प्रो. लालबहादुर वर्मा का प्रेम-चिन्तन

सत्यम

प्रो. लालबहादुर वर्मा हिन्दी में इतिहास-लेखन करने वाले अग्रणी इतिहासकारों में से एक हैं। वे चर्चित पत्रिका ‘इतिहास-बोध’ के सम्पादक भी हैं और लम्बे समय से देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन से भी जुड़े रहे हैं। वे एक प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी भी रहे हैं। देशभर में हिन्दी माध्यम के यूरोपीय इतिहास के छात्र उनके द्वारा लिखित ‘यूरोप का इतिहास’ का अध्ययन करते हैं, हालाँकि मार्क्सवादी दृष्टिकोण से यूरोपीय इतिहास पर उनकी पुस्तकों के आलोचनात्मक विवेचन की आवश्यकता है। पिछले लम्बे समय से प्रो. वर्मा विश्व प्रसिद्ध क्रान्तिकारी साहित्यिक रचनाओं का अनुवाद कर रहे हैं, ‘इतिहास-बोध’ का प्रकाशन कर रहे हैं और साथ ही विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में वैविध्यपूर्ण विषयों पर लिख रहे हैं। यह पूरी बौद्धिक सक्रियता गति के मामले में किसी युवा बौद्धिक को भी पीछे छोड़ सकती है; लेकिन, जहाँ तक गहराई का सवाल है, यह अब किसी भी युवा बौद्धिक से भी पीछे छूटती नज़र आ रही है। उनके अनुवाद आदि पर बात न करते हुए हम हाल ही में ‘नया ज्ञानोदय’ के प्रेम महाविशेषांक-2 में प्रकाशित उनके एक लेख पर चर्चा करेंगे।

प्रो. वर्मा ने जो लेख लिखा है उसका शीर्षक है ‘कोल्लोन्ताई का एक महान प्रेम’। वास्तव में, इसके केन्द्र में तो कोल्लोन्ताई का ख्यातिप्राप्त उपन्यास ‘एक महान प्रेम’ है, लेकिन इस पर चर्चा करते हुए उन्होंने तमाम मुद्दों पर अपने विचार रखे हैं। प्रो. वर्मा हिन्दी जगत के ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी बुद्धिजीवी माने जाते हैं। ऐसे में, प्रेम, नारी-पुरुष सम्बन्धों, नारी मुक्ति में समाजवादी क्रान्तियों की भूमिका के बारे में उनके विचार पढ़कर बहुत ताज्जुब हुआ। आइये इन विचारों पर एक निगाह डालें और उनकी पड़ताल करें।

LALBAHADUR VERMA

लेख की शुरुआत प्रो. वर्मा इन शब्दों से करते हैं: ‘प्रेम प्रकृति का स्वभाव है।’ यह शुरुआत ही काफ़ी हद तक आगे के लेख को पाठक के मन में सिम्युलेट कर देती है। वस्तुतः, यह प्रकृतिवाद का चरम है। प्रेम प्रकृति का नहीं मानव का स्वभाव है। पेड़ पेड़ से प्रेम नहीं करता, हवा पानी से प्रेम नहीं करती, आकाश धरती से प्रेम नहीं करता, या पशुओं में भी नर मादा से प्रेम नहीं करता। हालाँकि, आगे लेखक कहता है कि प्रकृति में प्रेम एकआयामी होता है और उसका मकसद महज़ पुनरुत्पादन होता है, लेकिन यह बात भी सटीक नहीं है। प्रकृति में नर और मादा के बीच जो सम्बन्ध पुनरुत्पादन के लिए कायम होता है, वह वास्तव में पशुओं की जीवन-गतिविधियों में से एक होता है। बहुत ही अविकसित रूप में ही किसी एक का दूसरे के प्रति कोई निजी लगाव होता है, और वह भी अक्सर क्षणभंगुर होता है। और पशुओं में विचारधारात्मक, आत्मिक एकता की बात करना बेकार है। मनुष्यों में प्रेम आत्मिक तौर पर एक होने और वैचारिक तौर पर एक होने पर आधारित होता है। मनुष्य का शारीरिक प्रेम भी इस वैचारिक और आत्मिक एकता की पराकाष्ठा के रूप में प्रकट होता है। प्रेम को पूरी प्रकृति का ही स्वभाव बता देना वास्तव में प्रकृतिवाद की ओर ले जाता है और बेवजह तमाम चीज़ों का रूमानीकरण करता है।

आगे वे बताते हैं कि प्रेम ने किस प्रकार तमाम परिघटनाओं को जन्म दिया; प्रेम ने कितने वैविध्यपूर्ण रूप अख्‍त़ियार किये, आदि। लेकिन ये आम बातें कहते-कहते वे फिर एक बात कह जाते हैं, जिस पर कुछ प्रश्न मस्तिष्क में आने लाज़िमी हैं। वे कहते हैं कि प्रेम तमाम सिद्धान्तों और शास्त्रों के बावजूद आज भी एक विवादास्पद विषय बना हुआ है और क्रान्तियाँ और क्रान्तिकारी भी लैंगिक समस्या का समाधान नहीं ढूँढ़ सके। सवाल यह है कि यहाँ लैंगिक समस्या से प्रो. वर्मा का क्या अर्थ है? क्या वे जेण्डर के मुद्दे के असमाधित रह जाने के बारे में मिशेल बैरेट या केट मिलेट की ज़मीन पर खड़े होकर बात कर रहे हैं? या फिर वे मार्क्सवादी ज़मीन पर खड़े होकर यह सवाल उठा रहे हैं कि रूस, चीन या दुनिया के अन्य स्थानों पर जहाँ समाजवाद के प्रयोग हुए, वहाँ इस प्रश्न का पूर्ण समाधान नहीं हो सका और उसके समाधान की दिशा में आगे बढ़ पाने से पहले ही वहाँ मज़दूर सत्ताओं का पतन हो गया? लेख में आगे बढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनकी ज़मीन मिशेल बैरेट या केट मिलेट से ज़्यादा मेल खा रही है। लैंगिक शब्द का अनुवाद ‘सेक्सुअल’ भी हो सकता है और ‘जेण्डर’ भी। इसलिए अब सामाजिक विज्ञान के अनुवाद में जेण्डर शब्द का ही प्रचलन हो गया है। वैसे भी जेण्डर का अर्थ लिंग नहीं बल्कि एक सामाजिक निर्मिति के रूप में स्त्री-पुरुष दोनों के बीच के आपसी सम्बन्ध होते हैं। इसलिए जब आप ‘लैंगिक राजनीति’ कहते हैं तो आपका अर्थ होता है ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’।

आगे सुनिये। वे कहते हैं कि प्राचीनकाल से ही मनुष्य बेहतर की तलाश में तमाम यूटोपियाओं को जन्म देता रहा है, लेकिन आधुनिक काल में मानव-केन्द्रित समाज के अस्तित्व में आने के साथ ही इस प्रक्रिया की गति काफ़ी बढ़ गयी। वास्तव में, प्राचीनकाल की परिकल्पनाओं और आधुनिककाल की परिकल्पनाओं में फ़र्क़ गति का नहीं बल्कि गुण का था। प्राचीनकाल और मध्यकाल के यूटोपिया या तो परलोक में समाधान की तलाश करते थे, या फिर इहलोक में परिवर्तन की बात करते समय भी अपना वैधीकरण (जस्टिफ़िकेशन) परलोक से लेते थे। आधुनिककाल के यूटोपिया इस मायने में गुणात्मक रूप से भिन्न थे कि वे इहलोक की समस्याओं का समाधान इहलोक में ही देखते थे और वैधीकरण की तलाश में भी परलोक की ओर नहीं मुड़ते थे। पहली बार सेक्युलर यूटोपिया अस्तित्व में आये। इसीलिए मैंने कहा कि अन्तर गुण का था, गति का नहीं। ख़ैर! वे आगे कहते हैं कि आधुनिककाल में परिवर्तन को त्वरित गति से करने के लिए क्रान्ति के विचार का जन्म हुआ। परिवर्तन के स्वरूप को लेकर बहसें उठीं और तमाम सवाल “उठे-या उठाये गये”। इन्हीं सवालों में एक सवाल था नारी और पुरुष के बीच के सम्बन्धों का। लेकिन इस प्रश्न के अलग से “उठने या उठाये जाने” का प्रश्न ही नहीं था। वास्तव में, मानव इतिहास में हर उत्पादन पद्धति या सामाजिक संरचना के दौर में जेण्डर सम्बन्धों को समाज के उत्पादन सम्बन्धों ने निर्धारित किया, और जेण्डर सम्बन्धों ने भी पलटकर उत्पादन सम्बन्धों को पुनरुत्पादित किया। सामन्तवाद के दौर में सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध ने एक विशेष प्रकार के जेण्डर कोड को स्थापित किया और उनसे निर्धारित होने वाले जेण्डर सम्बन्धों ने पलटकर सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों को पुनरुत्पादित किया। पूँजीवादी समाज के उद्भव के बाद भी यही हुआ। जेण्डर सम्बन्ध और उत्पादन सम्बन्धों के आपसी रिश्तों पर सही मार्क्सवादी समझ संरचनात्मक कारकों पर बल देती है और यह बताती है कि जेण्डर सम्बन्ध किस प्रकार मौजूदा उत्पादन पद्धति में प्रभावी उत्पादन सम्बन्धों को बल देते हैं और पुनरुत्पादित करते हैं। हर युग में जेण्डर का प्रश्न एक व्यवस्थागत निर्मिति (सिस्टेमिक कंस्ट्रक्ट) के रूप में ही प्रकट हो सकता है। एक पूरी तरह स्वायत्त ‘स्पेस’ में आप जेण्डर को लिंग के प्राकृतिक कारक के अतिरिक्त किसी भी रूप में परिभाषित नहीं कर सकते। लेकिन इतिहास या जेण्डर स्टडीज़ के ककहरे का अध्ययन करने वाला व्यक्ति भी ‘जेण्डर’ और ‘सेक्स’ के बीच के फ़र्क़ को जानता है और निश्चित रूप से प्रो. वर्मा इसे हमसे ज़्यादा अच्छी तरह से समझते होंगे।

इसके बाद लेख में हमें बताया जाता है कि जिस प्रकार मातृसत्तात्मक समाज का पतन हुआ और पितृसत्तात्मक समाज का आगमन हुआ, उसका अच्छी तरह से दस्तावेज़ीकरण किया जा चुका है। जो पुरुष वर्ग शोषण का शिकार था, उसने भी घर के भीतर अपना प्राधिकार बनाये रखा। सामन्ती समाज के दौरान कुछ शासक नारियों के साथ-साथ शेष पुरुषों का भी शोषण-उत्पीड़न करते थे। पूँजीवादी समाज के अस्तित्व में आने के साथ मुक्ति एजेण्डे पर आ गयी (?)। इसके बाद क्रान्तियाँ हुईं (ज़ाहिरा तौर पर यहाँ लेखक का इशारा समाजवादी क्रान्तियों की तरफ है)। इसके बाद, प्रो. वर्मा एक चमत्कृत कर देने वाली बात कहते हैं। वे कहते हैं कि इन समाजवादी क्रान्तियों के बाद मुक्ति का विस्तार तो हुआ, लेकिन नारी मुक्त नहीं हो पायी; जहाँ उसे राजनीतिक अधिकार मिले वहाँ भी ‘ऐसा सांस्कृतिक प्रपंच रचा गया कि नारी ने जितना पाया उससे अधिक खो दिया।’ (ज़ोर हमारा)। यह एक आरोप है। और न्यायसंगत बात यह होती है कि हर आरोप के साथ उसे प्रमाण-समेत सिद्ध किया जाये। और अगर किसी विमर्श में ऐसा नहीं किया जाता तो उसे कुत्साप्रचार करार दिया जाना चाहिए। हिस्ट्री चैनल और नेशनल जियोग्राफ़िक चैनल आदि द्वारा किये जाने वाले प्रचारों को छोड़ दिया जाये तो वस्तुगत विश्लेषण करने वाले बुर्जुआ इतिहासकार भी सोवियत संघ और चीन में स्त्रियों को मिली आज़ादी की प्रशंसा करते हैं। इतिहास गवाह है कि सोवियत संघ वह पहला देश था जहाँ स्त्रियों को मताधिकार मिला; पहली बार सामाजिक और राजनीतिक जीवन में स्त्रियों की भागीदारी और प्रतिनिधित्व की शुरुआत हुई; सामाजिक तौर पर होने वाले उत्पादन में उनकी पहली बार शिरकत हुई। और ये दिखावटी लाभ नहीं थे, ये बेहद वास्तविक, ज़रूरी और मूल उपलब्धियाँ थीं। निश्चित रूप से, किसी सोवियत कम्युनिस्ट ने भी कभी यह दावा नहीं किया था कि स्त्री मुक्ति का प्रोजेक्ट पूरा कर लिया गया। सुवीरा जायसवाल ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कास्ट’ में लिखा है कि पितृसत्ता और जाति वर्ग के साथ ही अस्तित्व में आये और ये उसके साथ ही ख़त्म होंगे। इसलिए मार्क्सवाद की बुनियादी समझ रखने वाला कोई व्यक्ति भी यह दावा नहीं करेगा कि समाजवादी समाज के अस्तित्व में आने के साथ पितृसत्तात्मक उत्पीड़न का ख़ात्मा हो जाता है और स्त्री पूरी तरह मुक्त हो जाती है। लेकिन यह कहना कि रूस और चीन जैसे देशों में लेनिन, स्तालिन और माओ ने या संशोधनवादी बनने से पहले उनकी पार्टियों ने कोई ऐसा प्रपंच रचा कि स्त्रियों को जितना मिला उससे ज़्यादा उनसे छीन लिया गया, एक अनैतिहासिक कुत्साप्रचार की श्रेणी में आता है, और प्रो. वर्मा को इसके बारे में तथ्यों समेत स्पष्टीकरण देना चाहिए कि सर्वहारा वर्ग के इन शिक्षकों या उनकी पार्टियों ने किस तरह से ऐसे प्रपंच रचे। प्रपंच कोई ऐसी चीज़ नहीं है जो ग़लती से हो जाये। प्रपंच एक सचेतन चीज़ होती है। इसलिए इस बारे में प्रो. वर्मा को अपने विचारों को और स्पष्ट करना चाहिए।

इसके बाद, अगले ही पैरा में लेखक एक और ऐसी बात कहता है जिससे यह संशय होता है कि या तो मार्क्सवाद की अपनी समझ से वे प्रस्थान कर चुके हैं, या फिर मार्क्सवाद में ही वे कोई नया इज़ाफ़ा कर रहे हैं। वे कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी में क्रान्ति का सिद्धान्त रचा गया और उसके आधार पर व्यवहार भी विकसित हुआ, लेकिन इसके साथ ही लैंगिक राजनीति का उस अनुपात में विकास नहीं हो सका जिससे कि नारी आश्वस्त और सन्तुष्ट हो सके। अब इस पर क्या कहा जा सकता है? मार्क्सवाद अलग से किसी भी लैंगिक राजनीति का विरोध करता है। मानव मुक्ति के पूरे प्रोजेक्ट के तमाम हिस्सों में से एक हिस्सा जेण्डर प्रश्न का समाधान है, ठीक उसी प्रकार जैसे उसका एक हिस्सा जाति प्रश्न का समाधान भी है। लेकिन अलग से लैंगिक राजनीति वास्तव में अस्मितावादी राजनीति की ओर ले जाती है। एक बात और भी स्पष्ट नहीं हो पाती है कि लैंगिक राजनीति से प्रो. वर्मा का अर्थ सेक्सुअल पॉलिटिक्स है या फिर जेण्डर पॉलिटिक्स, क्योंकि इन दोनों में फ़र्क़ है। लेकिन यह भ्रम इस पूरे लेख में लगातार मौजूद रहता है। कहीं पर लैंगिक प्रश्न जेण्डर प्रश्न का अर्थ ध्वनित कर रहा है तो कहीं पर यह सेक्सुअल निहितार्थों में प्रकट हो रहा है। बहरहाल, यहाँ पर इन दोनों ही अर्थों में लैंगिक राजनीति का समर्थन करना ग़लत है। इस प्रश्न पर भी प्रो. वर्मा को अपनी अवस्थिति स्पष्ट करनी चाहिए, कि वे किस प्रकार की लैंगिक राजनीति की वकालत कर रहे हैं, जिससे कि सभी वर्गों की नारियाँ ‘आश्वस्त और सन्तुष्ट’ हो जायें।

इसके बाद, प्रो. वर्मा लेख की अपनी ‘विचारधारात्मक प्रस्तावना’ ख़त्म करते हैं और कोल्लोन्ताई पर चर्चा शुरू करते हैं। यहाँ से नयीक़िस्म की दिक़्क़तों की शुरुआत हो जाती है। शुरू में ही वे बताते हैं कोल्लोन्ताई ने जब 1921 में लेनिन के नेतृत्व में पार्टी द्वारा लागू की गयी थोड़ी समझौतापरस्त नयी आर्थिक नीतियों (नेप) का विरोध किया, तभी से वे ‘पार्टी नेतृत्व की आँख की किरकिरी बन गयीं’ और इसीलिए उन्हें राजदूत बनाकर नॉर्वे भेज दिया गया जो कि एक प्रकार का राजनीतिक निर्वासन था। इस पर बस यही कहा जा सकता है विकीपीडिया और अन्य इण्टरनेट साइटों से पढ़कर प्राधिकार के साथ दावे नहीं किये जाने चाहिए। पहली बात तो यह कि नयी आर्थिक नीतियाँ क्यों लागू की गयी थीं, इसके बारे में पूरी जानकारी पेश करके ही उनके आगे कोई विशेषण लगाया जा सकता है। नयी आर्थिक नीतियाँ लेनिन के ही शब्दों में ‘रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाने के समान’ थीं और वास्तव में गृहयुद्ध के समापन के बाद सर्वहारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण के लिए पार्टी इन नीतियों को लागू करने के लिए मजबूर थी और मज़दूर-किसान संश्रय को कायम रखने के लिए यह अनिवार्य था। अगर ऐसा न किया जाता तो सर्वहारा सत्ता का टिक पाना ही बहुत मुश्किल था। यहाँ सवाल चयन का नहीं बल्कि बाध्यता का था। इसके अतिरिक्त, प्रो. वर्मा की अभिव्यक्ति सोवियत रूस में राजनीति पर बुर्जुआ कमेण्टरी जैसी लगती है। बुर्जुआ प्रेक्षक कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर चलने वाले दो लाइनों के संघर्ष को नहीं समझते। उनके लिए दो लाइनों का संघर्ष वास्तव में ‘सत्ता संघर्ष’ (पावर स्ट्रगल) और ‘अहं का टकराव’ (इगो क्लैश) होता है। और इसमें विजेता पक्ष दूसरे को सज़ा देता है, जैसे कि कोल्लोन्ताई को राजदूत बनाकर नार्वे भेजकर दी गयी। लेकिन कोई कम्युनिस्ट भी दो लाइनों के संघर्ष को इसी रूप में व्याख्यायित करता है, तो दुःख और चिन्ता होती है। इसके अलावा, अगर कोल्लोन्ताई व इनेसा आर्मां तथा लेनिन के बीच स्त्री प्रश्न को लेकर हुए संवाद और पत्र-व्यवहार का भी ज़िक्र लेख में किया गया होता तो बेहतर होता। इससे पाठक को यह भी पता चलता कि कोल्लोन्ताई में अराजकतावाद, स्वच्छन्दतावाद और स्वतःस्फूर्ततावाद का जो भटकाव था, वह स्त्री प्रश्न पर उनके चिन्तन में भी प्रकट हुआ था, ठीक उसी प्रकार जैसे कि उनका यह भटकाव श्ल्यापनिकोव के साथ ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ में शामिल होने में प्रकट हुआ था। लेनिन की आलोचना के बाद कोल्लोन्ताई ने अपनी ग़लती को समझा था और लेनिन की अवस्थिति को अपनाया था। लेकिन, ये भटकाव कोल्लोन्ताई में बाद के दौर में भी मौजूद रहे थे।

इसके बाद, प्रो. वर्मा कोल्लोन्ताई के उपन्यास ‘एक महान प्रेम’ की विवेचना पर आ जाते हैं। इस विवेचना पर टिप्पणी भी संक्षेप में नहीं की जा सकती है। यह अपने आप में एक अलग लेख की माँग करता है और अगर सम्भव हुआ तो हम आगे इस पर लिखेंगे। लेकिन अभी फ़िलहाल हम इस लालच से बचेंगे और इस पूरी विवेचना के दौरान कही गयी कुछ आम राजनीतिक और विचारधारात्मक बातों पर अपनी बात कहेंगे। बस इतना कहे बिना मन नहीं मानता कि प्रो. वर्मा की अभिव्यक्ति उन जगहों पर भी क़िस्सागोई की ही रहती है, जहाँ वे गम्भीर राजनीतिक विषय पर अपने विचार रख रहे होते हैं और यह क़िस्सागोई भी कुछ अजब ही होती है। ऐसे में पाठक तय नहीं कर पाता कि क़िस्से के मज़े ले या फिर वैचारिक प्रश्न की संजीदगी को समझे। दो उदाहरण देखिये। ‘उसकी (यानी कोल्लोन्ताई की) इनेसा से काफ़ी पटने लगी क्योंकि नारी समस्याओं को लेकर वह भी बहुत दुखी और उद्विग्न थी।’ (!)

‘दोनों चेतनशील और विवेकशील हैं और दोनों के व्यक्तित्व मौलिक और प्रखर हैं। ऐसे में दोनों का प्यार जितना वास्तविक है, उतना ही ख़राब।’ (ख़राब अनुवाद!!)

इसके अलावा प्रो. वर्मा अनुवाद में काफ़ी छूट लेते हैं (वैसे यह शिकायत उनसे आमतौर पर भी है)। अब देखिये कि उन्होंने ‘एक महान प्रेम’ के एक वाक्य का कैसे अपने अन्दाज़ में अनुवाद किया है:

‘अब वह पूरी तरह – शरीर और आत्मा के साथ अपने काम को समर्पित थी। बहुत दिन हुए उसने ‘एक महान प्रेम’ का अहसास किया था, पर उस प्यार का ज्वार उतर चुका था। सेमियोन सेमियोनोविच ने अपने ध्यान-रहित पुरुष-मूर्खता के कारण उसे नष्ट कर दिया था।’ (She was back at her work again. Long, long ago there had been a great, wonderful, beautiful love, – but it was gone. It had seeped out of her heart, through the countless tiny wounds that Ssenja, in his man-like failure to understand, had inflicted.) (वह फिर से अपने काम को समर्पित थी। बहुत, बहुत पहले उसे एक महान, अद्भुत, सुन्दर प्रेम हुआ था, – पर अब वह ख़त्म हो चुका था। वह उसके हृदय से रिस-रिसकर निकल गया था, उन अनगिनत छोटे-छोटे घावों से होकर, जो सेन्या ने समझ पाने में अपनी पुरुष जैसी असफलता के कारण उसे दिये थे। – हमारा अनुवाद)

इसके बाद एक और पैरा वे उद्धरण चिह्नों के बीच रखते हैं जो इस प्रकार है: “इसलिए पुरुषो! इससे कुछ सीखो। तुमने अपने अन्धेपन के कारण औरतों को सताया है, अब जान लो कि अगर तुमने औरत के हृदय को चोट पहुँचायी तो तुम उसके प्यार की हत्या कर दोगे।” कोल्लोन्ताई का उपन्यास तो इसके पहले वाले पैरा में उद्धृत पंक्तियों पर ख़त्म हो गया था। अब इसके बाद उद्धरण चिह्नों के बीच पुरुषों के लिए यह उपदेश कोल्लोन्ताई के उपन्यास में तो कहीं नज़र नहीं आ रहा था, तो प्रो. वर्मा ही बता सकते हैं कि यह उपदेश कोल्लोन्ताई का था या ख़ुद उन्होंने पुरुषों को दिया है। और अगर उपन्यास में किसी अन्य जगह पर ऐसी कोई पंक्ति है तो उसे किसी अन्य जगह से उद्धृत किन्हीं अन्य पंक्तियों के साथ निरन्तरता में उद्धृत नहीं किया जाना चाहिए।

दूसरी सबसे बड़ी दिक़्क़त यह है कि पूरे लेख में प्रो. वर्मा यह मानकर चल रहे हैं कि कोल्लोन्ताई ने यह उपन्यास लिखते समय लेनिन, क्रुप्स्काया, और इनेसा आर्मां के जीवन के चित्रण को ध्यान में रखा था। एक इतिहासकार होते हुए भी प्रो. वर्मा तथ्यों के साथ ऐसा दुर्व्यवहार करेंगे, इसकी उम्मीद नहीं थी। कोल्लोन्ताई ने अपने पूरे जीवन के दौरान कभी भी यह नहीं कहा कि इसका लेनिन, क्रुप्सकाया या इनेसा आर्मां के जीवन से कोई सम्बन्ध था। स्वयं क्रुप्स्काया ने कभी इस आशय की कोई बात, या आपत्ति या कोई भी टिप्पणी कभी नहीं की। किसी सोवियत साहित्य आलोचक ने भी ऐसा कभी नहीं कहा। यह उपन्यास समाजवाद के पूरे दौर में रूस में छपता और पढ़ा जाता रहा और उस पूरे दौर में कभी भी किसी के वास्तविक जीवन से ऐसा कोई समानान्तर नहीं खींचा गया था। हाँ, बाद के दशकों के दौरान पश्चिमी विश्व में इस क़िस्म की अटकलें ज़रूर लगायी जाने लगी थीं। वैसे भी अगर कोई उपन्यास को पढ़े तो सेन्या के चरित्र की लेनिन से कोई तुलना ही नहीं की जा सकती। न ही नताशा के चरित्र की इनेसा आर्मां के चरित्र से कोई तुलना की जा सकती है। यही बात सेन्या की पत्नी और क्रुप्स्काया के बारे में भी कही जा सकती है। ऐसे में, पश्चिमी अकादमिया और मीडिया के प्रचार के आधार पर इस क़िस्म की ग़ैर-ज़िम्मेदार अटकलबाज़ी को तथ्य बनाकर पेश किया जाना एक इतिहासकार की बौद्धिक नैतिकता के ख़िलाफ है। इसके बारे में भी प्रो. वर्मा को स्पष्टीकरण देना चाहिए कि ऐसा सन्दर्भ उन्हें कहाँ से मिला जिससे वे इस उपन्यास के चरित्रों के लेनिन, क्रुप्स्काया या आर्मां के जीवन से सम्बन्धित होने को एक तथ्य के रूप में रख रहे हैं।

उपन्यास के कथानक और लेनिन, क्रुप्स्काया और इनेसा के जीवनों से उसके मेल खाने और मेल न खाने के विश्लेषण के बाद, प्रो. वर्मा उपन्यास के विश्लेषण पर आते हैं। शुरू में ही वे एक ऐसी बात कर देते हैं, जिसके कारण नये सिरे से यह शक पैदा होता है कि प्रो. वर्मा मार्क्सवाद का निषेध या उसमें इज़ाफ़ा कर रहे हैं। वे क्या कहते हैं, सुनिये: ‘ज़ाहिर है, यह सत्यकथा नहीं है, वैसे सत्यकथा भी एक ‘वज़र्न’ ही होती है।’ अगर इस बात को मिशेल फूको की आत्मा सुन लेती तो यह सोचकर काफ़ी प्रसन्न होती कि जिस समय विश्वभर के अकादमिक जगत में उसका नवकाण्टीय उत्तरआधुनिकतावाद पिट चुका है, उस समय भारत में प्रो. वर्मा के रूप में उसे एक नया अनुसरणकर्ता मिल गया है। यह कहना एक बात है कि किसी भी सत्य के बयान में बयान करने वाले की आत्मगतता अवश्य आती है और सतत व्यवहार के ज़रिये उस आत्मगतता को दूर करना और इस प्रक्रिया में पैदा होने वाली नयी आत्मगतता के विरुद्ध फिर से संघर्ष करते रहना आवश्यक होता है; और यह कि आत्मगतता और वस्तुगतता के बीच का यह द्वन्द्व मानवीय अभिकरण (ह्यूमन एजेंसी) और संरचना (स्ट्रक्चर) के बीच की अन्तर्क्रिया में सतत जारी रहता है। लेकिन यह कहना कि सत्य स्वयं एक वज़र्न है, वास्तव में यह कहना होगा कि सत्य ही एक निर्मिति है। दूसरे शब्दों में, वस्तुगत यथार्थ प्रेक्षक द्वारा रचित एक निर्मिति है या फिर प्रेक्षक यथार्थ का निर्माण करता है। कोई बताये कि यह मार्क्सवादी समझदारी है या फिर उत्तरआधुनिकतावादी सापेक्षतावाद (रिलेटिविज़्म) और नवकाण्टीय अज्ञेयवाद! आगे प्रो. वर्मा कहते हैं कि इतिहासकार के वस्तुनिष्ठता के लाख दावे के बावजूद उसकी आत्मगतता अतीत के विवरण में आती ही है, क्योंकि उसके अपने पूर्वाग्रह होते हैं और अतीत के बारे में तथ्य भी सीमित होते हैं। सिर्फ इतना कहकर ही बात को समाप्त कर देना भी इतिहास-लेखन की एक उत्तरआधुनिक समझदारी है। यह सच है कि इतिहास-लेखन में इतिहासकार की आत्मगतता आयेगी ही। लेकिन मार्क्सवादी इस आत्मगतता के भी वर्ग चरित्र की बात करते हैं। हॉब्सबॉम व अन्य कई मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इसे ‘इतिहासकार की पक्षधरता’ कहा है, पूर्वाग्रह नहीं। पक्षधरता यह भी तय कर देती है कि आप तथ्यों के प्रति कितने वस्तुनिष्ठ हो सकते हैं। इस वस्तुनिष्ठता की एक सीमा होती है। लेकिन अधिकतम सीमा तक पहुँचने के लिए भी सही पक्षधरता की आवश्यकता होती है। सही पक्षधरता क्या हो, यह प्रो. वर्मा को भी एक इतिहासकार के रूप में तय करनी पड़ेगी। जैसे कि जब प्रो. वर्मा लिखते हैं कि समाजवाद के दौरान प्रपंच रचकर स्त्रियों को जितना दिया गया उससे ज़्यादा छीन लिया गया, तो वास्तव में उन्होंने एक पक्ष चुना है। समाजवाद के ख़िलाफ कुत्साप्रचार करने वालों का पक्ष! और अगर हम तथ्यों की पड़ताल करें तो पायेंगे कि इस पक्षधरता के कारण वे उतने वस्तुनिष्ठ भी नहीं हो पाये हैं, जितना वे हो सकते थे। अफसोस होता है! बहरहाल, इतिहास-लेखन और विचारधारा का प्रश्न अलग से एक लम्बी चर्चा की माँग करता है। लेकिन प्रो. वर्मा से हम यह माँग ज़रूर करेंगे कि इस विषय पर वे कभी और अधिक विस्तार से लिखें।

लेख के अन्त में प्रो. वर्मा पूरी ताक़त के साथ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों पर टूट पड़े हैं। वे कहते हैं कि क्रान्तिकारियों समेत सभी पुरुष नारी-पुरुष सम्बन्धों के मामले में नारी-विरोधी और ‘कन्फ़ॉर्मिस्ट’ व परम्परावादी होते आये हैं। और जो कम्युनिस्ट इस मामले में अधिक मुक्त रुख़ अपनाते हैं, वे भी यह काम चोरी-छिपे करते हैं क्योंकि यह मुक्त रुख़ बुर्जुआ जनतन्त्र की पैदावार है। अब पूँजीवादी जनतन्त्र ने स्त्री को किन अर्थों में मुक्त किया है इस पर काफ़ी लिखा जा चुका है और नये सिरे से कुछ भी लिखना व्यर्थ होगा। आगे बुर्जुआ जनतन्त्र ने स्त्रियों के लिए क्या-क्या किया इसके काफ़ी कसीदे प्रो. वर्मा ने पढ़े हैं। अब कोई इतिहासकार भी ऐसी अनैतिहासिक बात कहेगा, इसकी उम्मीद नहीं की थी। वैसे प्रो. वर्मा को यह बताना चाहिए कि वे किन ‘सही कामों’ की ओर इशारा कर रहे हैं जिसकी इजाज़त पार्टी के भीतर तो नहीं होती लेकिन बुर्जुआ जनतन्त्र में होती है। कहीं उनका इशारा स्त्री-पुरुष सम्बन्ध में एकनिष्ठता-निषेध की ओर तो नहीं है? क्योंकि बुर्जुआ समाज ने एकनिष्ठ सम्बन्धों के नाश के लिए कई संस्थाओं और प्रथाओं की ईजाद की है, जैसे, स्वॉपिंग, बाईसेक्सुअलिज़्म, क्वीअर सेक्सुअल एक्टिविज़्म, ऑल्टरनेट सेक्सुऑलिटी, ट्रांसजेण्डर सेक्सुऑलिटी, वगैरह। सच है भाई! ये प्रथाएँ बिल्कुल कन्फ़ॉर्मिस्ट नहीं हैं! बिल्कुल परम्परावादी नहीं हैं! प्रो. लालबहादुर वर्मा ने आगे कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जिससे ऐसा प्रतीत होता है कि पूँजीवादी समाज की मरणासन्नता, पतन और क्षरण के नये युग में ‘यौनिक-लैंगिक मुक्ति’ के वैविध्यपूर्ण रूपों के लेकर उनका नज़रिया काफ़ी खुला हुआ है! कुछ मिसाल देखें।

“…यह तो सच है कि ‘क्रान्तिकारियों’ ने भी नारी और पुरुष के बीच ही लैंगिक सम्बन्ध – एकपत्नीत्व (या एकपतित्व), विवाह, घर आदि के बारे में प्रायः परम्परा का ही पक्ष लिया है और उन ‘नाज़ुक’ मुद्दों को न छेड़ना ही श्रेयस्कर माना है। इतने दिनों बाद भी हर जगह पारम्परिक ‘नॉर्मल’ को चुनौती देने वाले सेक्स के मामले में आज भी तथाकथित नॉर्मल को ही सही मानते हैं, जबकि बहुत-सा तथाकथित ‘एबनॉर्मल’ मनोवैज्ञानिक और वैज्ञानिक रूप से नॉर्मल सिद्ध किया जा चुका है।” (ज़ोर हमारा)

अब कुछ सवाल। पहला, प्रो. वर्मा सिर्फ नारी और पुरुष के बीच के लैंगिक सम्बन्ध का ही समर्थन किये जाने के ख़िलाफ हैं। उनके अनुसार, पुरुष और पुरुष के बीच, नारी और नारी के बीच के लैंगिक सम्बन्धों की भी वकालत की जानी चाहिए। इस पर बहुत विस्तार से यहाँ लिख पाना सम्भव नहीं है, लेकिन समलैंगिकता के बारे में ऐतिहासिक अनुसन्धान जारी है और इसके नैसर्गिक होने या न होने को लेकर भी बहस जारी है। लेकिन इसे व्यक्तिगत और निजी चयन का मामला रहने दिया जाना चाहिए। इसके बारे में राजनीतिक प्रचार और अवस्थिति अपनाना कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों का काम नहीं है। अभी तक किये गये अनुसन्धान में सामने आये हर प्रकार के ऐतिहासिक प्रमाणों से ऐसा प्रतीत होता है कि समलैंगिकता वर्ग समाज के आने के बाद अस्तित्व में आयी और व्यापक तौर पर इसकी मौजूदगी के प्रथम प्रमाण दास समाज के उत्तरार्द्ध से मिलते हैं। समलैंगिकता के प्राचीनतम सन्दर्भ (किसी भी प्रकार के, जिसमें पुरातात्विक भी शामिल हैं) नवपाषाणीय क्रान्ति के कई सदियों बाद मिलते हैं, जो साफ तौर पर कबीलाई समाज से वर्ग समाज में संक्रमण का दौर था। लेकिन इसके बारे में कोई पार्टी अपनी नीति अवश्य तय कर सकती है। उस पर बहस की जा सकती है और होनी चाहिए। लेकिन यही आज का सबसे अहम मुद्दा नहीं है।

इसके बाद नॉर्मल और एबनॉर्मल को लेकर जो बात प्रो. वर्मा ने उठायी है, वह भी पूरी तरह से फूको से ली गयी है। फूको ‘क्वियर थियरी’ का पिता माना जाता है। फूको ने समाज में पागल या सामान्य के बीच के अन्तरविरोध पर सवाल खड़ा किया और नॉर्मल को एक सामाजिक निर्मिति बताया और एबनॉर्मल को नॉर्मल करार दिया। यह सच है कि पूँजीवादी समाज में बहुत से एबनॉर्मल को नॉर्मल करार दिया जाता है और नॉर्मल को एबनॉर्मल। कोई भी मानवद्रोही व्यवस्था यही करेगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है नॉर्मल और एबनॉर्मल के फ़र्क़ को ही समाप्त कर दिया जाये। फूको यही करता है। यह वास्तव में क्वियर सिद्धान्त के मूल तत्वों में से एक है। फूको स्वयं भी समलैंगिक था और उसकी मृत्यु भी एड्स के कारण हुई थी। उसने मृत्यु से पहले अपने आपको स्पष्ट शब्दों में काण्टवादी और नीत्शेवादी घोषित किया था। नॉर्मल और एबनॉर्मल पर फूको के पतनशील सिद्धान्त को देखना हो तो आप उसकी रचना ‘सिविलाइज़ेशन एण्ड मैडनेस’ और ‘दि बर्थ ऑफ क्लिनिक’ पढ़ सकते हैं। इसमें कई जगह वह सही बातें भी कहता है। लेकिन जहाँ-जहाँ वह सही है, वह कुछ भी नया नहीं कहता, बल्कि मार्क्स से उधार लेता है (जो कि उसने स्वयं भी स्वीकार किया था) और अन्य सभी जगहों पर उसमें नीत्शे, स्पेंगलर की पतनशीलता और काण्ट के अज्ञेयवाद की बू आती है। अब अगर आप मार्क्सवादी से फूकोल्डियन बन गये हैं, तो आपको यह काम खुले तौर पर करना चाहिए। क्योंकि लोग तो आपको मार्क्सवादी के तौर पर जानते हैं और आप जो लिखेंगे वे उसे मार्क्सवाद का विचार मानेंगे। ऐसे में मार्क्सवाद के साथ आप बहुत अन्याय कर रहे हैं। आपको घोषित तौर पर अपने वैचारिक प्रेम को अभिव्यक्त करना चाहिए। इससे कोई वैचारिक धुन्ध नहीं फैलेगी।

अन्त में, आपने प्रेम के बारे में अपने और विचार भी प्रकट किये हैं। आप लिखते हैं कि प्रेम की पराकाष्ठा मित्रता में है और मित्रता कइयों से की जा सकती है। यानी प्रेम भी कइयों से किया जा सकता है। यानी, एकनिष्ठ प्रेम वास्तव में प्रेम के लिए बन्धन है! यानी, आप एकनिष्ठ प्रेम पर प्रश्न खड़ा कर रहे हैं और एक व्यक्ति द्वारा एक साथ कइयों को प्रेम करने के बुर्जुआ लिबर्टैरियन सिद्धान्त की वकालत कर रहे हैं। अगर हम ग़लत समझ रहे हैं तो हमें सही कर दीजियेगा। और आप एकनिष्ठ प्रेम के सिद्धान्त के लिए क्रान्तिकारियों की आलोचना करते नज़र आ रहे हैं। आप इस बात को लेकर काफ़ी नाराज़ हैं कि क्रान्तिकारियों के बीच भी स्त्री और पुरुष के बीच मित्रता नहीं होती! इस तथ्य के लिए आपका स्रोत शायद आपका निजी अनुभव हो, क्योंकि अगर और भी हैं, तो आपको उद्धृत करना चाहिए। मेरी राय में तो दुनियाभर में अगर स्त्रियों-पुरुषों के बीच सच्ची और स्वस्थ दोस्तियाँ होती हैं, तो वह कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच ही होती हैं।

अन्त में आप याद दिलाते हैं (पाठकों को या ख़ुद को, यह पता नहीं!) कि दुनिया तो बदली ही जानी चाहिए! मानो सामने कोई बालहठ किये बैठा हो कि दुनिया बदली जानी चाहिए, और आप अन्त में तंग आकर मान गये। आप कहते हैं कि दुनिया बदली इसलिए भी जानी चाहिए कि प्रेम अपने व्यापकतम (!?) और उदात्ततम (!?) रूप में चरितार्थ हो सके! चलिये आपको एक कारण याद है कि दुनिया क्यों बदली जाये! ख़ैर, प्रेम के आपके व्यापकतम  और उदात्ततम  का अर्थ तो हम ऊपर देख ही आये हैं, इसलिए यह कारण भी आपको शायद ठीक से याद नहीं!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।