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कविता कृष्णापल्लवी की पाँच कविताएँ
कारवाँ
(एक)
कुछ यात्राएँ
कभी अकेले करनी होती हैं
ताकि
कुछ यात्राएँ की जा सकें
कारवाँ में शामिल होकर।
(दो)
आज शामिल हुई
एक जुलूस में
यादों के।
कल एक कारवाँ में
शामिल होना है
सपनों के।
(तीन)
गुबार बता रहा है
इधर से
गुज़रा है
एक कारवाँ।
हमें अपनी रफ्तार
तेज़ करनी होगी।
जिन्हें हम प्यार करना चाहते थे
कहाँ गये वे तमाम सुन्दर, सच्चे
और शक्तिशाली लोग
जिन्हें प्यार करने का सपना देखते हुए
हम सयाने हुए।
बौनेपन के इस प्रदेश में
वीरता और त्याग को
बेवकूफ़ी या कोई काल्पनिक चीज़
समझा जाता है।
तमाम सुन्दर-सच्चे-शक्तिशाली-गर्वीले लोग
हमारी उम्र से पहले पैदा हुए
या फिर जब पैदा होंगे
तब शायद हम बुढि़या इजरगिल की
उम्र को पहुँच रहे होंगे।
स्तेपी में छिटकती नीली चिंगारियों को
देखते हुए तब बतायेंगे हम
उस समय के शानदार, सच्चे, युवा लोगों को
जलते हुए हृदय वाले
सुन्दर, शक्तिशाली दान्को जैसे लोगों के
बारे में जो हमारे समय से
पहले पैदा हुए थे।
(बुढि़या इजरगिल और दान्को के सन्दर्भों को जानने के लिए पढि़ये मक्सिम गोर्की की कहानी ‘‘बुढि़या इजरगिल’‘)
मुहिम
एक छोटा-सा रेलवे स्टेशन था
जहाँ बादलों ने विदाई दी मुझे।
फूल अलग हुए कहीं
हिमालय की तलहटी में।
गीतों के साथ
आखि़री शाम बीती थी
कहीं किसी घाटी में।
रंग उड़ गये थे शायद
सदियों पहले गुज़री किसी गर्मी में
किसी एक व्यस्त महानगर की
आपाधापी में।
और तमाम युद्धों से लहुलुहान जब मैं
एक रेगिस्तानी इलाके के अस्तपताल में
पड़ी थी अकेली,
मुझे बताया एक बूढ़े दरवेश ने
कि वहाँ से बाइस कोस दूर
पूरब के एक घने जंगल में
एक कैम्प में मेरा इन्तज़ार कर रहे हैं
कुछ लोग –
बादल, फूल, गीत और रंग….
यही…..या ऐसे ही कुछ शायद नाम हैं उनके।
नयी-नयी खोजें
एक दिन मेरी कविताओं से
झाँका मेरे बचपन ने
उत्सुक निगाहों से
और मैने एक माँ की तरह
महसूस किया।
मैंने खोज निकाला
अपना गर्म हृदय
और आग की खोज की एक बार फिर।
एक दिन मैंने लोरी सुनी
किसी के गीतों में
और सोती हुई
सपनों में तैरने के लिए
पंखों की खोज की एक बार फिर।
एक दिन मैंने बत्तखों को देखा
झील की सतह पर प्यार करते
और पानी काटने के लिए
चप्पू ईजाद किये फिर से।
एक दिन मैंने देखा
एक बूढ़ी स्त्री का उन्मत्त नृत्य
और पहियों का आविष्कार किया
एक बार फिर।
तलाश
मुझे किसी चीज़ की
तलाश है।
पता नहीं, किस चीज़ की
पर एक बेचैन तड़प की तरह
लगातार
लगातार
मैं खोज रही हूँ
कोई एक चीज़
जिसकी तलाश है मुझे –
कभी एक खोजी यात्री की तरह
कभी एक टोही दस्ते की तरह
ढूँढ़ रही हूँ मैं
चीज़ों, शहरों, आत्माओं को
उलटती, पलटती
सब कुछ अस्त-व्यस्त करती
बहुतेरी चीज़ें काम की
हाथ लग रही हैं इस दौरान
पर वो नहीं
जिसकी मुझे तलाश है।
शायद वह चीज़ भी गतिमान है,
लगातार मुझे छका रही है,
सज़ा दे रही है मुझे
जीने के मज़े चखा रही है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2011
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