आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र की आलोचना 
भ्रष्टाचार-मुक्त सन्त पूँजीवाद के भ्रम को फैलाने का बेहद बचकाना और मज़ाकिया प्रयास

शिवानी

सम्भव है कि आपमें से कुछ ने अरविन्द केजरीवाल एण्ड पार्टी की आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र देखा हो। हाल ही में उसे पढ़ने का मौका मिला। पढ़ते ही यह लगा कि तीसरी या चौथी कक्षा के किसी बच्चे ने ‘मेरे सपनों का भारत’ नामक विषय पर निबन्ध लिख डाला है, या फिर यह भी कह सकते हैं कि लगा कि सूरज बड़जात्या ने देश को ध्यान में रखते हुए ‘हम साथ-साथ हैं’ या ‘हम आपके हैं कौन?’-टाइप एक पारिवारिक फिल्म की पटकथा लिखी हो। केजरीवाल एण्ड पार्टी की पार्टी का यह घोषणापत्र ग़ज़ब की चमत्कारी खूबियाँ लिये हुए है। घोषणापत्र में हर समस्या का समाधान पेश किया गया है, वह भी मिनटों में! चाहे भ्रष्टाचार की समस्या हो (इसे केजरीवाल एण्ड पार्टी कैसे भूल सकती है, यह तो उनका प्रिय विषय है! इसी की वजह से तो उनका “धन्धा”, मतलब कि उनका काम चल रहा है), सामाजिक भेदभाव, छुआछूत और अन्याय का मसला हो, किसानों की आत्महत्या का मुद्दा हो, या महिलाओं की स्थिति का सवाल हो-सभी का ‘इंस्टैण्ट समाधान’ केजरीवाल एण्ड पार्टी के घोषणापत्र में आपको मिल जायेगा। यही नहीं, अगर आप उन्हें किसी मुद्दे पर सुझाव देना चाहते हैं तो वह उस मुद्दे पर अपनी पार्टी का स्टैण्ड तक बदलने का तैयार हैं। काफ़ी खुली हुई पार्टी है यह ‘आम आदमी’ की पार्टी!

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घोषणापत्र के कवर पर केजरीवाल एण्ड पार्टी अपनी पार्टी के उद्देश्य का वर्णन इस प्रकार करते हैं: “हमारा सपना-राजनीतिक क्रान्ति”। तो बात साफ़ है-इस पार्टी का उद्देश्य महज़ देश की राजनीति (पढ़िये ‘बुर्जुआ राजनीति’) में व्याप्त भ्रष्टाचार का ख़ात्मा एक “राजनीतिक क्रान्ति” को अंजाम देकर करना है। पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था का विकल्प पेश करना इस पार्टी के एजेण्डा पर है ही नहीं। जहाँ कहीं भी केजरीवाल एण्ड पार्टी ‘व्यवस्था परिवर्तन’ की बात करते हैं, वहाँ उनका मतलब सिर्फ और सिर्फ इसी किस्म की राजनीतिक क्रान्ति से होता है। आगे घोषणापत्र में इस पार्टी के औचित्य पर प्रकाश डाला जाता है। यहाँ हमें बताया जाता है कि देश की किसी भी पार्टी से भ्रष्टाचार-मुक्त भारत की उम्मीद नहीं की जा सकती है। हमें यह भी बताया जाता है कि “पिछले दो सालों से हमने (केजरीवाल एण्ड कम्पनी ने) सबकुछ करके देख लिया। सरकार से चर्चा की, सभी पार्टियों से प्रार्थना की, उनके सामने गिड़गिड़ाये, धरना किया, प्रदर्शन किया, और तीन बार अनिश्चितकालीन अनशन किया। लेकिन ये पार्टियाँ नहीं मानीं, नेता नहीं माने।” इसके बाद अचानक केजरीवाल एण्ड पार्टी का सुर बदलता है और वह कहते हैं कि अब गिड़गिड़ाने से काम नहीं चलेगा। अब इन सभी पार्टियों को सत्ता से उखाड़कर फेंकना ही होगा। पूरी व्यवस्था ही बदलनी होगी। प्रिय पाठक! अति-आशान्वित मत होइये! क्योंकि अगले ही वाक्य में हमें यह बतलाकर हमारी ज्ञान चक्षु खोले जाते हैं कि इन सभी बातों का यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि राजनीति में बैठे सभी लोग भ्रष्ट हैं और यह भी नहीं है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी ईमानदार हैं और अगर वे लोग सत्ता में पहुँचे तो ईमानदारी से सरकार चलायेंगे! एक बात तो माननी पड़ेगी! आप केजरीवाल एण्ड कम्पनी की किसी और बात से सहमत हों या न हों, उनकी इस बात से तो आप सहमत हुए बिना नहीं रह सकते! क्या ईमानदारी और साफ़गोई दिखायी है! लेकिन फिर यह सवाल उठता है कि अगर मौजूदा पार्टियाँ भ्रष्ट हैं और आम आदमी पार्टी भी ईमानदार होने का दम नहीं भरती तो फिर श्रीमान केजरीवाल की क्रान्ति होगी कैसे? इस पर तपाक से उनका जवाब आता है कि पूरी राजनीतिक (ग़ौर कीजिये केवल राजनीतिक) व्यवस्था जो दूषित हो चुकी है, को पूरी तरह से बदलना होगा। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिसमें “सीधे जनता के हाथ में चाभी” हो। केजरीवाल एण्ड पार्टी सत्ता के केन्द्रों को ध्वस्त करके राजनीतिक सत्ता सीधे जनता के हाथ में देने जा रही है!

वैसे तो इसके आगे और कुछ भी बताने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि इतने से ही स्पष्ट हो जाता है कि केजरीवाल के आन्दोलन के निशाने पर पूँजीवादी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था नहीं है, बल्कि एक बुरा-भ्रष्ट पूँजीवाद है, या स्वयं केजरीवाल के शब्दों में “साँठ-गाँठ करने वाला पूँजीवाद” है। आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में आप एक भी जगह स्वयं पूँजीवाद को कठघरे में खड़ा नहीं पाते हैं। आपको कहीं पर भी इस बात का जिक्र तक नहीं मिलता कि अगर भ्रष्टाचार है तो आखि़र क्यों है? हर जगह इसके बारे में ऐसे बात की गयी है कि यह प्राकृतिक रूप से प्रदत्त कोई समस्या है। कहीं पर भी यह नहीं बताया जाता है कि जिस सामाजिक-आर्थिक संरचना की बुनियाद में ही मुनाफ़े, लोभ, लालच की संस्कृति और तर्क व्याप्त हो, वहाँ भ्रष्टाचार से इतर आप किसी अन्य आचरण की उम्मीद कर ही कैसे सकते हैं? लोकपाल कानून को ‘पनेशिया’ बताकर भ्रष्टाचार के मूल स्रोत पर ही पर्दा डाल दिया जाता है। क्या यह सच नहीं है कि एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था जिसमें पूरा उत्पादन और वितरण तन्त्र समाज की ज़रूरतों के लिए काम नहीं करता, बल्कि पूँजीपतियों के निजी मुनाफ़े के लिए काम करता है, उसमें भ्रष्टाचार की समस्या का कोई समाधान नहीं है। केजरीवाल एण्ड पार्टी पूँजीवाद के इसी सच को छिपाने का काम कर रहे हैं।

हम वापस आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र पर आते हैं। घोषणापत्र में “आज़ादी के दीवानों” के सपनों के भारत का आह्वान किया गया है। और आज़ादी के इन दीवानों में लाइन से महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोस, भगतसिंह, अशफाकउल्ला, चन्द्रशेखर आज़ाद, रामप्रसाद बिस्मिल और मंगल पाण्डेय की बात की गयी है। क्या महात्मा गाँधी और भगतसिंह व उनके साथियों ने आज़ाद भारत का एक ही सपना देखा था? क्या इन लोगों के विचार, अगर सिर्फ आज़ादी की ही बात करें, तो उसको लेकर भी, विचारधारात्मक रूप से भी भिन्न नहीं थे? इस तरह के विचारधारा से ऊपर प्रतीत होने वाले लोकरंजक जुमलों का इस्तेमाल करने वाले केजरीवाल एण्ड पार्टी बुर्जुआ राजनीति में पहले लोग नहीं हैं। इनकी पार्टी तो इसकी समृद्ध विरासत में एक इज़ाफा भर कर रही है। इसके बाद कुछ फिल्मी-टाइप डायलॉगबाज़ी में संविधान में ‘आम आदमी’ से किये गये वायदों की बात की गयी है। और यहीं से इस घोषणापत्र में विरोधाभासों की श्रृंखला शुरू हो जाती है। एक तरफ़ तो केजरीवाल एण्ड पार्टी संविधान की न्यायपरकता का गुणगान गाते नहीं थकते और वहीं दूसरी तरफ़ अपने घोषणापत्र में थोड़ा आगे बढ़ते ही स्वातन्त्रयोत्तर भारत में उसी औपनिवेशिक कानून और ढाँचे को बनाये रखने की आलोचना करते हैं, जिसका अंग स्वयं यह संविधान भी है। लगता है केजरीवाल यह भूल गये हैं कि 1950 में जो संविधान अस्तित्व में आया वह 1935 के ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट’ का ही एक संशोधित रूप था। आगे घोषणापत्र में कहा गया है कि सबसे पहले अंग्रेज़ों द्वारा बनाये गये ढाँचे को बदलना होगा। इसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि क्या फिर संविधान को भी बदलना पड़ेगा? ऐसी विसंगतियों की तो इस घोषणापत्र में भरमार है। इसका कारण भी स्वयं इस पार्टी की राजनीति में अन्तर्निहित है। अपनी तमाम “क्रान्तिकारिता” के बावजूद केजरीवाल एण्ड पार्टी बुर्जुआ वर्ग की ही सेवा में लगी है। फर्क बस इतना है कि वे इस काम को ज़्यादा चालाकी से अंजाम दे रहे हैं। कुछ रैडिकल जुमलों और नारों का इस्तेमाल करके वे यह भ्रम पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं कि वे कोई नयी बात कह रहे हैं। या फिर कोई नया रास्ता सुझा रहे हैं। लेकिन जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं, ऐसा कुछ नहीं है।

घोषणापत्र में आगे हमें मौजूदा ढाँचे के तीन स्तम्भों कार्यपालिका, विधायिका, और न्यायपालिका के बारे में बताया जाता है। केजरीवाल एण्ड पार्टी के अनुसार ये तीनों ही अपनी भूमिका से चुक गये हैं। सरकार में बैठे कुछ नेता और अफसर देश के सभी फैसले लेते हैं, जनता की कुछ नहीं चलती है। आम आदमी पार्टी का यही सपना है कि “सरकार” शब्द की परिभाषा बदली जाय। इनके अनुसार अब कोई राजा नहीं होगा, कोई प्रजा नहीं होगी, कोई वी.आई.पी. नहीं होगा। केवल आम आदमी होगा! इस देश का हर आम आदमी “सरकार” होगा। यह वाकई दिवा-स्वप्न के समान है। केजरीवाल एण्ड पार्टी इसे पूरा करने का एक बहुत ही आसान रास्ता सुझाते हैं। इस पार्टी के घोषणापत्र में कहा गया है कि यह मॉडल ऐसा होगा जिसमें अपने गाँव के बारे में सभी निर्णय गाँव की ग्रामसभा में बैठकर उस गाँव के लोग ले सकेंगे। शहरों में अपनी मुहल्लों की समस्याओं के बारे में उस मुहल्ले में रहने वाले सभी लोग निर्णय ले सकेंगे। जब लोग ग्राम सभा और मुहल्ला सभा में बैठकर निर्णय लेंगे तो अपने गाँव और मुहल्ले के लिए वही सरकार होंगे। लेकिन ये सभी निर्णय संविधान और अन्य कानूनों के तहत होने चाहिए उनके बाहर नहीं होने चाहिए। लेकिन यह कहीं नहीं बताया जाता कि इस मॉडल में समाज में मौजूद समस्त उत्पादक संसाधनों का स्वामी कौन होगा? क्या मौजूदा समाज में संसाधनों और सम्पत्ति का जो बँटवारा मौजूद है, वह कायम रखते हुए ये नयी राजनीतिक संस्थाएँ बनायी जायेंगी? यदि हाँ, तो ऐसी राजनीतिक संस्थाओं में औपचारिक तौर पर तो निर्णय लेने का अधिकार सभी नागरिकों के पास होगा, लेकिन व्यवहारतः उन्हीं नागरिकों की सुनी जायेगी, जिनके पास आर्थिक और उत्पादक संसाधनों पर ज़्यादा नियन्त्रण होगा। यानी कि, अगर राजनीतिक निर्णय लेने की मौजूदा इकाई को बदल भी दिया जाय तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, बशर्ते कि समाज में मौजूद समस्त उत्पादक संसाधनों का स्वामी समूचे मेहनतकश वर्ग को सामूहिक तौर पर बनाया जाय। लेकिन इस विषय में घोषणापत्र में केजरीवाल ने कहीं एक शब्द भी नहीं कहा है कि वे जिस तथाकथित नयी व्यवस्था की बात कर रहे हैं उसमें समूचे कल-कारखानों, खेतों-खलिहानों और खानों-खदानों का मालिक कौन होगा? अगर टाटा, बिड़ला, बजाज, हिन्दुजा, अम्बानी, जिन्दल और मित्तल ही उसके मालिक होंगे, तो केजरीवाल की गली-मुहल्ला सभाएँ और ग्राम सभाएँ कुछ नहीं कर पायेंगी। वास्तव में, राजनीतिक निर्णय लेने की ताक़त भी उन्हीं के पास होती है जिनके पास समाज में आर्थिक संसाधनों पर इज़ारेदारी होती है। और जाहिर है कि केजरीवाल इनके खिलाफ़ नहीं जायेंगे।

मौजूदा सम्पत्ति सम्बन्धों को बदले बिना इस किस्म के भागीदारी लोकतन्त्र के सभी मॉडल बुर्जुआ वर्चस्व को ही मज़बूत करने का काम करेंगे। विधायिका और न्यायपालिका के चरित्र के बारे में भी यह बात उतनी ही सच है। पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंक कर और पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों का क्रान्तिकारी रूपान्तरण करके ही सत्ता की असल बागडोर आम मेहनतकश जनता के हाथों में आ सकती है। इस काम को अंजाम दिये बग़ैर सरकार चलाने और कानून बनाने में ‘आम आदमी’ की भागीदारी की बात जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं है।

इसके बाद आम आदमी पार्टी के घोषणापत्र में राजनीति पर एक लघु नैतिक उपदेश दिया गया है। और हमें बताया गया है कि आम आदमी पार्टी का ध्येय राजनीति को एक बार फिर देशभक्ति और समाजसेवा से जोड़ना है, जैसा कि गाँधी ने किया था। यहाँ स्पष्ट ही है कि केजरीवाल एण्ड पार्टी का राजनीति से अर्थ बुर्जुआ चुनावी राजनीति से है और इसे भ्रष्टाचार और अपराध से मुक्त कर दिया जाय तो उन्हें बुर्जुआ राजनीति से कोई शिकायत नहीं है। पहली बात तो यह कि पूँजीवादी चुनावी राजनीति कभी भ्रष्टाचार-मुक्त हो ही नहीं सकती है; ऐसा सोचना आकाश-कुसुम की अभिलाषा करने के समान है कि लोकपाल कानून के भय से सारे राजनीतिज्ञ मि. सुथरा बन जायेंगे और देशभक्ति और समाजसेवा में लग जायेंगे! मूल सवाल यहाँ भी यही है कि राजनीतिक वर्ग आज उन्हीं वर्गों की सेवा में संलग्न है जिनके पास उत्पादन के साधनों और पूँजी का मालिकाना है। और अगर केजरीवाल की व्यवस्था में भी यह मालिकाना उनके ही पास रहेगा तो उनकी व्यवस्था में भी कानूनी तौर पर निर्णय लेने में सभी को भागीदारी दी जायेगी, लेकिन अन्ततः सुनी उन्हीं की जायेगी जिनके पास समाज के समस्त संसाधनों पर नियन्त्रण होगा। इसलिए यह सोचना कि किसी कानून के ज़रिये पूँजीवादी राजनीति में संलग्न पार्टियों के नेताओं को सुधारा जा सकता है, यही बताता है कि या तो केजरीवाल बहुत सयाने बन रहे हैं और जनता को मूर्ख बना रहे हैं, या फिर वे सच में बेहद मूर्ख हैं। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि राज्यसत्ता पर काबिज़ लोगों को भ्रष्ट या ईमानदार के रूप में पेश किया गया है, लेकिन किसी वर्ग के प्रतिनिधि के तौर पर नहीं। जैसे कि समाजसेवा और देशभक्ति वाली राजनीति के मॉडल के तौर पर गाँधी का सन्दर्भ दिया गया है। लेकिन सभी जानते हैं कि गाँधी अपने व्यक्तिगत मानवतावाद आदि के बावजूद किसी वर्ग की ही सेवा कर रहे थे। गाँधी का ही सिद्धान्त था कि उत्पादक जनता के हाथों में उत्पादन के साधनों का मालिकाना नहीं सौंपा जाना चाहिए; गाँधी के अनुसार पूँजीपति वर्ग को ही ‘न्यासी’ (ट्रस्टी) के तौर पर उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण कायम रखना चाहिए। पूँजीपति मज़दूरों के अभिभावक और कुशल, जिम्मेदार और मानवतावादी स्वामी के रूप में उभरता है! केजरीवाल भी अगर राजनेताओं को किसी वर्ग के नुमाइन्दे के तौर पर नहीं बल्कि “अच्छे” बनाम “बुरे”, “भ्रष्ट” बनाम “ईमानदार” के रूप में पेश कर रहे हैं, तो साफ़ तौर पर वे अपनी प्रस्तावित व्यवस्था के बारे में सबसे बुनियादी सवालों पर गोल-मोल कर रहे हैं। मसलन, इस प्रस्तावित व्यवस्था में सत्ता वास्तविक तौर पर किनके हाथों में होगी? उत्पादन के साधनों का मालिकाना किनके हाथों में होगा? और इसी गोलमगोल में केजरीवाल का असली मकसद भी साफ़ हो जाता है-पूँजीवादी व्यवस्था के कपड़ों से दाग-धब्बे (यानी दागी मन्त्री, नेता, नौकरशाहों, आदि) को साफ़ करने का भ्रामक वायदा कर उसकी हिफाज़त करना। यह एक दीगर बात है कि यह भी सम्भव नहीं है, लेकिन कम-से-कम टटपुँजिया और सबसे जल्दी भ्रमित होने वाले मध्यवर्गीय जनता के एक हिस्से को केजरीवाल कुछ समय के लिए उल्लू बनाने में सफल हो ही जायेंगे।

इसके बाद घोषणापत्र में शुरू होती है आम आदमी पार्टी द्वारा भ्रष्टाचार समेत हर सामाजिक बुराई को दूर करने की मैराथन मुहिम। इस मुहिम की शुरुआत केजरीवाल एण्ड पार्टी के सबसे पसन्दीदा विषय भ्रष्टाचार-दलन से होती है। ‘आह्वान’ में प्रकाशित अलग-अलग लेखों में भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान के चरित्र, राजनीति, विचारधारा सम्बन्धी प्रश्नों को लगातार उठाया गया है। जनलोकपाल कानून के विषय में भी ‘आह्वान’ के पिछले अंकों में लिखा गया है। इस घोषणापत्र में साफ़ शब्दों में कहा गया है कि जनलोकपाल कानून के तहत लोग नेताओं और कर्मचारियों के खिलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। सिर्फ नेता और कर्मचारी ही क्यों? बड़े-बड़े कारपोरेट घराने, मीडिया घराने, एन.जी.ओ. आदि के खिलाफ़ क्यों नहीं? अगर केजरीवाल एण्ड पार्टी भ्रष्टाचार को लेकर इतनी ही चिन्तित है तो फिर हर तरह के भ्रष्टाचार को क्यों नहीं निशाना बनाया गया है? यह तथ्य अपने आप में ही भ्रष्टाचार-विरोधी इस मण्डली के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है। केजरीवाल के एन.जी.ओ. को खुद फोर्ड फाउण्डेशन और इसी जैसी कई साम्राज्यवादी फण्डिंग एजेंसियों से पैसा मिलता है। इसलिए एन.जी.ओ. और तमाम ऐसी एजेंसियों के खिलाफ़ एक शब्द भी नहीं बोलना उनके लिए लाजिमी है। जैसा कि हम पहले भी बता चुके हैं कि भ्रष्टाचार अपने आपमें कोई समस्या नहीं है, बल्कि जो समस्या स्वयं यह व्यवस्था है उसका एक लक्षण मात्र है। पहले तो आप एक ऐसी व्यवस्था दे रहे हैं जिसमें पूँजी की सत्ता सर्वोपरि है, किसी भी कीमत पर मुनाफा कमाना धार्मिक काम के समान है, लोभी और लालची होना व्यावहारिकता का परिचायक है, वहाँ भ्रष्टाचार पर हाय-तौबा मचाना और उस व्यवस्था को कठघरे में खड़ा न करना जो इस भ्रष्टाचार के लिए उर्वर ज़मीन तैयार करती है तो या तो इसे अव्वल दर्जे़ का घाघपन कहा जा सकता है या फिर हद दर्जे की मूर्खता! ऐसे किसी भी व्यवस्था में भ्रष्टाचार पर नैतिक उपदेश देते रहने से न तो भ्रष्टाचार की ही सेहत पर कोई फर्क पड़ेगा और न ही उस व्यवस्था की सेहत पर ही जो इस भ्रष्टाचार को जन्म देती है।

इसके बाद केजरीवाल एण्ड पार्टी सामाजिक विषमता, भेदभाव और जातिवाद के ख़ात्मे का बीड़ा उठाती है। इस समस्या के समाधान के लिए वे कोई नया नुस्खा नहीं सुझाते, बल्कि आरक्षण को ही लागू करने की बात करते हैं, हालाँकि उनके अनुसार देश की हर पार्टी ने आरक्षण देने के नाम पर केवल वोट बैंक की राजनीति ही की है। केजरीवाल एण्ड कम्पनी किस तरह इन पार्टियों से इस मुद्दे पर भिन्न है, इसे बताना वे ज़रूरी नहीं समझते। इसके तुरन्त बाद वे अपना सुर थोड़ा बदलते हैं और कहते हैं कि सिर्फ आरक्षण से भी काम नहीं चलेगा। तो फिर किससे काम चलेगा? आरक्षण के साथ-साथ जाति और धर्म से ऊपर उठकर बच्चों को मुफ्त और उच्च कोटि की शिक्षा भी देनी होगी। प्रस्ताव तो ठीक है, लेकिन इसके लिए जो रास्ता उन्होंने सुझाया है वह है सभी सरकारी स्कूलों को अच्छे प्राईवेट स्कूलों के बराबर लाया जाय, सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर को सुधारा जाय और अच्छे प्राईवेट स्कूलों के स्तर का बनाया जाय। केजरीवाल एण्ड पार्टी के अनुसार, इससे न केवल पिछड़े तबके के बच्चों का भविष्य सुधरेगा, बल्कि आर्थिक रूप से कमज़ोर बच्चों का भी भविष्य बेहतर होगा। लेकिन सोचने का बात यह है कि अगर सरकारी स्कूलों को ही प्राईवेट स्कूलों जैसा बेहतर बना दिया जाता है (हालाँकि इस दावे पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं कि प्राईवेट स्कूल ही कौन-से आदर्श स्कूल हैं) और सभी बच्चों को निशुल्क स्तरीय शिक्षा देना सरकार की जिम्मेदारी बना दी जाय तो फिर प्राईवेट स्कूलों की ज़रूरत ही क्यों? शिक्षा में निजी पूँजी का निवेश ही क्यों हो? जब तक शिक्षा में निजी पूँजी की लॉबी काम करेगी, तब तक सरकारी स्कूलों की बेहतरी सम्भव ही नहीं है। अन्यत्र केजरीवाल एण्ड पार्टी घोषणापत्र में स्वास्थ्य, शिक्षा एवं अन्य क्षेत्रों में निजी पूँजी निवेश पर अपनी अवस्थिति एकदम स्पष्ट कर देते हैं। वह कहते हैं कि सरकारी सेवाओं को बेहतर बनाने का कतई यह अर्थ नहीं है कि उनकी पार्टी निजी पूँजी निवेश के खिलाफ़ है। सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की सुविधाओं को बेहतर करने का कतई यह मतलब नहीं है कि निजी स्कूल और अस्पताल अपना धन्धा चलाने से वंचित कर दिये जायेंगे। इस पूरे मसले पर इस पार्टी की वर्ग अवस्थिति एकदम स्पष्ट है।

घोषणापत्र के अगले हिस्से में आम आदमी पार्टी ने अपना आर्थिक दृष्टिकोण पेश किया है। इसका विश्लेषण कुछ इस तरह शुरू होता है-”देश की सम्पत्ति का एक बड़ा भाग केवल सौ घरानों के हाथ में है और दूसरी तरफ़ देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या 20 रुपये प्रतिदिन से भी कम पर गुज़ारा करती है। क्या अमीरों और ग़रीबों के बीच में इतनी बड़ी खाई अच्छी बात है?” नहीं केजरीवाल साहब! यह कतई अच्छी बात नहीं है! यानी यह खाई कम हो तो चलेगा! खै़र! लेकिन इस “इतनी बड़ी खाई” को लेकर आपका यह उपदेशात्मक टोन क्या पूरे घोषणापत्र में बरकरार रहेगा? केजरीवाल एण्ड पार्टी ग़रीबों की हालत के लिए मौजूदा आर्थिक नीतियों को दोषी ठहराती है। इसके बाद अमीरी और ग़रीबी के इस फर्क का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है वह हास्यास्पद है। यहाँ कहीं भी पूँजीवाद में अन्तर्निहित आर्थिक विषमता की कोई पड़ताल नहीं है। पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों और पूँजीवादी वितरण तन्त्र की कोई पड़ताल नहीं है। बल्कि एक बार फिर भ्रष्टाचार को ही इस आर्थिक ग़ैर-बराबरी के लिए जिम्मेदारी ठहराया गया है। इसको वे इस प्रकार समझाते हैं-”यदि कोई व्यक्ति सरकार से आज डेढ़ हज़ार करोड़ का टू जी स्पेक्ट्रम का लाइसेंस ख़रीदकर दस दिन बाद उसे छह हज़ार करोड़ में बेच दे और हज़ारों करोड़ का मुनाफ़ बना ले तो क्या इसे जायज़ ठहराया जाना चाहिए? इस तरह से अर्जित किया धन क्या समाज, देश और लोकतन्त्र के लिए स्वस्थ है? या इसे ग़लत मुनाफ़ कमाने के लिए व्यवस्था का दुरुपयोग कहेंगे?” नहीं केजरीवाल जी! इसे तो कतई जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन एक सवाल जो दिमाग़ में उठ रहा है और जिसे पूछे बग़ैर मन मान नहीं रहा है वह यह है कि क्यों यह अमुक व्यक्ति ही डेढ़ हज़ार करोड़ का टू जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस ख़रीदने की कूव्वत रखता है और इसकी कम्पनी में काम करने वाला मज़दूर क्यों नहीं? अगर यह अमुक व्यक्ति दस दिन बाद भी उसे उतनी ही कीमत पर बेचे और आपके मुताबिक “गलत मुनाफा” न कमाये तो क्या यह पूरी चीज़ जायज़ ठहरायी जायेगी? यानी, रोज़-ब-रोज़ फैक्ट्रियों-कारखानों, खानों-खदानों और खेतों पर जो करोड़ों-करोड़ औद्योगिक और ग्रामीण मज़दूर शोषण का शिकार होते हैं, जो कि पूँजीपतियों, उद्योगपतियों, ठेकेदारों और फार्मरों और कुलकों द्वारा किया जाता है, वह आपकी नज़र में “सही मुनाफा” है, “अच्छा मुनाफा” है, और सदाचार से कमाया गया मुनाफा है! इसका अर्थ स्पष्ट है कि केजरीवाल के लिए दूसरों के श्रम के बूते किसी परजीवी द्वारा मुनाफा कमाया जाना “सही मुनाफा” है और साँठ-गाँठ और भ्रष्टाचार के ज़रिये चार सौ बीसी से कमाया गया मुनाफा “गलत मुनाफा” है! दूसरे शब्दों में कहें तो “सही मुनाफा” जैसी भी कोई चीज़ होती है! दूसरी तरफ़, केजरीवाल एण्ड पार्टी उद्योगपतियों और व्यापारियों द्वारा किये जाने वाले भ्रष्टाचार को लेकर काफ़ी फिक्रमन्द है क्योंकि इस पार्टी के अनुसार इनमें से ज़्यादातर लोगों को यह भ्रष्टाचार मजबूरी में करना पड़ता है! इसलिए देश की आर्थिक नीतियाँ इस प्रकार से बनायी जानी चाहिए जिसमें तमाम पूँजीपतियों, उद्योगपतियों, और व्यापारियों को किसी भी मजबूरी में आकर भ्रष्टाचार करके मुनाफा कमाने की नौबत ही न आये! साफ़ है कि यहाँ केजरीवाल नौकरशाहों द्वारा कुल मुनाफ़े में प्राप्त की जाने वाली हिस्सेदारी पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। वास्तव में, मज़दूरों और मेहनतकशों के श्रम से पैदा होने वाले अधिशेष में पूँजीपति वर्ग के विभिन्न हिस्से अपना-अपना हिस्सा लेते हैं, जैसे कि मालिक वर्ग, नेता-नौकरशाह वर्ग आदि। इस हिस्सेदारी को लेकर उनके बीच भी अन्तरविरोध होते हैं। केजरीवाल इस अन्तरविरोध में छोटे और बड़े मालिक वर्ग का पक्ष लेते रहे हैं। हम पहले ही देख चुके हैं कि उनके भ्रष्टाचार की परिभाषा में केवल नेताशाही-नौकरशाही का भ्रष्टाचार आता है, पूँजीपतियों द्वारा किया जाने वाला भ्रष्टाचार नहीं! यहाँ पर ज़ाहिर भी हो जाता है कि क्यों नहीं! क्योंकि पूँजीपति तो मजबूरी में भ्रष्टाचार करते हैं ताकि मुनाफ़े में नेताओं-नौकरशाहों की हिस्सेदारी को कम कर सकें और अपनी हिस्सेदारी को बढ़ा सकें। इसके उपचार के तौर पर केजरीवाल का मानना है कि नीतियाँ ही इस प्रकार बनायी जानी चाहिए कि नेताओं और नौकरशाहों की हिस्सेदारी वसूलने की क्षमता ख़त्म हो जाये। व्यावहारिक तौर पर इसका अर्थ है कि राज्यसत्ता द्वारा पूँजी पर थोपी गयी सभी विनियामक अनिवार्यताओं को ख़त्म कर दिया जाय। राजीव गाँधी ने भी भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का यही रास्ता बताया था कि इंस्पेक्टर राज-कोटा राज ख़त्म कर दिया जाय, जिससे कि नेताशाही और नौकरशाही का भ्रष्टाचार ख़त्म हो। अब एक दूसरे रूप में केजरीवाल वैसा ही प्रस्ताव रख रहे हैं, हालाँकि निजीकरण-उदारीकरण के दो दशक ने दिखला दिया है कि ऐसा करने से केवल भ्रष्टाचार का रूप बदलेगा, भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं होगा। लेकिन मालिक वर्ग की सेवा में संलग्न केजरीवाल लोगों को मूर्ख बनाने के लिए ऐसा ही प्रस्ताव रख रहे हैं, और पूँजीपतियों को ‘विक्टिम’ के तौर पर पेश कर रहे हैं जिन्हें “मजबूरी में भ्रष्टाचार” करना पड़ता है! यह राजनीतिक अश्लीलता का चरम है।

इसके बाद घोषणापत्र में एक-एक करके कई मुद्दों को उठाया गया है। किसानों की ज़मीनों का जबरन अधिग्रहण, किसानों को आत्महत्या करने पर मजबूर किया जाना (जो कि बेचारे पूँजीपतियों द्वारा “मजबूरी” में ही किया जाता है!), प्राकृतिक संसाधनों की लूट-खसोट (ये भी बेचारे पूँजीपति करने का मजबूर होते हैं!), महँगाई, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को अभाव, बेरोज़गारी, ठेकेदारी प्रथा, महिलाओं की स्थिति-इन सभी पर कुछ लोक-लुभावन नुस्खे और वही सूरज बड़जात्या मार्का फिल्मों जैसे समस्याओं का निदान करने का तरीका सुझाया गया है। न तो इन सारी समस्याओं को और न ही इनके विश्लेषण में पूँजीवाद को कठघरे में खड़ा किया गया है। दो-दो, तीन-तीन लाइनों में समस्याओं का बखान और उनके समाधान की व्याख्या इस प्रकार की गयी है कि कुछ कानूनों के पारित हो जाने से, जिसमें लोकपाल बिल सबसे ऊपर आता है, ये सारी समस्याएँ खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेंगी। कारण स्पष्ट है कि इन समस्याओं का समाधान वास्तव में इस पार्टी के एजेण्डा पर है भी नहीं।

घोषणापत्र के अन्त में हमें बताया गया है कि आम आदमी पार्टी किस रूप में अन्य चुनावबाज़ पार्टियों से भिन्न है। हमें बताया गया है कि इस पार्टी का कोई भी प्रत्याशी यदि सांसद या विधायक बनता है तो वह लाल बत्ती की गाड़ी में नहीं चलेगा, सरकारी बंगलों में नहीं रहेगा, किसी तरह की सुरक्षा नहीं लेगा। यह सब तो ठीक है लेकिन ऐसा करने के बावजूद यह पार्टी पूँजी और पूँजीपतियों की चाकरी ही करेगी, या कहना चाहिए कि और बेहतर तरीके से करेगी, जो कि इसके घोषणापत्र से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है। तो इसके इसके सादे जीवन से जनता को तो कुछ नहीं मिलेगा। आम आदमी पार्टी में वास्तव में नया कुछ भी नहीं है। यह पार्टी भ्रष्टाचार-विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता के गलियारों तक पहुँचने की कोशिश कर रही है। यह पार्टी कहीं भी मुनाफ़े पर टिकी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा नहीं करती है, बल्कि हर समस्या के लिए भ्रष्टाचार को ही मुद्दा बनाती है। यह मध्यवर्ग के भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद के भ्रम की राजनीतिक अभिव्यक्ति है। ऐसा कोई पूँजीवाद सम्भव नहीं है। पूँजीवाद अपने आप में एक भ्रष्टाचार है।

ऐसी तमाम प्रयास पूँजीवादी व्यवस्था और समाज में बीच-बीच में होते ही रहते हैं। जब-जब पूँजीवादी व्यवस्था अपनी नंगई और बेशरमी की हदों का अतिक्रमण करती हैं, तो उसे केजरीवाल और अण्णा हज़ारे जैसे लोगों की ज़रूरत होती है, तो ज़ोर-ज़ोर से खूब गरम दिखने वाली बातें करते हैं, और इस प्रक्रिया में उस मूल चीज़ को सवालों के दायरे से बाहर कर देते हैं, जिस पर वास्तव में सवाल उठाया जाना चाहिए। यानी कि पूरी पूँजीवादी व्यवस्था। आम आदमी पार्टी का घोषणापत्र भी यही काम करता है। यह मार्क्स की उसी उक्ति को सत्यापित करता है जो उन्होंने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ में कही थी। मार्क्स ने लिखा था कि पूँजीपति वर्ग का एक हिस्सा हमेशा समाज में सुधार और धर्मार्थ कार्य करता है, ताकि पूँजीवादी व्यवस्था बरक़रार रहे।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-जून 2013

 

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