शिवराम की कुछ कविताएँ

(1)
मैं एक विस्फोट भी हूँ
 
कुचल दो मुझे
मैं उठा हुआ सिर हूँ
मैं तनी हुई भृकुटि हूँ
मैं उठा हुआ हाथ हूँ
मैं आग हूँ
बीज हूँ
आँधी हूँ
तूफान हूँ
और, उन्होंने
सचमुच कुचल दिया मुझे
एक ज़ोरदार धमाका हुआ
चिथड़े-चिथडे़ हो गये वे
उन्हें नहीं मालूम था
मैं एक विस्फोट भी हूँ
(2)
जो चले, वे ही आगे बढ़े
 
जुए के तले ही सही
जो चले
वे ही आगे बढ़े
जिनकी गर्दन पर भार होता है
उनके ही हृदय में क्षोभ होता है
कैद होते हैं जिनके अरमान
वे ही देखते हैं मुक्ति के स्वप्न
जो स्वप्न देखते हैं
वे ही लड़ते हैं
जो लड़ते हैं
वे ही आगे बढ़ते हैं
जो खूँटों से बँधे रहे
बँधे के बँधे रह गये
जो अपनी जगह अड़े रहे
अड़े के अड़े रह गये।
(3)
दौड़
 
दौड़ से बाहर होकर ही
सोचा जा सकता है
दौड़ के अलावा और कुछ
जब तक दौड़ में हो
दौड़ ही ध्येय
दौड़ ही चिन्ता
दौड़ ही मृत्यु
होने को प्रेम भी है यहाँ कविता भी
और उनका सौन्दर्य भी
मगर बोध कम भोग ज़्यादा
दौड़ में दौड़ती रसिकता
सब दौड़ से दौड़ तक
सब कुछ दौड़मयी
दौड़ में दौड़ ही होते हैं
दौड़ के पड़ाव
दौड़ में रहते हुए
कुछ और नहीं सोचा जा सकता
दौड़ के अलावा
यहाँ तक कि ढंग से
दौड़ के बारे में भी।
(4)
कमी
 
आप नाटक अच्छे लिखते हैं
लेकिन उनमें एक कमी है
उनमें राजनीति होती है
वर्ग होते हैं
संघर्ष होता है
और ये चीज़ें कुछ लॉउड सी होती हैं
वे सुधी समाज के सौन्दर्यबोध के
अनुकूल नहीं होतीं
यूँ वे बड़े रोचक होते हैं
बड़ा प्रवाह होता है उनमें
कसे हुए संवाद
गीत और गायिकी
कैसा बँध जाता है दर्शक
लेकिन बस यही एक कमी है
और यह भारी कमी है
वैसे आप एक समर्थ रचनाकार हैं
नाटक पर अच्छी पकड़ है
बस थोड़ा मन बनाना होगा
इस कमी को दूर करना होगा
फिर देखिये
आप कहाँ से कहाँ पहुँच जाते हैं
वैसे आप अच्छा लिखते हैं।
(5)
गढ़ो, नयी प्रतिमाएँ
 
पुरानी प्रतिमाएँ
अब नहीं जगातीं
कोई भाव बोध
प्रेरणा के स्रोत
सब सूख गये हैं उनके
इस डोल ग्यारस पर
किसी भी जलाशय में
उन्हें कर दो विसर्जित
गढ़ो नयी प्रतिमाएँ
जो नहीं हों मूक-बधिर दृष्टिहीन
जो सुनती भी हों बोलती भी
नेत्र हों इतने कि
दसों दिशाओं में हो दृष्टि का विस्तार
संवेदनशील सहिष्णु हृदय
विवेकी मस्तिष्क
बलिष्ठ भुजाएँ
पैर, नापने को बेताब
तमाम दूरियाँ
प्रेम इतना कि जिसमें
डूब जाये संसार
घृणा ऐसी कि
भागते फिरें
असत्य और अन्याय के पहरुये
जो नहीं हो सकें कैद
किसी चारदीवारी में
जो पूजा अर्चना से
नहीं होती हों प्रसन्न
आलोचना और असहमति से नहीं होती
हों खिन्न
जो सड़कों पर चलें हमारे साथ
जो रणभूमि में लड़ें हमारे संग।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्‍बर-दिसम्‍बर 2010

 

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