प्रेमचन्द की जयन्ती पर कार्यक्रम
31 जुलाई प्रेमचन्द के जन्मदिवस पर दिशा छात्र संगठन और नौजवान भारत सभा की ओर से पटना, इलाहाबाद, गोरखपुर, चित्रकूट, मथुरा, अम्बेडकरनगर, ग्रेटर नोएडा, सिरसा, झील, बाणी, और डोहाना खेड़ा गाँव हरियाणा, शाहाबाद डेरी, अलीपुर, करावल नगर, वज़ीरपुर सहित दिल्ली के विभिन्न इलाकों देश के कई शहरों में वि
भिन्न कार्यक्रम आयोजित किये गये।
दिशा छात्र संगठन की पहल पर पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज के पत्रकारिता विभाग में प्रेमचन्द की रचना ‘ठाकुर का कुआँ’ पर बनी फ़िल्म दिखायी गयी। इलाहाबाद में एनआरएमयू प्रयाग शाखा के ऑफ़िस में विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। नौजवान भारत सभा, दिल्ली की टीम ने चन्द्रशेखर आज़ाद के जन्मदिवस 23 जुलाई से लेकर 31 जुलाई तक विभिन्न इलाकों में विविध कार्यक्रम आयोजित किया।
पटना के ब्रजकिशोर स्मारक भवन बिहार विद्यापीठ सदाकत आश्रम के ग्राउण्ड में नौजवान भारत सभा द्वारा निबन्ध मेला का आयोजन किया गया। इस निबन्ध मेले में चौथी से लेकर बारहवीं तक के छात्र-छात्राओं ने भाग लिया। मेले के उपरान्त नौजवान भारत सभा के आशीष ने छात्र–छात्राओं को प्रेमचन्द के साहित्यिक कृतित्व से अवगत कराया। इस दौरान आशीष ने कहा कि औपनिवेशिक भारत में सामाजिक कुरीतियों, ज़मींदारी व औपनिवेशिक ग़ुलामी के कारण आम जनता के हालात को प्रेमचन्द ने शायद सबसे अच्छे ढंग से चित्रित किया। प्रेमचन्द के लेखन की भी वैचारिक यात्रा रही है, आरम्भ में प्रेमचन्द गाँधी के विचारों से काफ़ी प्रभावित थे परन्तु बाद में भी वे गाँधी को महामानव तो मानते रहे लेकिन उनकी राजनीति से इनका मोहभंग होने लगा। जीवन के अन्तिम दौर में प्रेमचन्द लिखते हैं मैं बोल्शेविक उसूलों का कायल होता जा रहा हूँ। प्रेमचन्द अपने जीवन के अन्तिम दिनों में मानव केन्द्रित समतामूलक समाज की बात अपने निबन्धों में करने लगे थे। आज प्रेमचन्द के लेखन की प्रासंगिकता पहले से कही ज़्यादा है। निबन्ध मेला के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम में नौभास की वारुणी ने ‘सृष्टि बीज का नाश ना हो’ का गायन किया तथा बच्चों ने भी कविता पाठ किया। इसके उपरान्त निबन्ध मेले में भाग लेने वाले छात्र छात्राओं को प्रशस्ति पत्र दिया गया। सांस्कृतिक कार्यक्रम में मौजूद इलाक़े के लोगों को सत्तासीन साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों के ख़तरों से आगाह करते हुए नौभास की मुस्कान ने प्रेमचन्द की मशहूर रचना ‘साम्प्रदायिकता और संस्कृति’ की चन्द पंक्तियों का पाठ किया–“साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह गधे की भाँति जो सिंह का खाल ओढ़कर जंगल के जानवरों पर रोब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2021
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