शिक्षा में आरक्षण जनता को बाँटने की साजिश है! एकसमान व निःशुल्क स्कूल व्यवस्था का नारा आज की ज़रूरत है!
योगेश
केन्द्र सरकार कई क्षेत्रों में आँकड़ों के ज़रिये अपने को विकासमान दिखाने की कोशिश में लगी रहती है। पर पिछले दिनों शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने माना कि अच्छी गुणवत्ता वाली शिक्षा का अभाव देश के ‘विकास’ में अहम चुनौती है। जनता के साथ फरेब करने वाली पूँजीवादी व्यवस्था के नुमाइन्दों को भी नंगी हो चुकी सच्चाइयों को मानना ही पड़ता है। मानव संसाधन मन्त्री कपिल सिब्बल ने कहा कि आज भी देश के 81 लाख 50 हज़ार से अधिक बच्चे स्कूली शिक्षा के दायरे से बाहर है। वहीं ग्रामीण विकास मन्त्री जयराम रमेश ने भी माना था कि आज भी देश के डेढ़ लाख सरकारी स्कूलों में शौचालय जैसी बुनियादी सुविधा नहीं है। अलग-अलग रिपोर्टों से पहले भी साबित होता रहा है कि देश के अधिकांशतः सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाओं का बेहद अभाव है और सामान्य-सी बात है कि ऐसे हालात में इन स्कूलों की पढ़ाई का स्तर भी बेहतर नहीं हो सकता है। ऐसे में, केन्द्र सरकार जो नीतियाँ बना रही है और ‘शिक्षा के अधिकार कानून’ को जिस तरह बुर्जुआ मीडिया द्वारा एक महत्वपूर्ण पहल बताया जा रहा है, यह ज़रूरी है कि इन नौटंकियों की असलियत को समझा जाये। इस कानून के तहत जिन नियमों को रखा गया है आइये देखें कि इस “अधिकार” से आखिर कैसी शिक्षा देने की तैयारी की जा रही है और क्या वास्तव में सभी बच्चों को स्तरीय शिक्षा मिल पायेगी।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ‘शिक्षा का अधिकार कानून-2009’ को संवैधानिक तौर पर वैध ठहराते हुए कहा कि इस कानून में देश भर के सहायता प्राप्त और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में गरीबों को 25 फीसदी निशुल्क सीटें समान रूप से मिलने की व्यवस्था है। कोर्ट ने कहा कि ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ तत्काल प्रभाव से देश भर में लागू किया जाये। स्वयं मानव संसाधन विकास मन्त्री कपिल सिब्बल ने ख़ुशी जताते हुए कहा कि इस फैसले ने स्पष्टता लाते हुए सभी विवादों को समाप्त कर दिया है; शिक्षा जैसे बुनियादी सवाल पर सरकार का ‘‘नजरिया” सही साबित हुआ! सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से ऊपरी तौर पर लगता है कि उसे ग़रीबों के बच्चों की कितनी चिन्ता है। इस ‘चिन्ता’ की असलियत को हम आगे देखेंगे; पहले ज़रा देखें हमारे मीडिया और शिक्षाविदों ने इस फैसले पर क्या नज़रिया रखा। हर्षातिरेक में बुर्जुआ मीडिया के कर्ता-धर्ताओं ने इसे ‘जनहित की जीत’ के रूप में प्रचारित किया। देश के बड़े बुद्धिजीवियों ने कोर्ट के इस फैसले को ऐतिहासिक फैसला बताते हुए कुछ संशय भी रखे जैसे क्या वाकई इस कानून को निजी स्कूल सही तरीके से लागू करेंगे या दाखिला मिल भी जाये तो ग़रीबों के बच्चे महँगे स्कूलों के माहौल में सहज घुल-मिल पाएँगे? हम मानते है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा शिक्षा के अधिकार कानून को वैध ठहराने के बाद भी ग़रीबों के कुछ बच्चों को निजी स्कूलों में वाकई दाखिला मिल पायेगा या नहीं या ग़रीब बच्चे निजी स्कूल में सहज रहेंगे या नहीं, इन सवालों पर ज़्यादा माथापच्ची करना बेवकूफी है। जब तक पूरे देश में एक समान स्कूल व्यवस्था (यूनीफॉर्म स्कूल सिस्टम) लागू नहीं किया जाता, तब तक शिक्षा के अधिकार जैसे किसी भी अधिनियम का कोई अर्थ नहीं है। वर्तमान ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो बस साक्षर मज़दूर ही तैयार करेगा; यही ”विकासमान” भारतीय पूँजीवाद की ज़रूरत भी है। सुप्रीम कोर्ट और कपिल सिब्बल का नज़रिया भी यही है कि देश के शासन में बैठे परजीवी जमातों के बच्चे तो अच्छी शिक्षा पाकर अफसर बन राज करें और बहुसंख्यक मेहनतकश लोगों के बच्चे थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना सीख आधुनिक गुलाम बनने के लिए तैयार हो जायेँ।
असल में सरकार को अगर शिक्षा व्यवस्था में सुधार करना होता और राष्ट्र के कानून निर्माताओं को संविधान (हालाँकि संविधान ऐसी कई लफ्फाजियों से भरा पड़ा है) की तनिक भी परवाह होती तो संविधान में सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की बात को साकार किया जाता। सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा की परिकल्पना समान स्कूली प्रणाली की अवधारणा से जुड़ी है। कोठारी आयोग ने भी शिक्षा के लिए समान स्कूल प्रणाली की सिफारिश की थी। प्राथमिक शिक्षा विचार निर्माण की बुनियाद एवं मानव व्यक्तित्व निर्माण की पूर्व शर्त है। किसी भी देश के निर्माण एवं सभी नागरिकों के जीवन को खुशहाल बनाने में बच्चों को समान एवं निशुल्क शिक्षा नींव का काम करती है। अगर कोई राष्ट्र वाकई अपने सभी बच्चों को समान मानता है तो उसे उनको शुरुआत में एकसमान और सार्वभौमिक शिक्षा का समान अवसर भी देना चाहिए, लेकिन भारत में आज़ादी के वर्षों बाद भी शिक्षा में ग़ैर-बराबरी सिर्फ बनी ही नहीं हुई है वरन् दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।
दरअसल एक ऐसे समाज में जहाँ पूरा ढाँचा ही अधिकांश मेहनतकश जनता के अधिकतम शोषण और उत्पीड़न के बूते मुट्ठी-भर अमीरज़ादों की रंगरलियों का रंगमंच बना हो; जहाँ शासक-शोषक वर्ग लोगों की मेहनत की लूट पर जीता रहा हो; वहाँ सचेतन तरीके से एक भारी आबादी को शिक्षा से महरूम रखना शासक वर्ग की ज़रूरत है। आज की जर्जर, गै़रबराबर शिक्षा के पीछे कोई अज्ञात शक्ति नहीं वरन् इसी शोषक और असमानतापूर्ण नीति की सुस्पष्ट कार्यवाही जिम्मेदार है। यह व्यवस्था भी जानती है कि शिक्षित आबादी अपने मानवीय अस्तित्व व अधिकार के प्रति सचेत होकर उसके लिए ख़तरा बन सकती है, अतः उसे उसके बचपन से ही ज्ञान-विज्ञान एवं तर्कणा से दूर रखकर केवल मुनाफा पैदा करने की मशीन बनाये रखो! सच तो यह है कि 25 फीसदी आरक्षण का शिगूफा अन्य कानूनी गुब्बारों की तरह ही फुस्स हो जायेगा और अगर यह एक बार को लागू भी हो गया तो शेष 75 फीसदी ग़रीब बच्चों ने क्या गुनाह किया है जिनको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित रखा जाये? अगर कोई देश अपने सभी बच्चों को समान मानता है तो उसे पूरे देश के बच्चों और नागरिकों के समक्ष एकसमान शिक्षा के एकसमान अवसर उपलब्ध कराने चाहिए न कि आरक्षण के झुनझुने से भ्रम पैदा करना चाहिए। दरअसल, ग़रीबों और अमीरों में बँटे समाज में निजी स्कूलों में ग़रीबों के बच्चों के लिए आरक्षण द्वारा ‘समावेशी शिक्षा’ नहीं वरन् सभी बच्चों को समान शिक्षा ही सच्चे मायने में शिक्षा का विकल्प होगी और देश के हर नागरिक और बच्चों को इससे कम कुछ भी देना शिक्षा के नाम पर धोखा होगा।
वास्तव में, निजी स्कूलों में कुछ ग़रीब बच्चों को आरक्षण देकर पढ़वाने की योजना लागू हो भी जाये तो यह ख़तरनाक योजना है। यह उन ग़रीब बच्चों को अमीरज़ादों के छोकरों का पिछलग्गू बनायेगी, उन्हें दास मानसिकता का शिकार बनायेगी और उन्हें भीतर-ही-भीतर बुरी तरह से कुण्ठित बना देगी। ऐसे बच्चे अपनी ग़रीबी को अपनी नियति मानेंगे और इसे नैसर्गिक मान बैठेंगे। वे बच्चे इस मानसिकता के साथ इस मुनाफाखोर पूँजीवादी व्यवस्था के खिलाफ कभी लड़ नहीं सकते। वे इसकी गुलामी करने के लिए व्यवस्थित तरीके से प्रशिक्षित किये जायेंगे।
इसलिए बुनियादी सवाल यह है कि देश के बच्चों को वर्ग और पैसे के आधार पर अलग शिक्षा दी ही क्यों जाये? बच्चों को एकसमान पाठ्यक्रम के आधार पर एकसमान मानकों और सुविधाओं से लैस बराबर के स्कूलों में शिक्षा क्यों न दी जाये? अगर पूँजीवादी प्रतिस्पर्द्धा के सिद्धान्त से भी चला जाये तो प्रतिस्पर्द्धा के असमान अवसर बचपन से ही बच्चों के सामने क्यों उपस्थित किये जायें? अगर ग़रीबों के बच्चे म्यूनिसपैलिटी के जर्जर, शिक्षकविहीन, कक्षाविहीन, शौचालयविहीन, ब्लैकबोर्ड-विहीन विद्यालयों में ”पढ़ेंगे” (चाहे शिक्षा के अधिकार के कानून के तहत ही सही!) तो क्या वे पब्लिक स्कूलों और कान्वेण्ट स्कूलों में पढ़ने वाले अमीरज़ादों के बच्चों से मुकाबला कर सकेंगे? क्या वे उच्च शिक्षा की मंजिल पर (यदि वे कभी वहाँ पहुँच सके!) उच्च वर्ग और उच्च मध्यवर्ग के बच्चों के साथ प्रतिस्पर्द्धा कर पाएँगे? कभी नहीं! साफ है कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था समाज में मौजूदा वर्ग पदानुक्रम को असमान स्कूल प्रणाली के ज़रिये बचपन से ही बच्चों की पूरी मानसिकता में पैठा देती है। बच्चे ग़रीबी, बदहाली, बेघरी, भुखमरी और कुपोषण को अपनी नियति मानने लगते हैं। यह बात अलग है कि आगे चलकर शासक वर्गों द्वारा पैदा किया गया यह वर्चस्व पूँजीवादी समाज और अर्थव्यवस्था के संकट के कारण टूटता भी है। लेकिन फिर भी स्कूल शिक्षा के दौरान ही मस्तिष्कों में बिठाये गये मूल्य आगे चलकर विशालकाय मेहनतकश वर्ग के बच्चों को दासवृत्ति का शिकार बनाते हैं और उनके अन्दर एक ऐसा वर्ग-बोध पैदा करते हैं, जिससे कि समाज में मौजूद अन्याय और असमानता को वे स्वीकार कर बैठें।
ऐसे में, सभी परिवर्तकामी नौजवानों को अपने संगठनों के ज़रिये यह माँग उठानी चाहिए कि भारत के सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी वर्ग, क्षेत्र, जाति या धर्म के हों, एकसमान स्कूल प्रणाली मिलनी चाहिए। यही आज के दौर में एक सही इंक़लाबी माँग हो सकती है। अन्य सभी माँगें, मिसाल के तौर पर, निजी स्कूलों में आरक्षण आदि की माँग से फौरी तौर पर भी कोई लाभ नहीं मिलता। उल्टे नुकसान ही होता है। इसलिए शासक वर्ग के इस ख़तरनाक ट्रैप में फँसने की बजाये हमें एकसमान स्कूल व्यवस्था की माँग करनी चाहिए। उच्च शिक्षा को बहुसंख्यक आबादी से दूर करते हुए तमाम सरकारें यही कारण बताती हैं कि वे इससे बचने वाले धन को प्राथमिक शिक्षा में निवेश करेंगी। यदि वाकई ऐसा है तो सरकार से यह माँग की जानी चाहिए कि वह सभी बच्चों को निशुल्क, स्तरीय और एकसमान स्कूल शिक्षा दे और सभी क्षेत्रों के बच्चों को उनकी भाषा में पढ़ने का अधिकार मुहैया कराये।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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