धनी किसान आन्दोलन का वर्ग चरित्र अब खुलकर सामने आ रहा है

सम्पादकीय

‘आह्वान’ के पाठक जानते हैं कि पिछले चार महीनों से जारी किसान आन्दोलन के बारे में हमारा दृष्टिकोण उन तमाम लोगों से एकदम अलग रहा है जो इसे देश के आम किसानों-मज़दूरों-मेहनतकशों का आन्दोलन मानते हैं और इससे संघी फ़ासीवाद पर चोट करने की उम्मीदें लगाये बैठे हैं। हमने पत्रिका के पिछले अंक में और हमारे ऑनलाइन पेजों पर लगातार इस विषय में विस्तार से लिखा है।
हम शुरू से कहते रहे हैं कि मौजूदा किसान आन्दोलन धनी किसानों-कुलकों-फ़ार्मरों का आन्दोलन है, इसका नेतृत्व इन्हीं वर्गों के हाथों में और इसकी माँगें उन्हीं के वर्गीय हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। आन्दोलन में ग़रीब और निम्न-मध्यम किसानों की भी भागीदारी से यह तय नहीं होता कि यह उनका आन्दोलन है। इसकी मुख्य माँग लाभकारी मूल्य (न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी) की है जो देश के तमाम मेहनतकशों और ग़रीब किसानों के हितों के ख़िलाफ़ है। लाभकारी मूल्य की माँग मूलत: और मुख्यत: धनी कि सानों-कुलकों और उच्च मध्यम कि सानों की ही माँग है। यह देश की जनता से निचोड़े गये कुल बेशी मूल्य (यानी मुनाफ़े) के बँटवारे में अपना हिस्सा बढ़ाने के लिए धनी और उच्च-मध्यम किसानों की लड़ाई है जो वह कॉरपोरेट पूँजी, यानी बड़े एकाधिकारी पूँजीपति वर्ग से लड़ रहे हैं, जिसके पक्ष में मोदी सरकार एक वफ़ादार सेवक की तरह खड़ी हुई है।
जब हम कहते हैं कि इस आन्दोलन का मकसद केवल लाभकारी मूल्य को बचाना है, जिससे कि धनी किसान-कुलक वर्ग को मिलने वाला बेशी मुनाफ़ा, यानी मुनाफे़ की औसत दर से ऊपर मिलने वाला मुनाफ़ा, सुनिश्चित हो सके, तो इस आन्दोलन के तमाम समर्थक हम पर टूट पड़ते हैं। इनमें लिबरल-लेफ़्ट, लेफ़्ट-लिबरल, क़ौमवादी “मार्क्सवादी’’, सोशल मीडिया पर सक्रिय और आन्दोलन से कटे हुए कुछ निष्क्रिय बुद्धिजीवी और कुछ अन्य हताशा-निराशा के शिकार कम्युनिस्ट संगठन शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि सर्वहारा वर्ग ख़ुद तो फ़ासीवाद से लड़ नहीं पा रहा है, तो चलो तब तक धनी किसानों के आन्दोलन का ही पिछलग्गू बन लिया जाये। इनमें से कुछ का कहना था कि किसान आन्दोलन तीनों कृषि क़ानूनों को वापस करवाकर ही मानेगा, वह केवल लाभकारी मूल्य की लड़ाई नहीं लड़ रहा है। लेकिन अब तो इन सबके नये “क्रान्तिकारी” नायकों, जोगिन्दर सिंह उग्राहां (भारतीय किसान यूनियन एकता-उग्राहां के नेता) और दर्शन पाल (क्रान्तिकारी किसान यूनियन के नेता) ने ही स्पष्ट कर दिया है कि उनके लिए मूल मुद्दा लाभकारी मूल्य का ही है और अगर यह बच जाये, तो बाक़ी मुद्दों पर वे पीछे हटने, समझौता करने को तैयार हैं।
पिछले 9 मार्च को न्यूज़पोर्टल ‘न्यूज़क्लिक’ को दिये साक्षात्कार में जोगिन्दर सिंह उग्राहां ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि अगर सरकार केवल एपीएमसी (मण्डी समिति) से जुड़े क़ानून, यानी लाभकारी मूल्य से जुड़े क़ानून को वापस ले ले और बाक़ी दो क़ानूनों को बस ‘ऑन-होल्ड’ रख दे, यानी फ़िलहाल के लिए टाल दे, तो वे समझौता करने को तैयार हैं और इसके लिए वे अपने काडर को भी रज़ामन्द कर लेंगे!
पहले क़ानून की वापसी पर जोगिन्दर सिंह उग्राहां ने ज़ोर सिर्फ़ इसलिए दिया है क्योंकि यही वह क़ानून है जो कि खेतिहर पूँजीपति वर्ग के लाभकारी मूल्य को प्रभावित करता है। वह ख़ुद इस बात को साक्षात्कार में मान भी रहे हैं और कहते हैं कि सिर्फ़ पहले क़ानून की वापसी पर ज़ोर इसलिए क्योंकि वह मण्डियों व लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को प्रभावित करता है। दूसरे क़ानून को भी वह लाभकारी मूल्य के तंत्र के लिए एक ख़तरा मानते हैं और इसलिए दूसरे नम्बर पर उसे वापस लेने पर ज़ोर देते हैं, लेकिन तीसरे क़ानून, यानी आवश्यक वस्तु सम्बन्धी क़ानून को वे सिर्फ ऑन होल्ड रखे जाने पर समझौता करने को तैयार हैं! कोई विकल्प न होने पर वह दूसरे क़ानून को भी केवल ऑन-होल्ड रखने पर समझौता करने को तैयार हैं!
अब ज़रा याद करिये कि जब सरकार ने तीनों क़ानूनों को ‘ऑन-होल्ड’ रखने का प्रस्ताव रखा था तो इन्हीं कुलक नेताओं ने कहा था कि इसके ज़रिये सरकार बस आन्दोलन के दबाव से मुक्त होकर कुछ वक्त ख़रीदना चाहती है, ताकि बाद में उन क़ानूनों को लागू किया जा सके और वह जानती है कि फिर से ऐसा आन्दोलन खड़ा करना इतना आसान नहीं होगा। क्या यह बात आज नहीं लागू होती है? यदि हाँ, तो इसका अर्थ यह है कि ये कुलक नेता जानते हैं कि सरकार अगर लाभकारी मूल्य सम्बन्धी क़ानून वापस ले ले और बाक़ी दो क़ानूनों को होल्ड पर रख दे, या लाभकारी मूल्य व ठेका खेती सम्बन्धी क़ानूनों को वापस ले ले, और आवश्यक वस्तु सम्बन्धी तीसरे क़ानून को ऑन होल्ड रख दे, तो फिर कालान्तर में सरकार होल्ड पर रखे हुए क़ानूनों को लागू करेगी ही! और ऐसा जानते हुए भी यदि वे तीसरे क़ानून को बस ऑन होल्ड रखे जाने पर समझौता करने को तैयार हैं, तो स्पष्ट है कि वे तीसरे क़ानून की वापसी को लेकर कभी गम्भीर नहीं थे।
तीसरे क़ानून को होल्ड पर रखने की माँग पर भी उग्राहां जैसे कुलक नेता इसीलिए अड़ रहे हैं ताकि अब जनता और अपने काडर के सामने अपनी इज्जत बचा सकें। वास्तव में, अतीत में ख़ुद धनी किसान-कुलक-आढ़ती आवश्यक वस्तु अधिनियम को समाप्त करने की बातें करते रहे हैं क्योंकि वे लाभकारी मूल्य, उस पर मिलने वाले कमीशन के साथ ही जमाख़ोरी और कालाबाज़ारी से भी मुनाफ़ा पीटना चाहते हैं। इन्होंने तो मनरेगा को भी ख़त्म करने को कहा था क्योंकि इससे खेतिहर मज़दूरों की औसत मज़दूरी बढ़ रही थी।
लेकिन जब सरकार एक साथ ये तीन क़ानून लेकर आयी, तो उनके सामने स्पष्ट था कि केवल पहले या केवल दो क़ानूनों को वापस लेने की माँग करना कुलकों के राजनीतिक नेतृत्व के वर्ग चरित्र को जनता के सामने स्पष्ट कर देगा। इसलिए इस आन्दोलन की विचारधारात्मक और राजनीतिक ज़रूरत थी कि तीसरे क़ानून पर कोई विशेष एतराज़ न होते हुए भी तीनों क़ानूनों को ही वापस लेने की माँग उठायी जाये। यही बात तमाम भोले, मूर्ख या भोले बनने का स्वांग रच रहे कई कम्युनिस्ट नहीं समझ पाये। संशोधनवादियों, लिबरलों आदि से तो वैसे भी इसकी कोई उम्मीद नहीं थी।
धनी किसान आन्दोलन के नेतृत्व के सामने अपने लक्ष्य और उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट हैं, और वह है, लाभकारी मूल्य को बचाना। अब तक वह इस बात को खुलकर बोल नहीं रहा था। लेकिन इस समय यह आन्दोलन गिरावट के दौर में है, चाहे इस बात को कोई माने या न माने, और अब यह बात भी कुलक नेतृत्व को खुले तौर पर माननी पड़ रही है क्योंकि वे सरकार को सन्देश देना चाहते हैं कि वे तीनों क़ानूनों की वापसी पर अड़ने के अप्रोच को छोड़ने को तैयार हैं, बशर्ते कि लाभकारी मूल्य की व्यवस्था को सरकार डिस्टर्ब न करे। सच यही है, किसी को अच्छा लगे या बुरा। लेकिन अब मोदी सरकार वार्ता के लिए पंजाब के कुलक नेतृत्व को आमंत्रित नहीं कर रही है। राकेश टिकैत के नेतृत्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुलक-धनी किसानों की जुटान आन्दोलन के केन्द्र में आ गयी है, या ला दी गयी है। राकेश टिकैत ने “प्रधानमन्त्री की गरिमा क़ायम रखने” का वायदा किया है और उसके भाई नरेश टिकैत ने “आन्दोलन की सफलता के लिए” अयोध्या जाकर रामलला के आगे मत्था भी टेक दिया है।
ज़ाहिर है कि आन्दोलन के केन्द्र में अगर टिकैत आ जाये और मोदी सरकार उसके साथ वार्ता कर कोई समझौता कर ले, तो पंजाब के कुलक आन्दोलन और उसके नेतृत्व का भारी नुकसान होगा और पंजाब के खेतिहर बुर्जुआ वर्ग के सारे उद्देश्य पूरे नहीं होंगे। साथ ही, इस नेतृत्व की ज़मीन अपने इलाक़ों में भी कमज़ोर पड़ेगी। इसीलिए भारतीय किसान यूनियन के नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने टिकैत से कहा था कि आप उत्तर प्रदेश व अन्य राज्यों में खेती क़ानूनों के बारे में पंचायतें करिये, आपको पंजाब और हरियाणा में आकर पंचायतें करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि पंजाब और हरियाणा में तो इसे लेकर बहुत जागरूकता है। इस सबके चलते इस समय पंजाब के कुलक-धनी किसान आन्दोलन में अन्दर ही अन्दर निराशा और खलबली है। यही कारण है कि इसका “कोई समझौता नहीं” वाला नेतृत्व समझौता करने के लिए सारे संकेत दे रहा है। लेकिन मोदी सरकार अब उसे भाव ही नहीं दे रही है।
इन सब बातों के मद्देनज़र जोगिन्दर सिंह उग्राहां का बयान एकदम स्पष्ट है। समझौता करने और जल्द से जल्द समझौता करने की खलबली उनके नेतृत्व में बढ़ रही है। दिक्कत यह है कि उग्राहां समेत अन्य तमाम अन्य कुलक यूनियनों के नेताओं ने पहले ही आन्दोलन में शामिल धनी व उच्च-मध्यम किसानों के बीच एक ऐसा माहौल बना दिया है कि तीन क़ानूनों की वापसी से कम किसी माँग पर नहीं मानना है। उग्राहां ने उपरोक्त साक्षात्कार में ख़ुद माना है कि स्वयं कुलक नेताओं द्वारा “कोई समझौता नहीं” का जो माहौल बनाया गया है, उसके कारण काडर को किसी बीच के समझौते पर राज़ी करना मुश्किल है, लेकिन उग्राहां ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि अगर लाभकारी मूल्य को प्रभावित करने वाला क़ानून वापस हो जाता है तो वे अपने कुलक काडर को समझौते के लिए राज़ी करने में सक्षम हो जायेंगे।
यह भी सच है कि आन्दोलन में शामिल खालिस्तानी तत्वों के नेतृत्व की ओर से पूरे कुलक आन्दोलन पर काफी दबाव है। लेकिन जोगिन्दर सिंह उग्राहां ने 26 जनवरी की घटना के बाद खालिस्तानियों और सिख धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तों पर जो स्टैण्ड लिया है, वह बदला हुआ नज़र आ रहा है। वही जोगिन्दर सिंह उग्राहां जिन्होंने 26 जनवरी की घटना के बाद कहा था कि आन्दोलन में धार्मिक व अलगाववादी ताक़तों को हाशिये पर डालना चाहिए था, जिसमें देरी के कारण ही 26 जनवरी की घटना घटी, अब मौजूदा साक्षात्कार में खालिस्तानियों के बारे में उनके स्वर में कोई आक्रामकता नहीं है, उल्टे वह कह रहे हैं कि सिर्फ़ खालिस्तानी ही नहीं वे भी सिख समुदाय से आते हैं और कोई डरपोक नहीं हैं। वह क्या कहते हैं: “वे (खालिस्तानी) हमसे बोलते हैं, ‘दूध लो, पानी लो, लेकिन तीन क़ानूनों की वापसी करवाये बिना दिल्ली से वापस आने की हिम्मत मत करना।’ एक ने तो एक साक्षात्कार में यह भी कहा कि अगर हम तीनों क़ानूनों को वापस करवाये बग़ैर वापस आये तो हमारा भी वही हश्र होगा जो (अकाली दर अध्यक्ष) संत लोंगोवाल का हुआ था (जिनका केन्द्र के साथ पंजाब समझौता करने के लिए कत्ल कर दिया गया था)। हम भी सिख समुदाय से आते हैं। हम डरपोक नहीं हैं।”
ज़ाहिर है, खालिस्तानियों से न डरने का वास्ता देने के लिए कोई कम्युनिस्ट अपनी धार्मिक पहचान को आगे नहीं करेगा बल्कि कम्युनिस्टों ने ही खालिस्तानियों के ख़िलाफ़ संघर्ष में कैसी वीरता की मिसालें क़ायम की थीं, उनकी बात करेगा। यह ग़ौरतलब है कि खालिस्तानियों की धमकी के जवाब में जोगिन्दर सिंह उग्राहां को सिख धार्मिक पहचान का सहारा लेना पड़ रहा है। राजनीतिक संघर्ष में चाहे कुछ भी हो, यहाँ पर खालिस्तानियों ने उग्राहां से विचारधारात्मक लड़ाई तो जीत ही ली।
अब आते हैं ‘द हिन्दू’ में छपी दूसरी ख़बर पर। पिछले 5 मार्च को प्रकाशित इस ख़बर में संयुक्त किसान मोर्चा के एक प्रमुख नेता दर्शन पाल का बयान है, जिसमें दर्शन पाल ने साफ़ शब्दों में स्वीकार किया गया है कि आन्दोलन के नेतृत्व ने रणकौशलात्मक तौर पर सारी चीज़ों का सही मूल्यांकन नहीं किया था, जिसके कारण एक “कोई समझौता नहीं” का अप्रोच आन्दोलन में शामिल काडर और किसान समुदाय में भी चला गया है और अब इस अप्रोच से पीछे हटना आन्दोलन के नेतृत्व के लिए बहुत मुश्किल हो गया है। ख़बर का लिंक लेख के अन्त में दिया गया है।
दर्शन पाल ने कहा है कि आन्दोलन को “ज़िद्दी रवैया नहीं अपनाना चाहिए”। वह कहते हैं कि लोगों में नेतृत्व ने ख़ुद ही उम्मीदें बढ़ा दीं, जिसके कारण अब नेतृत्व के लिए पीछे हटना मुश्किल हो गया है! उनका कहना है कि आन्दोलन को लाभकारी मूल्य के मुद्दे समेत सभी मुद्दों पर और विस्तार से चिन्तन करके यह मूल्यांकन करना चाहिए कि वे ज़्यादा से ज़्यादा क्या हासिल कर सकते हैं और उसके अनुसार वार्ता में हर सवाल पर एक लचीला रवैया रखना चाहिए।
यह बयान काफी महत्वपूर्ण है और यह दिखलाता है कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं है, बल्कि शासक वर्ग के ही कनिष्ठ साझीदार का आन्दोलन है। यही वजह था कि उसके पास ऐसे संसाधन हैं, जिनका ज़िक्र बार-बार किया जाता है; यही कारण है कि मोदी सरकार ने इसके प्रति वह रवैया नहीं अपनाया जो कि पूँजीवादी व्यवस्था और विशेष तौर पर फ़ासीवादी सरकारें मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता के आन्दोलनों पर अपनाती हैं। यह बयान और साथ ही जोगिन्दर सिंह उग्राहां के ऊपर दिये बयान ने यह स्पष्ट कर दिया है कि शासक वर्ग के एक हिस्से के रूप में राजनीतिक बर्ताव करते हुए, मौजूदा आन्दोलन का नेतृत्व सरकार के साथ “माण्डवली” के लिए तैयार हो रहा है और इस प्रक्रिया में लाभकारी मूल्य को छोड़कर अन्य माँगों पर “लचीला रवैया” अपनाने को तैयार है। शासक वर्ग के प्रतिनिधियों से आप इसी तरह के अप्रोच और रवैये की उम्मीद कर सकते हैं।
कुछ निष्क्रिय परिवर्तनवादी बुद्धिजीवी और सोशल मीडिया पर सक्रिय लेखक पत्रकार हम पर यह आरोप लगा रहे हैं कि हम कॉरपोरेट घरानों के समर्थक हैं क्योंकि हम धनी किसानों-कुलकों की माँग का समर्थन नहीं कर रहे हैं! वे दावा करते हैं कि हम किसानों के तबाह होने पर ताली बजा रहे हैं, जो कि सही कम्युनिस्ट कार्यदिशा नहीं है। हम पहले ही इन मूर्खतापूर्ण आरोपों का खण्डन कर चुके हैं। वास्तव में, इन लोगों के पास कोई तार्किक जवाब नहीं बचा है, इसलिए वे झूठे आरोप गढ़ रहे हैं। जब किसानों के बरबाद होने की बात होती है, तो यह पूछना पड़ेगा कि कौन-से किसान की बरबादी? ग़रीब और निम्न-मँझोले किसानों की बरबादी तो पहले ही उन धनी किसानों-कुलकों-आढ़तियों की मुनाफाख़ोरी और सूदख़ोरी के कारण हो रही थी, जिनकी माँगों को लेकर मौजूदा धनी किसान आन्दोलन चल रहा है। हम बड़ी पूँजी के हाथों बरबाद होने वाली छोटी पूँजी (खेतिहर बुर्जुआ वर्ग) को बचाने का नारा भला क्यों देंगे?
दूसरी बात, बड़ी पूँजी के प्रवेश से ग़रीब किसानों व निम्न-मँझोले किसानों के उजड़ने की रफ्तार में कोई गुणात्मक अन्तर आयेगा, इसका कोई ठोस या आनुभविक प्रमाण मौजूद नहीं है। बस फ़र्क इतना आयेगा कि उन्हें लूटने वाले प्रमुख वर्ग में धनी किसानों-कुलकों (खेतिहर पूँजीपति वर्ग) की जगह कालान्तर में मुख्य तौर पर बड़ी पूँजी आ जायेगी, जबकि खेतिहर पूँजीपति वर्ग इस लूट के कनिष्ठ साझीदार की भूमिका में आ जायेगा और कई जगहों पर बड़ी इज़ारेदार पूँजी द्वारा सहयोजित कर लिया जायेगा, जैसा कि कई उन्नत पश्चिमी देशों में हुआ है।
तीसरी बात, ग़रीब व निम्न-मँझोले किसानों की माँगें धनी किसानों से भिन्न हैं। (इन माँगों के बारे में पाठक नीचे दिये गये लिंक पर जाकर ‘मज़दूर बिगुल’ अख़बार में प्रकाशित ‘आह्वान’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा की टिप्पणी पढ़ सकते हैं।) हम यह भी बता चुके हैं कि धनी किसान-कुलक इन माँगों का विरोध करते हैं। ऐसे में, सर्वहारा वर्ग सभी किसानों की तबाही पर निश्चित ही ताली नहीं बजायेगा और ग़रीब किसानों व निम्न-मँझोले किसानों की माँगों के लिए लड़ने के वास्ते उन्हें संगठित करने का प्रयास भी करेगा। लेकिन बड़ी पूँजी के हाथों धनी किसानों-कुलकों के उजड़ने पर भला वह क्यों छाती पीटेगा?
लेकिन इतिहास सबसे बड़ा पंच होता है। जोगिन्दर सिंह उग्राहां और दर्शन पाल के उपरोक्त बयानों ने उन बातों को बिला शक़ सही साबित किया है जो कि मौजूदा धनी किसान आन्दोलन के विषय में हम शुरू से कहते आ रहे हैं : यह लाभकारी मूल्य पर केन्द्रित आन्दोलन है; लाभकारी मूल्य धनी किसानों व कुलकों की माँग है और आम मेहनतकश ग़रीब आबादी के ख़िलाफ़ जाती है; शहरी और ग्रामीण सर्वहारा वर्ग और ग़रीब व निम्न-मँझोले किसान वर्ग का इससे कोई फ़ायदा नहीं बल्कि नुकसान है; सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लाभकारी मूल्य की व्यवस्था से कोई कारणात्मक सम्बन्ध नहीं है; कारपोरेट पूँजी के विरुद्ध सर्वहारा वर्ग और आम मेहनतकश आबादी धनी किसानों-कुलकों व आम तौर पर छोटे पूँजीपति वर्ग की पालकी का कहार नहीं बनेगी, बल्कि मज़दूरों और मेहनतकश ग़रीब किसानों का राजनीतिक रूप से स्वतंत्र अपना आन्दोलन खड़ा करना होगा। धनी किसानों-कुलकों की माँगों का समर्थन न करने का यह अर्थ निकालना कि आप कॉरपोरेट पूँजी का समर्थन कर रहे हैं, हद दर्जे के सुधारवादी, नरोदवादी और संशोधनवादी सड़ांध से ग्रस्त दिमाग़ की ही उपज हो सकती है।
ऐसे नरोदवादियों, संशोधनवादियों और सुधारवादियों की पूरी सोच वस्तुगत तौर पर दलित-विरोधी भी है। यह सच्चाई सभी जानते हैं कि पंजाब और हरियाणा और साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश के धनी जाट फ़ार्मर व कुलक आज इन प्रदेशों में खेतिहर मज़दूरों के प्रमुख दमनकर्ता वर्ग हैं, जिनमें कि दलित आबादी का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है। इन दलित मज़दूरों की श्रमशक्ति का दोहन करके ही इन वर्गों द्वारा वह बेशी मूल्य निचोड़ा जाता है जो फिर मुनाफे़, लगान व सूद के रूपों में इन वर्गों के कुलकों-फ़ार्मरों, सूदखोरों व आढ़तियों में बँटता है, जो कि अक्सर एक ही व्यक्ति होते हैं। कुछ समय पहले इनमें से कई नरोदवादी, संशोधनवादी और सुधारवादी तो राकेश टिकैत का गुणगान करने लगे थे जो कि दलितों के प्रमुख दमनकारी वर्ग का राजनीतिक प्रतिनिधि होने के साथ-साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमान-विरोधी साम्प्रदायिकता फैलाने वाली प्रमुख शक्ति भी है। ग़ौरतलब है कि नरेश टिकैत द्वारा राम मन्दिर जाकर किसान आन्दोलन की सफलता के लिए पूजा करने की भी किसी कुलक-धनी किसान संगठन ने मुखर रूप से निन्दा नहीं की और न ही संशोधनवादी, नरोदवादी और सुधारवादी कचरे से गन्धाते दिमाग वाले निष्क्रिय “वामपंथी” बुद्धिजीवियों ने इस पर कुछ बोला। यह भी धनी किसान-कुलक आन्दोलन की गोद में बैठने के लिए आतुर इन तमाम लोगों के निकृष्ट कोटि के अवसरवाद को बेनक़ाब कर देता है।

लिंक :
जोगिन्दर सिंह उग्राहां का इण्टरव्यू: newsclick.in/repeal-one-law-putting-hold-other-two-have-shift-delhi-Joginder-singh-ugrahan
दर्शन पाल का बयान: thehindu.com/news/national/skm-leader-hints-at-nuanced-stand-on-demands/article34000088.ece
क्या सारे किसानों के हित और माँगें एक हैं? : mazdoorbigul.net/archives/14269

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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