प्रो. प्रभात पटनायक के नाम एक खुला पत्र

आदरणीय प्रो. पटनायक,

शीर्ष भारतीय अर्थशास्त्रियों में आपका स्थान निर्विवाद है। आपका लेखन और रचनाएँ तमाम जटिल आर्थिक विषयों को समझने में सहायता करती हैं। समकालीन विश्व पूँजीवाद की आर्थिक सेहत के बारे में आपकी अन्तर्दृष्टि सराहनीय है। जहाँ तक किसी भी आर्थिक परिघटना के मूल तत्वों की पहचान का प्रश्न है, आपका लेखन अनुकरणीय है।

लेकिन कई बार ऐसा लगता है कि आपकी बौद्धिक अन्तर्दृष्टि और आपकी राजनीतिक पक्षधरता में एक असुविधाजनक द्वन्द्व चलता रहता है। ऐसा ख़ासतौर पर तब होता है, जब आप साम्राज्यवाद के आर्थिक संकट के बारे में लिखते हैं। यह अहसास आपका लेखन पढ़ते समय पाठक को भी असुविधा की स्थिति में पहुँचा देता है। एक अमेरिकी अराजकतावादी रॉक बैण्ड गन्स एण्ड रोजे़ज़ ने अपने एक गीत ‘नवम्बर रेन’ की शुरुआत इन पंक्तियों से की है: ‘व्हेन आई लुक इण्टू योर आईज़, आई कैन सी ए लव रिस्ट्रेण्ड’ (जब मैं तुम्हारी आँखों में देखता हूँ, तो मुझे एक अवरुद्ध प्रेम नज़र आता है); ठीक उसी प्रकार मन्दी के आपके विश्लेषण को पढ़ते हुए ये पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार दिमाग़ में बजने लगती हैं: ‘व्हेन आई रीड यू ऑन रिसेशन, आई कैन सी एन इनसाइट कंस्ट्रेण्ड’ (जब मैं मन्दी पर आपका लेखन पढ़ता हूँ, तो मुझे एक बाधित अन्तर्दृष्टि नज़र आती है)!

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कहने का अर्थ यह है कि आपका विश्लेषण आपको किसी और नतीजे पर पहुँचाता है, लेकिन आपकी राजनीतिक पक्षधरता आपको कोई और नतीजा निकालने के लिए बाध्य करती है। आप विश्लेषण में बौद्धिक ईमानदारी बरतने का प्रयास करते नज़र आते हैं, लेकिन साम्राज्यवादी संकट पर लिखे गये अपने हर लेख, हर रचना में आप अन्त आते-आते अपने ही विश्लेषण के विरुद्ध जाकर नतीजे निकालते नज़र आते हैं। एक उत्कृष्ट बुद्धिजीवी की बौद्धिक तीक्ष्णता के साथ इस कदर ज़ोर-ज़बरदस्ती होते देखना काफ़ी दुखद होता है।

इन सामान्य बातों को मैं एक ठोस उदाहरण से स्पष्ट करने की इजाज़त चाहूँगा। अभी 19 नवम्बर 2010 के फ़्रण्टलाइन के अंक में आपने एक ग़ौरतलब लेख लिखा है जिसका शीर्षक है ‘डिलेमा इन योरप’। आप इस लेख की शुरुआत यूरोप में मज़दूरों और छात्रों के वर्तमान उभार की तुलना 1968 में हुए प्रसिद्ध यूरोपीय छात्र-मज़दूर आन्दोलन से करते हैं और इस बात पर अफसोस ज़ाहिर करते हैं कि मौजूदा आन्दोलन में राजनीतिक दृष्टि की कमी है और यह पूरी तरह से आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित है। इनमें सबसे प्रमुख है कल्याणकारी पूँजीवादी राज्य द्वारा मिल रही सुविधाओं की वित्तीय पूँजी के हमलों से रक्षा। 1968 का छात्र-मज़दूर आन्दोलन आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित नहीं था और वास्तव में प्रभावी राजनीतिक संरचनाओं पर प्रश्न खड़ा कर रहा था। तब उसे डि गॉल ने आर्थिक रियायतें देकर तोड़ा था और आज के आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित आन्दोलन को सरकोज़ी राज्य की मशीनरी का इस्तेमाल करके तोड़ने की कोशिश कर रहा है। बिल्कुल सही बात कही आपने! इसके बाद आप मौजूदा यूरोपीय मज़दूर आन्दोलन की इस कमी को रेखांकित करते हैं कि इसके पास कोई राजनीतिक दृष्टि नहीं है और इसका कारण यह है कि पूरे यूरोपीय वाम के पास आज कोई वैकल्पिक राजनीति मौजूद नहीं है और वह कुल मिलाकर कल्याणकारी राज्य की नेमतों को सुरक्षित करने में लगा हुआ है। आप यह भी बताते हैं कि वास्तव में कल्याणकारी राज्य की नीतियों को आज लागू करना काफ़ी मुश्किल है। ये तभी सफल हो सकती हैं, जब इसे पूरे यूरोप के पैमाने पर लागू किया जाये, जिस सम्भावना को लेख में आगे जाकर आप ख़ारिज कर देते हैं, जब आप यह कहते हैं कि पूरे यूरोज़ोन के लिए कोई सामूहिक स्टिम्युलस पैकेज दे पाना सम्भव नहीं है, क्योंकि सर्वयूरोपवाद की सीमाएँ आज प्रत्यक्ष और स्पष्ट हैं और ऐसा कोई भी पैकेज अलग-अलग यूरोपीय देशों में प्रतिक्रियावादी अन्धराष्ट्रवाद, फ़ासीवाद और नस्लवाद को जन्म देगा। यानी, आप किसी भी सामूहिक यूरोपीय स्टिम्युलस पैकेज की सम्भावना से इंकार कर देते हैं, या इसकी सम्भावना को नगण्य मानते हैं, जो कि तभी वास्तवीकृत हो सकती है, जब इस पैकेज के लीकेज प्रभाव को रोकने के लिए यूरोप की सभी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएँ संरक्षणवाद की शरण में चली जायें। ऐसा हो पाना आज के भूमण्डलीकरण के दौर में सम्भव नहीं है, यह भी लेख में किसी जगह आप मानते हैं। ऐसे में कुल मिलाकर आप सामूहिक यूरोपीय मौद्रिक सुधार या स्टिम्युलस पैकेज की सम्भावना को ख़ारिज कर देते हैं। लेकिन पाठक तब बड़ी दुविधा में पड़ जाता है, जब आप यह कहते हैं कि इसके बावजूद कि यह सम्भावना ही असम्भाव्य है, आज यूरोपीय वाम को पूरे यूरोपीय संघ के पैमाने पर ऐसे सामूहिक या समन्वित मौद्रिक सुधार या पैकेज की माँग करनी चाहिए! आप आखि़र कहना क्या चाहते हैं?

इसके अलावा आप वित्तीय पूँजी के वर्चस्व में भूमण्डलीकरण की नवउदारवादी नीतियों के जारी रखने से आने वाले विनाश की तरफ भी ध्यान आकर्षित करते हैं। यानी कि जारी नवउदारवाद कोई समाधान नहीं दे सकता। इस पर ज़्यादा बहस की कोई ज़रूरत नहीं है। इस पर मार्क्सीय और कीन्सीय अर्थशास्त्रियों की सहमति है। इस प्रकार आप पहले कल्याणकारी उपायों की व्यर्थता की ओर ध्यान खींचते हैं और फिर नवउदारवाद की विकल्पहीनता को भी स्पष्ट रूप में चिह्नित करते हैं। लेकिन आप सलाह किस बात की देते हैं? उन्हीं कीन्सियाई कल्याणवादी उपक्रमों को अपनाने की जिनकी व्यर्थता को आप स्वयं ही चिह्नित करते हैं! आप मार्क्सवाद के एक प्रकाण्ड विद्वान हैं। यह जानते हुए आपके मस्तिष्क में मौजूद इस विकल्पहीनता का औचित्य नहीं समझ में आता है।

विडम्बना की बात तो यह है कि लेख की शुरुआत में आप जिस तरह से यूरोपीय वाम की आलोचना करते हैं, उससे लगता है कि आप किसी क्रान्तिकारी नतीजे पर पहुँचने वाले हैं। जैसे-जैसे पाठक लेख में आगे बढ़ता है, वैसे-वैसे वह विषादमिश्रित आश्चर्य से ग्रस्त होता जाता है, ख़ासतौर पर वह पाठक जिसने आपकी अन्य रचनाओं को नहीं पढ़ा है। आप कहते हैं कि यूरोपीय वाम पूँजीवादी व्यवस्था का कोई विकल्प सुझाने की बजाय कल्याणकारी राज्य की नीतियों की रक्षा में लगा हुआ है, और वह भी भूमण्डलीकरण का खण्डन किये बिना। आप यूरोपीय वाम के इस अन्तरविरोध को तार्किक भी बताते हैं! आप दलील देते हैं कि आज के दौर में यूनान या यहाँ तक कि फ़्रांस जैसा देश भी अपने बूते पर अपनी सभी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता है! पहले उदाहरण को तो कुछ आपत्तियों के साथ माना जा सकता है, लेकिन फ़्रांस का उदाहरण देना कुछ ज़्यादा नहीं हो गया? फ़्रांस उद्योग, कृषि, ऊर्जा, सेवा क्षेत्र और कार्यशक्ति, सभी मामलों में आत्मनिर्भर है और उसकी आत्मनिर्भरता पर आप बेजा सवाल खड़ा कर रहे हैं। यह बात अलग है कि आज फ़्रांस में कोई सर्वहारा क्रान्ति सम्भावित नहीं है। लेकिन जब भी होगी तो वह एक टिकाऊ सर्वहारा क्रान्ति होगी। बहरहाल, यह मुद्दा यहाँ मुख्य नहीं है। आप यूरोपीय वाम की आलोचना भी करते हैं और फिर उसकी कमियों को नकार भी देते हैं। आप यहाँ कहना क्या चाह रहे हैं, यह समझ में नहीं आता।

इसके बाद आप और भी अधिक चमत्कृत कर देने वाली बात कहते हैं! आप यह विचार प्रकट करते हैं कि यूरोपीय वाम को आज पूँजीवादी व्यवस्था की मूल संरचना पर सवाल खड़ा करना चाहिए और उसका एक विकल्प पेश करना चाहिए। इस पर हम बाद में आते हैं कि इस “मूल संरचना” से आपका क्या अर्थ है। मज़ेदार बात आप इसके बाद में कहते हैं। आप कहते हैं कि इस विकल्प की बात करना मज़दूर वर्ग की संक्रमणात्मक माँग होगी! आप या तो कोई नया सिद्धान्त दे रहे हैं, या फिर आप ख़ुद ही अपनी बातों में उलझ गये हैं। पूँजीवाद के विकल्प की माँग सिर्फ और सिर्फ समाजवाद की माँग हो सकती है। और यह माँग मज़दूर वर्ग की संक्रमणात्मक माँग नहीं है, बल्कि उसका अन्तिम लक्ष्य और ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी है। अगर समाजवाद की माँग संक्रमणात्मक माँग है तो मज़दूर वर्ग की अन्तिम माँग क्या है?

यह पूरा गड़बड़झाला केवल एक ही सूरत में अर्थपूर्ण बन सकता है। वह सूरत यह होगी कि आप पूँजीवाद के विकल्प के तौर पर समाजवाद को नहीं देखते हैं। आप जब पूँजीवाद की बात करते हैं तो आपका अर्थ होता है आज का परजीवी वित्तीय इज़ारेदारी वाला जुआरी पूँजीवाद, जो कि आपकी निगाह में एक ‘बुरा पूँजीवाद’ है। और जब आप इसके विकल्प की बात करते हैं तो आपका अर्थ समाजवाद नहीं होता है, बल्कि राष्ट्रीय संरक्षणवादी कीन्सियाई कल्याणकारी राज्य वाला ‘अच्छा पूँजीवाद’ होता है। यह आपके लेख के अन्त की ओर जाते-जाते स्पष्ट हो जाता है। आप मज़दूर वर्ग को समाजवाद की दृष्टि देने की वकालत नहीं करते हैं। आप वकालत करते हैं एक कीन्सियाई राज्य वाले कल्याणकारी पूँजीवाद की। यही कारण है कि लेख में आप इस बात पर काफ़ी दुखी नज़र आते हैं कि हाल में जो भी स्टिम्युलस पैकेज दुनियाभर की पूँजीवादी सत्ताओं ने दिया, उसका मकसद घरेलू माँग बढ़ाकर अल्पउपभोग को ख़त्म करना नहीं था, जो कि अति-उत्पादन के संकट से थोड़ी राहत देता और संकट की मार को कुछ हल्का करता। उसका मकसद था वित्तीय इज़ारेदारियों को संकट से उबारना, उनकी असमाधेयता से उन्हें बचाना। वास्तव में, यहाँ आप एक हॉब्सनियाई अल्पउपभोगवादी और क्लासिकी वाम रुझान वाले कीन्सवादी के रूप में दर्शन देते हैं। आप जो कुछ बोल रहे हैं, उसमें कुछ मार्क्सवादी नहीं है।

आप और आप जैसे कीन्सियाई वामपन्थी अर्थशास्त्री (मिसाल के तौर पर, जयति घोष, सी.पी. चन्द्रशेखर, आदि) आज एक ही काम कर रहे हैं। यह काम है पूँजीवाद के भीतर मौजूद आत्मघाती प्रवृत्ति को प्रति-सन्तुलित करना। वित्तीय पूँजी के आज के दौर में विश्व पूँजीवाद परजीविता, मरणासन्नता, खोखलेपन की जिस पराकाष्ठा पर पहुँच गया है, वह अद्वितीय है। आज पूरी विश्व अर्थव्यवस्था एक भयंकर अन्तकारी संकट का शिकार है और वित्तीय पूँजी एक नरभक्षी दैत्य के समान सट्टेबाज़ी के बुलबुलों के बूते तुरत-फुरत मुनाफ़ा कमा लेने की हवस में अन्धी हो चुकी है और लगातार अपने ही अन्त की तरफ बढ़ रही है। ज़ाहिर है कि यह अन्त अपने आप नहीं हो जायेगा और जब तक क्रान्तिकारी शक्तियाँ राजनीतिक, विचारधारात्मक और सांगठनिक तौर पर बिखरी रहेंगी, तब तक ऐसा नहीं हो सकता है, और पूँजीवाद युद्ध और विनाश की विभीषिकाएँ रच-रचकर मानवता की छाती पर मूँग दलता रहेगा। लेकिन ऐसा भी अनन्तकाल तक नहीं चल सकता है। कभी न कभी इस जड़ता और ठहराव से कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी मुक्त होंगे और दिमाग़ खोलकर एक नयी वैज्ञानिक समझदारी विकसित करते हुए आगे बढ़ेंगे। यह कब होगा इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती। लेकिन उतने ही दावे से कहा जा सकता है, यह होगा ज़रूर। विश्वभर में अलग-अलग देशों में लगातार छोटे होते जा रहे अन्तरालों पर हो रहे जनविस्फोट और विद्रोह इसी भविष्य की ओर इशारा कर रहे हैं। ऐसे में, आप जैसे लोग क्या भूमिका निभा रहे हैं? वे पूँजीवाद के कन्धे पर बैठकर उसके कान में संयम-मन्त्र फूँकने का काम कर रहे हैं! वे पूँजीवाद की आत्मघाती रफ़्तार के रास्ते में स्पीड ब्रेकर बनाने का काम कर रहे हैं और जगह-जगह ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी’ का बोर्ड लगा रहे हैं! आप जैसे लोग पूँजीवाद के सबसे दूरदर्शी पहरेदार और बौद्धिक रक्षकों की अन्तिम पंक्ति का काम कर रहे हैं। यह अनायास ही नहीं था कि आपको भूमण्डलीकरण के मानवीय चेहरे की बात करने वाले पूँजीवादी अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ के साथ एक अन्तरराष्ट्रीय समिति में रखा गया था, जिसका काम था विश्व पूँजीवाद के चौधरियों को 2007 से शुरू हुई विश्वव्यापी मन्दी से उबरने के उपाय बताना। आपको विश्व पूँजीवाद की रक्षा के लिए सलाहकार मण्डल में शामिल किया गया। यह अनायास ही तो नहीं है कि आप केरल की संशोधनवादी सरकार के योजना आयोग में शामिल हैं!

आपकी राजनीतिक पक्षधरता आपको बौद्धिक तौर पर भी ईमानदार नहीं रहने देती है। इन दोनों के बीच द्वन्द्व चलता रहता है और अन्त वही होता है, जैसा कि हमेशा होता आया है – राजनीति की विजय होती है, और अर्थशास्त्र की पराजय! बेहतर होगा कि अपने मस्तिष्क के इस द्वन्द्व को किसी एक पार लगा दें। क्योंकि यह द्वन्द्व आपकी हर रचना में प्रकट हो जाता है और उसे ‘मास्टरपीस’ बनने से रोक देता है। या तो राजनीति के पक्ष में इस द्वन्द्व का समाधान हो जाये, या फिर आपकी अर्थशास्त्रियों वाली बौद्धिक ईमानदारी के ही पक्ष में इसका समाधान हो जाये। दोनों ही सूरत में तब आपका लेखन मास्टरपीस बनने की पूर्वशर्तें पूरा करने लगेगा। पहली सूरत में यह शानदार काउत्स्कीपन्थी लेखन बनेगा (जैसे कि साम्राज्यवाद पर आपका अति-साम्राज्यवाद वाला सिद्धान्त आया था, जिसकी आपने चर्चा ही करनी बन्द कर दी इस महामन्दी के बाद!) और दूसरी सूरत में यह एक अच्छा मार्क्सवादी आर्थिक लेखन बनेगा। और ऐसे में हम जैसे अर्थशास्त्र के विनम्र विद्यार्थी आपके लेखन से कन्फ्यूज़ हो जाने की बजाय, अधिक अच्छी अन्तर्दृष्टि विकसित कर पाने में समर्थ होंगे।

आदर के साथ,

आपका,

अभिनव।

दिनांक 02-02-2011

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011

 

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