साम्प्रदायिक दंगों का निर्माण
शिशिर
मार्च महीना बरेली शहर के लिए बुरा गुज़रा। बारावफात के जुलूस के रास्ते को लेकर हुए विवाद और तनाव के नतीजे के तौर पर शहर में साम्प्रदायिक दंगे हुए और फिर कुछ दिनों तक शहर के कई इलाकों में कर्फ्यू भी लगाया गया। लेकिन बरेली के लिए यह घटना सामान्य नहीं थी, जिस प्रकार उत्तर प्रदेश के और कई शहरों के लिए सामान्य हो सकती है। कारण यह है कि बरेली में साम्प्रदायिक दंगों का कोई इतिहास नहीं रहा है। लेकिन मार्च 2010 बरेली के इतिहास में एक मील का पत्थर बन गया। एक बेहद मामूली से विवाद से पूरा शहर हिन्दू–मुसलमान दंगों की चपेट में आ गया। जान–माल का काफ़ी नुकसान हुआ और आने वाले लम्बे समय तक के लिए यह दंगा दोनों समुदायों के लोगों के दिमाग़ में एक कड़वाहट छोड़ गया।
लेकिन अगर हम इस दंगे के पहले और उसके दौरान हुए घटनाक्रम पर एक करीबी निगाह डालें और सरकार और गैर–सरकारी स्रोतों के आधार पर विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि यह दंगा कोई स्वत:स्फूर्त रूप से शुरू हुआ दंगा नहीं था। कहीं पर भी हिन्दू और मुसलमान समुदाय के बीच स्वयं कोई मारपीट, पथराव या झगड़ा नहीं हुआ था। यह सबकुछ किस तरह से शुरू हुआ इस पर निगाह डालते ही साफ़ हो जाता है कि अधिकांश साम्प्रदायिक दंगों की ही तरह यह दंगा भी निर्मित था, अपने आप पैदा नहीं हुआ था।
घटनाक्रम की शुरुआत 2 मार्च को होती है। समाचार पत्रों में रपट आई कि बारावफात के जुलूस के मार्ग को लेकर हिन्दू और मुसलमान समूहों में एक झगड़ा शुरू हुआ। शुरू में लोगों ने एक दूसरे पर लाठियाँ चलाईं और पथराव किया। बाद में भीड़ ने दुकानें और घर जलाने शुरू कर दिये। बारावफात जुलूस मिलाद उन नबी (हज़रत मुहम्मद के जन्मदिवस) पर सुन्नी मुसलमानों द्वारा निकाला जाता है। भारत के 80 प्रतिशत मुसलमान बरेलवी सम्प्रदाय से जुड़े हुए है। बरेलवी आन्दोलन 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में शुरू हुआ था और यह एक उदारवादी आन्दोलन था जो अन्य सम्प्रदायों की प्रथाओं को भी अपने भीतर सम्मिलित करता था। इस आन्दोलन पर बरेली के अहमद रिज़ा ख़ान के लेखन का भारी प्रभाव था, जो 20वीं सदी की शुरुआती दशक में लिख रहे थे। बरेली शहर में बारावफात का जुलूस काफ़ी मायने रखता है क्योंकि यहीं पर भारत के 80 फीसदी मुसलमानों का सबसे महत्वपूर्ण पूजा स्थल दरगाह–अल–हज़रत स्थित है। इस दिन न सिर्फ़ देश के विभिन्न हिस्सों से, बल्कि दुनिया के कई हिस्सों से मुसलमान बारावफात के जुलूस में शामिल होने आते हैं। ये जुलूस कई हिस्सों में निकलता है और एक जगह आकर सम्मिलित होकर फिर आगे दरगाह तक जाता है। दशकों से इस जुलूस को लेकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आपसी सहमति रही है। बल्कि इसमें हिन्दुओं ने अभी तक मुसलमानों की काफ़ी मदद की थी, झगड़ा तो बहुत दूर की बात है। अलग–अलग छोटे जुलूसों को अंजुमन कहा जाता है। विभिन्न अंजुमनों के रास्ते अलग–अलग होते हैं। इस पूरे समारोह को प्रबन्धिात करने का काम अंजुमन खुद्दमा रसूल तंज़ीम नामक मुसलमानों का एक संगठन करता है। 2 मार्च को जब बरेली के गुलाब नगर इलाके का अंजुमन चहबाई क्षेत्र में आना चाहता था, जो उसके पूर्वनियोजित मार्ग पर नहीं था, तो चहबाई क्षेत्र के चन्द लोगों ने इसका विरोध किया। इसके बाद इस क्षेत्र के लोगों ने एक बैठक करके यह तय करने का फैसला किया कि अंजुमन को चहबाई क्षेत्र में आने दिया जाय या नहीं। अंजुमन खुद्दमा रसूल तंज़ीम के कासिम कमीरी ने बताया कि तय मार्ग रेल ट्रैक निर्माण के कारण बन्द कर दिया गया था जिसके कारण मार्ग में परिवर्तन की आवश्यकता पड़ी थी। चहबाई क्षेत्र के नागरिकों ने, जो बैठक में शामिल थे, बताया कि उन्होंने अंजुमन को चहबाई क्षेत्र में आने देने का फैसला कर लिया था। लेकिन इसके पहले कि वे इस निर्णय को अंजुमन तक पहुँचा पाते, यह ख़बर आई कि कुछ लोगों ने अपनी छतों से अंजुमन पर पथराव करना शुरू कर दिया है। इसके जवाब में अंजुमन में शामिल कुछ मुसलमानों ने भी पथराव शुरू कर दिया। बस यहीं से मारपीट, लाठीबाज़ी और पथराव की शुरुआत हो गयी। थोड़ी ही देर में पूरे शहर में यह ख़बर अदभुत तेज़ी से फैली। पूरा शहर दंगों की चपेट में आ गया। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान संघ और भाजपा के कार्यकर्ताओं ने बेहद कुशलता से अफवाहें फैलाने का काम किया। साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास बताता है कि हमेशा से ही दंगों में साम्प्रदायिक शक्तियों द्वारा अफवाहें फैलाए जाने का बड़ा योगदान रहा है। स्वतन्त्रता–प्राप्ति से पहले से ही संघ परिवार इस काम में लगा हुआ है और अब तक पारंगत हो चुका है। ज्ञान पाण्डेय, पॉल आर. ब्रास आदि जैसे तमाम इतिहासकार और सामाजिक वैज्ञानिक अपने अध्ययनों में दिखला चुके हैं कि ये अफवाहें किस तरह से फैलायी जाती हैं और ये दंगों को भड़काने में किस प्रकार योगदान करती हैं। साम्प्रदायिक भीड़ ने जगह–जगह दुकानों और मकानों को जलाना शुरू कर दिया। अब सवाल यह उठता है कि जब चहबाई क्षेत्र के नागरिक जुलूस को अपने इलाके से गुज़रने की इजाज़त देने ही वाले थे तो अंजुमन पर पथराव किन लोगों ने शुरू किया ?
दंगों की शुरुआत के बाद काफ़ी समय तक तो प्रशासन ने कोई विशेष कदम ही नहीं उठाया। इसके निर्देश सीधे मायावती सरकार से आए थे। इसका कारण यह था कि बरेली के संसद क्षेत्र से पिछले छह बार से भाजपा नेता सन्तोष गंगवार ने जीत हासिल की थी। लेकिन पिछले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के प्रवीण सिंह अरुण ने उसे लगभग साढ़े नौ हज़ार वोट के मामूली अन्तर से हरा दिया। इसका कारण यह था कि बरेली संसद क्षेत्र में भाजपा का आधार लोध और कुर्मी जातियों के बीच रहा था, जो तेज़ी से खिसक रहा था। इसके कारण ही आखिरी लोकसभा चुनावों में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इसके कारण भाजपा में काफ़ी बेचैनी थी। वापस अपना आधार हासिल करने के लिए भाजपा ने हमेशा की तरह साम्प्रदायिक तनाव को भड़काने का रास्ता चुना। इसकी तैयारी वह लम्बे समय से कर रही थी।
दूसरी ओर मायावती उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के बढ़ते आधार से घबराई हुई है जिसके कारण उसने इस बात की इजाज़त दी कि साम्प्रदायिक तनाव फैले और 11 दिनों तक वास्तव में कोई विशेष कार्रवाई नहीं हुई। दूसरी तरफ़ कांग्रेस के सांसद ने इस पर कोई ध्यान ही नहीं दिया जिसके कारण कांग्रेस को नुकसान हो रहा है और बसपा को फायदा। भाजपा ने अपना पुराना तरीका इस्तेमाल किया। दरअसल पिछले कई बार से मिलाद उन नबी और होली या तो एक ही दिन पड़ रहे थे, या दो दिनों के भीतर पड़ रहे थे। मुसलमानों ने हर बार प्रशासन की इस गुज़ारिश को स्वीकार किया था कि वे जुलूस ऐन मिलाद उन नबी के दिन न निकालें। इसके कारण हर बार यह त्योहारों का दौर आराम से गुज़र जा रहा था। संघ परिवार ने इसी को एक मौके में तब्दील करने का फैसला किया। हर बार एक–दो कट्टरपन्थी मुसलमान नेता अपना जुलूस मिलाद उन नबी के दिन ही निकाल रहे थे। लेकिन इसका कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता था।
लेकिन इस बार इसके जवाब में 28 फरवरी को कुछ लोगों ने एक मस्जिद के भीतर गन्दे कपड़े फेंक दिये। इसके बाद पुलिस ने कुछ लोगों को गिरफ़्तार किया। हिन्दू जागरण मंच, जो कि संघ का ही एक मुखौटा है, ने इसके ख़िलाफ़ पुलिस थाने पर प्रदर्शन किया। इसी बीच बड़ा बाज़ार के व्यापारियों ने (जो हमेशा ही सबसे प्रतिक्रियावादी फासीवाद के समर्थक होते हैं) पुलिस के उस आदेश का विरोध करते हुए रास्ता जाम कर दिया जिसमें पुलिस प्रशासन ने बड़ा बाज़ार से होलिका दहन की राख को हटाने के लिए कहा था ताकि बारावफात का जुलूस वहाँ से गुज़र पाए। व्यापारियों ने माँग की कि तीन दिनों तक राख वहीं रहनी चाहिए। पुलिस प्रशासन ने यह बात मान ली और राख के इर्द–गिर्द एक स्लैब की दीवार खड़ी कर दी। इसके बाद जुलूस वाले दिन विभिन्न अंजुमनों को जगह–जगह संघ के कार्यकर्ताओं ने रोकने की कोशिश की। और अन्त में, चहबाई की घटना घटित हुई।
साफ़ है कि यह दंगे कोई स्वत:स्फूर्त रूप से दो समुदायों के बीच नहीं हुए। इन्हें योजनाबद्ध ढंग से संघी फासीवादियों ने अंजाम दिया। अफवाहों और झूठों के जरिये नफ़रत फैलायी गयी और दोनों समुदायों को आपस में लड़ा दिया गया। पुलिस के एक आला अधिकारी ने बताया कि बरेली पारम्परिक तौर पर साम्प्रदायिक तनाव से मुक्त शहर है। लेकिन पिछले तीन–चार सालों के दौरान साम्प्रदायिक तनाव की घटनाएँ सुनने में आने लगी हैं। बरेली में सबसे अधिक बिकने वाले हिन्दी दैनिक अमर उजाला के एक भूतपूर्व सम्पादक ने बताया कि रोहिलखण्ड के पूरे क्षेत्र से ही हाल में साम्प्रदायिक तनाव की ख़बरें आने लगी हैं। वरुण गाँधी ने पिछले साल पड़ोस के पीलीभीत जिले में एक भड़काऊ भाषण दिया था। आरएसएस ने पूरे रोहिलखण्ड इलाके में जगह–जगह सरस्वती शिशु मन्दिर खोलने शुरू कर दिये हैं।
इसी से समझा जा सकता है कि भाजपा रोहिलखण्ड के अलग राज्य की माँग को इतनी गम्भीरता से क्यों उठा रही है। इस पूरे इलाके में कुर्मियों और लोधों की अच्छी–खासी आबादी है। ये भाजपा का पारम्परिक आधार हैं। पिछले कुछ समय में भाजपा का आधार इनमें खिसका है। लेकिन भाजपा इस आधार को फिर से हासिल करने की लम्बी तैयारी कर रही है। फिलहाल, उत्तर प्रदेश के जिन कुछ क्षेत्रों में भाजपा की ताक़त रह गयी है, उनमें से रोहिलखण्ड एक है। और भाजपा यहाँ से उखड़ने से बचने के लिए इस पूरे क्षेत्र को साम्प्रदायिक तनाव और दंगों में धकेलने से भी बाज़ नहीं आने वाली। बरेली उन शहरों में से एक है जहाँ मुसलमान आबादी घेटो में नहीं रहती, बल्कि उनकी पूरी रिहायश हिन्दुओं के साथ मिली–जुली है। इसका कारण यह है कि दोनों समुदायों के बीच परस्पर आर्थिक निर्भरता के रिश्ते हैं, जो अपने आप में सौहार्द्र बरकरार रखने का एक बड़ा कारण है। लेकिन गुजरात के कई शहरों में भी आर्थिक परस्पर निर्भरता के असर को तोड़ने में संघी कामयाब रहे थे। इसलिए इस साम्प्रदायिक सौहार्द्र को कोई दिव्य प्रदत्त वस्तु नहीं माना जा सकता।
साम्प्रदायिक तनाव को रोकने के लिए, भगतसिंह के शब्दों में, वर्ग चेतना को बढ़ाने की आवश्यकता होती है। यह बात न सिर्फ़ बरेली के लिए सच है, बल्कि हर जगह के लिए सच है। साम्प्रदायिक फासीवाद को रोकने का एक ही रास्ता है – मेहनतकश की वर्ग एकता। किसी भी किस्म का मानवतावादी नेहरूआई धर्मनिरपेक्षतावाद न कभी साम्प्रदायिक फासीवाद को रोक पाया है और न ही रोक पाएगा। मज़दूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीति ही साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति का एकमात्र जवाब है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010
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गहन , सटीक और तार्किक विश्लेषण। चूंकि मेरी पैदाइश और जवानी का कुछ हिस्सा बरेली में गुजरा है इसलिए मैं जानता हूं कि इस लेख में कहा गया एक एक अल्फाज पूरी तरह सच है। शिशिर जी बधाई के पात्र हैं।