स्त्री मुक्ति का रास्ता पूँजीवादी संसद में आरक्षण से नहीं समूचे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के आमूल परिवर्तन से होकर जाता है!

अन्तरा घोष

हाल ही में कई स्त्री संगठनों ने मिलकर देश के तमाम हिस्सों में युवा स्त्रियों को लेकर एक यात्रा निकाली। इस यात्रा का लक्ष्य था संसद में स्त्रियों के आरक्षण के पक्ष में आम राय बनाना। इस यात्रा में तमाम स्वयंसेवी संगठनों से लेकर नारीवादी संगठन तक शामिल थे। यहाँ तक कि कई वामपंथी स्त्री संगठन भी इसमें भागीदारी कर रहे थे। इसके पहले भी महिला आरक्षण बिल को लेकर पूरे देश में पूँजीवादी राजनीति काफी गरमाई थी। राज्य सभा में यह बिल पास हो गया और इसके लिए कांग्रेस ने काफी वाहवाही बटोरी। संसदीय वामपंथियों ने भी दावा किया कि स्त्रियों की इस ‘‘महान ऐतिहासिक विजय’‘ में उनका भी योगदान है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ने इस आरक्षण बिल का इस तर्क के साथ विरोध किया कि इससे केवल कुलीन महिलाओं को ही फायदा मिलेगा और पिछड़े वर्गों और दलितों की महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए।

Women reservation 1

ऐसे में स्त्री मुक्ति के सवाल पर सरोकार से सोचने वाले सभी लोगों के समक्ष कई सवाल उपस्थित हैं। हम समझते हैं कि वैसे भी किसी भी पिछड़े सामाजिक-आर्थिक वर्ग या श्रेणी की मुक्ति या बेहतरी में आरक्षण जैसी कोई नीति दूरगामी और निर्णायक तौर पर कारगर नहीं हो सकती, लेकिन इस मामले में तो आरक्षण को लेकर हो रहा ध्रुवीकरण और भी बेमतलब और बेनतीजा है।

शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण को लेकर एक समय यह तर्क दिया जा सकता था कि इससे कुछ लोगों को थोड़ा फायदा मिलता है, इसलिए एक तात्कालिक सुधारवादी सरकारी कदम के तौर पर इसका समर्थन किया जा सकता है और इसे लागू करने के लिए लड़ा जा सकता है। हालाँकि शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के तीन-चार दशक बाद भी दलितों और पिछड़ों की स्थितियों में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन नहीं आया है। उनका बड़ा हिस्सा ग़रीबी और मुफलिसी में ही जी रहा है। उनके बीच पैदा हुए एक कुलीन हिस्से को ही आरक्षण का लाभ मिलता है। और ऊपर से नुकसान यह होता है कि आरक्षण के मुद्दे पर आम जनता के नौजवान लड़ पड़ते हैं। कुल मिलाकर, यह किसी समस्या का समाधान तो करता नहीं है, लेकिन जनता के बीच फूट डालकर शासक वर्गों के काम को आसान ज़रूर बना देता है। लेकिन शिक्षा और रोज़गार में आरक्षण पर दो पल बहस या संवाद किया जा सकता था। लेकिन संसद में महिलाओं को आरक्षण? एक ऐसे निकाय में आरक्षण को लेकर बहस और झगड़े का क्या अर्थ है जो किसी भी रूप में जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करता; जो जनता को गुमराह करने के लिए की जाने वाली बहसबाज़ी का अड्डा हो; जो पूँजीपतियों के मामलों का प्रबन्धन करने वाला एक निकाय हो। जो संसद वास्तव में देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती ही नहीं है, उसमें स्त्रियों को आरक्षण दे दिया जाय या न दिया जाय, इससे क्या फर्क पड़ने वाला है? संसद में महिला आरक्षण को लेकर आम जनता की ताक़तों का बँट जाना नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण के मुद्दे पर बँट जाने से भी अधिक विडम्बनापूर्ण है। देश के 63 वर्षों का स्वातन्त्रयोत्तर इतिहास इस बात का साक्षी है कि यह पूँजीवादी संसद पूँजीपति वर्ग की पार्टियों की धींगामुश्ती का अड्डा रही है। पूँजीवादी चुनावों की नौटंकी में यह तय हो जाता है कि पूँजीपति वर्ग की पार्टियों में से कौन-सी पार्टी या पार्टियों का गठबन्धन अगले चुनावों तक देश की जनता की पूँजीवादी लूट का प्रबन्धन, संचालन और प्रचालन करने का काम करेगी। सारा विकास पूँजीपति वर्गों का होता है, सारी वृद्धि उनकी होती है और जनता के आम मेहनतकश वर्गों तक रिसकर अगर कुछ पहुँचता है तो वह है जीने की एक अदद खुराक के अलावा बरबादी, भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गार, अनिश्चितता! ऐसे में, संसद में आरक्षण को लेकर नारीवादी संगठन, कथित वामपंथी संगठन और तमाम ‘‘जनपक्षधर’‘ बुद्धिजीवी हर्षातिरेक में क्यों आ रहे हैं, यह समझ के परे है।

दूसरी बात यह है कि इस आरक्षण का मुद्दा सरकार ने इस समय उठाया ही इसलिए है कि बढ़ती ग़रीबी, बेरोज़गार और बदहाली के खि़लाफ जनता में भयंकर असन्तोष सुलग रहा है। ऐसे में, पूँजीवादी सरकारें हमेशा ही असल मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए अस्मितावादी राजनीति का सहारा लेती हैं-कभी जातिवादी राजनीति के रूप में, कभी जातीयतावादी (एथनिक) राजनीति के रूप में,  कभी जेण्डर राजनीति के रूप में, कभी राष्ट्रीयतावादी राजनीति के रूप में तो कभी भाषाई कट्टरता या क्षेत्रवादी कट्टरता की राजनीति के रूप में। जब 1990 में भारत की पूरी अर्थव्यवस्था भयंकर संकट का शिकार थी, तब मण्डल और मन्दिर के मुद्दे को उछाला गया था। उस समय भी पूरे देश में बेरोज़गारी और महँगाई भयंकर स्तर पर पहुँच गई थी। इसके बाद नयी सहस्राब्दी की शुरुआत के बाद पिछड़ों के आरक्षण के मुद्दे को उछाला गया और पूरे देश में आम नौजवानों और छात्रों के बीच इस पर ध्रुवीकरण हो गया। यह भी वह समय था जब वैश्विक संकट के झटके भारतीय अर्थव्यवस्था को भी लग रहे थे और मन्दी सिर पर मँडरा रही थी। और आज जब एक बार फिर पूरे देश की आम जनता बेरोज़गारी और महँगाई के बोझ तले पिस रही है तो महिला आरक्षण बिल का मुद्दा उठा कर एक बार भी भारत का पूँजीपति शासक वर्ग जनता को एक गैर-मुद्दे पर बाँटने की कोशिश कर रहा है।

आरक्षण का प्रश्न, चाहे वह जाति के आधार पर हो, जेण्डर के आधार पर हो, या किसी और आधार पर, पूँजीपति वर्ग द्वारा जनता को बाँटने और राज करने के लिए उठाया जाता है और इससे किसी भी समस्या का वास्तविक समाधान नहीं होता है। इससे शासक वर्ग को उत्पीड़ित वर्गों के बीच से अपने नये मित्र ज़रूर मिल जाते हैं और साथ ही आम जनता एक ग़ैर-मुद्दे पर बँट जाती है। अपवादों को छोड़ दें तो जिस भी पिछड़े या उत्पीड़ित श्रेणी को आरक्षण मिलता है उसके एक बहुत छोटे ऊपरी हिस्से को ही इसका लाभ प्राप्त होता है। रोज़गार और शिक्षा में आरक्षण के सवाल पर कोई भी संघर्ष या ध्रुवीकरण आज के समय में जितना निरर्थक है उससे कहीं ज़्यादा निरर्थक है संसद में आरक्षण के प्रश्न पर जनता का विभाजित हो जाना। क्योंकि यह पूँजीवादी संसद किसी भी रूप में इस देश की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला निकाय नहीं है।

इसलिए सभी जनपक्षधर ताक़तों को समझना चाहिए कि इस मुद्दे पर बँटने और ध्रुवीकृत होने का कोई अर्थ नहीं है। स्त्री मुक्ति के सवाल पर संजीदगी से सोचने वाले हर नौजवान और स्त्री के सामने इस बात को साफ करना होगा कि पितृसत्ता और पूँजीवाद हाथ में हाथ डाले स्त्री को गुलाम बनाते हैं। निश्चित रूप से पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष एक स्वायत्त क्षेत्र भी है, लेकिन यह भी तय है कि पितृसत्ता पूँजीवाद के ख़ात्मे के बिना समाप्त नहीं हो सकती। प्रसिद्ध इतिहासकार सुवीरा जायसवाल के शब्दों में ‘’पितृसत्ता और जाति वर्ग के साथ ही अस्तित्व में आने के लिए बाध्य थे, और वे उसी के साथ अस्तित्व में आए।’‘ कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये वर्ग के साथ ही समाप्त होंगे। स्त्रियों की मुक्ति का प्रोजेक्ट एक वर्गविहीन समाज को हासिल करने के प्रोजेक्ट का ही एक अंग हो सकता है। यदि इस प्रोजेक्ट को पूरा करने की दिशा में आगे बढ़ना है तो आज ही से शासक वर्गों के किसी जाल में फँसकर एक नाकारी-नाखादी संस्था में महिला आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़े होने की बजाय, पूँजीवादी सत्ता, समाज और व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के संघर्ष में स्त्रियों समेत मज़दूरों, छात्रों और आम मेहनतकश आबादी को संगठित करने की चुनौती को स्वीकार करना होगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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