असम के दंगे और उसकी देशव्यापी प्रतिक्रिया
और कितने बेगुनाहों की बलि के बाद समझेंगे हम? आपस में लड़ना छोड़, अपने असली दुश्मन को पहचानना ही होगा!!
प्रशान्त
असम के चार जिलों, कोकराझार, ढुबरी, बोगाईगाँव और चिरंग, में बोडो और मुस्लिम समुदायों के बीच भड़की जातीय-साम्प्रदायिक हिंसा निस्सन्देह रूप से भारतीय समाज की सबसे बड़ी और दुखद मानवीय त्रासदियों में से एक है। इन दंगों के कारण पैदा हुई मानवीय त्रासदी की गम्भीरता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दंगों में जारी हिंसा के कारण अब तक 90 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं, हज़ारों घरों को जलाया जा चुका है और 4.5 लाख से अधिक आबादी अपना घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर है, लेकिन हिंसा शुरू होने के 1.5 महीनों के बाद भी हिंसा को रोका नहीं जा सका था। यहाँ तक की फौज को लगाए जाने के बाद भी हिंसा का क्रम लगातार जारी रहा। वहीं दूसरी ओर राहत शिविरों के हालात भी दिन-पर-दिन बदतर होते चले गये। राहत शिविरों की हालत यह है कि कई जगहों पर इनमें रह रहे लोगों की संख्या इनकी क्षमता से 5 गुने से भी अधिक है। पीने योग्य पानी और साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था के अभाव और ऊपर से स्वास्थ्य सुविधाओं और डॉक्टरों की पर्याप्त उपलब्धता न होने के कारण राहत शिविरों में बड़े पैमाने पर बीमारियों के फैलने की आशंका बनी हुई है। लेकिन दंगों के जारी रहने के कारण और तत्जनित मनोवैज्ञानिक भय के कारण इनका राहत शिविरों को छोड़कर अपने घरों को वापस जाना भी सम्भव नहीं हो पा रहा है।
ऐसे में यह एक दुखद सच्चाई है कि इन दंगों के फलस्वरूप पैदा हुई जातीय-साम्प्रदायिक कटुता और आहत मानवीय संवेदनाओं के घावों को भरना आसान नहीं होगा। लेकिन असम के दंगों से भी अधिक त्रासदपूर्ण, इन दंगों के फलस्वरूप हुई देशव्यापी प्रतिक्रिया है। दंगों के पीछे के मूल कारणों का पता लगाने और दोषियों को सज़ा देने के लिए दबाव बनाने की बजाये; दंगों के कारण पैदा हुई असम की संकटपूर्ण स्थिति को सामान्य बनाने और दंगा पीड़ितों को आर्थिक, मानवीय व मनोवैज्ञानिक सहायता देने के लिए देश की आम जनता का आह्वान करने की बजाये अवैध बंग्लादेशी मुस्लिमों का हौव्वा खड़ा कर देश के आम जनमानस में साम्प्रदायिक ज़हर घोलने की मुहिम शुरू कर दी गयी। मासूमों और बेगुनाहों की लाशों पर खड़े होकर अपनी साम्प्रदायिकतावादी राजनीति का घिनौना खेल खेलने वालों का देश के ”निष्पक्ष और धर्म-निरपेक्ष” मुख्य धारा के इलेक्ट्रॉनिक और प्रिण्ट मीडिया ने भी भरपूर साथ दिया। मीडिया ने एक ओर तो जहाँ असम की वास्तविक ज़मीनी हक़ीक़त और मूल समस्याओं के बारे में कुछ नहीं बताया; न ही वर्तमान हिंसा के शिकार दंगा पीड़ितों के राहत शिविरों (ख़ासकर मुस्लिम राहत शिविरों) की ही कोई व्यापक कवरेज़ की और दंगा पीड़ितों की सहायता के लिए ही कोई गुहार लगायी। वहीं दूसरी ओर, हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा बंग्लादेशी मुस्लिम ”घुसपैठियों” के विरुद्ध चलाई जा रही देशव्यापी मुहिम और इसी बहाने पृष्ठभूमि में सतत रूप से मौजूद मुस्लिमों के खिलाफ आम दुष्प्रचार की मुहिम में मीडिया ने पूरा साथ दिया। साफ है कि देश के मुट्ठीभर थैलीशाहों के दम पर खड़े और उनकी सेवा करने वाले मीडिया से और कोई उम्मीद करना अपने आप में एक भ्रम में जीना है।
साथ ही, इसी बीच देश में घटी कुछ अन्य घटनाओं, जो ज़ाहिरा तौर पर असम के दंगों से जुड़ी हुई थीं, ने भी अन्धराष्ट्रवादी और साम्प्रदायिकतावादी राजनीति को ही मदद पहुँचायी, जैसे मुम्बई के आज़ाद मैदान की घटना और देश के कई शहरों से उत्तर-पूर्व के प्रवासियों का पलायन। बहरहाल, कुल मिलाकर हुआ यह कि इन सब घटनाओं के परिणामस्वरूप हिन्दुत्ववादी ताकतें और देश का शासक वर्ग देश के आम जनमानस में इस बात को अच्छी तरह स्थापित करने में सफल हो गया कि बंग्लादेशी मुस्लिमों की असम में ”घुसपैठ” और उनके द्वारा वहाँ के ”मूल” निवासियों की ज़मीन और संसाधनों पर कब्ज़ा ही असम के वर्तमान दंगों के पीछे मुख्य कारण है, जिसमें वहाँ पहले से रहने वाले भारतीय मुस्लिमों की भी भागीदारी है। और यह केवल असम की सुरक्षा और शान्ति का सवाल नहीं है, बल्कि राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए भी एक बहुत बड़ा ख़तरा है। इसका समाधान यही है कि देश में घुसे हुए बंग्लादेशी ”घुसपैठियों” और उनकी सहायता करने वालों को भी अच्छा सबक सिखाया जाये। इसलिए हिन्दुत्ववादी ताक़तों को इन ”बंग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठियों” के खिलाफ अपनी देशव्यापी मुहिम जारी रखने के लिए सामाजिक और कानूनी रूप से पूर्ण स्वीकृति है!
लेकिन यह साफ है कि आम तौर पर ये बंग्लादेशी ”घुसपैठिये” होते कौन हैं : देश की आम ग़रीब मुस्लिम आबादी और प्रवासी मज़दूर आबादी (विशेषकर उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से)। हिन्दुत्ववादी ताकतों द्वारा किए जाने वाले सामाजिक ”न्याय” की मार हमेशा इन्हीं पर पड़ती है। जैसा कि कर्णाटक में मण्डया स्टेशन पर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्यों द्वारा हाल ही में 98 मज़दूरों के साथ बंग्लादेशी अवैध आप्रवासी होने के शक में की गयी पिटाई से साफ हो जाता है।
इसके साथ ही वर्तमान घटनाक्रमों के बहाने उत्तर-पूर्व के निवासियों के साथ सहानुभूति दिखाने के लिए गिल्ल हो रही हिन्दुत्ववादी-राष्ट्रवादी ताकतों और मीडिया के घाघ अवसरवाद को इसी बात से समझा जा सकता है कि ये उत्तर-पूर्व के निवासियों के आत्मनिर्णय के अधिकार के लिए आवाज़ उठाने के लिए तो कभी सामने नहीं आते, भारतीय सेना द्वारा वहाँ की आम आबादी पर ढाए गये जुल्मों के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहते और यहाँ तक देश की अखण्डता और प्रभुसत्ता की रक्षा के नाम पर भारतीय सेना की मौजूदगी और कुकर्मों को ज़ायज ठहराते हैं। ऐसे में इनकी झूठी सहानुभूति के पीछे की असलियत को समझा जा सकता है।
बंगलादेश से भारी संख्या में अवैध प्रवासः सच्चाई या मिथक!!
बंगलादेश से असम में लगातार बड़े पैमाने पर अवैध आप्रवासन को सत्यापित करने के लिए मुख्य रूप से जनगणना के आँकड़ों को आधार बनाया जाता है। निम्न आँकडे़ देखिए (तालिका-1 और तालिका-2):
इन आँकड़ों द्वारा हमें यह बताया जाता है कि यदि हम असम में होने वाली दशाब्दीय जनसंख्या वृद्धि की पूरे भारत की दशाब्दीय जनसंख्या वृद्धि से तुलना करें (तालिका-1) और खासकर 1971-91 के दौरान असम में मुस्लिम आबादी की जनसंख्या वृद्धि को हिन्दुओं की तथा शेष भारत में मुस्लिमों की जनसंख्या वृद्धि से तुलना करें (तालिका-2) तो यह पूरी तरह से साफ हो जाता है कि असम में मुस्लिमों की जनसंख्या में होने वाली भारी वृद्धि के पीछे मुख्य कारण बंग्लादेश से मुस्लिमों का अवैध आप्रवास है। इन तथ्यों को अगर ढुबरी की दशाब्दीय जनसंख्या वृद्धि के साथ रखकर देखा जाये, जो कि बंग्लादेश की सीमा से लगा हुआ है और असम के 27 जिलों में से सबसे अधिक मुस्लिम आबादी वाला जिला है (74.3%) और वर्तमान दंगों से प्रभावित जिलों में से एक भी, तो तस्वीर बिल्कुल साफ हो जाती है – बंग्लादेश से बड़े पैमाने पर मुस्लिमों का अवैध आप्रवास हुआ है और अभी भी जारी है, जिससे असम के कई जिलों का जनसांख्यिकी सन्तुलन बिगड़ गया है और यही वर्तमान हिंसा के पीछे मुख्य कारण है! इस प्रकार ऐसा लगता है कि इन “अवैध” बंग्लादेशी मुस्लिम आप्रवासियों और इनको पनाह देने वाले देशी मुस्लिमों के खि़लाफ हिन्दुत्ववादी ताकतों की मुहिम पूरी तरह जायेज़ और देश के हित में है!!
लेकिन रुकिए जनाब! ज़रा जनगणना के ही निम्न आँकड़ों पर भी नज़र डाल लीजिएः
तालिका-3 पर नज़र डालने से साफ हो जाता है कि 1951-91 के दौरान केवल बांगलादेश की सीमा से लगे ढुबरी जिले में ही नहीं बल्कि धेमाजी और काबरी ऐंगलौंग जिलों में भी जनसंख्या वृद्धि दर बहुत ज़्यादा थी, जहाँ हिन्दु आबादी क्रमशः 95-94% और 82-39% और मुस्लिम आबादी की जनसंख्या क्रमशः 1.84% और 2.22% है। इससे साफ है कि इस दौरान केवल मुस्लिम आबादी वाले या बंगलादेश की सीमा से लगे क्षेत्रों में ही जनसंख्या में तेजी से वृद्धि नहीं हुई थी, बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी हुई थी, जो 1991 से बाद अचानक बहुत कम हो गयी। इससे यह बात भी साफ हो जाती है कि जनसंख्या में तेज़ वृद्धि के पीछे आप्रवास के अलावा अन्य कारण भी हो सकती हैं, जैसे सांस्कृतिक-सामाजिक। साथ ही तालिका-4 पर नज़र डालने से यह बात भी साफ हो जाती है कि ढुबरी, जो कि असम में सबसे अधिक प्रतिशत मुस्लिम आबादी वाला जिला है, में बंग्ला भाषा बोलने वालों (24.15%) से आसामी भाषा बोलने वालों की संख्या (70.07%) कहीं ज़्यादा है। यही नहीं ढुबरी में शिक्षा का मुख्य माध्यम भी आसामी भाषा है और अधिकांश स्कूल आसामी माध्यम के ही हैं। इससे यह बात भी साफ हो जाती है कि ढुबरी में रहने वाली मुस्लिम आबादी का बहुलांश बंग्लादेश से पिछले कुछ वर्षों या दशकों में आप्रवास करके आयी बंगाली भाषी मुस्लिम आबादी नहीं है, बल्कि लम्बे समय से असम में रह रही और आसामी भाषा व संस्कृति को अपना चुकी पूरी तरह से वैध भारतीय मुस्लिम आबादी है। साफ है कि ढुबरी और इसी प्रकार पूरे असम में मुस्लिमों की जनसंख्या में भारी वृद्धि के लिए मुख्य रूप से बंग्लादेश से जारी ”बड़े पैमाने के अवैध आप्रवास” को जिम्मेदार ठहराना एक साजिश है और गढ़ा गया मिथक है, जो साम्प्रदायिकतावादी ताकतों द्वारा लगातार दुष्प्रचार के कारण एक ”कॉमन सेंस” बन चुका है।
यहाँ अवैध बंग्लादेशी मुस्लिमों का हौव्वा खड़ा करने वाले इस बात का तर्क दे सकते हैं कि मुस्लिमों की अच्छी-ख़ासी तादाद ढुबरी से होते हुए कोकराझार व असम के अन्य क्षेत्रों में प्रवास कर गयी है। लेकिन खुद कोकराझार, जहाँ से वर्तमान दंगों की शुरूआत हुई थी, के जनगणना आँकड़े इस प्रकार के दावों को खोखला और मनगढ़न्त साबित कर देते हैं। 1991-2001 और 2001-11 के दौरान कोकराझार की दशाब्दीय जनसंख्या वृद्धि क्रमशः 14.49% और 5.19% थी। 2001 की जनगणना के अनुसार कोकराझार में 65.60% हिन्दु, 20.36% मुस्लिम और 13.72% ईसाई थे। इसी जनगणना में नृजातीय समूहों के भाषागत बँटवारे पर नज़र डालें तो पता चलता है कि कोकराझार में बोडो 32.37%, बंगाली 21.06%, असमी 20.28% और सन्थाली 16.70% थे। इस प्रकार 2001 के जनगणना के आँकड़ों में अवैध अप्रवासियों द्वारा, और विशेषकर अवैध ‘बंगाली मुस्लिमों’ द्वारा, ”मूल” निवासियों को हाशिए पर धकेल दिए जाने से सम्बन्धित कोई भयोत्पादक संकेतक नहीं दिखाई देते हैं। और 2001-11 के बीच कोकराझार की जनसंख्या वृद्धि मात्र 5.19% होने के कारण कोकराझार की जनसांख्यिकीय प्रोफाइल में भारी बदलाव आने की भी कोई आशंका नहीं है। हाँलाकि 2011 के जनगणना आँकड़ों का विस्तृत संस्करण सामने आने के बाद ही तस्वीर पूरी तरह से स्पष्ट हो सकेगी।
इस प्रकार, यह सही है कि असम में बंग्लादेश से आप्रवास हुआ है, विशेषकर 1971 के दौरान पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंग्लादेश) में चल रहे उथलपुथल के दौरान, और आर्थिक आप्रवास अभी भी हो रहा है। लेकिन यह आप्रवास उतने बड़े पैमाने का कतई नहीं है, जिसका हौव्वा पैदा किया जाता रहा है और देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरे के रूप में प्रोजेक्ट किया जाता है। मुख्य सवाल इसका है कि बंग्लादेश से आने वाली इस आबादी किन कारणों से असम में आयी और इसे किस नज़रिए से देखा जाता है? जैसे नेपाल से हर साल बहुत बड़ी संख्या में देश में आप्रवास होता है, लेकिन उन्हें तो कभी निशाना नहीं बनाया जाता। या फिर खुद बंग्लादेश से आने वाले हिन्दुओं को आप्रवासी की दृष्टि से देखा जाता है, न कि देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरे के रूप में। उत्तर-पूर्व का लगभग अधिकतर व्यवसाय राजस्थान से आए मारवाड़ियों के कब्जे में है, लेकिन उनके खिलाफ कभी कोई मुहिम नहीं चलाई जाती। जबकि मुस्लिमों के आप्रवास को ”घुसपैठ” बताया जाता है।
साफ है, असम में रहने वाली मुस्लिम आबादी के बड़े हिस्से को अवैध बंग्लादेशी बताना हिन्दुत्ववादी-अंधराष्ट्रवादी ताकतों द्वारा मुस्लिमों के खि़लाफ चलाए जाने वाले दुष्प्रचार का ही हिस्सा है। असलियत यह है कि असम में रहने वाली मुस्लिम आबादी का बहुलांश मुख्य रूप से 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20वीं शताब्दी के शुरुआती दशकों में असम में आकर बसी मुस्लिम आबादी का वंशज है। देश के विभाजन के समय इस मुस्लिम आबादी ने असम में ही रहने का निर्णय किया और समय के साथ असमी संस्कृति में अश्मीभूत हो गयी। इसलिए असम की मुस्लिम आबादी का बड़ा हिस्सा वैध भारतीय नागरिक है, न कि अवैध बंग्लादेशी आप्रवासी। इसके साथ ही यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि 19वीं और 20वीं शताब्दी में भी पूर्वी बंगाल के क्षेत्र से मुस्लिम आबादी का असम में आप्रवास मुस्लिमों द्वारा रची गयी किसी साजिश या उनकी ”स्वाभाविक” आक्रामकता के कारण नहीं बल्कि अंग्रेजों द्वारा बनायी गयी सोची-समझी नीतियों का परिणाम था। इसी नीति के तहत असम के प्राचीन मूल निवासियों और बंगाली आप्रवासियों को अलग-अलग रखने और आपस में मिलने व एकरूप होने से रोकने के लिए भी समुचित प्रावधान किए गये थे, जिसे ‘लाईन सिस्टम’ के नाम से जाना जाता है। यह एक सुज्ञात ऐतिहासिक तथ्य है।
यहाँ इस बात का उल्लेख करना भी उपयुक्त रहेगा कि कई बार आन्तरिक विस्थापन भी शहरों में रह रही मध्यवर्गीय आबादी को बंग्लादेश से होने वाला अवैध आप्रवास लगता है। जैसे असम की दलदली भूमि और ब्रहमपुत्र व उसकी सहायक नदियों की रेतीली पट्टी, जिन्हें चार्स या चापोरिस के नाम से जाना जाता है, में पिछले कई दशकों से रहने वाली आबादी मुख्य रूप से मुस्लिम है जो सालाना बाढ़ों और ब्रहमपुत्र के द्वारा होने वाले सतत क्षरण के कारण शहरों की ओर बड़ी संख्या में पलायन करती है। साथ ही साथ ग़रीबी व बदहाली के कारण अपनी रोज़ी-रोटी कमाने के लिए भी गाँवों से मुस्लिमों का एक बड़ा हिस्सा, शहरों की ओर पलायन करता है। यहाँ यह आबादी निर्माण मज़दूर, मिट्टी ढोने, सब्ज़ी विक्रेता, रिक्शा चालक या ऐसे ही अन्य काम करती है। आन्तरिक रूप से विस्थापित इस आबादी का अधिकांश हिस्सा शहरों की ‘घेट्टो’ जैसी बस्तियों या फिर सामुदायिक ज़मीनों या जंगलों में रहने को मजबूर होता है। शहरों में रहने वाले धनाढ्ड्य आबादी के दिमाग में, इस तंगहाल आबादी के प्रति कोई सहानुभूति की भावना तो नहीं जागती और न ही वे इस प्रवास के मूल कारणों को जानने का ही प्रयास करते हैं, हाँ लेकिन ये ज़रूर होता कि इस आबादी को देखते ही अवैध बंग्लादेशियों का आतंक उन्हें सताने लगता है।
इस प्रकार, हमेशा की तरह इस बार भी बंग्लादेशी मुस्लिम ”घुसपैठियों” के बहाने चलायी जा रही इस साम्प्रदायिकतावादी मुहिम और अंध-राष्ट्रवादी राजनीति के वर्गीय आधारों व पक्षधरता को आसानी से समझा जा सकता है। और यहीं “अवैध बंग्लादेशी” के हौव्वे को खड़ा करने के पीछे का मुख्य कारण है। आइए अब इसी को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन उससे पहले एक बार दंगों के शुरू होने से पहले के घटनाक्रम पर नज़र डाल ठीक रहेगा।
दंगों के शुरू होने से पहले का घटनाक्रम
वर्तमान दंगों के शुरू होने से ठीक पहले होने वाली घटनाओं की ओर नज़र डालने पर यह बात एक बार फिर पूरी तरह से स्पष्ट हो जाती है किस प्रकार जनता की साम्प्रदायिक भावनाओं को उकसा कर उन्हें आपस में लड़वाया जाता है। असम के दंगा-प्रभावित इलाकों में, ख़ासकर कोकराझार में, इस साल जून के महीने से ही मुस्लिम समुदाय पर किए जाने वाले हमलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इसके साथ ही भूतपुर्व लड़ाकुओं द्वारा पिछले कुछ समय से जिले में जारी लूटपाट और फिरौती के लिए अपहरण के कारण भी आम आबादी में प्रशासन के खि़लाफ गुस्सा बढ़ रहा था। मुस्लिम अप्रवासियों की चयनित हत्या से धीरे-धीरे तनाव बढ़ने लगा। पहले 6 जुलाई को अज्ञात बंदूकधारियों द्वारा एक मुस्लिम गाँव में अंधाधुंध फायरिंग की गयी जिसमें दो लोग मारे गये और तीन घायल हो गये। इसके बाद 19 जुलाई को ऑल असम माइनॉरिटीज़ स्टूडेण्ट्स यूनियन के दो भूतपूर्व पदाधिकारियों को गोली मारी गयी। 20 जुलाई, अर्थात रमज़ान के महीने के पहले दिन बी-एल-टी- के चार भूतपूर्व सदस्य दो मोटरसाइकलों पर सवार होकर कोकराझार की सीमा पर बसे जॉयपोरे नामक मुस्लिम गाँव से गलती से उस समय गुज़र रहे थे जब वहाँ मुस्लिम आबादी अपनी शाम की नमाज़ के लिए एकत्र हो रही थी। इस बात से अनजान चारों बोडो मोटरसाइकिल सवारों को लगा कि भीड़ उन पर हमला करने के लिए आगे बढ़ रही है, इन लोगों ने अपनी ऑटोमैटिक बंदूकों से हवा में फायरिंग करनी शुरू कर दी जिससे इन्हें वहाँ से निकलने का मौका मिल जाये। लेकिन पहले से हाल में हुए हमलों से सशंकित मुस्लिम गाँव वालों को लगा कि उन पर हमला होने वाला है और उन्होंने चारों को घेर लिया और उनको पीटना शुरू कर दिया। पुलिस के पहुँचने तक सभी मर चुके थे।
अगले दिन, चारों बोडो युवकों के मृत शरीर को पूरे कोकराझार में घुमाया गया। सभी लोकल सैटेलाइट चैनलों ने इस जुलूस का लगातार पूरा प्रसारण किया। साफ है, बोडो आबादी को मुस्लिमों के खि़लाफ भड़काने के लिए और किस चीज़ की ज़रूरत थी? यह घटनाक्रम 2002 में गुजरात में मुस्लिमों के नरसंहारों से पहले अहमदाबाद में गोधरा काण्ड के शिकार लोगों के मृत शरीरों के निकाले गये जुलूस के ठीक समान था, जिसके बाद वहाँ मुस्लिमों पर हमले शुरू हो गये थे। यहाँ भी ठीक ऐसा ही हुआ। कोकराझार में शीघ्र ही हालात नाज़ुक हो गये। जल्दी ही अफवाहें और हिंसा बहुत बडे़ क्षेत्र में फैल गयीं और लाखों बोडो व मुस्लिमों का अपने घरों से पलायन शुरू हो गया, जो स्कूलों और सार्वजनिक इमारतों में बनाए गये राहत शिविरों में आकर रहने के लिए मजबूर हो गये। वहीं चैन की नींद सो रही राज्य सरकार ने भी सेना को लगाने में बहुत देर कर दी। इसके बाद दंगों को रोकने के बजाये सभी राजनीतिक दल बेगुनाहों की लाशों पर राजनीति के गन्दे खेल में उतर पडे़ और अपने-अपने राजनीतिक हितों के अनुसार दंगों का विवरण देने लगे। और मरते दम तक अपनी यात्राओं से देश को लहुलूहान करते रहने की कसम खा चुके लाल कृष्ण आडवाणी जैसों ने इसे बंग्लादेशी मुस्लिम ”घुसपैठियों” द्वारा ”मूल” निवासियों के किए जा रहे कत्लेआम और पूरी देश की आन्तरिक सुरक्षा के लिए ख़तरे में तब्दील कर दिया गया।
असम में मानवीय त्रासदी का असली जिम्मेदार कौन?
साफ है अगर सेना को समय पर लगा दिया गया होता तो ऐसे हालात बनने से रोका जा सकता था। लेकिन इससे भी बुनियादी सवाल यह है कि आखिर वह कौन से कारण थे जिनकी वजह से हिंसा इतनी तेजी और इतनी तीव्रता के साथ इतने बड़े भूभाग पर फैल गयी।
वास्तव में, अगर 1990 के बाद से कोकराझार और आसपास के क्षेत्रों के इतिहास पर नज़र डाली जाये तो साफ पता चलता है कि यहाँ रहने वाले आदिवासियों को भी 1990 के बाद से ही लगातार इसी प्रकार की जातीय हिंसा का सामना करना पड़ा है। ये आदिवासी 1855 के संथाल विद्रोह के बाद अंग्रेजों द्वारा निर्वासित किए गये संथालों के वंशज हैं। और न तो उन्होंने ”मूल” निवासियों की ज़मीनों पर ही ज़ोर-ज़बर्दस्ती से कब्ज़ा जमाया है और न ही उनकी संख्या ही इतनी तेज़ी से बढ़ी है कि बोडो समुदाय के लिए कोई ख़तरा पैदा कर सके। लेकिन फिर भी उनको बार-बार जातीय हिंसा का शिकार होना पड़ा है। इस कारण लगभग पिछले 20 सालों से 32,613 परिवारों को राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा है। क्या केवल यह तथ्य ही इस बात की ओर ध्यान दिलाने के लिए काफी नहीं है कि वर्तमान हिंसा के मूल कारणों को समझने के लिए ‘अवैध अप्रवासी बनाम मूल निवासी’ के बजाये कहीं और देखना होगा?
वास्तव में, अगर आज़ादी के बाद से असम के, और केवल असम क्या पूरे उत्तर-पूर्व के, इतिहास को समग्रता में देखा जाये तो पता चलता है कि यह पूरा क्षेत्र लगातार दंगों और हिंसा से ग्रस्त रहा है। एक ओर तो भारतीय सेना का दमन और उसकी प्रतिक्रिया के कारण पैदा हुए विभिन्न अलगाववादी सशस्त्र गुटों द्वारा सेना के खिलाफ और कई बार इन गुटों के बीच आपसी कलह के कारण हिंसा का दौर चलता रहा है। वहीं इसी के समान्तर उत्तर-पूर्व में बसी कई नृजातीय-भाषाई अस्मिताओं के बीच आपसी द्वेष-कलह और देश के दूसरे इलाकों या अन्य देशों से हुए आप्रवासन, ख़ासकर बंगाली मुस्लिमों के आप्रवासन, के कारण पैदा हुए मनोवैज्ञानिक भय और तनाव की वजह से हिंसा जारी रही है। इन सब के कारण अब तक न जाने कितने बेगुनाह इस हिंसा की बलि चढ़ चुके हैं और न जाने कितने बेघर हो चुके हैं। कहा जा सकता है देश की आज़ादी और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के भारतीय संघ में शामिल किए जाने के बाद से पूरे उत्तर-पूर्व का इतिहास बेगुनाहों के ख़ून से लिखा गया इतिहास है। और इस कारण इस पूरे क्षेत्र के सामाजिक ताने-बाने में गहरा असन्तोष और अलगाव घुला हुआ है जिससे पूरे क्षेत्र में परिस्थिति बेहद ज्वलनशील और अस्थिर बन गयी है और थोड़े बहुत उकसावे के बाद ही बहुत बड़ी त्रासदी का रूप धारण कर लेती है।
यदि पूरे उत्तर-पूर्व की इस ज्वलनशील परिस्थिति की जड़ों की पड़ताल की जाये तो यह साफ हो जाता है कि इसके पैदा होने के पीछे सबसे बुनियादी कारण दिल्ली से संचालित देश की केन्द्रीय पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व के निवासियों के साथ किया गया ऐतिहासिक विश्वासघात है, जिसकी शुरुआत उत्तर-पूर्व को भारतीय संघ में शामिल करने से होती है।
अगर पूरे उत्तर-पूर्व के इतिहास, संस्कृति और सामाजिक संघटन पर नज़र डाली जाये तो यह साफ हो जाता है कि अंग्रेज़ों के आने से पहले प्राचीन और मध्य भारत के किसी भी साम्राज्य (बौद्ध, हिन्दु और मुस्लिम साम्राज्यों, सभी को मिलाकर) का विस्तार ब्रह्मपुत्र नदी के पूर्व में नहीं हो पाया था और इस वजह से यह क्षेत्र देश की मुख्य भूमि की आर्थिक-सांस्कृतिक-सामाजिक हलचलों से पूरी तरह से अछूता था। यहाँ की स्थानीय राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक-सांस्कृतिक संरचनाएँ व रीतियाँ काफी हद तक दक्षिणपूर्व एशिया और पूर्व एशिया से जुड़ी रही हैं। यहाँ के सभी नृजातीय समूह आर्य और द्रविड़ मूल से पृथक मंगोल मूल के हैं। इसके साथ ही, उत्तर-पूर्व जो देश के कुल क्षेत्रफल का मात्र 9 प्रतिशत है और आबादी के लिहाज़ से देश की कुल आबादी का मात्र 3.6 प्रतिशत है, वहाँ 70 नृजातीय समूह (एथनिक ग्रुप्स) रहते हैं (जो कई उपसमूहों में बँटे हुए हैं) और लगभग 400 भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। इस प्रकार इस समूचे इलाके की संस्कृति में कुछ ऐसी समानताएँ हैं जो उन्हें एक संकुल में प्रवर्गीकृत करने का औचित्य सिद्ध करती हैं तो दूसरी ओर अत्यन्त जटिल विभिन्नताएँ भी मौजूद हैं।
ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने साम्राज्य-विस्तार करते हुए पहली बार ब्रह्मपुत्र नदी पार कर जब इस क्षेत्र को शेष भारत से जोड़ा तो उनकी इस क्षेत्र में केवल भू-राजनीतिक और रणनीतिक दिलचस्पी ही थी। इसके अलावा यहाँ की विपुल प्राकृतिक सम्पदा का भी अंग्रेजों के लिए विशेष महत्व था। इसलिए अंग्रेजों ने कभी भी इस क्षेत्र को भारत में मिलाने से पैदा होने वाली जटिल समस्याओं के समाधान के लिए कभी कोई प्रयास नहीं किया। बल्कि उल्टे यहाँ के निवासियों के शेष भारत के साथ एकरूप होने में बाधा ही खड़ी की जिससे कि इस क्षेत्र को उपनिवेशवाद-विरोधी लहर की चपेट में आने से बचाया जा सके। इसप्रकार देश की आज़ादी तक इस क्षेत्र का शेष भारत से अलगाव बरकरार रहा।
अतः आज़ादी के बाद उत्तर-पूर्व को भारतीय संघ का हिस्सा बनाये जाते समय इस क्षेत्र की ऐतिहासिक सामाजिक-सांस्कृतिक विशेषताओं और विभिन्न नृजातीय-भाषाई समूहों की मौजूदगी से उत्पन्न विविधताओं का ध्यान रखना सबसे अधिक ज़रूरी था। इसके लिए भारतीय संघ में शामिल करने में इन नृजातीय-भाषाई समूहों के आत्मनिर्णय की आकांक्षाओं का पूरा सम्मान और स्वेच्छा व समानता के आधार पर ही इन्हें भारतीय संघ में मिलाया जाना चाहिए था। लेकिन आज़़ादी के बाद देश की पूँजीवादी केन्द्रीय राज्यसत्ता ने इन सब जटिलताओं को दरकिनार कर पूरे एकतरफा तरीके से इस क्षेत्र को भारतीय संघ में मिला लिया, जिसके कारण उत्तर-पूर्व के निवासियों में गहरा असन्तोष पैदा हुआ और शेष भारत से उसका अलगाव दूर होने के बजाये और अधिक बढ़ गया। असन्तोष की इसी जमीन से विभिन्न अलगाववादी सशस्त्र गुटों और आन्दोलनों का जन्म हुआ, जिसे दबाने के लिए भारत की केन्द्रीय राज्यसत्ता ने मुख्य रूप से सैन्य दमन का रास्ता अपनाया। 1958 से ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार अधिनियम)’ के अन्तर्गत समूचे इलाके को सैनिक शासन जैसी स्थिति में तब्दील करना इसी नीति का हिस्सा है। लेकिन इस प्रतिरोध को जितना दबाया गया, वह उतना ही नासूर बनता चला गया।
इन प्रतिरोध संघर्षों को नेतृत्व देने का काम वह निम्न पूँजीपति वर्ग कर रहा था, जो ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी शिक्षा और मिशनरियों के प्रभाव में विकसित हुआ था और स्वातंत्रयोत्तर काल में तेजी से पला-बढ़ा था। समय के साथ भारतीय शासक वर्ग की दृष्टि में यह साफ होता चला गया कि अगर उत्तर-पूर्व में अपने वर्चस्व को बनाए रखना है तो सैन्य दमन के अलावा इस नवोदित निम्न पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को अपने साथ करना भी ज़रूरी है। इसके लिए देश की केन्द्रीय राज्यसत्ता ने नवोदित निम्न पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को दबाव और प्रलोभन के सहारे फोड़कर ”मुख्यधारा की राजनीति” में जोड़ लिया, जो सेना की छत्रछाया में हुए चुनावों में चुने जाने के बाद, केन्द्रीय एजेण्ट के रूप में शासन चलाता रहा। इससे उत्तर-पूर्व के समाज में आपसी फूट पड़ गयी जो भारत के शासक वर्ग की एक बहुत बड़ी सफलता थी।
इसी के साथ-साथ भारत में पूँजीवादी विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ने पर असम की प्राकृतिक और सस्ती श्रम शक्ति का दोहन भी ख़ासा तेजी से बढ़ा लेकिन इससे इस क्षेत्र की आम आबादी की ग़रीबी पर कोई असर नहीं पड़ा और यह क्षेत्र विकास की मुख्य धारा से कटा रहा। आम आबादी के बीच बेरोज़गारी और ग़रीबी लगातार बढ़ती गयी। यह स्थिति अभी भी बनी हुई है जो केवल इसी बात से पुष्ट हो जाती है कि भारतीय रेलों का विशाल नेटवर्क गुवाहाटी के आगे नहीं जाता है और खुद गुवाहाटी में ही किसी भी राष्ट्रीय चैनल की एक भी ओ.बी. वैन नहीं है। हाँ, छोटा सा मध्य वर्ग ज़रूर कुछ बेहतर स्थिति में है जो आम लोगों से कटा हुआ है और शिक्षा व रोज़गार के लिए दिल्ली व अन्य भारतीय शहरों की ओर जाने की आकांक्षा और हैसियत रखता है।
इस प्रकार, एक ओर तो भारतीय पूँजीवादी राज्यसत्ता द्वारा उत्तर-पूर्व के निवासियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का कुचला जाना, सेना द्वारा ढाए गये जुल्म और आर्थिक भेदभाव के कारण तो दूसरी ओर उत्तर-पूर्व की मध्यवर्गीय आबादी के आर्थिक व राजनीतिक शक्ति सम्पन्न हिस्से द्वारा वहाँ की आम ग़रीब जनता के साथ ग़द्दारी के कारण उत्तर-पूर्व की आबादी में भारी असन्तोष और निराशा पैदा हुई। लेकिन किसी क्रान्तिकारी विकल्प के अभाव के कारण इस असन्तोष को क्रान्तिकारी परिवर्तन की दिशा में नहीं मोड़ा जा सका और प्रतिक्रियावादी ताक़तों के लिए ज़मीन तैयार हो गयी। इसके साथ ही देश के भीतर से होने वाले आप्रवासन के अतिरिक्त बंग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत और बर्मा से होने वाले आप्रवासन के चलते पैदा हुए जनसांख्यिकीय बदलाव ने भी इस भूभाग की जनता में भय व असुरक्षा के मनोविज्ञान को जन्म दिया, जिसे प्रतिक्रियावादी ताक़तों ने और बढ़ाने का काम किया। ज़ाहिरा तौर पर असन्तोष, निराशा और विकल्पहीनता की इसी पृष्ठभूमि पर, असम में दूसरे इलाकों से आयी आबादी को निशाना बनाने वाले और मुस्लिम आप्रवासियों को निशाना बनाने वाली अर्द्धफासिस्ट किस्म की अन्धराष्ट्रवादी प्रवृत्तियों ने सिर उठाया, इम्फाल की घाटी में भी मेइती-मुस्लिम दंगे हुए और साथ ही साथ अन्य स्थानीय जनजातियों के आपसी विग्रह में बढ़ोत्तरी हुई।
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जनता को आपस में बाँटकर अपनी शोषण और लूट को जारी रखने की देश और असम के शासक वर्ग की इसी राजनीति की पुष्टि असम का जलता हुआ इतिहास भी करता है। 1960 के बंगाली बनाम असमी दंगे, 1970 के दशक के अन्तिम वर्षों और 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में चले असम आन्दोलन के दौर में “अवैध” मुस्लिम आप्रवासियों के खि़लाफ हुई हिंसा और 1990 के बाद से अब तक जारी कभी बोडो बनाम आदिवासी तो कभी बोडो बनाम मुस्लिम दंगे इसी का बात को सत्यापित करते हैं। अगर 1979 में शुरू हुए असम आन्दोलन को सावधानीपूर्वक अध्ययन किया जाये तो पता चलता है कि असल में इस आन्दोलन के पीछे का मुख्य कारण ही 1970 के दशक में असम की राजनीति में एक नए विकल्प के खड़े होने की शुरुआत थी जिसके पीछे राज्य की आदिवासी आबादी और पूर्वी बंगाली मूल के आप्रवासी आबादी का बड़ा हिस्सा श्रेणीबद्ध हो रहा था। यह असम के मध्यवर्ग के उस हिस्से के लिए एक ख़तरा था जो आज़ादी के बाद के तीन दशकों में देश की केन्द्रीय पूँजीवादी राज्यसत्ता के साथ साँठ-गाँठ कर और असम की आम जनता से गद्दारी कर असम की राजनीति पर हावी रहा था और उसकी मलाई चाँपता रहा था। ख़तरे की घण्टी 1974 में पहली बार हुए गुवाहाटी म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के चुनावों में वामपंथियों की जीत के साथ बजी। इसके कुछ ही समय बाद असम आन्दोलन के शुरू होने के संकेत मिलने लगते हैं।
इस आंदोलन में भी लामबन्दी की शुरूआत पहले “आउटसाइडर्स” के खिलाफ हुई थी, लेकिन जल्द ही आंदोलन के पीछे के राजनीतिक मास्टरमाइण्ड्स को यह बात समझ में आ गयी कि आदिवासियों या उन आप्रवासी समुदायों को निशाना बनाना जिनकी असम के बाहर पर्याप्त आबादी है और दिल्ली में जिनकी पर्याप्त राजनीतिक शक्ति है, खुद उन्हीं को भारी पड़ सकता है। इसलिए जल्द ही यह पूरा आंदोलन “अवैध बंग्लादेशी आप्रवासियों” के खिलाफ मुड़ गया। इस पूरे आन्दोलन के दौरान हिंसा की कई घटनाएँ हुईं। “अवैध मुस्लिम आप्रवासियों” के खिलाफ चली इस मुहिम की चरम परिणति 18 फरवरी, 1983 को अविभाजित नागाँव जिले के नेल्ली गाँव में हुए भारतीय इतिहास के सबसे बडे़ जनसंहारों में से एक में हुई। सशस्त्र भीड़ द्वारा पूरे गाँव को चारों ओर से घेर कर, बच्चों और महिलाओं समेत 2000 से भी अधिक मुस्लिमों को 6 घण्टों से भी कम समय में मौत के घाट उतार दिया गया। यह दरिंदगी की पराकाष्ठा थी!! लेकिन इसके लिए आज तक किसी को भी सज़ा नहीं हुई है!! बल्कि इस नृशंस नरसंहार को एक स्वतःस्फूर्त घटना के रूप में प्रस्तुत कर दरकिनार कर दिया गया। देश की अधिकांश आबादी को तो अभी तक इस नरसंहार के बारे में पता ही नहीं है। धार्मिक आधार पर प्रदेश की आम आबादी के बीच दीवार खड़ी करने के लिए और क्या करना बाकी रह गया था? असम आन्दोलन का असली मकसद पूरा हो चुका था। असम की राजनीति में उठ रहे नए विकल्प को हमेशा के लिए ज़मीन में गाड़ा जा चुका था। असम की राजनीति पर उसी पुराने मध्यवर्ग का कब्ज़ा बरकरार रहा।
इसी प्रकार, असम आन्दोलन के बाद उठी बोडोलैण्ड की माँग की राजनीति और इसके परिणामस्वरूप 2005 में बोडोलैण्ड टेरीटोरियल ऑटोनॉमस डिस्ट्रिक्ट (कोकराझार इसी के अंतर्गत आता है) के निर्माण के पीछे भी भारतीय शासक वर्ग और असम के शासक वर्ग के बीच साँठ-गाँठ और रस्साकशीं की इस राजनीति को समझा जा सकता है और इसे बी.टी.ए.डी. के निर्माण की प्रक्रिया, इसमें आबादी के जातीय-धार्मिक संघटन और इसके निर्माण के बाद से हुए दंगों के इतिहास से भी देखा जा सकता है। वर्तमान दंगे, इसी की एक कड़ी है।
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इस वारदात ने एक बार फिर से साबित किया है कि जब आम लोगों को जीविकोपार्जन के साधन हासिल नहीं होते हैं, उन्हें रोज़गार नसीब नहीं होता, और महँगाई से उनकी कमर टूट जाती है तो यह व्यवस्था जनता को आपस में लड़वाती है, जिसमें शासक वर्गो के सभी हिस्सों में पूरी सर्वसम्मति होती है। असली गुनहगार वह व्यवस्था है जो एक शस्य-श्यामला धरती वाले देश में सभी को सहज रोज़गार, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और बेहतर जीवन स्थितियाँ और एक खुशहाल इंसानी जिन्दगी मुहैया नहीं करा सकती। ज़ाहिर है, कि ऐसे में व्यवस्था जनता के बीच एक नकली दुश्मन का निर्माण करती है। कभी वह मुसलमान होता है, कभी ईसाई, कभी दलित तो कभी कोई और अल्पसंख्यक समुदाय। हम सभी को समझना चाहिए कि हमारा असली दुश्मन कौन है! मेहनत करने वालों का न तो कोई धर्म होता है और न कोई देश वह जहाँ भी जाता है अपना शोषण करवाने के लिए मज़बूर होता है। साफ है, जब तक इस व्यवस्था को चकनाचूर नहीं कर दिया जाता देश की आम मेहनतकश जनता को मुक्ति नहीं मिल सकती।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-दिसम्बर 2012
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