दवा उद्योग का घिनौना सच!
योगेश
कभी आपने सोचा है कि क्यों हमारे वर्तमान समाज में सामान्यतः सभी “प्रतिष्ठित” पेशे ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा पीटने का माध्यम बनते जा रहे हैं। आज बेहिसाब कमाई व उगाही के लिए वकील, पुलिस जैसे कई पेशे अपनी अपनी विश्वसनीयता तो खो ही चुके हैं! मानवीय समझे जाने वाला चिकित्सा क्षेत्र भी मुनाफे के रोग से अछूता नहीं रहा है। और चिकित्सा क्षेत्र की इस अन्धेरगर्दी में डाक्टर, दवा कम्पनियाँ और स्वयं स्वास्थ्य मन्त्रालय भी शामिल हैं। पिछले दिनों जब नकली दवाओं के अवैध कारोबार और डाक्टरों द्वारा लिखी जा रही महँगी और ग़ैरज़रूरी दवाओं का भण्डाफोड़ सामने आया तो हमारे देश के मध्यमवर्ग और बुद्धिजीवियों को इस पेशे से भी मुनाफा बटोरने की ख़बरें सुनकर आश्चर्य 0हुआ। और एक बार फिर स्वास्थ्य-सम्बन्धी आचार संहिता को कड़ा बनाये जाने की ‘मासूमियत भरी’ अपील की गयी।
पहली बात तो नकली व ग़ैरज़रूरी महँगी दवाओं का भण्डाफोड़ कोई पहली बार नहीं हुआ है। दूसरा, हमें इस पूरी समस्या को जानते-समझते इसकी जड़ों तक जाना चाहिए। हमारे देश में अभी छोटी-बड़ी 10,500 दवा कम्पनियाँ हैं जो करीब 90,000 ब्राण्ड बनाती हैं। एक सर्वे के मुताबिक भारत में अंग्रेज़ी दवाओं का 92 हज़ार करोड़ रुपये का कारोबार है। दवा कम्पनियों की पड़ताल करें तो पता चलता है कि कई कम्पनियाँ देखते ही देखते धनकुबेर हो गयी हैं। कुछ और बानगी देखें तो समझ आ जायेगा कि पिछले कुछ वर्षों में भारत में दवा का कारोबार कितना मुनाफा देने वाला रहा है। दवाओं के बढ़ते कारोबार का कड़वा सच यह भी है कि यहाँ नकली और घातक दवाओं का भी समानान्तर बाज़ार खड़ा हो गया है। एक फर्मास्युटिकल पत्रिका के अध्ययन की मानें तो दस में से प्रत्येक दो दवाएँ नकली होती हैं और इनका सालाना कारोबार 32 मिलियन यू.एस. डॉलर से भी ज़्यादा है। दवा उद्योग अपने धन्धे के लिए दवाओं की गुणवत्ता से ज़्यादा दवाओं की मार्केटिंग पर ध्यान देता है। डाक्टरों को कमीशन और महँगे तोहफे देकर ग़ैरज़रूरी और महँगी दवाइयों से दवा कम्पनियों का कारोबार कई गुना बढ़ गया है।
सिर्फ इतना ही नहीं पिछले दिनों एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने इन्दौर के महात्मा गाँधी मेमोरियल कॉलेज से सम्बद्ध महाराजा यशवन्तराव चिकित्सालय में अपनी दवाओं का मरीजों पर धोखे से परीक्षण (क्लीनिकल ट्रायल) किया। ज़ाहिरा तौर पर यहाँ मरीज धोखे में रहे, अस्पताल प्रशासन नहीं। इसी तरह आन्ध्रप्रदेश और गुजरात के आदिवासी इलाकों में अमेरिका की एक दवा कम्पनी ने 10 से 14 साल की 32,000 लड़कियों पर सरर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन का परीक्षण किया। इसके लिए अभिभावकों को सम्बोधित विज्ञापनों में कहा गया कि अगर वे अपनी बच्चियों से प्यार करते हैं, तो वैक्सीन के टीके ज़रूर लगवायें। मेहनतकश लोगों और उनके बेटे-बेटियों के ख़ून और हड्डियाँ निचोड़ कर फल-फूल रहे चिकित्सा क्षेत्र की असली सच्चाई बताने के लिए सैकड़ों तथ्य मौजूद हैं, लेकिन उन्हें गिनाना हमारा मकसद नहीं है।
चिकित्सा क्षेत्र के इन खुलासों के बाद इण्डियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) की अचानक आँख खुलती है। यह आश्चर्य की बात है। क्या डाक्टरों की यह संस्था इस तथ्य से इंकार कर सकती है कि ऐसे डाक्टरों की कमी नहीं जो चिकित्सा बाज़ार में बैठकर मुनाफा पीटने की हवस में कसाइयों की तरह ग़रीबों-बेबसों को हलाल करते हैं? झोलाछाप डाक्टरों पर लगाम लगाने के लिए समय-समय पर सरकार से ज़ोरदार माँग करने वाले आईएमए को कभी यह ख़्याल क्यों नहीं आता कि वह सरकारी अस्पतालों के ढाँचे को बेहतर बनाने और जनस्वास्थ्य के समूचे तन्त्र को मज़बूत बनाने के लिए सरकार से माँग करे और ज़रूरत पड़े तो सड़कों पर भी उतरे। असलियत तो यह है कि ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों में और निजी प्रैक्टिस कर रहे एमबीबीएस, एमडी डाक्टर ही नकली या ग़ैरज़रूरी महँगी दवाओं से मरीज़ों की पर्ची भर देते हैं। इन तथ्यों की रोशनी में यह नतीजा निकाला जा सकता है कि झोलाछाप डाक्टरों के खि़लाफ आईएमए द्वारा किया जाने वाला आक्रोश प्रदर्शन केवल बाज़ार में बैठे निजी प्रैक्टिस करने वाले डिग्री धारी डाक्टरों का मार्केट बढ़ाने की नीयत से किया जाता है। दूसरी तरफ दवा उद्योग में हो रही अन्धेरगर्दी को रोकने के लिए कुछ बुद्धिजीवियों, नागरिकों और डॉक्टरों का कहना है कि एक बेहतर औषधि नीति, सक्षम कानूनी प्रावधान, दवा के बारे में प्रभावी जागरूकता अभियान तथा ज़रूरी दवाओं के मूल्य नियन्त्रण जैसी पहल सरकार को लेनी ही होगी। लेकिन हमारे इन दोस्तों के साथ इंसाफपसन्द छात्रों-नौजवानों को इस सच्चाई को जानना होगा कि मौजूदा व्यवस्था की सरकारें ऐसी कोई नीति प्रभावी ढंग से अमल में ला ही नहीं सकती। क्योंकि मौत की सौदागरी करने वाले चन्द लोग नहीं हैं जो नकली व महँगी दवाओं का कारोबार कर रहे हैं। मुनाफे की अन्धी लूट पर कायम समूची पूँजीवादी व्यवस्था ही व्यापक ग़रीब लोगों का ख़ून चूसकर जिन्दा हैं। पूँजी का चरित्र ही मानवद्रोही होता है। सवाल पूँजीवादी व्यवस्था में धोखाधड़ी और अनैतिकता का नहीं है। पूँजीवाद अपने शुद्धतम रूप में भी एक अपराध है। वह स्वयं एक भ्रष्टाचार और अनैतिकता है। इसलिए मेहनतकश जनता और जागरूक इंसाफपसन्द युवा सपूतों के सामने सवाल पूँजीवाद की बुराइयों के ख़ात्मे का नहीं बल्कि स्वयं पूँजीवाद के ख़ात्मे का है, जो अब स्वयं मानव इतिहास की एक बुराई बन चुका है।
दुनिया भर में प्रतिबन्धित लेकिन भारत में बिकने वाली कुछ दवाएँ
दवा का नाम दुष्प्रभाव
नोवालजिन/एनालजिन मज्जा में कमी आना
सिज़ा, सिसप्राईड दिल की धड़कन में गड़बड़ी
नाईस निमुलिड जिगर ख़राब होना
डी-कोल्ड, विक्स एक्सन 500 अभिघात
एन्ट्रोक्विनोल आँख ख़राब होना।
फ्यूरासिन कैंसर
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!