अलीगढ़ के बाद छात्र-संघर्ष का नया केन्द्र बना लखनऊ विश्वविद्यालय
आह्वान संवाददाता
आह्वान के पिछले अंक में आपने पढ़ा था – किस प्रकार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए.एम.यू.) के छात्र, छात्र संघ बहाली के लिए अक्टूबर माह से ही संघर्ष कर रहे थे। छात्रों की जुझारू एकजुटता से लगातार जारी धरना-प्रदर्शन और क्रमिक भूख हड़ताल के आगे प्रशासन को अन्ततः झुकना पड़ा और उसने 22 दिसम्बर को छात्र संघ बहाली की घोषणा की। 18 जनवरी, 2011 को यहाँ पर विभिन्न पदों के लिए चुनाव सम्पन्न कराये गये। यह जीत पूरे प्रदेश के विभिन्न कैम्पसों में छाये पस्तहिम्मती के माहौल को तोड़ने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है और इसी के मद्देनज़र उम्मीद है कि जल्द ही प्रदेश के अन्य विश्वविद्यालयों, विशेषकर केन्द्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों में छात्र संघ बहाल हो जाये। हालाँकि छात्र संघ बहाली करना सरकार के लिए भी एक हद तक बाध्यता है, क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने लिंगदोह कमीशन द्वारा दिये गये प्रस्तावों पर निर्णय देने के दौरान यह निर्देश दिया था कि 2012 तक देश के सभी विश्वविद्यालयों एवं महाविद्यालयों में जहाँ छात्र संघ था, इसके समानान्तर छात्रों की एक प्रातिनिधिक संस्था, जो छात्रों द्वारा चुनी गयी हो, को स्थापित करना अनिवार्य है। ऐसे में ए.एम.यू. में हालिया सम्पन्न छात्र संघ चुनावों के कुछ पहलुओं पर चर्चा करना आवश्यक है। ए.एम.यू. के छात्र संघ चुनावों में किसी क्रान्तिकारी राजनीतिक विकल्प के न मौजूद होने के कारण चुनाव मुख्यतः क्षेत्रगत एवं जातिगत ‘लॉबिंग’ के आधार पर ही लड़े गये, न कि व्यापक छात्र हितों की नुमाइन्दगी करते किसी सकारात्मक एजेण्डा पर। आपराधिक कार्रवाई भी (हालाँकि पहले से कम) जारी रही और मुख्य रूप से ये चुनाव भी पहले की तरह ही, संसदीय राजनीति में जाने की ताकत और मंशा रखने वालों के लिए ट्रेनिंग सेण्टर बन गये। यह ज़रूर है कि छात्र संघ की मौजूदगी में पूरे परिसर में व्याप्त प्रशासन के ‘गुण्डा राज’ में कमी आयी है। दूसरी बात यह कि लिंगदोह कमीशन के प्रस्तावों के अनुरूप कराये गये चुनावों के बाद जो छात्र संघ अस्तित्व में आया है, वह छात्र अधिकारों के लिए संघर्ष करेगा – इसकी उम्मीद नहीं के बराबर है। यही बात आने वाले समय में छात्र संघ बहाली के उपरान्त विभिन्न विश्वविद्यालयों में होने वाले चुनावों के लिए भी लागू होती है। छात्र राजनीति में एक क्रान्तिकारी विकल्प के निर्माण एवं अखिल भारतीय स्तर पर लिंगदोह कमीशन के प्रस्तावों को निरस्त कराने की मुहिम के बिना छात्र संघ बहाली अपने-आप छात्रों का हित कर देगी, यह सोचना मूर्खतापूर्ण होगा।
आह्वान के पिछले अंकों में हमने यह भी ज़िक्र किया था कि किस प्रकार ए.एम.यू. के अलावा लखनऊ विश्वविद्यालय, बी.एच.यू. एवं गोरखपुर विश्वविद्यालय में छात्रों के बीच छात्र संघ बहाली एवं अन्य मुद्दों को लेकर कुछ सुगबुगाहटें नज़र आने लगी हैं। लखनऊ विश्वविद्यालय में तो पिछले साल लाइब्रेरी, हॉस्टल में मेस की सुविधा, कैम्पस में व्याप्त पुलिसिया गुण्डागर्दी इत्यादि मुद्दों को लेकर ‘दिशा छात्र संगठन’ के नेतृत्व में छात्रों के संघर्ष ने एक बहुत छोटे समय में बाकायदा एक आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण करने की ओर कदम बढ़ाया था, और प्रशासन को कुछ मुद्दों पर झुकाते हुए एक आंशिक जीत भी हासिल की थी। कुछ वस्तुगत कारणों के चलते यह संघर्ष अपनी तार्किक परिणति तक नहीं पहुँच सका, लेकिन यह ज़रूर था कि प्रशासन इस आन्दोलन से इतना भयाक्रान्त हो गया था कि बहुत ही निरंकुश तरीक़े से उसने लखनऊ विश्वविद्यालय के भीतर ‘दिशा छात्र संगठन’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया। (इस आन्दोलन की विस्तृत रिपोर्ट के लिए देखें आह्वान अंक जनवरी-फरवरी, 2010)
इस लम्बी भूमिका का पटाक्षेप करते हुए हम लखनऊ विश्वविद्यालय में फ़िलहाल जारी संघर्ष पर चर्चा की शुरुआत करते हैं। पिछली 4 दिसम्बर को विश्वविद्यालय प्रशासन ने बी.ए. (प्रथम वर्ष) के दो छात्रों – शिवार्थ पाण्डेय और मो- तलत अंसारी का निलम्बन कर दिया। प्रशासन का आरोप था कि दोनों छात्रों ने ‘छात्र मर्यादा’ के विरुद्ध आचरण करते हुए बिना प्रशासन की अनुमति के दर्शनशास्त्र विभाग के सेमिनार रूम में एक विचार-विमर्श चक्र आयोजित करने की योजना बनायी और इस आयोजन सम्बन्धी नोटिस परिसर के भीतर दीवारों एवं नोटिस बोर्ड पर लगाया। इस निलम्बन का जवाब देते हुए दोनों छात्रों ने स्पष्ट किया कि यह आयोजन प्रशासन के योग्य अधिकारी डीन-छात्र कल्याण की अनुमति से हो रहा था और इसके नोटिस चिपकाने का मकसद छात्रों को इसकी सूचना देना था, जो किसी भी रूप में ‘छात्र मर्यादा’ के विरुद्ध आचरण नहीं है, बल्कि यही छात्रोचित है। उन्होंने प्रशासन से यह भी माँग की कि तत्काल प्रभाव से उनका यह अन्यायपूर्ण निलम्बन रद्द किया जाये। प्रशासन ने इस जवाब पर कोई कार्यवाही नहीं की, और अनुमान लगाया कि बी.ए. (प्रथम वर्ष) के छात्र हैं, डरकर बैठ जायेंगे और इसी बहाने भविष्य के लिए ये और इनके जैसे अन्य छात्र ‘छात्र मर्यादा’ के अन्तर्गत आचरण करना सीख जायेंगे। प्रशासन के इस आँकलन को धता बताते हुए छात्रों के साहसिक एवं योजनाबद्ध संघर्ष के कारण आज यह अन्यायपूर्ण निलम्बन पूरे विश्वविद्यालय समुदाय के लिए मुद्दा बन गया है और छात्रों का संघर्ष जारी है।
इस संघर्ष का विवरण देने के पहले इस मुद्दे की पृष्ठभूमि पर चर्चा करना थोड़ा ज़रूरी है, क्योंकि महानगरीय विश्वविद्यालय के छात्र यह सुनकर हैरत में पड़ जायेंगे कि एक विचार-विमर्श चक्र के आयोजन के लिए क्या किसी विश्वविद्यालय में निलम्बन भी किया जा सकता है। यह भी ग़ौर करना ज़रूरी है कि यह वही लखनऊ विश्वविद्यालय है जहाँ आज से पाँच साल पहले जब छात्र संघ कार्यरत था और उन पर चुनावी पार्टियों के लम्पटों और लठैतों का कब्ज़ा था, उस समय दिन-दहाड़े कट्टेबाज़ी होती थी, उपकुलपति से लेकर प्रशासन के विभिन्न पदाधिकारियों को तथाकथित छात्र नेता दिन-दहाड़े ज़लील करते थे और प्रॉक्टर कार्यालय अपनी सुरक्षा हेतु बाकायदा गुण्डों की फ़ौज़ पालता था।
आज के हालात देखकर, जब विश्वविद्यालय के भीतर ज़्यादातर छात्र भीगी बिल्ली बने बैठे हैं और प्रशासन का एक अज़ीबोग़रीब आतंक छाया हुआ है तो कई लोग यह कह रहे हैं कि प्रशासन अपनी पाली में बदला चुका रहा है और एक बार छात्र संघ बहाल हो जायेंगे तो दोबारा ‘छात्रों’ के दिन आ जायेंगे। वस्तुगत सच यह है कि न आज से पाँच साल पहले ‘आम छात्रों’ के दिन थे और न आज हैं। फ़र्क़ यह था कि आज से 5-10 साल पहले विश्वविद्यालय ख़ासकर क्षेत्रीय स्तर के विश्वविद्यालय में पहुँचने वाले छात्रों की आबादी अपनी वर्गीय पृष्ठभूमि के कारण प्रकृति से रैडिकल थी और प्रशासन की इस क़िस्म की मनमानी को सहन करने को तैयार नहीं थी। किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में उसका यह ‘रैडिकलिज़्म’ या तो व्यर्थ गया या उसे चुनावी पार्टियों ने अपने तरीक़े से भुनाया। इसके बावजूद इतना ज़रूर था कि इन छात्रों को भीगी बिल्ली बनना गँवारा नहीं था और स्वतःस्फूर्त ढंग से वह प्रशासन की मनमानी का विरोध करता था।
दिल्ली विश्वविद्यालय सरीखे कुलीन विश्वविद्यालयों की वर्गीय संरचना तो आज से एक-डेढ़ दशक पहले ही इतना बदल चुकी थी कि आज वहाँ पर सुविधाभोगी, कैरियरपरस्त और परजीवी छात्रों का इतना बहुमत है कि आन्दोलन तो दूर ये विश्वविद्यालय किसी भी क़िस्म का रैडिकल संघर्ष खड़ा करने की क्षमताओं से भी रिक्त हो चुके हैं। वैसे तो यह बात पूरे देश के कैम्पसों पर भी लागू होती है, लेकिन क्षेत्रीय स्तर के विश्वविद्यालय एवं महाविद्यालय अभी भी अगर आन्दोलन नहीं तो; किसी सुलझे हुए क्रान्तिकारी संगठन के नेतृत्व में रैडिकल संघर्ष तो खड़ा कर ही सकते हैं।
लखनऊ विश्वविद्यालय की चर्चा के द्वारा हम अपनी इस बात को आगे बढ़ाना चाहेंगे। लखनऊ विश्वविद्यालय के भीतर जो माहौल व्याप्त है, वह किसी भी रूप में एक विश्वविद्यालय के स्तर का नहीं है। अधिकतम इसे एक ‘बीमारू प्रदेश’ का ‘बीमारू विश्वविद्यालय’ ही कहा जा सकता है। अकादमिक और बौद्धिक तौर पर इसकी हालत दीवालिया है। हो भी क्यों न! लखनऊ विश्वविद्यालय में कुल 35,000 छात्र हैं, लेकिन विश्वविद्यालय के पास इन छात्रों को बिठा पाने के लिए भी जगह नहीं है। अगर किसी एक दिन विश्वविद्यालय के सारे छात्र उपस्थित हो जायें तो पेड़ों के नीचे भी पढ़ाने की जगह नहीं बचेगी। जहाँ तक शिक्षकों की संख्या का सवाल है, यह आश्चर्यजनक रूप से अपर्याप्त है। लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर पद के लिए 59 सीटें हैं, जबकि इन पर मात्र 32 भर्तियाँ की गयी हैं। यानी 27 प्रोफ़ेसर स्तर के शिक्षकों की कमी है। इसी तरह रीडर पद के लिए विश्वविद्यालय के पास 135 सीटें हैं, जिनमें केवल 88 पर भर्ती की गयी हैं; लेक्चरर स्तर के शिक्षकों के लिए 322 सीटें हैं, जिसमें केवल 240 पर ही भर्तियाँ की गयी हैं। जिन शिक्षकों की भर्ती की भी गयी है, उनमें से कई इन पाठ्यक्रमों को पढ़ाने के लिए अल्पयोग्य या अयोग्य हैं, क्योंकि ज़्यादातर भर्तियाँ भाई-भतीजावाद के आधार पर की गयी हैं, न कि अकादमिक योग्यता के आधार पर। विश्वविद्यालय में पुस्तकालय का आलम यह है कि कई सालों से नये प्रकाशन की पुस्तकें आयी ही नहीं और जो हैं वे भी धीरे-धीरे करके ‘अपने-आप’ ग़ायब होती जा रही हैं। अवसंरचनागत सुविधाओं जैसे लैब, क्लासरूम, कैण्टीन की हालत दयनीय है। कलासंकाय में छात्रों के लिए प्रसाधन कक्ष तक नहीं है। महज़ छात्र ही नहीं शिक्षक भी कभी-कभार सार्वजनिक जगहों का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य हो जाते हैं। कैण्टीन का नज़ारा भूत-बंगलों जैसा जर्जर है। अगर इससे इतर आप पूरे विश्वविद्यालय के आम परिवेश पर नज़र डालेंगे तो कुछ तालिबानियों जैसा ‘कोड ऑफ कण्डक्ट’ लागू किया गया है। लड़के-लड़कियाँ पार्क में बैठकर बात नहीं कर सकते, कोई शिक्षक जाड़े के दिनों में क्लासरूम से बाहर खुले मैदान में क्लास नहीं ले सकता, कहीं भी किसी भी छात्र को प्रॉक्टर की गुण्डा-वाहिनी ज़लील कर सकती है, हॉस्टल में किसी भी छात्र के रूम पर आधी-रात को प्रॉक्टर साहब अपने ‘सैन्य-दस्ते’ के साथ रेड डाल सकते हैं, और ‘छात्र मर्यादा’ का हवाला देते हुए किसी भी छात्र को निलम्बित या निष्काषित किया जा सकता है। सिर्फ दिसम्बर माह के पहले हफ्ते में फल चुराने से लेकर विचार-विमर्श चक्र के आयोजन सरीखे ‘अपराधों’ के लिए करीब आधा दर्जन छात्रों का निलम्बन किया गया है। यह सारी दरिद्रता सिर्फ छात्रों के लिए है, स्टाफ रूम से लेकर विभागाध्यक्षों के कक्ष या वी-सी. महोदय का कार्यालय किसी भी मायने में कुलीन संस्थानों के अधिकारियों के महकमे से कम नहीं है। यहाँ पर केन्द्रीयकृत वातानुकूलन से लेकर कम्प्यूटर-स्कैनर तक सब कुछ उपलब्ध रहता है। विश्वविद्यालय प्रशासन समेत पूरे तन्त्र में व्याप्त भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार ने आम छात्रों के लिए विश्वविद्यालय में उचित शैक्षणिक, बौद्धिक एवं आत्मिक विकास के सभी रास्तों को बन्द कर दिया गया है और वे इसे बदलने के लिए कसमसा रहे हैं। ऐसे में प्रशासन के लिए यह लाज़िमी हो जाता है कि वह अपने इस तन्त्र को बनाये रखने के लिए पूरे परिसर में ऐसा भय और आतंक का माहौल बनाकर रखे कि कोई छात्र एकजुटता बना ही न पाये। वह इस तरह की किसी भी पहल को सिर उठाने से पहले कुचल देना चाहता है।
यही कारण है कि प्रशासन विश्वविद्यालय के भीतर आम छात्रों द्वारा खड़े किये गये एक ‘डिस्कशन फ़ोरम’ को भी ख़तरनाक मानता है। इसी कारण इस फ़ोरम के दो छात्रों को उसने तत्काल निलम्बित कर दिया। प्रशासन को उम्मीद थी इससे यह फ़ोरम स्थापित होने से पहले ही ख़त्म हो जायेगा, लेकिन उससे यहीं पर चूक हो गयी। इस अन्यायपूर्ण निलम्बन के विरुद्ध छात्रों ने घुटने टेकने के बजाय संघर्ष करने का तय किया और इसके माध्यम से पूरे कैम्पस में छाये डर और आतंक के माहौल को चुनौती देने का भी फ़ैसला किया। ‘स्टूडेण्ट्स डिस्कशन फ़ोरम’ के विभिन्न साथियों ने तय किया कि पहले इस मुद्दे को पूरे विश्वविद्यालय समुदाय के समक्ष रखा जाये और उनसे पक्ष चुनने की अपील की जाये। इसी के अन्तर्गत विश्वविद्यालय के छात्रावासों में जाकर छात्रों को सम्बोधित किया गया है, क्लासरूम में मुँहा-मुँही कहते हुए इसे व्यापक छात्र आबादी तक पहुँचाया गया। इसके साथ ही छात्रों की तरफ से ‘शिक्षकों के नाम एक खुला पत्र’ शीर्षक से तैयार किया गया एक पत्र, जिसमें पूरे मामले का विवरण था, शिक्षकों तक ले जाया गया। ‘कर्मचारी भाइयों के नाम अपील’ के द्वारा इसे विश्वविद्यालय के कर्मचारियों तक भी पहुँचाया गया।
इस तरह एक जन राय बनाने के बाद उपकुलपति, प्रति उपकुलपति और अधिष्ठाता-छात्र कल्याण के नाम एक पत्र जारी करके भी उनसे इस मसले पर उचित हस्तक्षेप करते हुए न्याय करने की गुहार लगायी गयी। प्रशासन को छात्रों के द्वारा इस तरह के योजनाबद्ध और संगठित कार्यवाही की उम्मीद नहीं थी। इसी के फलस्वरूप प्रशासन ने रक्षात्मक मुद्रा अपनाते हुए ‘जल्द से जल्द निलम्बन वापसी’ का वायदा किया है। उनकी यह ‘शर्त’ ज़रूर है कि निलम्बित छात्र यह पत्र-व्यवहार बन्द कर दें। रिपोर्ट लिखे जाने तक शिक्षकों के एक चार सदसीय प्रतिनिधिमण्डल ने उपकुलपति महोदय से मिलकर जल्द से जल्द उनसे इस अन्यायपूर्ण निलम्बन को रद्द करने की अपील की है। इसके अलावा उन्होंने कैम्पस के भीतर छात्रों के लिए ‘जनवादी स्पेस’ बहाल करने की भी अपील की है। आगे फ़ोरम की योजना है कि उपकुलपति महोदय भी अगर अपेक्षित कार्यवाही नहीं करते हैं तो वे संघर्ष को अगले चरण यानी धरना-प्रदर्शन, क्रमिक भूख हड़ताल और आमरण अनशन तक भी लेकर जायेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2011
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!