हिन्दू आतंकवाद के नाम पर तिलमिलाहट क्यों?
ज्ञानेन्द्र, नोएडा
आजकल अख़बारों और ख़बरों में हिन्दू आतंकवाद सुर्खियों में छाया हुआ है। बौद्धिक और राजनीतिक जगत में ख़ूब चर्चा हो रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को ख़ुद को आतंकवादी कहलाना पसन्द नहीं आ रहा है तो दूसरी तरफ ख़ुद को सेकुलर कहने वाली राजनीतिक पार्टियों के नेता संघ की तुलना सिमी से करते हुए सिमी को आतंकवादी संगठन कह रहे हैं। इसलिए आज ज़रूरी हो गया है कि इस बात की पड़ताल की जाये कि आतंकवादी कौन हैं? और कौन इसका शिकार है?
आर.एस.एस. और भा.ज.पा. जिन कार्यों के लिए सिमी, तालिबानियों और नक्सलियों को आतंकवादी कहते हैं, उन्हीं गतिविधियों और कार्यों के लिए ख़ुद को आतंकवादी कहा जाना उन्हें पसन्द क्यों नहीं? पूरे गुजरात को हिन्दुत्व की प्रयोगशाला बनाकर हज़ारों निर्दोषों को सरकारी मशीनरी का प्रयोग करते हुए सरेआम जिन्दा जला देने का काम हो या उड़ीसा में ईसाई समुदाय के लोगों का कत्लेआम या भण्डारकर शोध संस्थान को आग के हवाले करने का काम हो, या नागपुर, मालेगाँव और कानपुर में बम विस्फोट करने का काम हो, या दिल्ली के करोलबाग में न्यूज़ चैनल के ऑफिस को तोड़फोड़कर नष्ट कर देने का या मुम्बई में ग़ैर-महाराष्ट्रीय लोगों को सड़क पर सरेआम कत्ल करने का काम; ये सब आतंकवादी कार्यवाही नहीं हैं क्या?
पूँजी के चौधरियों की यह राजसत्ता ही दरअसल हर प्रकार के आतंकवाद को पैदा करती है। दरअसल मुख्य आतंकी चौधरी तो यह पूँजी की राजसत्ता ही है। एक पूँजी का मालिक दैत्य अगर हज़ारों नहीं लाखों लोगों की जान ले ले तो भी यह उसे कुछ नहीं कहती उल्टे उसे सुरक्षित ठिकाने तक पहुँचाने की व्यवस्था करने में व्यस्त हो जाती है, जैसे कि वॉरेन एण्डरसन को बचाया गया। जब कि यदि अपने जायज़ हकों की माँगों की लगातार उपेक्षा और लगातार उत्पीड़न से तंग आकर श्रमिक वर्ग के कुछ लोगों का धैर्य चुक जाये (जो कि स्वाभाविक है) और उस हंगामे में एक भी उत्पीड़क को खरोंच भी आ जाये तो सैकड़ों श्रमिकों को जेल की सलाख़ों और उनके आश्रितों को जिस्म के सौदागरों के हवाले कर देती है यह राजसत्ता।
पूँजी के चौधरियों ने सामन्ती लम्पट राजाओं के खि़लाफ राजसत्ता हासिल करने के लिए लोकतन्त्र, समानता और भाईचारे का नारा दिया था। शुरुआती दौर में दिखावे के लिए कुछ हक-अधिकार जनता को दिये भी गये। लेकिन समय बीतने के साथ पूँजी की राजसत्ता का पौरुष क्षीण हो गया। ख़ासकर भारत की पूँजीवादी राजसत्ता जो साम्राज्यवाद की चरम अवस्था के दौर में पैदा हुई, बालपन से सीधे पौरुषहीनता की अवस्था में संक्रमण कर गयी है। अब जनता को कुछ भी सकारात्मक दे पाने में सर्वथा असमर्थ हो चुकी है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव में छिटपुट संघर्षों में भागीदारी कर रही है। राजसत्ता के चौकीदार इस बात की गम्भीरता को जान-समझ रहे हैं। अपने लोकतन्त्र के खेल की गोटियाँ फिट करने की फिराक में ये रँगे सियार जनता के बीच तरह-तरह के भावनात्मक खेल रच रहे हैं। कोई धार्मिक अस्मिता का ख़तरा दिखता है तो कोई जातीय, भाषाई या क्षेत्रीय अस्मिता का और एक ग़ैरमुद्दा केन्द्रित गिरोहबन्दी कर लेता है। यह गिरोह दूसरे गिरोहों पर वर्चस्व के लिए चढ़ाई करता रहता है।
इन पौरुषहीन गिरोहों को इन चढ़ाई अभियानों के लिए लगातार नये कारकूनों की ज़रूरत रहती है जिसके लिए उन्हें अपना पौरुष प्रदर्शन करना होता है। तब वे निकल पड़ते हैं तबाही के तमाम सामान लेकर। वे हर उस बात को, जो उनके खि़लाफ जाती है, आतंक के दम पर दबा देना चाहते हैं, इसी प्रकार हर वो बात जो उनके मुख से निकल जाये उसे सही ठहराने का बलात आग्रह होता है।
ज़रा कोई पूछे इन पौरुषहीन महाबलियों से कि देश की जनता के हित का कौन सा काम इन्होंने किया है? पूरे देश की जनता को छोड़िये, जिस मध्यवर्ग के ये गुण गाते हैं, उसके निचले तबकों के लिए भी इन्होंने क्या किया है? जब कोई नौजवान रोज़गार के अभाव में मर जाता है तो ये क्या करते हैं? ऐसा कुछ भी करने की सार्मथ्य न तो इस पौरुषहीन पूँजीवादी राज्य व्यवस्था में है और न ही इसके इन पौरुषहीन आतंकी महाबलियों में। ये महाबली रोज़ी-रोटी के जुगाड़ की चिन्ता में अपने घर-परिवार से दूर जाकर बसने को मजबूर ग़रीब मेहनतकशों पर गोलियाँ और बम बरसाने के अलावा और कुछ नहीं कर सकते।
एक भयमुक्त, आतंकमुक्त समाज के निर्माण का काम भी वही कर सकता है जिसने इस दुनिया का निर्माण किया है यानी कि मेहनत-मशक्कत करने वाले लोग। जिस दिन ये लोग पूरी दुनिया पर अपने अधिकार का दावा लेकर एक सही क्रान्तिकारी नेतृत्व में उठ खड़े होंगे उस दिन पूँजी के चौधरियों की यह नपुंसक राजसत्ता कब्र में दफन कर दी जायेगी। जब श्रम करने वाले लोग समाज, राजनीति और सत्ता पर काबिज़ हो जायेंगे, केवल तभी एक ऐसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक ढाँचे का निर्माण हो पायेगा जब हर आदमी या औरत पूरी तरह सुरक्षित और स्वतन्त्र हो सकेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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