मुनाफ़े की हवस ने फिर निगला 100 मजदूरों को
इस व्यवस्था को जितनी जल्दी हो सके दफन कर देना होगा
लता
100 जिन्दगियों ने जहरीली गैस और उफनते पानी में घुट–घुटकर दम तोड़ दिया। कोई सेना या पुलिस उनकी मदद के लिए नहीं पहुँची। मीडिया को इसमें कोई सनसनी, कोई मसाला नहीं मिला। इसीलिए इसकी ख़बर अख़बारों के कोनों भर में दबकर रह गई। 1 अगस्त को पुरुलिया जिला के गंगटिकुली नामक जगह में एक बन्द कोयला खदान में 100 से ज़्यादा मजदूर, 180 फुट नीचे पानी और जहरीली गैस में फँस गये और समय रहते उनके पास मदद न पहुँचने के कारण उन सबकी मौत हो गयी। इस घटना ने एक बार फिर साबित कर दिया कि इस व्यवस्था में मजदूरों और आम मेहनतकश आबादी के जीवन का कोई मोल नहीं। उसका मोल केवल तब तक है जब तक वह पूँजीपतियों के लिए मुनाफा बटोरने के लिए अपना हाड़–मांस गलाती रहे और ऐसा करते–करते वह मर भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है ? मजदूर तो मरते ही रहते हैं और उनके जीवन का मतलब ही क्या है अगर वह धन्नासेठों की तिजोरियाँ भरने के लिए नहीं है! यह है इस व्यवस्था में मजदूरों और मेहनतकशों के जीवन का मोल।
इस घटना की भयंकरता का अहसास कर पाना बेहद मुश्किल है। और जब ऐसी हत्याओं को स्वीकार्य बनाया जा रहा है तो इसकी भयंकरता को महसूस करने के लिए एक बार फिर हृदय की सुषुप्त संवेदनाओं को जगाना पड़ता है। क्या महसूस किया होगा उन सौ मजदूरों ने मौत को अपने सामने देखकर ? कैसे याद किया होगा अपने बच्चों को और अपनी पत्नियों को ? कैसे सोचा होगा कि अभी करने थे कितने काम ?
इस घटना के एक सप्ताह पहले ही हरियाणा के एक गरीब मजदूर के बेटे प्रिंस को गड्ढे से निकालने के लिए सेना, पुलिस पहुँची, विधायक और मन्त्री तक पहुँच गये। और तमाम समाचार चैनल वालों ने इस ‘रेस्क्यू ऑपरेशन’ का ‘लाइव टेलीकास्ट’ करके आपका मन जीत लिया। इस ख़बर को देखकर जिन्हें यह भ्रम हुआ होगा कि इस व्यवस्था को गरीब की भी चिन्ता है, उनकी आँखें शायद गंगटिकुली की ख़बर से खुल गई होती। लेकिन यह ख़बर बन ही नहीं पाई। कोई चैनल उनकी इन मरते मजदूरों को कवर करने नहीं पहुँचा, सेना ने छ: दिन बाद यह कहकर छुट्टी पा ली कि उनको बचाने का कोई उपाय नहीं था इसलिए प्रयास करने का कोई फायदा नहीं था। जिला प्रशासन और ईस्टर्न कोलफील्ड के अधिकारी एक–दूसरे पर दोषारोपण करते रहे और कुछ भी कहने से बचते रहे। कोयला मन्त्री शिबू सोरेन को वहाँ जाने में फायदा नजर आया क्योंकि वहाँ फँसे अधिकांश मजदूर झारखण्ड के सीमावर्ती गाँवों के थे। उन्होंने यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लिया कि अभी तो कागजी कार्रवाई हो रही है। बंगाल में शासन कर रहे संसदीय वामपंथी बातबहादुरों और जनता के “महान” हितसाधकों ने इतना कहकर अपना फर्ज पूरा कर दिया कि वे स्थिति पर अपनी नजर रखे हुए हैं। और वे मजदूरों के मरने तक बस नजर रखे हुए थे।
किसी भी टीवी चैनल या अख़बार ने इस घटना में ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखलाई क्योंकि वहाँ पल–पल बढ़ता ‘रोमांच’, ‘थ्रिल’, ‘एडवेंचर’ और ‘एक्शन’ नहीं था। वहाँ बस घुट–घुटकर मरते मजदूर थे। मीडिया की असंवेदनशीलता के बारे में ज़्यादा कुछ कहने की जरूरत नहीं है। इसके बारे में काफी कुछ लिखा जा चुका है और यह एक स्वीकृत सच्चाई बन चुका है कि ‘ख़बर वह नहीं जो सच दिखाए’, बल्कि ‘ख़बर वह है जो बिक जाए’!
गंगटिकुली में प्रशासन ने यह कहकर किनारा कर लिया कि गाँववाले गैर–कानूनी रूप से बन्द पड़ी खदान से कोयला निकाल रहे थे। लेकिन क्या वे ऐसा अपने घर के चूल्हे जलाने के लिए कर रहे थे ? कोई इस बारे में नहीं बोल रहा है कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे। दरअसल, इसके पीछे कोयला माफिया और उनका करोड़ों का कारोबार है। इस इलाके में ऐसी एक–दो नहीं बल्कि दर्जनों खदानें हैं जिनसे कोयला निकालकर कोयला माफिया उन्हें बेचता है। 30–40 कोयला डिपो हैं जहाँ इन खदानों से अवैध रूप से निकाला गया कोयला जमा किया जाता है और फिर झारखण्ड और बंगाल के स्पंज आयरन कारखानों को बेचा जाता है। इस अवैध कारोबार की जानकारी प्रशासन को भली–भाँति है, और होती क्यों नहीं, उनका भी तो इसके मुनाफे में हिस्सा बनता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक कोयला माफिया हर माह पुलिस को 35–40 लाख रुपये खिलाता है। शीर्ष पर बैठे मन्त्रियों–नेताओं से लेकर नीचे के अफसरों तक सबको उनका हिस्सा मिलता है। गंगटिकुली ही नहीं, झारखण्ड–बंगाल सीमा के पूरे कोयला क्षेत्र में इस माफिया का राज चलता है।
सार्वजनिक क्षेत्र की दो कम्पनियों ईसीएल और भारत कुकिंग कोल लिमिटेड (बीसीसीएल) द्वारा ख़तरनाक मानकर छोड़ दी गईं इन खदानों को अपने कब्जे में लेकर माफिया सरगना बंगाल और झारखण्ड के गरीब बेरोजगार मजदूरों को अपने फायदे के लिए मौत के मुँह में भेजते हैं। वहाँ सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं होता। यह बताने वाला कोई नक्शा नहीं होता कि कहाँ कोयला खोदना सुरक्षित होगा और कहाँ नहीं। इसलिए गंगटिकुली के वे मजदूर कायेला खोदते हुए दामोदर नदी के बहुत पास चले गये और नदी का पानी कोयले की पतली दीवार को तोड़कर खदान में भर गया।
खदान में मरने वाले मजदूर तो मात्र अपनी और अपने परिवालवालों की दो जून की रोटी के लिए जान जोख़िम में डालकर इस गहरी खदान में उतर गये थे। इन खदानों से कोयला निकालने वाले मजदूरों को 35 किलो की बोरी भर कोयला निकालने पर मात्र 7 रुपये मिलते हैं। लेकिन कोयला माफिया की कमाई करोड़ों में होती है। अवैध कोयला सस्ता होता है। सरकारी न्युनतम दर 2500 रुपये प्रति टन के मुकाबले यह 1800 रुपये प्रति टन पर बिकता है, और स्पंज आयरन कारखानों और ईंट भट्ठों में इसकी जबर्दस्त माँग होती है।
इन खदानों में काम करने की स्थितियाँ देखते हुए ऐसी दुर्घटना पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आए दिन ऐसी दुर्घटनाएँ होती रहती हैं और मजदूर मरते रहते हैं। पर जब सौ मजदूरों की मौत ख़बर नहीं बनी तो एक–दो को कौन पूछता है। करीब दो साल पहले हुई एक दुर्घटना में करीब 50 मजदूर मारे गए थे। ख़बर दब गई और कारोबार बदस्तूर चलता रहा। कोयला माफियाओं के ख़िलाफ एक–दो नहीं बल्कि 8–10 नामजद एफ.आई.आर. दर्ज हैं लेकिन आज तक एक भी माफिया सरगना को गिरफ़्तार नहीं किया गया है। प्रशासन चाहे तो इस गोरखधंधे को रोक सकता है। कोयला कम्पनियाँ भी इस धंधे के जारी रहने के लिए काफी हद तक जिम्मेदार हैं। खदान बन्द करके छोड़ने से पहले अवैध कटाई रोकने और खदान को धँसने से बचाने के लिए उसमें रेत भर दी जाती है। लेकिन कम्पनियों ने ऐसा नहीं किया।
उदारीकरण की नयी नीतियों के तहत पूँजीपति हर उस कानून को मिटाने में लगे हुए हैं, जिसकी वजह से उन्हें मजदूरों को खून–पसीना निचोड़ने में थोड़ी भी अड़चन महसूस हो। श्रम कानूनों में सुधार के नाम पर एक–एक करके उन सभी कानूनों को हटाया जा रहा है जो मजदूरों को कम से कम थोड़ी–बहुत सुरक्षा की गारण्टी देती हैं। यहाँ के पूँजीपति इन अड़चनों को हटाने के मामले में चीन का उदाहरण देते हैं। वहाँ के आर्थिक विकास से वे बेहद प्रभावित नजर आते हैं। लेकिन चीन में हुई हालिया खान–खदान दुर्घटनाओं से साफ जाहिर है कि वहाँ के पूँजीपतियों के लिए मजदूरों की जान की क्या कीमत है और यहाँ के पूँजीपति उनसे क्या सीखने की हिमायत करते हैं। “विकास” की अन्धी दौड़ में लगे चीन में कारखानों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए खदानों से अन्धाधुन्ध खनिज निकाले जा रहे हैं और सारे सुरक्षा उपायों को ताक पर रख दिया गया है और नतीजतन वहाँ खदान दुर्घटनाओं की संख्या काफी बढ़ गयी है। चीन में केवल कोयला खदानों में होने वाली दुर्घटनाओं से हर वर्ष 5000 मजदूर मर जाते हैं। भारत में भी एक के बाद एक खनन के ठेके निजी कम्पनियों को दिये जा रहे हैं जिसमें देशी और विदेशी, दोनों ही कम्पनियाँ शामिल हैं। श्रम कानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा पूँजीपतियों के पक्ष में लचीला बनाया जा रहा है। ऐसे में भारत में भी चीन की तरह खान–खदान दुर्घटनाओं की संख्या तेजी से बढ़ सकती है और ऐसा अवैध खदानों में ही नहीं बल्कि बड़ी–बड़ी कम्पनियों की खदानों में भी होगा।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!