शिवसेना की ‘नज़र’ में एक और किताब ‘ख़राब’ है!

आशीष

महाराष्ट्र में एक और किताब शिवसेना को नागवार लगी। अभी ज़्यादा समय नहीं गुज़रा है जब जेम्स लेन की पुस्तक ‘शिवाजी: ए हिन्दू किंग इन मुस्लिम इण्डिया’ इनकी निगाह में चढ़ी थी। उस पर प्रतिबन्ध लगाने की माँग करते ये बवण्डर मचा रहे थे। अब एक नयी किताब है जिसे इनके ताण्डव के चलते मुम्बई विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया है। इस नयी परिघटना का कुल जमा परिचय इस प्रकार है – पुस्तक का नाम ‘सच ए लांग जर्नी’। लेखक हैं रोहिंगटन मिस्त्री। उपन्यास विधा में लिखी यह पुस्तक 4 वर्षों से मुम्बई विश्वविद्यालय में बीए के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही थी। इससे भी पहले यह पुस्तक उसी विश्वविद्यालय के पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स में 10 वर्षों तक शामिल रही है।

मालूम हो कि विगत 14 सितम्बर, 2010 को आदित्य ठाकरे, जोकि बाला साहब ठाकरे का पोता है, के नेतृत्व में शिवसेना के छात्र विंग ने अपनी ‘परम्परागत संस्कृति’ का प्रदर्शन करते हुए इस किताब की प्रतियाँ जलायीं और प्रदर्शन किया। इनके मुताबिक इस किताब में बाल ठाकरे एवं शिवसेना की छवि को ख़राब करने की कोशिश की गयी है। ऐसी पुस्तक वि.वि. के पाठ्यक्रम में नहीं रहनी चाहिए। कुलपति डॉ. राजन वेलुकर को चेतावनी दी गयी कि अगर 24 घण्टे के भीतर यह पुस्तक कोर्स से हटायी नहीं गयी तो अंजाम भुगतने को तैयार रहें। इस हुड़दंगी टीम की अगुआई करने वाले पुस्तक के लेखक रोहिंगटन मिस्त्री को कुछ इन भावों में याद कर रहे थे कि ‘वो (मिस्त्री) लकी हैं कि कनाडा में है, नहीं तो इस किताब के साथ हम उसको भी जला देते’। इस ‘अपनापेभरी अपील’ के बाद कुलपति महोदय ने उपन्यास को कोर्स से बर्खास्‍त कर दिया। न तो उन्होंने विश्वविद्यालय की विद्धत परिषद से सलाह ली, न ही ऐसी उद्दण्डतापूर्ण कार्रवाई के खि़लाफ खड़े हुए। जब तमाम छात्रों और शिक्षकों ने पुस्तक हटाये जाने की भर्त्सना की और विरोध प्रदर्शन किया, तब कहीं दो दिन बाद चुप्पी तोड़ते हुए कुलपति महोदय बयान देते हैं कि यह निर्णय उन्होंने विश्वविद्यालय टीम से राय लेकर लिया है। कोई इनसे पूछे कि ‘सच ए लांग जर्नी’ को किसी दल/संगठन के दबाव के बाद ही हटाने का निर्णय क्यों लिया? वह भी अचानक! विश्वविद्यालय की अकादमिक स्वायत्तता और जनवादी अधिकार का क्या इनके लिए कोई मतलब है या नहीं? और कुलपति ही क्यों प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री अशोक चव्हाण (अब निवर्तमान) ने भी किताब को हटाये जाने का समर्थन किया। वह कहते हैं कि ‘‘मैंने किताब तो नहीं पढ़ी लेकिन जो पैराग्राफ मुझे दिखाये गये उसकी भाषा गाली-गलौज भरी लगी। क्या हम उम्मीद करेंगे कि हमारे छात्र ऐसी किताब पढ़ें और हमारे पाठ्यक्रम में शामिल हो।’‘ अब यह हैं महाराष्ट्र सूबे के मुखिया जिन्होंने किताब तो पढ़ी नहीं और महज़ पैराग्राफ पढ़कर ही किताब को हटाये जाने का समर्थन करने लगे! शायद इन्हें मालूम है या नहीं कि 1992 में छपी यह किताब बुकर पुरस्कार के लिए नामांकित की गयी थी कि रोहिंगटन मिस्त्री, कॉमनवेल्थ राईटर्स प्राइज़ विजेता अंग्रेज़ी के ख्यातिलब्ध साहित्यकार हैं?

Bhartiya Vidhyarthi Sena activists burning a book

शिवसेना ऐसी ही हरकतें क्यों करती है और कांग्रेस एक बार फिर उसके साथ खड़ी नज़र आती है! आखि़र क्यों? आदि सवालों पर बात करने के पहले हम यह बताना ज़रूरी समझते हैं कि इस उपन्यास में है क्या… ‘सच ए लांग जर्नी’ का रचनाकाल सन् 1970 के दौर का है। इसमें उसी दौर के ज्वलन्त सवालों को उठाया गया। इसमें एक पारसी परिवार के एक बैंक क्लर्क की संघर्षशील जिन्दगी की कहानी है। वहीं इसमें शिवसेना की हिंसक कारगुज़ारियों की तस्वीर भी है। मालूम हो कि शिवसेना की स्थापना 1966 में बाला साहब ठाकरे ने की। इस माँग के साथ कि मुम्बई के मूल बाशिन्दों को मुम्बई में काम की खोज में आये प्रवासियों के बरक्स ज़्यादा तरजीह दी जाये। दक्षिण भारतीयों के खि़लाफ ‘लुंगी उठाओ, पुंगी बजाओ’ की यात्रा आज उत्तर भारतीयों के खि़लाफ फैलाये गये नफरत के विस्तार में देखी जा सकती है। ख़ैर, मूल विषय पर आते हैं कि यह किताब इन्हें क्यों चुभी? इसी उपन्यास से दो संवाद प्रस्तुत हैं –

‘‘मेरा विश्वास करो’‘ दिन्शावजी ने कहा, ‘‘वो (इन्दिरा गाँधी) एक चालाक औरत है, ये वोट लेने की टैक्टिस है। ग़रीबों को दिखाना चाहती है कि वो उनकी तरफ है। साली, हमेशा कुछ न कुछ शैतानी करती रही है। याद करो, जब इसका बाप प्राइम मिनिस्टर था उसने इसे कांग्रेस का अध्यक्ष बनवा दिया, त्योंही इसने अलग महाराष्ट्र बनाने की माँगों को बढ़ावा देना शुरू किया। इसके ही चलते कितने ही दंगे व बेतरह ख़ून-ख़राबा हुआ। और आज यह शिवसेना जो हमें दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहती है। मत भूलो कि उसने ही इन साले नात्सियों को सहारा देकर इस सबकी शुरुआत की थी।’‘ (पेज नं- 38-39)

‘‘अब सोहराब आगे किस प्रकार की जिन्दगी की उम्मीद कर रहा था? फासिस्ट शिवसेना की पोलीटिक्स और मराठी भाषा की मूरखता के चलते अल्पसंख्यकों का कोई भविष्य नहीं है। यह सब कुछ अमेरिकी अश्वेतों जैसा होता जा रहा है – श्वेतों से दोगुना बेहतर होकर भी मिलेगा सिर्फ आधा।’‘ (पेज नं- 55)

ऐसी ही कुछ लाइनों को शिवसेना आपत्तिजनक अंश मान रही है। मानो इसमें कुछ भी सच न हो! वैसे तो यह एक गल्प है, लेकिन फिर भी यह उस समय की कई सच्चाइयों का भी प्रतिनिधित्व करता है। आप इसके सभी पहलुओं से सहमत हों, यह कोई आवश्यक नहीं। लेकिन असहमति को सुनने का साहस होना एक जनवादी चेतना की पूर्वशर्त है। लेकिन इस पूर्वशर्त से शिवसेना जैसे फासीवादी संगठन बुरी तरह से वंचित हैं। अगर ऐसा न हो तो साहित्य की प्रासंगिकता पर ही प्रश्नचिह्न लग जायेगा। वैसे भी अस्मितावादी राजनीति के पैरोकारों की कारगुज़ारियाँ किसी से छुपी नहीं हैं, और अपनी इसी राजनीति की गोटी चमकाने के लिए शिवसेना तमाम ‘सांस्कृतिक’ कार्रवाइयाँ करती रही है। वह चाहे ‘मी मुम्बई कर’ के नाम पर मराठीवाद थोपना हो, मराठी भाषा की प्रधानता की दुहाई देकर ग़ैर-मराठियों के खि़लाफ फरमान जारी करना हो। जब टैक्सीवालों से लेकर वहाँ जीवन की तलाश में खटते मज़दूरों को प्रदेश-बाहर करने का फतवा जारी करते हैं तो उनकी उसी फासीवादी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। असल में इसकी यही पहचान है। एक वर्ग-समाज में मनुष्य की मुख्य पहचान तो वर्गीय पहचान ही होती है। इसके अलावा समाज में और भी पहचानें – धर्म, जाति या क्षेत्र के रूप में – विद्यमान होती हैं। अस्मितावादी राजनीति का केन्द्रीय एजेण्डा यह है कि तमाम उन पहचानों को वर्ग पहचान पर हावी करा दिया जाये जो आम ग़रीब आबादी को अपने दुश्मन वर्ग के विरुद्ध संगठित होने से रोक दे। शिवसेना की अस्मितावादी राजनीति इस काम के लिए क्षेत्रीय और धार्मिक अस्मिता का इस्तेमाल करती है। एक तरह से ये अपने समान हितों को लेकर एकजुट होने वाली ताकतों को इन छोटी-छोटी पहचानों के आधार पर बाँटने का काम करती हैं। इस प्रकार ये शोषक जमातों के वफादार बनकर सामने आते हैं। बेरोज़गारी, सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा आदि समस्याओं से घिरी निम्न मध्यमवर्गीय जमात के सामने जब अपनी समस्याओं का कोई तार्किक विकल्प नज़र नहीं आता तो उनकी हताशा-निराशा इन फासीवादियों के शुद्धताबोध व सांस्कृतिक प्रतीकों में जीने की सार्थकता तलाशने लगते हैं।

पूँजीवादी पतनशीलता के दौर में इन फासीवादी ताकतों के उभार को साफ-साफ देखा जा सकता है जोकि एक प्रकार से इसी पूँजीवादी व्यवस्था की एक सड़ान्ध है जहाँ तर्क, संवाद या जनवाद का कोई मतलब नहीं है। निरंकुश सर्वसत्तावादी व्यवहार ही इनकी पहचान है।

शिवसेना इस समय अपने अस्तित्व को लेकर संकटग्रस्त है। क्योंकि उसके एजेण्डे को और भी तीखे तरीके से लागू करने वाली पार्टी ‘मनसे’ मैदान में है। वह इसके जनाधार को हड़पती जा रही है। ऐसे में इनकी विवशता है कि ऐसा कुछ न कुछ करते रहें, जिससे इनकी पहचान बनी रहे। बाल ठाकरे ने अपने पोते को (आदित्य ठाकरे) शिवसेना के छात्र विंग की कमान अभी जल्दी ही सौंपी है। अब ताजपोशी के बाद पोते का भी फर्ज बनता है कि वह साबित करके दिखाये कि वह उनके निर्णय पर खरा उतरा है। और उसने ताज़ा घटनाक्रम में बीस पहले छपी, लम्बे समय से पाठ्यक्रम में पढ़ायी जा रही किताब में ‘ख़राबी’ ढूँढ़ निकाली। अपने लम्पट हमराहियों के साथ उस किताब को जलाया और ‘सुयोग्य’ परम्परा का पालन किया और जहाँ तक कांग्रेसी नेतृत्व की बात है, उसके बारे में कहना ही क्या? एक तरह से इनके छद्म जनवादी आचरण ने ही ऐसी ताकतों को खाद-पानी मुहैया कराने का काम किया है। वोट की बाज़ीगरी में ये कहीं पिछड़ न जायें, यह चिन्ता इन्हें बराबर सताती रहती है। इसीलिए यह पार्टी शुरू से ही डबल गेम खेलती रही है। कहने को जनवाद पर मौका पड़ने पर मुलायम बहुसंख्यकवाद या क्षेत्रवाद! दोहरे कार्ड का इस्तेमाल करने में इसका कोई सानी नहीं हैं। कांग्रेसी मुख्यमन्त्री अशोक चव्हाण की भूमिका भी इस मुद्दे पर कुछ इसी रूप में समाने आयी है। मराठी अस्मिता के नाम पर तो ये शिवसेना से दो कदम आगे बढ़कर मुद्दा लपकते नज़र आते हैं। शिवाजी की छवि बचाने के नाम पर यही अशोक चव्हाण हैं जो जेम्स लेन की पुस्तक ‘शिवाजी: ए हिन्दू किंग इन मुस्लिम इण्डिया’ को महाराष्ट्र में वितरित किये जाने के खि़लाफ बयान देते हैं, जबकि कोर्ट उस किताब पर महाराष्ट्र द्वारा लगाये गये प्रतिबन्ध को ख़ारिज़ करती है। और अब इस मुद्दे पर भी इनकी कुछ ऐसी ही भूमिका नज़र आती है। ऐसे में एक सवाल उठता है कि आदित्य ठाकरे को प्रोजेक्ट करने में क्या कांग्रेसी भी शामिल हैं, या महाराष्ट्र की राजनीतिक अखाड़ेबाज़ी में ये मनसे के उभार को काटने के लिए तात्कालिक तौर पर अपनी समझदारी बना रहे हैं? कुल मिलाकर कांग्रेस अपने चरित्र के अनुरूप क्षेत्रीय, भाषाई, एजेण्डे को भुनाती रही है। चुनावी राजनीति में यह किसी भी पत्ते को अपने हाथ से सरकने नहीं देना चाहती है।

इसी घटना में किताब को जला देने वाले इन उद्दण्ड लोगों पर जब कार्रवाई की माँग की जाती है तो राज्य का शिक्षा मन्त्री उलटे सवाल कर बैठता है कि मिस्त्री की किताब कोर्स में लगायी ही क्यों गयी! वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता ‘शरीफाना’ बयान देते हुए कहते हैं कि हम रचनाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी का सम्मान करते हैं। हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करनी चाहिए आदि-आदि। यह है इनका ‘जनवादी चरित्र’ कि साँप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।

असल में होना तो यह चाहिए था कि इस संवैधानिक सरकार को संविधान में उल्लिखित अनुच्छेद 19 का पालन करना चाहिए। अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी का सवाल महज़ कानूनी ख़ानापूर्ती नहीं है, तो ये ऐसी बेजा करतूतें करने वाली फासिस्ट ताकतों के खि़लाफ दण्डात्मक कार्रवाई करती। लेकिन नहीं, यहाँ तो ऐसा कुछ भी होता नज़र नहीं आता। वास्तविकता में इसका जनवाद इतना कमजोर है कि अपने लोकतान्त्रिक मूल्यों तक की रक्षा कर पाने में अक्षम है। क्या काई संगठन/समूह तय करेगा, कि कौन सी किताब पढ़ायी जाये और कौन सी नहीं, कि हम कौन-सी फिल्म देखें और कौन-सी नहीं!! हमारे जनवादी अधिकारों का अपहरण करने वाली इन ताकतों के साथ कैसा व्यवहार किया जाये?

दरअसल इस घटना में और ऐसी ही तमाम घटनाओं में भी, जब अभिव्यक्ति की आज़ादी का गला घोंटा जा रहा हो तो मुठ्ठी भर निरंकुश फासिस्ट ताकतों के सामने यह व्यवस्था साष्ट्रांग दण्डवत करती नज़र आती है। दिनों-दिन इस व्यवस्था के जनवादी स्पेस के क्षरण-विघटन को साफ-साफ देखा जा सकता है। अगर ग़ौर से देखें तो यह इस पूँजीवादी व्यवस्था की मौजूदा चारित्रिक अभिव्यक्ति है। ज्यों-ज्यों पूँजी का चरित्र बेलगाम एकाधिपत्यवादी होता जा रहा है, त्यों-त्यों इसका जनवादी माहौल का स्कोप सिकुड़ता चला जा रहा है।

महाराष्ट्र का सबसे भारी रोग

कैसा शिव?

कैसी शिव सेना?

कैसे शिव के बैल?

चौपाटी के सागर तट पर

नाच रहा है भस्मासुर बिगडै़ल!

फैल गये हैं महानगर में उसके चेला-चाटी

गली-गली में कायम कर ली ज़ोर-ज़ुल्म की घाटी

चीफ मिनिस्टर, नाइक तक ने मूँद रखी हैं आँखें

शासन-सुख में शिथिल हुई कल्पना परी की पाँखें

शिव-सैनिक को नित्य चाहिए श्रमिक वर्ग का रक्त

इसलिए तो धन-पिशाच होते हैं उसके भक्त

इसलिए तो मिल-मालिक हैं उसके प्रति आसक्त

शिव-सेना का हुक्म मानते अकलमन्द हर वक़्त

हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई-बौद्ध और इरानी

शिव-सेना भेजेगी सबको ज़बरन काला पानी

शिव सेना वालों की चलती है अपनी सरकार

शामिल है उसमें संघी फिरकापरस्त ग़द्दार

शिव-सैनिक की पाकिट में है सारा पुलिस विभाग

उसके इंगित से चलती है हवा, सुलगती आग

कहता ख़ुद को बाल ठाकरे हिटलर का अवतार

नागार्जुन

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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