आधुनिक भारत की प्रथम शिक्षिका और महान सुधारक सावित्रीबाई फुले की विरासत को आगे बढ़ाओ!

इन्द्रजीत

फ़ातिमा शेख़ और सावित्रीबाई

हम जिन समाज सुधारकों के सबसे अधिक ऋणी हैं, उनमें दो नाम ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के भी हैं। फुले दम्पति जीवन भर जनता की सेवा में तत्पर रहे और कई मायनों में इन्होंने समाज को नया रास्ता दिखाया। महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगाँव में 3 जनवरी 1831 को सावित्रीबाई फुले का जन्म हुआ था। चलिए इन महान शख्सियत के बारे में थोड़ा जानते हैं और उनके कार्यों की महत्ता पर कुछ विचार करते हैं।
ज्योतिबा और सावित्रीबाई के वक्तों में हमारा देश अंग्रेजी गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। एक ओर किसानों-मज़दूरों-दस्तकारों के रूप में देश की बहुसंख्यक जनता अंग्रेजी दमन-उत्पीड़न-शोषण की शिकार थी तो दूसरी ओर बाल विवाह, सती प्रथा, जातिवाद, अन्धविश्वास, छुआछूत, धार्मिक पाखण्ड और रुढ़िवाद जैसी कुरीतियों का भी खूब बोलबाला था। तमाम जनविरोधी राजे-रजवाड़ों और जातिवादी तत्त्वों ने अंग्रेजी हुकूमत के साथ गठबन्धन कायम कर रखा था। जनता अज्ञानता और शोषण की चक्की में पिस रही थी। तात्कालिक पारम्परिक शिक्षा-व्यवस्था पर पूरा नियन्त्रण समाज के जतिवावी, रूढ़िवादी और सामन्ती तत्त्वों का था। आम जनता की पहुँच शिक्षा से कोसों दूर थी। स्त्रियों और तथाकथित शूद्र-अतिशूद्र जातियों का पढ़ना-लिखना तो जैसे अपराध ही माना जाता था। ज्योतिबा स्वयं इसाई मिशनरी स्कूलों में पढ़े थे तथा वे यूरोप के पुनर्जागरण-प्रबोधन जैसे आन्दोलनों और इनसे निकले समानता-स्वतन्त्रता-भाईचारे के विचारों के प्रबल समर्थक थे। अंग्रेजों ने भारत में जिस औपचारिक शिक्षा की शुरूआत की थी, उसका उद्देश्य “शरीर से भारतीय पर मन से अंग्रेज” क्लर्क पैदा करना था। इसलिए उन्होंने न तो शिक्षा के व्यापक प्रसार पर बल दिया और न ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर। अंग्रेजी राज के प्रशंसक से उसके कड़े आलोचक तक की फुले की विचार यात्रा को हम उनकी रचनाओं ‘गुलामगिरी’ से लेकर ‘किसान का कोड़ा’ तक में देख-समझ सकते हैं। फुले का सबसे बड़ा योगदान था जनता के लिए शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करना। फुले शासन-सत्ता को प्रार्थना पत्र सौंपने की अपेक्षा जनता की ताकत और स्वयं के प्रयासों पर अधिक भरोसा करते थे। जैसे ही उन्हें शिक्षा के महत्त्व का अहसास हुआ वैसे ही वे अज्ञानता को भगाने के महत्वपूर्ण काम में कूद पड़े। उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पहले शिक्षित किया और फ़िर उन्हें भी समाज बदलाव के काम में अपने साथ जोड़ लिया। यहीं से शुरू होता है सावित्रीबाई फुले का जीवन संघर्ष जोकि उनकी अन्तिम साँस तक जारी रहा।
आज से 173 साल पहले 1 जनवरी 1848 को फुले दम्पत्ति ने महाराष्ट्र के भिड़ेवाड़ा, पुणे में लड़कियों को शिक्षित करने हेतु अपना पहला स्कूल खोला था। जैसी कि उम्मीद थी समाज की रूढ़िवादी, पितृसत्तावादी और जातिवादी ताकतों ने इसका कड़ा विरोध किया। ये लोग नहीं चाहते थे कि समाज के भूमिहीन दलितों, गरीब किसानों और दस्तकार-कारीगरों के बच्चे पढ़ पायें। लेकिन फुले दम्पत्ति ने अपनी जान तक की परवाह नहीं की और अगले पाँच सालों में सत्रह और स्कूल खोल दिये। इस कार्य में फ़ातिमा शेख़ व उनके परिवार तथा और भी कई लोगों ने फुले दम्पत्ति का सहयोग किया। भारत में लम्बे समय तक दलितों, भूमिहीनों, ग़रीब किसानों व स्त्रियों को “शूद्र-अतिशूद्र” के नाम पर शिक्षा से वंचित रखा गया था। ज्योतिबा व सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये। मनुस्मृति की घोषित शिक्षाबन्दी के विरूद्ध ये एक जोरदार विद्रोह था। जब सावित्रीबाई पढ़ाने के लिए जाती थी तो उनके झोले में एक अतिरिक्त साड़ी होती थी क्योंकि पहनी हुई साड़ी को रूढ़िवादी लोग ढेले, गोबर, कीचड़ आदि फेंक कर गन्दी कर देते थे। सभी बाधाओं को पार करते हुए सावित्रीबाई ने ज्ञान प्रसार का महत्वपूर्ण कार्य बिना रुके निरन्तर जारी रखा। शिक्षा के क्षेत्र में इतना क्रान्तिकारी काम करने वाली सावित्रीबाई का जन्मदिवस ही असली शिक्षक दिवस होना चाहिए। पर ये विडम्बना है कि सर्वपल्ली राधाकृष्णन नामक ऐसे व्यक्ति का जन्मदिवस शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है जिस पर ‘थीसिस’ चोरी का आरोप है और जो वर्ण व्यवस्था का समर्थक था।
ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने सिर्फ़ शिक्षा के प्रसार पर ही नहीं बल्कि प्राथमिक स्तर पर ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर भी बल दिया और अन्धविश्वासों के विरुद्ध जनता को शिक्षित किया। आज जब ज्योतिषशास्त्र जैसे विषयों को शिक्षा का अंग बनाने के प्रयास हो रहे हैं, तमाम सारी अतार्किक चीज़ें पाठ्यक्रमों में घोली जा रही हैं तो ऐसे में ज्योतिबा-सावित्री के संघर्ष का स्मरण करना ज़रूरी हो जाता है। उन्होंने शिक्षा का अपना ‘प्रोजेक्ट’, चाहे वो लड़कियों की पाठशाला हो या प्रौढ़ साक्षरता पाठशाला, सिर्फ़ जनबल के दम पर खड़ा किया और आगे बढ़ाया। अड़चनों व संकटों का सामना अत्यन्त बहादुरी से किया। ज्योतिबा ये भी समझने लगे थे कि अंग्रेज राज्यसत्ता भी दलितों और वंचितों की कोई हमदर्द नहीं है। उन्होंने किसान का कोड़ा में लिखा था कि अगर अंग्रेज अफ़सरशाही व ब्राह्मण सामन्तशाही की चमड़ी खुरच कर देखी जाये तो नीचे एक जैसा ही खून मिलेगा यानी दोनों के वर्गचरित्र में कोई अन्तर नहीं है। सावित्रीबाई ने पहले खुद सीखा व सामाजिक सवालों पर एक प्रगतिशील अवस्थिति अपनायी। ज्योतिबा की मृत्यु के बाद भी वह अन्तिम साँस तक जनता की सेवा करती रहीं। उन्होंने अन्तिम साँस प्लेगग्रस्त लोगों की सेवा करते हुए 10 मार्च 1897 को ली क्योंकि इस दौरान वे स्वयं प्लेग से संक्रमित हो गयी थी। अपना सम्पूर्ण जीवन मेहनतकशों, दलितों व स्त्रियों के लिए कुर्बान कर देने वाली ऐसी जुझारू महिला को हम क्रान्तिकारी सलाम पेश करते हैं व उनके सपनों को आगे ले जाने का संकल्प लेते हैं। देश की युवा पीढ़ी को उन जैसी हस्तियाँ सदैव प्रेरणा देती रहेंगी।
सावित्रीबाई के समय भी ज़्यादातर ग़रीब शिक्षा से वंचित थे और दलित उससे अतिवंचित थे। आज शिक्षा का पहले के मुकाबले ज़्यादा प्रसार हुआ है। पर फ़िर भी व्यापक ग़रीब आबादी आज भी इससे वंचित है और दलित अब भी अतिवंचित हैं। स्वतन्त्रता के बाद राज्ययसत्ता ने धीरे-धीरे शिक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी से हाथ खींच लिये और 1991 की निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के बाद तो उसे पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर दिया है। सरकारी स्कूलों की दुर्गति; निजी स्कूलों व विश्वविद्यालयों के मनमाने नियमों व अत्यधिक आर्थिक शोषण के कारण पहले ही दूर रही शिक्षा; सामान्य गरीबों की क्षमता से बाहर ही चली गयी है। आज एक आम इंसान अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजीनियर बनाना तो सपने में भी नहीं सोच सकता। हरियाणा में तो हालिया दिनों में डॉक्टरी की पढ़ाई यानी एमबीबीएस की चार साल की फ़ीस 40 लाख रुपये कर दी गयी है। आज़ादी के 70 साल बाद भी भारत में करोड़ों लोग निरक्षर हैं। आज विशेषकर उच्च शिक्षा सिर्फ़ अमीरों को ही मयस्सर है। रोज़गारपरक शिक्षा के दरवाज़े व्यापक जनता के लिए काफ़ी पहले ही बन्द हो चुके हैं! शिक्षा का अत्यन्त सृजनात्मक पेशा शिक्षा माफ़िया के लिए सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी के समान हो गया है। अनिवार्य शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ व आरक्षण आज ‘खेत में खड़े डरावे’ की तरह हो गये हैं जिनका फ़ायदा ज़रूरतमन्दों को बहुत कम मिल पाता है। आज एक तरह फ़िर से तमाम जातियों के ग़रीबों व विशेषकर दलितों व अन्य वंचित तबकों से आने वालों पर नयी शिक्षाबन्दी फ़िर से थोप दी गयी है। कोरोना महामारी के इस दौर में हमने इस बात को और भी बेहतर ढंग से देखा कि कैसे ग़रीब जनता के बेटे-बेटियों को शिक्षा की पहुँच से दूर कर दिया गया। सावित्रीबाई को याद करते हुए हमें ये विचार करना होगा कि उनके शुरू किये संघर्ष की आज क्या प्रासंगिकता है। नयी शिक्षाबन्दी को तोड़ने के लिए सभी गरीबों-मेहनतकशों की एकजुटता का आह्वान कर सबके लिए नि:शुल्क शिक्षा का संघर्ष हमें आगे बढ़ाना ही होगा। गुणवत्तापूर्ण-वैज्ञानिक शिक्षा हमारा अधिकार है और बिना जन-पहलकदमी के हम इसे हासिल नहीं कर सकते हैं। सार्विक शिक्षा के मुद्दे पर व्यापक जनान्दोलन खड़ा करना ही आज सावित्रीबाई फुले को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि हो सकती है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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