलेन को, 1929 में एफ. केलॉग को, 1945 में सी. हल को, 1957 में ब्रिटिश कुलीन वर्ग के प्रतिनिधि और उपनिवेशवाद-समर्थक आर. सेसिल को शान्ति का नोबेल दिया गया। इन सबके बारे में आप इण्टरनेट पर खोजकर पढ़ सकते हैं कि ये कितने बड़े अमन के फरिश्ते थे!

इसके अतिरिक्त, ऐसे तमाम लोगों को नोबेल पुरस्कार दिया गया जो पश्चिमी नवउदारवादी पूँजीवादी आदर्शों का प्रतिनिधित्व उन देशों में करते हैं, जहाँ की सत्ताएँ किसी भी रूप में उस शैली के जनवाद को नहीं मानतीं। इसमें समाजवादी देशों के साथ-साथ, वे पूँजीवादी देश भी शामिल हैं, जहाँ की सत्ताएँ साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा में अमेरिकी और उत्तर-पश्चिमी यूरोपीय हितों के ख़िलाफ खड़ी हैं। यही कारण था कि सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ के हाइड्रोजन बम के जनक सखारोव को नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया, क्योंकि उन्होंने मानवाधिकारों को समर्पित एक संगठन सोवियत संघ में बनाया था। निश्चित रूप से समाजवाद के पतन के बाद सोवियत संघ में मानवाधिकारों और नागरिक अधिकारों का हनन हो रहा था। उन्हें बेनकाब किया जाना निश्चित रूप से ज़रूरी था। लेकिन उस तर्क से तो नोम चॉम्स्की को भी नोबेल पुरस्कार मिलना चाहिए! लेकिन चॉम्स्की को यह पुरस्कार नहीं मिलेगा, क्योंकि वह अमेरिका की दादागीरी का आलोचक है। सखारोव को मिलेगा, क्योंकि वह आंग्ल-अमेरिका साम्राज्यवाद के प्रतिद्वन्द्वी साम्राज्यवादी धड़े द्वारा मानवाधिकार के उल्लंघन के ख़िलाफ बोलता है।

साफ है कि नोबेल शान्ति पुरस्कार देने के पीछे आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवाद की राजनीतिक दृष्टि और चिन्ताएँ काम करती रही हैं। गाँधी के अन्य विचारों से कोई असहमत हो सकता है, लेकिन शान्ति के जिन विचारों के लिए मण्डेला या सू की को नोबेल मिला, उसके लिए सबसे पहले तो गाँधी को मिलना चाहिए था! लेकिन आंग्ल-अमेरिकी साम्राज्यवाद के किसी भी रूप में विरोधी को यह पुरस्कार नहीं मिल सकता है। नोबेल शान्ति पुरस्कार उन शान्ति दूतों को मिलता है जो अमेरिकी शर्तों पर शान्ति की बात करते हैं।

और पिछले कुछ समय में जिन लोगों को शान्ति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है, उसने तो नोबेल की विश्वसनीयता पर ही प्रश्न चिह्न खड़ा कर दिया है। अब बराक ओबामा, अल-गोर, हेनरी किसिंगर जैसे साम्राज्यवादी हत्यारों को क्या सोचकर नोबेल का शान्ति पुरस्कार दिया गया है, इस पर अलग से अनुसन्धान की आवश्यकता पड़ेगी! कुल मिलाकर, इस बार लियू ज़ियाओबो को जो नोबेल शान्ति पुरस्कार मिला है और अतीत में जिन शान्तिदूतों को यह पुरस्कार दिया जाता रहा है, वह नोबेल पुरस्कार के पीछे काम करने वाली पूरी राजनीति का चेहरा साफ कर देता है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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