जातिगत उत्पीड़नः सभ्य समाज के चेहरे पर एक बदनुमा दाग

गौरव

आज हम 21वीं सदी में जी रहे हैं। आज़ादी के वक्त लोकतांत्रिक, ‘‘समाजवादी’‘, धर्मनिरपेक्ष वगैरह-वगैरह लच्छेदार भ्रमपूर्ण शब्दों का जो मायाजाल रचा गया था वह आज छिन्न-भिन्न हो चुका है। एक ओर देश का अस्सी फीसदी मेहनतकश अवाम भयंकर अभाव और ग़रीबी में जी रहा है और वहीं इस मेहनतकश अवाम के एक विशाल हिस्से, यानी दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और अपमान का दंश भी झेलना पड़ता है। हरियाणा के मिर्चपुर गाँव की घटना इसी बात का ताज़ा उदाहरण थी।

21 अप्रैल की सुबह जाट समुदाय के लोगों द्वारा पुलिस की निगरानी में दलित बस्ती के अट्ठारह घर और छः दुकानें पूरी तरह से जला दी गईं। जाटों का कहर बस्ती की विकलांग लड़की सुमन और उसके पिता ताराचन्द को जिन्दा जलाने की हद तक चला गया। ये बलवाई जितने अधिकतम घरों तक पहुँच सकते थे वहाँ पर पहले जमकर लूटपाट और तोड़फोड़ की और फिर आग लगा दी। इसके पहले 19 अप्रैल की शाम करीब सात बजे दलित बस्ती से दस-पन्द्रह जाट युवकों का समूह शराब पिये गुजर रहा था तो किसी बात पर बस्ती के लोगों से कोई विवाद हो गया। मामला बढ़ गया और जाट युवक धमकियाँ देते हुए चले गये। मामले को सुलझाने हेतु दलित बस्ती से मुखिया कर्ण सिंह और बाल्मिकी बस्ती से नेता (ब्लाक समिति से पंच) वीरभान जाटों की बस्ती में गये तो उनके साथ मारपीट की गयी जिसमें वीरभान सिंह गम्भीर रूप से घायल हो गये तथा उन्हें हिसार ले जाकर अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। नारनौल थाने को पूरे मामले की इत्तिला देते हुए मदद माँगी गई। 20 अप्रैल को गाँव में तनाव का माहौल था और दलित बस्ती में हमले का भय व्याप्त था। जाट युवक लगातार लाठी-डण्डे सहित बस्ती का चक्कर लगा रहे थे। लेकिन पुलिस का कोई अता-पता नहीं था। 21 अप्रैल की सुबह नारनौल थाने के एस.एच.ओ. विनोद काजल पच्चीस-तीस पुलिस वालों के साथ दलित बस्ती पहुँचते हैं और दलित समुदाय के लोगों को पंचायत पर आकर जाटों से समझौता करने को कहते है। जब दलित बस्ती के लोग वहाँ चले जाते हैं तो पीछे से पुलिस की सरपरस्ती में सुबह करीब साढ़े नौ बजे से शर्मनाक ताण्डव की शुरुआत हो जाती है। इस घिनौने कृत्य में जाट महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। पूरी घटना को जाटों ने योजनाबद्ध तरीके से और पूरी तैयारी के साथ अंजाम दिया। इस पूरे काम को अंजाम देने के लिए उनके पास पेट्रोल, डीजल, मिट्टी के तेल के कैन से लेकर चेन, गँड़ासे और पिस्तौल तक थे। शुरुआती कार्रवाई में घरों की टंकियों को निशाना बनाया गया ताकि आग बुझाने का काम हो नहीं पाए। सुमन के घर भी पहले लूटपाट की गई उसके बाद उसे घर में बन्द करके जिन्दा जला दिया गया। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया की कोई भी सामान तोड़फोड़ और आगजनी से बच न जाए। और तो और सुमन की तिपहिया साईकिल तक को जला डाला गया। दलित बस्ती की तीन किराने की, एक नाई की, एक डाक्टर की और एक ब्यूटी पार्लर की दुकान लूटपाट के बाद राख ढेर में तब्दील कर दी गई।

वास्तव में उच्च जाति के लोग पिछले काफी समय से ऐसे मुद्दे की तलाश में थे जिससे वे दलित बस्ती के बाशिन्दों को सबक सिखा सकें। दलित बस्ती के मुखियाओं की जाटों द्वारा समझौता करने के प्रस्ताव के बावजूद बर्बर पिटाई से ही साफ हो जाता है कि जाट समुदाय किसी भी तरह से मामले को सुलझाने के पक्ष में नहीं था। बल्कि वह अपने दबे हुए गुस्से को दलित समुदाय पर उतारना चाहता था। स्थानीय लोगों के अनुसार दस दिन पहले गाँव की कुलदेवी फूलमते माता के मन्दिर में जाट युवकों द्वारा दलित समुदाय की लड़कियों  के साथ छेड़छाड़ की गई थी और दलित समुदाय के लोगों ने इसका जमकर विरोध किया था। पिछले दो सालों से इस मंदिर का ठेका दलित समुदाय को मिलता आ रहा है। इसको लेकर भी जाट समुदाय मे कड़वाहट थी। साथ ही जब भी ठेका दलितों के पास गया तो उपद्रव और छेड़छाड की घटनाएँ ज्यादा देखने में आई। खुद जाटों के मुँह से ऐसी बातें सुनीं जा सकती थीं कि जब से दलित समुदाय के लोगों के पास थोड़ा पैसा आ गया है तब से इनका ‘’दिमाग़ ख़राब हो गया है’‘। यदि कोई दलित थोड़े पैसे कमा लेता है तो यह जाटों को नागवार गुज़रता है और उन्हें अपने जातिगत घमण्ड पर चोट के समान लगता है। इसलिए जाटों के अन्दर प्रतिक्रिया पहले से भरी हुई थी और उन्हें एक मौके की तलाश थी।

जाटों द्वारा दलितों पर किये गये इस हमले में पुलिस ने पूरा-पूरा सहयोग दिया। इस बात की तस्दीक खुद पुलिस प्रशासन ने की कि इस हिंसा में पुलिस का भी हाथ था। दलित समुदाय के आन्दोलन करने पर पुलिस हरक़त करना शुरू कर देती है। एस.एच.ओ. (नारनौल) विनोद काजल को सिर्फ निलम्बित किया गया है। 43 नामजद लोगों के विरुद्ध अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निरोधक कानून तो लगाया गया लेकिन दर्ज एफ.आई.आर. में उनकी धाराएँ नहीं बताई गईं। साफ है कि पुलिस की पक्षधरता किसके साथ थी।

Mirchpur

खै़र, घटना के बाद चुनावी मेंढकों का मगरमच्छी आँसू बहाने का ताँता लग जाता है। प्रदेश के मुख्यमंत्री हुड्डा जी तो इतने व्यथित थे कि घटना स्थल पर हफ्ते भर बाद जाकर पधारते हैं। तमाम विपक्षी दल के नेता और दलितवादी राजनीति के खिलाड़ियों ने भी इस घटना की निन्दा करके और कांग्रेस सरकार को निशाना बनाकर खानापूर्ति कर ली। राहुल गाँधी ने अपनी ‘’छुट्टी’‘ आधी छोड़कर मिर्चपुर का दौरा किया और दलितों के प्रति अपने ‘‘सरोकार’‘ का प्रदर्शन किया। लेकिन पीड़ित दलित आबादी अच्छी तरह से समझती है कि यह चुनावी मदारियों की नौटंकी से ज़्यादा कुछ भी नहीं है। दलितों के उत्थान की यह नौटंकी पिछले 63 वर्षों से बदस्तूर जारी है।

इस पूरे मामले के दौरान खाप पंचायत की ढिठाई भरी दादागिरी भी खुलकर सामने आयी। 21 अप्रैल को जाट समुदाय द्वारा किये गये अमानवीय कृत्य के पक्ष में तीन दिन बाद ही जाटों की खाप महापंचायत हुई थी जिसमें 43 खापों की प्रमुखों ने मंच से बादशाही फरमान दिया की इस घटना के जिम्मेदार जिन युवकों को पकड़ा गया है उन्हें प्रशासन तुरन्त छोडे़ और बाकी के खिलाफ मामला वापिस ले। एस.एच.ओ. विनोद काजल के निलम्बन को गलत ठहराया गया और उसे अपना आदमी बताया गया। खाप पंचायत अपने ‘’जाति स्वाभिमान’‘ से इतनी लबरेज़ थी की उसे न तो जिन्दा जलाए गए दो बेकसूर लोगों की मौत का शोक था और न ही जाट समुदाय द्वारा किये गये कुकृत्य पर शर्म थी। इसका कारण समझा जा सकता है। खाप पंचायतों के आर्थिक और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली जाटों का बोलबाला होता है। ये वही लोग हैं जो व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के हर प्रयास को कुचलकर रख देने में किसी भी हद तक जाते हैं। दलितों के उत्पीड़न के पूरे सामाजिक और आर्थिक शोषण-उत्पीड़न में मुख्य अभिकर्ता की भूमिका निभाने वाली संस्था ये खाप पंचायतें ही हैं जो सामन्ती अवशेषों और पिछड़े मध्ययुगीन मूल्यों का प्रतिनिधित्व करती हैं। विडम्बना की बात यह है कि पूरे पूँजीवादी राजनीति के समीकरणों में ये खाप पंचायतें समायोजित हो चुकी हैं और पूँजीवादी पार्टियाँ इनका अपनी राजनीति का सिक्का चमकाने में इस्तेमाल करती हैं। इसलिए संयुक्त प्रगतिशील (?!) गठबन्धन के नेता और मन्त्री नवीन जिन्दल ने खाप पंचायतों का बचाव करने की कोशिश की। बाद में हरियाणा के मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हूडा ने भी इसमें स्वर मिलाया। कारण यह है कि अपनी गोटें लाल करनी हैं तो कोई भी पूँजीवादी पार्टी खाप पंचायतों से बैर नहीं मोल लेना चाहतीं। पूरे हरियाणा के समाज को ये गैर-जनवादी प्रवृत्तियाँ और संस्थाएँ अपनी जकड़बन्दी में रखे हुए हैं।

Mirchpur Jat protestors

ग़ौरतलब है कि गाँव में ऊँची जाति के दबंगों ने अपने झुण्डवादी पौरुष के ‘’झण्डे’‘ पहले भी गाड़े हैं। 2 मई 2007 को डोम परिवार के तीन पुरुषों और दो महिलाओं को जाटों ने निर्वस्त्र करके घुमाया था और उन्हें गाँव छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। करीब दो साल पहले एक दलित परिवार के साथ बदसलूकी करके उन्हे गाँव की सरहद से बाहर निकाल दिया गया। 2007 में सालवान-करनाल काण्ड में दलितों की बस्ती के कई घर आग के हवाले कर दिये गये । 31 अगस्त 2005 को गोहाना-सोनीपत काण्ड में दलितों के सत्तर-अस्सी घर ऊँची जात के लोगों द्वारा लूटने के बाद आग के हवाले कर दिये गये। डिप्टी कमिश्नर और पुलिस अधीक्षक वहाँ दल-बल के साथ उपस्थित थे। पूरे काण्ड में पुलिस-प्रशासन की भूमिका महाभारत के धृतराष्ट्र के समान थी।

भारतीय समाज में जातिगत उत्पीड़न एक वीभत्स सच्चाई के रूप में सदियों से मौजूद रहा है। अंग्रेज़ों के आने से पहले भारतीय सामन्ती सामाजिक संरचना में यह निरन्तरता के साथ मौजूद था। समय-समय पर दलितों और पिछड़ों ने इस जातिगत उत्पीड़न और इससे जुड़े आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज़ उठायी और बीच-बीच में कबीर, पल्टू, रैदास और नानक जैसे विद्रोही चरित्र पैदा होते रहे। भक्ति आन्दोलन के रूप में एक दमित प्रतिरोध अस्तित्व में आया। इसी बीच अंग्रेज़ों द्वारा भारत का औपनिवेशीकरण हुआ और अंग्रेज़ों ने अपनी सत्ता के सुदृढ़ीकरण के बाद दलित उत्पीड़न के विरोध में कुछ काग़ज़ी कानून और नियम तो ज़रूर बनाए लेकिन ज़मीनी स्तर पर सामन्ती आर्थिक शोषण के हर उस रूप को और मज़बूती प्रदान की जिससे कि ऊँची जातियों का प्रभुत्व और मज़बूत और अश्मीभूत हुआ। स्थायी बन्दोबस्त के तहत पूरे उत्तर भारत में ज़मीन्दारों के आर्थिक प्रभुत्व को मज़बूत करने का ही काम किया गया। रैयतवाड़ी बन्दोबस्त में ऊँची जातियों की पंचायतों के प्रभुत्व को बरकरार रखने का काम किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था में भी कमोबेश ऐसा ही हुआ। कुल मिलाकर अंग्रेज़ों ने जातिगत पदानुक्रम की व्यवस्था को ज़्यादा छेड़ा नहीं बल्कि उसे अपने उपनिवेशवादी फायदों के अनुसार सहयोजित कर लिया। आज़ादी के बाद भारतीय पूँजीवादी सत्ता ने दलितों को आरक्षण का झुनझुना थमा दिया और उनके बीच से एक बेहद छोटी अल्पसंख्यक आबादी को नौकरियों और सत्ता में थोड़ी भागीदारी देकर अपना वफादार तो बनाया लेकिन करीब 97 प्रतिशत दलित आबादी आज भी खेतिहर या औद्योगिक मज़दूर है और बर्बरतम जातिगत उत्पीड़न और पूँजीवादी शोषण का शिकार है। सत्ताधारी वर्ग समय-समय पर मेहनतकश आबादी के बीच जातिवादी राजनीति और अस्मितावादी एन.जी.ओ. राजनीति (तथाकथित ‘’सामाजिक आन्दोलन’‘) के जरिये फूट डालकर दलित आबादी को अलग करने और मज़दूरों की क्रान्तिकारी राजनीति को कमज़ोर करने का काम करता है। दलितों का एक हिस्सा जो निम्न मध्यवर्ग या मध्यम मध्यवर्ग की श्रेणी तक पहुँच सका है वह भी इस अस्मितावादी राजनीति का काफी हद तक शिकार बनता है। अन्तिम विश्लेषण में ये फूट डालने वाली राजनीति जातिगत शोषण-उत्पीड़न की उम्र को और बढ़ाती ही हैं। मेहनतकश आबादी का एक विशाल हिस्सा होने के नाते दलितों की मुक्ति के संघर्ष का प्रश्न मेहनतकश वर्गों की मुक्ति की व्यापक परियोजना के अंग के रूप में ही हल किया जा सकता है।

शहीदे-आज़म भगतसिंह ने आज़ादी से पहले ही इस सच्चाई को समझना शुरू कर दिया था। भगतसिंह एक जगह लिखते हैं ‘‘इस समस्या का सही निदान क्या हो? इसका जवाब बड़ा ही अहम है। सबसे पहले यह निर्णय कर लेना चाहिए कि सब इन्सान समान है तथा न तो जन्म से कोई भिन्न पैदा हुआ है और न कार्य-विभाजन से । अर्थात, क्योंकि एक आदमी ग़रीब मेहतर के घर पैदा हो गया है इसलिए जीवन-भर मैला ही साफ करेगा और दुनिया में किसी तरह के विकास का काम पाने का उसे कोई हक़ नहीं है, ये बातें फिजूल है। इस तरह हमारे पूर्वजों ने इनके साथ ऐसा अन्यायपूर्ण व्यवहार किया तथा उन्हें नीच कहकर दुत्कार दिया एवं निम्नकोटि के कार्य करवाने लगे। साथ ही यह भी चिन्ता हुई कि कहीं ये विद्रोह न कर दें, तब पुनर्जन्म के दर्शन का प्रचार कर दिया कि यह तुम्हारे पूर्व जन्म के पापों का फल है अब क्या हो सकता हैं? चुपचाप दिन गुजारो ! इस तरह उन्हे धैर्य का उपदेश देकर वे लोग उन्हें लम्बे समय तक के लिए शान्त करा गये। लेकिन उन्होंने बड़ा पाप किया। मानव के भीतर की मानवीयता को समाप्त कर दिया । बहुत दमन और अन्याय किया गया। आज उस सबके प्रायश्चित का वक्त है।’‘ जाति प्रश्न अनिवार्यतः और अन्ततः सर्वहारा क्रान्ति के द्वारा ही सम्भव है। इसी बात को भगतसिंह भी रेखांकित करते हैं, ‘’लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की जरूरत है। गरीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही है। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतंत्रता मिलेगी।’‘

एक 23 साल का नौजवान उन बातों को समझने की दिशा में आगे बढ़ चुका था जिन्हें आज के स्वयंभु दलित चिन्तक और बुद्धिजीवी और तमाम दलितवादी संगठन नहीं समझ पा रहे हैं। मज़दूर क्रान्ति के साथ ही दलितों की विशाल मेहनतकश आबादी की मुक्ति का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। मज़दूर क्रान्ति इस सवाल के समाधान को पूरा नहीं कर देती लेकिन निश्चित तौर पर इसकी पूर्वशर्त है। पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित आबादी की मुक्ति सम्भव नहीं है क्योंकि जातिगत उत्पीड़न और शोषण पूँजीवादी शोषण के पूरे मैकेनिज़्म का एक अहम हिस्सा है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010

 

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