कृत्रिम कोशिका का प्रयोग और नैतिकता

सनी

मशहूर जीव वैज्ञानिक हाल्डेन ने कहा था – “ऐसी कोई भी बड़ी वैज्ञानिक खोज नहीं है, चाहे वो आग की खोज हो या उड़ान की, जो किसी भगवान की तौहीन न हो।” क्रेग वेण्टर की कम्पनी के वैज्ञानिकों द्वारा रचित कृत्रिम कोशिका के प्रयोग ने भी इस तौहीन में काफी इज़ाफा किया है। बुर्जुआ मीडिया अपने ईश्वर की तौहीन से काफी नाराज़ है और इसी कारण बौखलाकर प्रचारित कर रहा है कि इस प्रयोग के ज़रिये इन्सान भगवान बनने की कोशिश कर रहा है। और अगर इन्सान भगवान की जगह ले लेगा तो यह तो अनैतिकता की हद होगी! इस समस्या का सामना ईश्वरवादियों को हर वैज्ञानिक तरक्‍की के साथ करना पड़ता है। कारण यह है कि विश्व में तर्क और विज्ञान का क्षेत्रफल जैसे-जैसे हर आविष्कार के साथ विस्तारित होता है, ईश्वर की जगह छोटी होती जाती है। ईश्वर का निवास प्राचीनकाल से अब तक एक विराट साम्राज्य से छोटा होते-होते आज एक खोली तक पहुँच गया है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि आज के पूँजीवादी समाज में भी धर्म की विचारणीय मौजूदगी बनी हुई है। लेकिन प्राचीन युग या मध्ययुग की तरह नहीं। धर्म अधिक से अधिक एक इहलौकिक परिघटना बन चुका है। अमीरों के लिए इहलोक में ही सबकुछ प्राप्त कर लेने और उससे पैदा होने वाले अपराध-बोध से निजात पाने का ज़रिया; और ग़रीबों के लिए धर्म एक ‘डिस्ट्रेस इण्ड्यूस्ड’ परिघटना है। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूँजीवादी विनाश और तबाही के कारण पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प भविष्य में न देखकर अतीत के किसी आदर्श धार्मिक राज्य में देखते हैं। कुल मिलाकर धर्म का अस्तित्व जीवन अतीत से काफी हद तक बदल चुका है। यह पूँजीवादी बाज़ारू समाज का पूँजीवादी बाज़ारू धर्म है। ईश्वर की सत्ता का ज्ञान के महाद्वीप से अधिपत्य ख़त्म होता जा रहा है, यह एक यथार्थ है। इसीलिए हर वैज्ञानिक आविष्कार और तरक्‍की के साथ धर्म के जेनुइन अनुसरणकर्ताओं के लिए बड़ी असुविधाजनक स्थिति पैदा कर देती है। क्रेग वेण्टर के प्रयोग ने भी इस भौतिक विश्व में ईश्वर की खोली को और छोटा करने का ही काम किया है। इस प्रयोग से जुड़े हुए कई प्रश्न हैं जो वास्तव में किसी भी युगान्तरकारी वैज्ञानिक आविष्कार के साथ पैदा होते हैं।

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यह प्रयोग भी भौतिकवादी दर्शन को पुष्ट करता है कि कैसे जीवन पदार्थ का ही एक गुण है जो कि विशिष्ट परिस्थितियों में पदार्थ में जन्म लेता है। इसी जीवन-युक्त पदार्थ में चेतना जन्म लेती है। और रही बात इन्सान के भगवान की जगह लेने की तो यह प्रयोग सिर्फ यह दर्शाता है कि कैसे जीवन कोई जादुई करिश्मा या भगवान की माया नहीं बल्कि एक विशिष्ट वैज्ञानिक गुण है जो कि रासायनिक, जैविक, विद्युतीय तथा अन्य भौतिक क्रियाओं द्वारा संचालित होता है। यहाँ अनैतिक कुछ नहीं है बल्कि सब भौतिक है। यह धर्मभीरु कलमघसीटों की बौखलाहट है जो तर्क ख़त्म होने पर सिर्फ अनाप-शनाप बोलकर लोगों को ईश्वर से डराने का प्रयास करते हैं और बताते हैं कि जब भी इन्सान भगवान बनने की कोशिश करता है तो प्रलय आता है, कलयुग आता है, तीसरी आँख खुलती है, वग़ैरह-वग़ैरह।

कृत्रिम कोशिका के प्रयोग में प्रयोगशाला में बोतलबन्द रसायनों को अनुकूल परिस्थितियों और सही मात्र में मिलाकर जीवन की सबसे छोटी इकाई कोशिका के जीनोम को तैयार किया गया। और इसी जीनोम, जिसे कम्यूटर द्वारा डिज़ाइन किया गया है, को एक नयी कोशिका में प्रतिरोपित (Transplant) किया गया। यह कोशिका नये जीनोम की संरचना के हिसाब से अपनी प्रतिकृति बनाने में सपफ़ल रही। इस प्रयोग को ठीक से समझने के लिए पहले हम यह समझें कि जीनोम और क्रोमोज़ोम क्या होते हैं? क्रोमोज़ोम कोशिका के केन्द्रक में पाये जाते हैं। इन्हीं के अन्दर डीएनए के तन्तु एक प्रोटीन के साथ गुँथे हुए होते हैं। यह प्रोटीन डीएनए को स्थिर करता है। मानव कोशिकाओं में 46 क्रोमोज़ोम पाये जाते हैं जिनमें 23 माता तो 23 पिता के होते हैं। डीएनए में 4 बेस होते हैं, जिसमें हर बेस एक शुगर फॉसफेट से जुड़ा होता है, और पूरी डीएनए इन्हीं से बना होता है।

अलग-अलग इन्सानों में अलग-अलग बेस  शृंखला होती है, यानी बेस अलग तरह से व्यवस्थित होते हैं। कुछ चुनी हुई बेस शृंखला ही हमारे शरीर में प्रोटीन बनाने को नियन्त्रित करती हैं और कुछ अलग शारीरिक कार्यों को। इन चुनिन्दा बेस  शृंखलाओं को जींस कहते हैं। बाकी बची हुई बेस श्रृंखला और जींस को जब मिलाकर पढ़ा जाता है तो उसे जीनोम सीक्वेंसिंग कहते हैं। सारे क्रोमाज़ोम जो कोशिका के केन्द्रक में पाये जाते हैं, उन्हें मिलाकर जीनोम कहते हैं। इस प्रयोग में वैज्ञानिकों ने एक तरह के बैक्टीरिया एम. माईसॉइड्स के जीनोम को कम्प्यूटर से डिज़ाइन किया और फिर ब्लू हिरोन कम्पनी को इस डिज़ाइन से कृत्रिम जीनोम रचित करने को दिया। इस जीनोम को 3 चरणों में तैयार किया गया। पहले तो डीएनए की 1080 बीपी (बेस पेयर) लम्बी कैसेटों को रसायनों द्वारा प्रयोगशाला में बनाया गया। कैसेट डीएन के एक छोटे हिस्से को कहते हैं जिसमें कई बेस मौजूद होते हैं। एक बीपी डीएनए के तन्तुओं की 3.4 एंगस्ट्रोंग (1 एंगस्ट्रोंग 0.0000000001 मीटर के बराबर होता है) लम्बाई मानक होता है। दूसरे चरण में प्रयोगशाला में बनाये हुए कैसेटों को यीस्ट की कोशिका केन्द्रक में डाला जाता है, जहाँ पहले यह 10,080 बीपी लम्बे टुकड़ों में जुड़ते हैं और फिर कई और क्रियाओं के बाद कृत्रिम जीनोम को यीस्ट से तैयार कर लिया जाता है।

इस कृत्रिम जीनोम को फिर एक दूसरे बैक्टीरिया एम. कैप्रीकोलम के केन्द्रक (जिसमें से उसका जीनोम निकाल दिया गया था) में डाल दिया जाता है। यह कोशिका अब नये जीनोम के अनुसार कार्य करती है। इस प्रयोग की सफलता का इससे पता चलता है कि यह कोशिका अपने आपको प्रतिकृत (Replicate) भी करती है। यह नयी कोशिका गुणों में प्राकृतिक एम. माईसॉइड्स जैसी ही है। क्रेग वेण्टर के ग्रुप ने इस नयी कोशिका को ‘कृत्रिम कोशिका’ की संज्ञा दी है जबकि इसमें कृत्रिम सिर्फ जीनोम है। फिर भी यह प्रयोग विज्ञान की दुनिया में मील का पत्थर है। इस प्रयोग का निचोड़ निकालते हुए क्रेग वेण्टर के ग्रुप के प्रमुख वैज्ञानिक ने कहा कि उनका उद्देश्य भविष्य में ऐसा जीनोम बनाना है जो कोशिका के न्यूनतम से न्यूनतम कार्य कर सके। इस प्रयोग ने बायोफ्रयूल और मेडिकल साइंस में नये आयाम खोल दिये हैं। इस तकनीक का इस्तेमाल एल्गी (algae) से बायोफ्रयूल उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जायेगा। एक्जॉन कम्पनी ने इस प्रयोग के ऊपर 600 मिलियन डॉलर तक ख़र्च करने की बात कही है। क्रेग वेण्टर ने कहा है कि “एल्गी जीनोम में उसकी ग्रोथ के 50-60 पैरामीटर को बदलकर superproductive organism बनाये जा सकते है।” यह भी कहा जा रहा है कि इस एल्गी से बनने वाला बायोफ्रयूल सिर्फ तीन डॉलर प्रति गैलन तक बिकेगा। यही मुनाफा इस प्रयोग को आगे बढ़ा रहा है। एक तरफ हम इस वैज्ञानिक प्रयोग के युगान्तरकारी होने पर कोई प्रश्न नहीं उठा रहे हैं लेकिन यह भी एक तथ्य है कि आम तौर पर किसी वैज्ञानिक प्रयोग में इतने बड़े पैमाने पर निवेश तभी किया जाता है जब उसकी कोई मुनाफा पैदा करने की सम्भावना-सम्पन्नता हो। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन वे नियम को ही सिद्ध करते हैं।

लेकिन कुछ बुद्धिजीवी ऐसे भी हैं जो ईश्वर रक्षा को लेकर तो चिन्तित नहीं हैं लेकिन फिर भी इस तकनोलॉजी के इस्तेमाल और इस प्रयोग को भी पूरी तरह बन्द करने की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि इस प्रयोग से निकलने वाले नतीजों का इस्तेमाल करने के ऐसे हथियार बन सकते हैं जो कि मानव जाति के लिए ख़तरनाक हैं। ये बुद्धिजीवी युद्धों में इन हथियारों के खि़लाफ हैं और इसलिए इस तकनोलॉजी पर रोक लगाने की माँग करते हैं। इनका यह विरोध परमाणु शक्ति के प्रयोग को बन्द करने की माँग के समानान्तर है। ये बुद्धिजीवी एक शान्तिवादी, अतीतोन्मुखी और रोमाण्टिक ज़मीन पर खड़े होकर हर अग्रवर्ती कदम को शंका से देखते हैं। उनकी यह शंका पूरी तरह अतार्किक हो ऐसा नहीं है। पूँजीवादी सभ्यता और समाज में शासक वर्ग हर वैज्ञानिक तरक्‍की का इस्तेमाल अपने लाभ को बढ़ाने और उसे सुरक्षित रखने वाले हथियारों के व्यापक ताने-बाने को उन्नत करने के लिए करता है। नतीजतन, ऐसा हर वैज्ञानिक प्रयोग और खोज जिसका उपयोग पूरी मानव जाति की कुल तरक्‍की के लिए किया जा सकता था, उसका उपयोग वास्तव में आज मानव जाति के विनाश के लिए किया जाता है। मिसाल के तौर पर, परमाणु ऊर्जा के सुरक्षित प्रयोग के रास्ते ढूँढ़ने में निवेश करने की बजाय उससे बम बनाने और करोड़ों-करोड़ लोगों का नरसंहार करने का प्रयोग किया जाता है। रासायनिक प्रयोगों का उपयोग तमाम बीमारियों का हल ढूँढ़ने की बजाय हथियार बनाने के लिए किया जाता है। लेकिन यह सोचना अत्यधिक नादानी की माँग करता है कि यहाँ दिक्‍कत वैज्ञानिक प्रयोगों या विज्ञान की तरक्‍की के साथ है। विज्ञान की किसी उपलब्धि का इस्तेमाल मनुष्यों के जीवन को अधिक से अधिक सुन्दर और वैविध्यपूर्ण बनाने के लिए करने के लिए किया जायेगा या फिर मानव जाति के ही विनाश के लिए, यह उस व्यवस्था पर निर्भर करता है जिसके तहत हम जीते हैं। विज्ञान के विकास के आज के स्तर पर कोई वैज्ञानिक अकेला अपने घर बैठकर सैद्धान्तिक विज्ञान की तरक्‍की में योगदान तो कर सकता है लेकिन उसके उपयोग सम्बन्धी आयामों को विकसित करने और कार्यान्वित करने का काम बड़े पैमाने पर संस्थाबद्ध प्रयास और निवेश के बूते पर ही सम्भव है। यानी कि पूरी व्यवस्था विज्ञान के प्रगतिशील उपयोग की वकालत करती हो, तब तो विज्ञान की प्रगतिशील भूमिका को अधिक से अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है, लेकिन अगर पूरी व्यवस्था निजी मालिकाने, निजी मुनाफे, गलाकाटू अन्धी प्रतिस्पर्द्धा, अमानवीय लूट और कपट पर आधारित हो तो निश्चित रूप से विज्ञान की हर खोज का इस्तेमाल भी अधिकांश मामलों में मानवद्रोही उद्देश्यों में ही किया जायेगा। इसलिए ये मानवतावादी, शान्तिवादी बुद्धिजीवी यह नहीं समझ पाते हैं कि यहाँ सवाल व्यवस्था का है, न कि अपने आप में विज्ञान के अच्छे या बुरे होने का। उस्तरे से हज़ामत बनेगी या हज़ामत ही बन जायेगी (!) यह इस बात से तय होगा कि वह बन्दर के हाथ में है या इन्सान के हाथ में! इसलिए यहाँ सवाल नयी तकनोलॉजी को हटाने का नहीं बल्कि हथियारों को हटाने का है। लेकिन हथियारों का प्रयोग हो, यह इस व्यवस्था की मूल ताकत है। और हर नयी तकनोलॉजी को यह व्यवस्था नये हथियार बनाने तथा युद्धों में इस्तेमाल करने में करती है। सवाल नाभिकीय विज्ञान या जीनोम कोडिंग का नहीं बल्कि इस व्यवस्था का है जो इनका इस्तेमाल करती है। आप पुरातन समाज की तकनोलॉजी का प्रयोग करें तब भी यह व्यवस्था उसका विनाशकारी कार्यों में ही इस्तेमाल करेगी। पूँजीवादी व्यवस्था के अन्दर पूँजी के अराजक नियम लागू होते हैं जहाँ इन्सानों के बीच सम्बन्ध ही सहजीवी (सिम्बायोटिक) नहीं है तो प्रकृति से सहजीवी रिश्ता यह व्यवस्था कैसे रख सकती है? इन बुद्धिजीवियों का पूरा नज़रिया पश्चोन्मुखी और अतीतोन्मुखी है।

बुद्धिजीवियों का एक खेमा ऐसा भी है जो पूँजीपतियों की फेंकी हुई रोटियों पर पलता है, जिसने इस प्रयोग के उस समय तक तुरन्त बन्द होने की माँग की है जब तक कि यह पूरी तरह राज्य द्वारा विनियमित न हो जाये। उनका कहना है कि कुछ ग़लत ताकतें इसकी तकनीक का इस्तेमाल जैविक हथियार बनाने में कर सकती हैं और मानव जीवन को नुकसान पहुँचा सकती हैं। पर असली चिन्ता यह नहीं है। इसका अर्थ यह है कि इस तकनोलॉजी से जनता का नरसंहार करने का हक साम्राज्यवादी सरकारों और राज्य का एकाधिकार हो। ये बुद्धिजीवी उस साम्राज्यवाद को इतना जिम्मेदार मानते हैं जिसने हर तकनोलॉजी का मुनाफे के लिए हत्याएँ करने के लिए उपयोग किया है। क्या हम नागासाकी और हिरोशिमा को भूल गये हैं? क्या भोपाल हमारे स्मृति पटल से मिट गया है? क्या वियतनाम में एजेण्ट ऑरेंज से मचायी गयी तबाही विस्मृत हो चुकी है? क्या इराक और अफगानिस्तान में स्टेल्थ बॉम्बरों द्वारा निरीह नागरिकों की हत्या को हम नज़रअन्दाज़़ कर सकते हैं? इस “जिम्मेदार” पूँजीवादी व्यवस्था ने ही अब तक विज्ञान और तकनोलॉजी का कैसा उपयोग कर लिया है? इसलिए धार्मिक कट्टरवादी आतंकवादियों के आतंक से राज्य द्वारा फैलाये जा रहे आतंक में क्या अन्तर है? अन्तर यह है कि राज्य का आतंक संस्थाबद्ध और अधिक सघन और व्यापक है। यह हमारे जीवन में घटना के रूप में मौजूद नहीं है। यह हमारे रोज़मर्रा के जीवन का एक बुनियादी तथ्य है। राज्य का आतंक अगर विज्ञान और तकनोलॉजी का विनाशकारी उपयोग करे तो वही उपयोग पवित्र हो जाता है। क्योंकि यही राज्य की वर्चस्वकारी प्रणाली, जिसका अंग ये सभी बुद्धिजीवी भी हैं, का स्वरूप है जो हमें वही यकीन दिलाती है जो वह दिलाना चाहती है। लूट और विनाश का वैधीकरण! यह सारी चिन्ता और नैतिकता की बातें दरअसल इन कलमघसीटू बुद्धिजीवियों और एनजीओ ग्रुपों की अपने पूँजीपति मालिकों की तरफ वफादारी है। इनकी नैतिकता इस व्यवस्था के दायरे तक, यानी मुनाफे के दायरे तक सीमित है। वैसे तो नैतिकता की उम्मीद इस अनैतिक, पतनशील और अयोग्य व्यवस्था से रखना अपने आप में बेवकूफी है। जहाँ हर साल लाखों लोग साम्राज्यवादी युद्धों में मुनाफे की भेंट चढ़ जाते हों, जहाँ हर साल प्राकृतिक विपदाओं से तबाही मचने दी जाती हो, वहाँ नैतिक वही है जो इस व्यवस्था के हक में है। इस व्यवस्था की नींव ही “सोशल डारविनिज़्म” है, यानी जब मौका मिले दूसरे का गला काटकर आगे बढ़ जाओ! इसी गलाकाटू मौहाल के दायरे में तमाम कलमघसीटू अपनी व्यवस्था के हक में नैतिकता का बिगुल फूँकते रहते हैं।

एक और बात इस प्रयोग के मानव जाति के लिए लाभदायी होने को लेकर कही जा रही है। दरअसल यह भी खोखली बात है। विज्ञान चाहे कितना भी विकास कर ले, चाहे कितनी भी बेहतर तकनीक ईजाद कर ले, वह इस व्यवस्था के रहते सम्पूर्ण मानव जाति को लाभ नहीं पहुँचा सकता। यह व्यवस्था आज बहुसंख्यक आबादी की ग़रीबी, बेरोज़गारी और भुखमरी पर टिकी हुई है। जितने भी कारगर बायोफ्यूल बनें, जितनी भी बेहतर दवाइयाँ बनें, पर ये इस व्यवस्था के अन्दर आम जनता की स्थिति में बदलाव नहीं ला सकतीं। विज्ञान को इस व्यवस्था के भीतर आमतौर पर पूँजी की चाकरी और अत्यधिक मुनाफा लूटने की गाड़ी में बैल की तरह नाँध दिया गया है। निश्चित रूप से दार्शनिक रूप से विज्ञान के हर उन्नत प्रयोग ने भौतिकवाद को पुष्ट किया है और तर्क और रीज़न के महाद्वीपों को विस्तारित किया है। इस प्रयोग ने भी अध्यात्मवाद, भाववाद और अज्ञेयवाद की कब्र पर थोड़ी और मिट्टी डालने का काम किया है। इस रूप में ऐतिहासिक और दार्शनिक तौर पर इस प्रयोग की एक प्रगतिशील भूमिका है। लेकिन हर ऐसे प्रयोग का पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर आमतौर पर मुनाफे और मुनाफे को सुरक्षित रखने वाले दमन-तन्त्र को उन्नत बनाने के लिए ही उपयोग किया जाता है। इसलिए आज हर युवा वैज्ञानिक के सामने, जो विज्ञान की सही मायने में सेवा करना चाहता है, जो मानवता की सही मायने में सेवा करना चाहता है, मुख्य उद्देश्य इस पूरी मानवद्रोही अन्यायपूर्ण विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश करना और उसके लिए संघर्ष करना होना चाहिए। एक अनैतिक व्यवस्था के भीतर नैतिक-अनैतिक की बहस ही अप्रासंगिक है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्‍टूबर 2010

 

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