फ़ैज़ अहमद फ़ैज़: उम्मीद का शायर

आशीष

यह साल फ़ैज अहमद फ़ैज के जन्म का सौंवा साल है। फै़ज को अवाम का गायक कहा जाय तो ठीक ही होगा। उनकी कविता में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में बसे हुए बेसहारा लोगों, यतीमों की आवाज़ें दर्ज है, उनकी उम्मीदों ने जगह पायी है। अदीबों की दुनियां उसे मुसलसल जद्दोजहद करते शायर के रूप में जानती है। सियासी कारकूनों की निगाह में फै़ज के लफ्ज ‘खतरनाक लफ्ज’ है। अवाम के दिलों में सोई आग को हवा देने वाले लफ्ज है। बिलाशक यही वजह होगी जिसके एवज़ में फ़ैज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारहों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद की चिनगियाँ कभी बुझी नहीं, उनकी मुहब्बत कभी बूढ़ी नहीं हुई। आज के ठहरे हुए समय में ऐसे जिन्दादिल शायर की याददिहानी हमारी ज़रूरत है। वक़्त की भी। और इसलिये भी कि हम पुरज़ोर आवाज़ में कह सकें –

बोल के लब आज़ाद हैं तेरे

बोल ज़बाँ अब एक तेरी है।

13 फरवरी, 1911 को क़स्बा काला क़ादिर, जिला सियालकोट (पंजाब) के एक सामान्य परिवार में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पैदाइश हुई। इनके पिता चौधरी सुल्तान अहमद एक मशहूर वकील थे। वे साहित्यिक रूचि के शख़्स थे, इनकी मित्र मंडली में अल्लामा इक़बाल जैसे महान शायर व कई एक साहित्यिक हस्तियाँ थीं। वैसे तो फ़ैज़ की बुनियादी तालीम एक मदरसे से शुरू हुयी। लेकिन जल्दी ही उनके वालिद ने उनका नाम मिशनरी स्कूल में दर्ज़ करा दिया। वहाँ उन्होंने उच्चतर माध्यमिक स्तर तक अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की। उच्चतर अध्ययन के लिए फ़ैज ने लाहौर की ओर रुख़ किया। वहाँ गवर्मेण्ट कॉलेज और फिर ओरियण्टल कॉलेज में अंग्रेज़ी और अरबी में मास्टर डिग्री हासिल की।

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जिन दिनों फ़ैज़ ज्ञानार्जन कर रहे थे। उन दिनों मुल्क की हवाओं में राजनीतिक रंग बेहद तेज़ी के साथ घुल रहे थे। किसानों-मज़दूरों के आन्दोलन का दौर था। कॉलेजों में देश-दुनिया को लेकर चर्चाएं हो रही थीं। दुनिया के एक मुल्क में मज़दूर राज कायम हो चुका था। शोषणविहीन व्यवस्था बनाने का एक नया प्रयोग हो रहा था। या यूँ कहे कि चौतरफा राजनीति थी। ऐसे गर्म व राजनीतिक माहौल में रहकर कोई नौजवान बिना प्रभावित हुए कैसे रह सकता था और यही हुआ। फ़ैज की किताबों वाली आलमारी में कई ऐसी किताबों ने जगह पायी जिन्हें छुपा के पढ़ना पड़ता, जो प्रतिबन्धित किताबें थी। इनसे फ़ैज को बहुत कुछ जानने को मिला जिससे पहले वे नावाकिफ थे। इन्हीं समयों में उन्होंने अपनी भावनाओं को शब्दबद्ध करना शुरू किया। शायरी से उनकी मोहब्बत हुई सच्चे मायने की मुहब्बत थी जो ताजिन्दगी क़ायम रही।

ग्रेजुएशन करने के बाद 1935 में फ़ैज ‘मोहम्मद एंग्लो ओरियण्टल’ कॉलेज अमृतसर में अध्यापन कार्य में लग गये। यहाँ आकर उनकी राजनीतिक सक्रियता और साथ ही लोगों से जुड़ाव लगातार बढ़ता गया। ये दो काम उनकी पहली पसन्द के काम बन गये। यहीं पर उनकी मित्रता महमूद ज़फर और उनकी बेग़म रशीद जहाँ से हुई। इस दोस्ती ने फ़ैज की जिन्दगी को दिशा देने में बेहद अहम भूमिका निभाई। उनके अन्दर बदलाव की प्यास बढ़ने लगी। इन्ही समयों में लन्दन से पढ़कर वापस लौटे तमाम बुद्धिजीवियों की संगत में मार्क्सवाद का ककहरा सीखा। खुद फ़ैज की जुबानी कहें तो ‘‘‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ पढ़ना मेरे ख़्यालों की तब्दीली का अहम मोड़ था। अब हमारे पास नये दोस्त थे, नये लोग थे, करने के लिए बहुत कुछ था और साथ में एक ऐसी विचारधारा की रोशनी जो ऊर्जावान और आवेगमयी थी।’‘

इस  निर्णायक मोड़ के बाद फ़ैज़ का सामाजिक राजनीतिक झुकाव बढ़ता गया। जनजीवन से बढ़ता जुड़ाव जीवनपर्यन्त आगे ही गया। 1936 में उन्होंने लेखकों के संगठन ‘अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ’ के निर्माण में बढ़कर हिस्सेदारी की। यह बात ग़ौरतलब है कि ऐसे संगठन के निर्माण की प्रक्रिया में उर्दू लेखकों की भूमिका अगुआ की थी। वह चाहे सज्ज़ाद ज़हीर, गयास अहमद गद्दी, कृश्नचन्दर, रशीद जहाँ बेग़म हों या फ़ैज़। कालान्तर में फ़ैज़ ‘प्रलेस’ की मुख्य आवाज़ बन गये। उर्दू कविता की दुनिया ‘ग़म-ए-दोस्त’ की चौहद्दी पारकर ‘ग़म-ए-दुनिया’ की ओर आगे बढ़ी। यहीं से उनकी कविता क्लासिकल ढर्रें की अनुगामी होने के बावजूद राजनीतिक प्रतिबद्धता की ओर प्रस्थान करती नज़र आती है जिसका सबसे बेहतरीन उदाहरण ‘नक्श-ए-फरियादी’ की कविताएँ हैं जिसका प्रकाशन 1941 में किया गया। इसमें संकलित कविताएँ उर्दू काव्य परम्पराओं की तिलांजलि दिये बगै़र नए नक़्श और नए तेवर लेकर आती है जिसकी एक नज़्म, जो कि फ़ैज की बेहद चर्चित नज़्मों में से एक है, की एक बानगी पेश है-

मुझ से पहली-सी मुहब्बत मेरी महबूब नः माँग

मैंने समझा था केः तू है तो दरख़्शाँ है हयात’

तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर का झगड़ा क्या है?

तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात

तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है?

तू जो मिल जाए तो तक़दीर निगूँ हो जाए

यूँ नः था मैं न फक़त चाहा था यूँ हो जाए

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों के तारीक़ बहीमाना तिलिस्म

रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख़्वाब में बुनवाए हुए

ख़ाक में लिथड़े हुए, खून में नहलाए हुए

जिस्म निकले हुए अमराज के तन्नूरों से

पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से

लौट जाती है इधर को भी नज़र क्या कीजे

अब भी दिलक़श है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे ?

और भी दुख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा

राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब नः माँग!

प्रगतिशील लेखक संघ के तत्कालीन सेक्रेटरी और फ़ैज़ के ख़ास दोस्त सज्जाद ज़हीर, फैज़ की कविताओं के बारे में कहते हैं कि फैज़ की कविता जिन मूल्यों को प्रदर्शित करती र्है वे प्रगतिशील मानवता के मूल्य हैं। उन्होंने अपनी जड़ों से अलहदा होने के बजाए अपनी संस्कृति के सर्वोत्तम तत्वों को आत्मसात किया।

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मार्क्सवाद में गहरी आस्था होने के बावजूद वे कभी कम्यृनिस्ट पार्टी के बाक़ायदा मेम्बर नहीं बन पाये। यह एक अलग बात है। परन्तु जब सन् 1941 में सोवियत यूनियन पर जबरन युद्ध थोप दिया गया, फासिस्ट ताकतों ने इंसानी रक्त बहाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी थी, हिटलर की 254 डिवीजनों में से 200 डिवीजनें सोवियत यूनियन को तबाह करने में लगा दी गयीं तो ऐसे में फैज़ ने भी दुनिया के तमाम सच्चे कलमकारों के मानिन्द मानवता के दुश्मनों के खिलाफ मैदान में डटना अपना फर्ज समझा और आ डटे। बतौर वालण्टियर नाजीवादी एवं फ़ासीवादी ताक़तों से लड़ने के लिए ब्रिटिश सेना में अपना नाम दर्ज कराया और बढ़कर भागीदारी की। युद्ध समाप्त होते ही उन्होंने सेना से विदायी ले ली। और लाहौर वापस चले गये।

लाहौर जाकर कलम का यह सिपाही एक बार फिर कलम के मोर्चे पर तैनात हो गया। वहाँ उन्होंने वामपंथी सोच से प्रभावित दैनिक अखबार ‘पाकिस्तान टाइम्स’ का सम्पादन शुरू किया। इन दिनों देश भर में हाय-तौबा मची थी। कत्लो-ग़ारत का माहौल चल रहा था। अंग्रेज़ों की ‘फूट डालो-राज करो’ की नीति अपना असली रूप दिखा रही थी। व्यापक जनदबाव और वैश्विक पैमाने पर कमज़ोर होते जाने के चलते अंग्रेज़ी हुकूमत ने अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिया। सन् 1947 में भारत औपनिवेशिक गुलामी से मुक्त हुआ। लेकिन लहुलुहान टुकड़ों में बँटा हुआ। ऐसी आधी-अधूरी, कटी-छँटी आज़ादी पर सवाल उठाते हुए एक नज़्म में फ़ैज कहते हैं कि दाग़-दाग़ उज़ालों वाली यह आज़ादी वह आज़ादी नहीं है जिसके लिए हम लड़ रहे थे। अभी हमारे अरमान अधूरे हैं, उस सुबह के लिए अभी और चलना है। मुल्क के बँटवारे का और ‘‘आज़ादी’‘ का सामना इस शायर ने इस तरीक़े से किया।

लाहौर आकर फ़ैज़ ने अपने आप को कई मोर्चों पर झोंक दिया। पत्रकारिता, ट्रेडयूनियन, अन्तरराष्ट्रीय शान्ति आन्दोलन आदि-आदि में।  लेकिन नयी हुकूमत के तौर-तरीक़े बहुत अच्छे नहीं थे। नयी पाकिस्तानी सरकार बुरी हद तक अमेरिकी हुक्मरानों की पिछलग्गू बन जाने को उतावली थी। उसका झुकाव मूलतः प्रतिक्रियावादी मुठ्ठीभर जमात की ओर ज़्यादा था या यूँ कहें कि राज्य में उनकी स्थिति कमोबेश ताकतवर थी।

फ़ैज़ को 9 मार्च 1951 को राज्य के खिलाफ विद्रोह करने की साजिश रचने के आरोप में कुछ दूसरे फौजी अफसरों के साथ गिफ्तार कर लिया गया। उन पर ‘रावलपिण्डी षडयंत्र’ का आरोप मढ़ा गया। उनके सिर पर मौत का ख़तरा मण्डराने लगा। अन्ततः उन्हें चार साल के लिए जेल की सलाख़ों के पीछे धकेल दिया गया। आज़ाद मुल्क में फ़ैज की यह पहली गिरफ्तारी थी। इस गिरफ्तारी के चलते व जेल की तक़लीफों की तफसील ने फ़ैज को तरक्कीपसन्द लोगों का अज़ीज़ बना दिया। इन वक़्तों में फ़ैज़ ने दोबारा कविता का दामन पकड़ा जो कि पिछले दिनों (1940 से) कुछ छूट-सा गया था। उनका दूसरा कविता संकलन ‘दस्त-ए-सबा’ तब छपकर आया जब वे जेल में थे। और तीसरा संकलन ‘जिंदाँनामा’ की लगभग सारी कविताएँ जेल के दौरान ही लिखी गयीं।

जेल से रिहा होने तक देश-दुनिया में काफी कुछ बदल चुका था। शीतयुद्ध का शुरुआती दौर था। पाकिस्तानी शासक वर्ग अमेरिका के साथ और गहरे जुड़ चुके थे। मुल्क में विरोध की हर आवाज़ पर पहरा था। वामपंथी पत्र-पत्रिकाओं और मज़दूर संगठनों को बेरहमी से बूटों तले दबाया जा रहा था। ऐसे दमघोंटू माहौल में फैज़ के लिए कुछ भी कर पाने की गुंजाइश घटते-घटते बेहद कम रह गयी थी। लेकिन फैज़ चुप बैठने वालों में से नहीं थे। शीतयुद्ध के दौरान वे अपने सवालों को अन्तरराष्ट्रीय जगत तक ले गये। 1956 में वे दिल्ली में आयोजित एशियन राईटर्स सम्मेलन में शामिल हुए। 1958 में एशिया-अफ्रीका लेखक सम्मेलन ताशकन्द में होने वाला था। वहाँ जाने के लिए फैज़ व एक और पाकिस्तानी डेलीगेट हाफिज़ जालन्धरी को जाने की अनुमति मिली। अभी सम्मेलन चल ही रहा था कि पाकिस्तान में पहला सैनिक तख़्तापलट हुआ। मुल्क में सैनिक तानाशाही लागू कर दी गयी। फैज़ मुल्क वापस आते ही गिरफ्तार कर लिए गये, कुछ ही समय के लिए सही। रिहा होते ही उन्होंने पत्रकारिता और मज़दूर संगठनों में काम करने के लिए अपने आपको पूरी तरह से झोंक दिया। वे अपनी समस्त सृजनात्मकता और आवेग के साथ इन गतिविधियों में लग गये। ठीक उन दिनों की तरह जब वे 1947 से 1951 के दरम्यान लगे हुए थे।

अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर उनकी कविता की चर्चा हो रही थी उनकी कविताओं का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुवाद किया जाने लगा। 1962 में उन्हें रूस के सर्वोच्च पुरस्कार लेनिन शान्ति पुरस्कार से नवाज़ा गया। पुरस्कार लेने हेतु जब उन्हें रूस जाने की अनुमति मिली तो वे तत्काल वापस न आकर दो साल के लिए आत्मनिर्वासन पर ब्रिटेन चले गये। 1964 में वे पाकिस्तान वापस लौटे। इस दौरान उन्होंने  अध्ययन-अध्यापन का काम किया और कला-संस्कृति के क्षेत्र में कई एक जिम्मेदारियों का निर्वहन किया।

जुल्फिकार अली भुट्टो के सत्तासीन होने के बाद मुल्क का मौसम कुछ राहत भरा लगा। यहाँ फ़ैज़ नये शासकों की नीतियों से कुछ सहमत-से नज़र आते हैं। भुट्टो ने फ़ैज़ को शिक्षा मंत्रालय के तहत सांस्कृतिक सलाहकार के पद पर नियुक्त किया। चार सालों तक वे इस्लामाबाद में सांस्कृतिक प्रशासक के तौर पर काम करते रहे। उनके मार्गदर्शन में लोक विरासत के रूप में नेशनल इंस्टीटयूट ‘लोक विरसा’ के नाम से खड़ा किया गया। पर राहत के इन पलों की उम्र काफी छोटी निकली। 1977 में पुनः पाकिस्तान में सैनिक तख़्तापलट हुआ। फ़ैज़ अपने ओहदे से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि उन्हें मुल्क से भी बेदख़ल होना पड़ा।

जुल्फीकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार के प्रति फैज़ का समर्थन का रवैया यूँ ही नहीं था। फैज़ के इस स्टैण्ड से सहमति रखना यहाँ सवाल नहीं है और निश्चित रूप से इसकी आलोचना की जा सकती है। लेकिन इसके कारणों पर ग़ौर किये बिना इसकी आलोचना करना फैज़ के साथ नाइंसाफी होगी। भुट्टो की सरकार ने जो कार्यक्रम पेश किया था उसमें कई रैडिकल तत्व थे। इसमें आमूलगामी भूमि सुधारों की बात थी, ट्रेड यूनियन के अधिकार की बात थी, नागरिक व मानव अधिकारों के सम्मान की बात थी। इसे भुट्टो की सरकार ने बहुत कम लागू किया। लेकिन जिस देश पर फौज़ी तानाशाही के कभी भी स्थापित हो जाने की तलवार लटकती रहती थी, उसमें भुट्टो की उदारवादी रैडिकल बुर्जुआ सरकार एक राहत के समान थी। भुट्टो इस्लामी कट्टरपंथ और सेना के ‘काउण्टर-एक्ट’ के समान थे। यही कारण था कि फैज़ का रवैया इस सरकार के प्रति समर्थन और नरमी का था। कोई यह कह सकता है कि यह सही विकल्प नहीं था और इसमें अवसरवाद के तत्व भी तलाश सकता है। लेकिन यह एक लम्बी चर्चा का विषय है।

1978 से 1982 तक का दौर फ़ैज़ ने निर्वासन में गुज़ारा। उन्होंने एशिया-अफ्रीका में फैले तमाम लेखक मित्रों से मुलाकात की। इन्ही मित्रों की बदौलत उन्हें अफ्रीकी-एशियाई जरनल ‘लोटस’ के सम्पादन का काम मिला जो कि बेरूत से प्रकाशित होता था। बेरूत में बीते इन तीन सालों में उन्होंने फिलिस्तीनी अवाम के दुख को, मुक्ति की चाहत को बेहद क़रीबी से देखा। ‘फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन’ के नेता यासिर अराफात से दोस्ती हुई जिन्हें फै़ज़ ने अपना अन्तिम संकलन ‘मेरे दिलः मेरे मुसाफिर’ समर्पित किया। जब बेरूत पर इज़रायल ने कब्ज़ा कर लिया तब उन्हें वहाँ से निकलना पड़ा। वे वहाँ से मुल्क-दर-मुल्क भटकते हुए मंगोलिया, कनाडा, भारत, वियतनाम और अमेरिका भी गये। अन्ततः 1982 में हमवतन वापसी हुई। स्वास्थ्य काफी बिगड़ चुका था। 19 नवम्बर 1984 को लाहौर के मेयो हस्पताल में हृदय गति रुक जाने से फ़ैज़ का इंतक़ाल हो गया और दमनकारी हुकूमत से बेख़ौफ रहने वाला यह शायर हमसे बिछड़ गया।

चलते-चलते चन्द सतरें फ़ैज की कविता के बारे में कहना ज़रूरी है, जो कहे बगै़र बात पूरी नहीं होगी। ग़र किसी कविता में महज़ बयान हों, अपने समय का महज़ प्रतिचित्रण हो, जीवितों की उम्मीदें, आशाएँ नदारद हों तो ऐसी कविता किस काम की? पर फैज़ में वो है जिसकी हमें ज़रूरत है। इनकी कविता हमें बदलाव के लिए ललकारती है, बदलाव की मुहिम में लगे लोगों के पक्ष में दबे-छुपे रूप में नहीं बल्कि घोषित रूप में आ खड़ी होती है। जब आपके हाथ बंधे हो तो प्रतिरोध की कला कैसे विकसित की जाय, हुक़्मरानों को उखाड़ फेंकने के लिए ऐतिहासिक और लोक प्रतीकों का इस्तेमाल कैसे किया जाय जिससे कि ध्वंस और प्रतिकार साकार रूप में मूर्तिमान हो उठे, यह कला फ़ैज़ के पास है। यहाँ पारम्परिक प्रतीक नये अर्थों में अवाम की इच्छाओं को शब्द देते प्रतीत होते हैं-

हम देखेंगे

लाजिम है केः हम भी देखेंगे

वोः दिन केः जिसका वादा है

जो लौहे-अज़ल में लिक्खा है

जब ज़ुल्मों-सितम के कोहे-गराँ

रूई की तरह उड़ जायेंगे

हम महकूमों के पाँव तले

जब धरती धड़-धड़ धड़केगी

और अह्ले-हिकम के सर ऊपर

जब बिजली कड़कड़ कड़केगी

जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के का’बे से

सब बुत उठवाये जायेंगे

हम अह्ले-सफा, मर्दूद-ए-हरम

मसनद पे बिठाये जायेंगे

सब ताज उछाले जायेंगे

सब तख़्त गिराये जायेंगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का

जो ग़ायब भी है हाजिर भी

जो मंज़र भी है; नाजिर भी

उठ्ठेगा ‘अन-अल-हक्’ का नारा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

और राज करेगी ख़ल्के-खुदा

जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

   (तराना-2, सारे सुखन हमारे)  

फ़ैज़ की कविता में जो सबसे महत्वपूर्ण बात है वह है दबे-कुचलों के प्रति दुख-दर्द की भावना, जनमानस से अटूट रिश्ता। चाहे दुनिया के किसी भी कोने में इंसानी रक्त बहे, फ़ैज़ किसी भी घटना से अप्रभावित नहीं रहे। इसीलिए जब ईरान में छात्रों को मौत के अन्धे कुँए में धकेला जाता है तो वे एक कविता ‘ईरानी तुलबाँ के नाम’ लिखते हैं, अफ्रीकी स्वतन्त्रता प्रेमियों के समर्थन में ‘AFRICA COME BACK’ का नारा लगाते हैं और साम्राज्यवादियों से संघर्षरत अरबों के समर्थन में ‘सर-ए-वादी-सीना’ और फिलिस्तीनी बाँकों को श्रद्धांजलि पेश करने के लिए ‘दो नज़्में फिलिस्तीन के लिए’ लिखकर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। फ़ैज़ की नज़्में देश-काल की सीमाओं को लाँघकर दुखी जनों की आवाज़ बनकर सामने आती है। वे सच्चे मायने में एक अन्तरराष्ट्रीय कवि थे। पाब्लो नेरूदा, नाजिम हिक़मत की परम्परा के कवि। उनकी कविता में आम जन का संघर्ष है, उम्मीद है, बेहतर भविष्य का सपना है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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